घोड़ा

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घोड़ा
घोड़ा
भूटिया

काठियावाड़ी

मनीपुरी

मारवाड़ी

स्पीति

ज़ासंकारी

इंडियन हाफ ब्रैड डैकनी

इंडियन कंटरी ब्रैड

अरबी

थोरोब्रैड

मिनिएचर पोनी

मारवाड़ी

यह नसल राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में विकसित की गई थी। अब यह मारवाड़ क्षेत्र, जिसमें गुजरात के आस पास के और राजस्थान के इलाके जैसे उदयपुर, जलोर, जोधपुर और राजसमंद शामिल है, में पायी जाती है। शारीरिक विशेषताओं के साथ-साथ यह नसल अपने व्यक्तित्व के लिए भी जानी जाती है। मारवाड़ी घोड़ों का घुड़सवारी और खेल के प्रयोजनों के लिए उपयोग किया जाता है। मारवाड़ी घोड़ों का काला, सफेद, खाकी और बादामी रंग का शरीर और उस पर सफेद रंग के धब्बे होते हैं। इनका शरीर सघन, आगे की टांगें सीधी और अच्छी तरह विकसित छाती होती है। इस नसल के घोड़े 130-140 सैं.मी. लंबे और 150-160 सैं.मी. ऊंचे होते हैं। इनके मुंह की लंबाई 22 सैं.मी., कान की लंबाई 18 सैं.मी. ओर पूंछ 47 सैं.मी. लंबी होती है। मारवाड़ी घोड़ों की लंबाई और ऊंचाई काठिवावाड़ी घोड़ों से ज्यादा होती है।

चारा
घोड़े को स्वस्थ, पोषक और भूख को संतुष्ट करने वाले भोजन की आवश्यकता होती है। ये अनाज के स्प्राउट्स खाना पसंद करते हैं। ये विभिन्न प्रकार के अनाज जैसे जौं के स्प्राउट खाना पसंद करते हैं। मुख्यत: जौं के स्प्राउट्स का उपयोग किया जाता है क्योंकि इनमें उच्च पोषक तत्व होते हैं और ये जल्दी अंकुरित होते हैं। जौं के स्प्राउट में 16-18 प्रतिशत प्रोटीन होता है। जौं को घोड़े आसानी से पचा लेते हैं और इसमें नमी की मात्रा भी उच्च होती है। घोड़े के अच्छे प्रदर्शन के लिए, इन्हें कम मात्रा में सूरजमुखी के बीज दिए जाते हैं इससे उनके शरीर में प्रोटीन का स्तर बढ़ जाता है। घोड़े के आहार के लिए केवल चारा पर्याप्त नहीं होता। चारे के साथ-साथ घोड़े की फीड को पूरा करने के लिए सूखा चारा भी दिया जाता है। घोड़े के भार का 2 प्रतिशत के हिसाब से भोजन इसे खुराक के तौर पर दिया जाता है। अनाज के सूखे दाने और सूखी घास इनके आहार में सबसे अच्छी होती है।

नस्ल की देख रेख
घोड़ा पालन के लिए उपयुक्त भूमि जैसे खलिहान या शैड और खुली जगह का चयन किया जाना चाहिए। उन्हें शैल्टर या शैड की आवश्यकता होती है जो घोड़ों को हवा और बारिश से बचा सके। सुनिश्चित करें कि चयनित भूमि में स्वच्छ हवा और पानी की सुविधा हो। सर्दियों में घोड़ों को शैड में रखना चाहिए या ठंड के मौसम में घोड़ों को बचाने के लिए कंबल देना चाहिए और गर्मियों में शैड जरूरी होता है।

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गाभिन घोड़ियों की देखभाल : प्रजनन मुख्यत: मध्य या आखिर बसंत में किया जाता है इसके लिए नर घोड़े की उम्र लगभग 4 वर्ष और घोड़ी की उम्र 5-6 वर्ष होनी चाहिए। प्रजनन के बाद गर्भावस्था की अवधि औसतन 340 दिनों तक की होती है और वे 1 बछेड़े को जन्म देती है। यह माना जाता है कि प्रजनन के बाद घोड़ी के भार में 9-12 प्रतिशत वृद्धि होती है। गाभिन की अवस्था में घोड़ी को उच्च गुणवत्ता वाला अल्फालफा या घास दिया जाता है। घोड़ी के शरीर में कैल्शियम की कमी को पूरा करने के लिए भोजन में नमक-कैल्शियम-फासफोरस मिक्स करके दिया जाता है।

नए जन्मे घोड़े की देखभाल : जन्म के तुरंत बाद बछेड़े की सांस चैक की जाती है। यदि बछेड़ा सांस ना ले रहा हो, तो बछेड़े के शरीर को रगड़ा जाता है या उसके मुंह में हवा दी जाती है। इससे श्वसन प्रणाली को प्रोत्साहित होने में मदद मिलती है। जन्म के तुरंत बाद नाडू को ना काटें क्योंकि यह बछेड़े को घोड़ी से रक्त लेने में मदद करता है। 1-2 प्रतिशत आयोडीन से नाड़ू को साफ करें।

ब्याने के बाद घोड़ी की देखभाल : घोड़ी को नियमित जांच की आवश्यकता होती है। घोड़ी को आराम के लिए अच्छी गुणवत्ता वाला सूखा चारा दें। आहार में प्रोटीन और कैल्शियम ज़रूर होना चाहिए। डीवार्मिंग, आइवरमैक्टिन देकर की जानी चाहिए। आहार में प्रोटीन और कैल्शियम के साथ-साथ विटामिन ए और डी भी जरूर दें।

सिफारिश किया गया टीकाकरण : घोड़े का अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए हर समय टीकाकरण और डी लायसिंग की आवश्यकता होती हैं घोड़े के स्वास्थ्य के लिए इन्फ्लूएंजा टीकाकरण आवश्यक है। कुछ टीके जैसे डीवार्मिंग प्रत्येक वर्ष में एक बार आवश्यक होते हैं। कुछ मुख्य टीके और दवाइयां जो घोड़े के अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए आवश्यक होते हैं, निम्नलिखित हैं।
टैटनस का टीका पहले 3-4 महीने में दें और दूसरा टीका पहले टीके के 4-5 महीने बाद दें।
इक्वाइन इन्फ्लूएंजा के खतरे को कम करने के लिए WEE और EEE की तीन खुराक दें।
वेस्ट नील विषाणु के खतरे से बचाव के लिए 4-6 महीने में एक बार दो टीके लगवाएं और फिर पहले टीके के 1 महीने बाद लगवाएं।
बछेड़े के 2-3 महीने का हो जाने पर 30 दिनों के अंतराल पर टॉक्सोइड टीकाकरण की तीन खुराकें दें।
धमनियों के इकुआइन विषाणु से बचाव के लिए बछेड़े के 6-12 महीने के होने पर एक खुराक दें।

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बीमारियां और रोकथाम
•टैटनस : यह बीमारी क्लॉस्ट्रिडियम बोटुलिनम जीवाणु के कारण होती है। यह बीमारी मुख्यत: किसी चोट या सर्जिकल ऑप्रेशन के कारण होती है।

इलाज : घोड़े में टैटनस बीमारी की रोकथाम के लिए वर्ष में एक बार टैटनस का टीका आवश्य लगवाएं।

•गठिया रोग : यह रोग आमतौर पर घोड़े के बड़े हो जाने पर हमला करता है। इससे जोड़ों में सूजन हो जाती है, जोड़ों के निकट, द्रव का स्तर बढ़ता है और वहां पर सूजन दिखाई देती है। परिणामस्वरूप घोड़ा असुविधा दिखाता है, और अत्याधिक दर्द में होता है।

इलाज : फिरोकॉक्सिब एक ओरल पेस्ट है जिसका उपयोग गठिये के इलाज के लिए किया जाता है।

•अज़ोतूरिया : इसके कारण मासपेशियों के टिशु नष्ट होते हैं। यह मुख्य रूप से विटामिन की कमी के कारण या घोड़ों को खराब स्थिति में रखने से होता है। इसके कारण घोड़ों को मांसपेशियों में दर्द, शरीर का अकड़ना और घोड़े की अजीब चाल हो जाती है।

•डिसटेंपर : यह एक श्वसन संक्रमण है जो मुख्यत: बैक्टीरिया के कारण होता है। इसके लक्षण नाक का बहना, बुखार और भूख में कमी होना है।

इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए वर्ष में एक बार घोड़े का टीकाकरण करवायें।

•जुखाम : यह एक संक्रमण बीमारी है जो विषाणु के कारण होती है। इसके लक्षण सफेद बलगम के साथ नाक का बहना, खांसी, भूख में कमी और तनाव का होना है।

इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए वर्ष में दो बार टीकाकरण करवायें।

•रहाइनोनिउमोनाइटिस : यह एक ऊपरी श्वसन बीमारी है जो मुख्य तौर पर विषाणु के कारण होती है। इसके लक्षण ठंड, खांसी, नाक का बहना और बुखार आदि हैं।

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इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए वर्ष में दो बार रहाइनोनिउमोनइटिस का टीकाकरण करवायें।

•इकुआउन इंसीफालोमाइलिटिस : यह विषाणु के कारण होने वाली बीमारी है। यह बीमारी मुख्यत: दिमाग को नुकसान पहुंचाती है और घातक हो सकती है। इसके लक्षण- बुखार, उत्तेजना और फिर तनाव का होना है। कुछ समय के बाद घोड़े पैरालाइज़ हो जाते हैं और फिर 2-4 दिनों में मर जाते हैं।

इलाज : उत्तरी क्षेत्रों में वर्ष में एक बार टीकाकरण करवाया जाता है और गर्म एवं नमी वाले क्षेत्रों में 3 से 6 महीने के अंतराल पर दवाई की अतिरिक्त खुराक दी जाती है।

•रेबिज़ : यह बीमारी मुख्यत: किसी अन्य जानवर के काटने से होती है, जो रेबिज़ से संक्रमित हो। इसके लक्षण – असामान्य व्यक्तित्व या व्यवहार परिवर्तन, तनाव और सांमजस्य में कमी होना है।

इलाज : इस बीमारी से बचाव के लिए वर्ष में एक बार रेबिज़ का टीका लगवाएं।

•आंतों के कीड़े : घोड़ों में मुख्यत: आंतों के कीड़े होते हैं, जिसका नियमित डीवार्मिंग द्वारा इलाज होता है।

इलाज : डीवॉर्मिंग दवाइयां घोड़ों को कीड़े से बचाव के लिए दी जाती हैं। गीले क्षेत्रों में यह 1 महीने के अंतराल पर और रेगिस्तानी क्षेत्रों में 3 महीने के अंतराल पर दी जाती हैं।

•कॉलिक : यह मुख्य रूप से पेट का दर्द है, जिसके कारण छोटे से बड़ा दर्द होता है। यह बीमारी कीड़े, खराब भोजन और गैस के कारण होती है। इसके लक्षण जानवर का सुस्त होना और उसका अपने पेट पर काटना है।

इलाज : घोड़ों का वॉर्मिंग, अंतरग्रहण को कम करने में मदद करता है। कॉलिक बीमारी से बचाव के लिए घोड़े को आहार में चोकर या चुकंदर का गुद्दा नियमित दें।

•लेमिनिटिस : यह बीमारी अनाज के ज्यादा खाने के कारण या हरी भरी घास ज्यादा खाने के कारण होती है।

इलाज : पशु चिकित्सक की सहायता से तुरंत फीडर से अनाज निकालें।

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