केंचुआ खाद – कृषि भूमि के लिए जीवन दान

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केंचुआ खाद कृषि भूमि के लिए जीवन दान

 

 

भारत एक कृषि प्रधान देश है। देश कृषि उत्पादन को लेकर हमेशा से अपने आत्मनिर्भरता के लिए जाना जाता है। लेकिन बढ़ती जनसंख्या व जलवायु परिवर्तन के चलते कृषि भूमि की उर्वरा शक्ति कम होती जा रही है। जलवायु परिर्वतन के अलावा रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से भी कृषियुक्त भूमि पर काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस लेख में डेयरी ज्ञान आपको कृषि भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए एक सरल उपाय बताने जा रहा है जिसे केंचुआ खाद के नाम से जाना जाता है।

केंचुआ खाद में केंचुआ द्वारा जैव – विघटनशील व्यर्थ पदार्थों के भक्षण तथा उत्सर्जन से उत्कृष्ट कोटि की कम्पोस्ट (खाद) बनाने को वर्मीकम्पोस्टिंग कहते हैं। वर्मीकम्पोस्टिंग खाद का इस्तेमाल करने से मिट्टी में एक नयी जान आती है और फसलों की पैदावार व गुणवत्ता में भी इजाफा होता है। यानि कि वर्मी कम्पोस्ट भूमि की भौतिक, रासायनिक व जैविक दशा में सुधार कर मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को टिकाऊ बनाने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देता है।

 

तो आइए सबसे पहले जानते हैं कि केंचुआ खाद कैसे बनाते हैं व इसके लाभ-

  • वर्मीकम्पोस्टिंग खाद बिना गंध के स्वच्छ व कार्बनिक पदार्थ होते है। केंचुआ खाद में कई मात्रा में नाइट्रोजन, पोटाश औऱ पोटाशियम जैसे कई जरूरत आवश्यक सूक्ष्म तत्व शामिल है।
  • केंचुआ खाद निगला हुआ गोबर, घास- फूस जैसे कार्बनिक पदार्थ है जिनके पाचन तंत्र से पिसी हुई अवस्था में बाहर आता है।
  • इस खाद को बनाने के लिए नम वातावरण की जरूरत होती है। जिसके लिए घने छायादार पेड़ के नीचे खाद बनाने की प्रक्रिया को किया जाना उचित होता है।
  • स्थान के चुनाव के समय उचित जल निकास व पानी के स्त्रोत के नजदीक का विशेष ध्यान रखना चाहिए|
  • केंचुआ खाद की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे साल के बारह महीने बनाया जा सकता है। लेकिन 15 से 20 डिग्री सेंटीग्रेड तापक्रम पर केंचुए अधिक कार्यशील होते हैं|
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नीचे दी गयी तालिका में केंचुआ खाद में पाए जाने वाले आवश्यक पोषक तत्वों के बारे में बताया गया है-

 

तत्व केंचुआ खाद (प्रतिशत मात्रा)

  • नाइट्रोजन 00 – 1.60
  • फास्फोरस 50 – 5.04
  • पोटाश 80 – 1.50
  • कैल्शियम 44
  • मैगनीशियम 15
  • लोह (पीपीएम) 20
  • मैंगनीज (पीपीएम) 51
  • जिंक (पीपीएम) 43
  • कापर (पीपीएम) 89
  • कार्बन- नाइट्रोजन अनुपात 50
  • खाद बनाने में लगने वाला समय 3 महीने
  • कीड़े और बीमारियों के लिये प्रतिरोधकता विकसित हो पाती है

 

वर्मीकम्पोस्ट का उपयोग कैसे करें-

खेत में पहले 5 टन प्रति प्रति हैक्टेयर, दूसरे साल 2.25 टन प्रति हैक्टेयर व तीसरे साल 1.25 टन वर्मीकम्पोस्ट का उपयोग किया जाना है।

 

फसल का नाम : मात्रा –

  • गन्ना : 00 टन प्रति हैक्टेयर
  • कपास : 75 टन प्रति हैक्टेयर
  • चावल, गेहूँ, ज्वार, बाजरा, मक्का : 50 टन प्रति हैक्टेयर
  • मूंगफली, अरहर, उर्द, मूंग : 50 टन प्रति हैक्टेयर
  • सब्जियाँ (आलू, टमाटर, बैंगन, गाजर, फूलगोभी, प्याज, लहसुन आदि) : 87 टन प्रति हैक्टेयर
  • गुलाब, चमेली, गेंदा फूल आदि : 75 टन प्रति हैक्टेयर
  • मिर्च, अदरक, हल्दी आदि : 75 टन प्रति हैक्टेयर
  • अंगूर, अनन्नास, केला आदि : 75 से 5.00 टन प्रति हैक्टेयर
  • नारियल, आम : 4 से 5 किलोग्राम प्रति पौधा (5 वर्ष से कम)

8 से 10 किलोग्राम प्रति पौधा (5 बर्ष से अधिक)

  • नींबू, सन्तरा, मुसम्मी, अनार : 3 से 4 किलोग्राम प्रति पौधा (5 बर्ष से कम) 6 से 8, किलोग्राम प्रति पौधा (5 बर्ष से अधिक)
  • गमले में लगने वाले पौधे : 250 ग्राम प्रति गमला

 

केंचुआ खाद (वर्मीकम्पोस्ट) के उपयोग की मात्रा और विधि

वर्मी कम्पोस्टिंग खाद के लाभ-

  • जैसा कि हमने आपको ऊपर बताया कि यह किसी भी माह में तैयार किया जा सकता है व यह सामान्य कम्पोस्टिंग खाद से एक तिहाई समय में तैयार हो जाता है।
  • इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, एन्जाइम्स, विटामिन तथा वृद्विवर्धक हार्मोन प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
  • वर्मी कम्पोस्ट वाली मिट्टी में भू-क्षरण कम होता है तथा मिट्टी की जलधारण क्षमता में सुधार होता है।
  • इसमें पाए जाने वाले हयूमिक एसिड से जमीन की पी एच मान को कम करने में सहायता मिलती है।
  • इससे बनाने के लिए हम अपने आस-पास के कुड़े कचरे का उपयोग किया जाता है, जिससे वातावरण भी साफ सुथरा रखा जा सकता है।
  • इसमें नाइट्रोजन 1.00 से 1.60 प्रतिशत, फास्फेट 0.50 से 5.04 प्रतिशत और पोटाश 0. 80 से 1.50 प्रतिशत तक पाया जाता है, जो कि गोबर की खाद, शहर या गाँव की कम्पोस्ट तथा हरी खाद में उपलब्ध मात्रा से काफी अधिक है|
  • इस खाद के उपयोग से खरपतवार व कीड़ो से होने वाले नुकसान में भी कमी आती है व पौधों की रोग प्रतिकारक क्षमता बढ़ती है।
  • केंचुआ खाद के इस्तेमाल से जमीन के अंदर हवा का संचार बढ़ती है।
  • लागत में किफायती है व किसान अपने स्वंय की लागत पर आसानी से तैयार कर सकते हैं।
  • भूमि में कटाव को कम करती है और प्रदूषण रहित पर्यावरण के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देती है|
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