दुधारू पशुओं के आहार में सूक्ष्म खनिज तत्वों का महत्व

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By-Dr.Savin Bhongra
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दुधारू पशुओं के आहार में सूक्ष्म खनिज तत्वों का महत्व

दुधारू पशु के प्रजनन और दूध उत्पादन के लिए उर्जा और प्रोटीन के अतिरिक्त खनिज तत्वों का विशेष महत्व है। कैल्शियम, फास्फोरस, मैग्नीशियम, सोडियम, क्लोराइड मुख्य खनिज तत्व है। कोबाल्ट, आयरन, मैंगनीज, आयोडीन, सेलेनियम, जिंक, कॉपर, क्रोमियम, सूक्ष्म खनिज है अर्थात इनकी आवश्यकता बहुत कम केवल मिलीग्राम प्रति किलो खनिज मिश्रण ही होती है। पशुपालक दुधारू पशु के लिए ऊर्जा, प्रोटीन और मुख्य खनिज तत्वों पर तो विशेष ध्यान देते हैं, क्योंकि इनका महत्व और इनकी मात्रा के बारे में पशुपालक कुछ हद तक जानकारी रखते हैं परन्तु सूक्ष्म खनिजों के महत्व के प्रति जागरूक नहीं है। यह जानना नितांत आवश्यक है कि इन सूक्ष्म तत्वों की भी अन्य मुख्य खनिज तत्वों के उपयोग में अहम भूमिका है।

व्यवसायिक खेती के कारण मृदा में इन सूक्ष्म तत्वों की कमी पाई गयी है। इसके कारण पशु चारे में इनकी मात्रा काफी कम है। खाद्य में उपस्थित इन खनिजों का शरीर में अवशोषण काफी कम होता है। सूक्षम तत्वों की आपूर्ति के लिए चारे पर निर्भर न होकर अतिरिक्त खनिज मिश्रण देना आनिवार्य है।

सूक्षम तत्वों को देते समय इनकी पर्याप्त मात्रा का ज्ञान होना आवश्यक है। क्योंकि कई तत्व इनमें से एक दूसरे के विरुद्ध होते हैं। जैसे कि एक तत्व की मात्रा कम या अधिक होने से दूसरे सूक्ष्म तत्वों के अवशोषण में बाधा आती है। इन संभवनाओं को देखते हुए इस लेख में इन तत्वों की पर्याप्त मात्रा दुग्ध उत्पादन, चारा (१किग्रा, शुष्क पदार्थ) गर्भावस्था, शरीर वजन आदि के मापदंडों में दिया है।

कोबाल्ट—————

 

यह तत्व विटामिन बी एक निर्माण में अनिवार्य है। गाय भैंस में विटामिन बी आहार में देना उपयोगी नहीं है। क्योंकि यह इनके शरीर में ही कोबाल्ट द्वारा बनता अहि। यहाँ यह जानना जरुरी है कि दुधारू पशु में पेट के चार हिस्से होते हैं। रुमेन, रेटयुकुल्मम ओमेजम तथा आबोमेंजम, इनमें रुमेन सबसे बड़ा हिस्सा होता है। रुमेन में लाखों की संख्या में कई प्रकार के जीवाणु होते हैं, जो पशु के लिए आवश्यक पोषक तत्व तैयार करते हैं। विटामिन बी, इन्हीं जीवाणुओं की मदद से तैयार होता है। विटामिन बी, आवश्यक मात्रा में शरीर में नहीं बनेगा जिससे खून में ग्लूकोज की कमी आ जाएगी। ऐसे समय शरीर की वसा का इस्तेमाल करेगा। इससे खून में पढ़ी फैटी एसिड बढ़ जाएंगी। धीरे-धीरे ये लीवर में जमा होकर लीवर का कार्यक्षमता को कम कर देते हैं। ऐसी परिस्थितियों में पशु में कीटोसिस की आशंका बढ़ जाती है। पशु चारा खाना कम कर देता है और कमजोर हो जाता है। खाद्य में कोबाल्ट की कमी से पशु में कमजोरी आना, पशु का विकास धीमी गति से होना, एनीमिया, प्रसूति के बाद गर्भाशय पूर्वावस्था में देर से आना जिससे अगला बच्चा देर से होना, अनियमित मदचक्र, बार-बार कृत्रिम गर्भाधान करना, दुग्ध उत्पादन में कमी आना आदि समस्याएं उत्पन हो सकते हैं।

दुधारू पशु के लिए कोबाल्ट का महत्व ब्याने के 21 दिन पहले और 21 दिन ब्याने के बाद अधिक होता है। इन दिनों पशु खाना कम कर देता है और ग्लूकोज की खपत भ्रूण बढ़ने के साथ-साथ दुग्ध उत्पादन में अधिक होती है। ऐसी नाजुक स्थिति में कोबाल्ट की कमी से आवश्यक मात्रा में बी, नहीं बनेगा जिससे खून में ग्लूकोज की कमी आ सकती है। ब्याने के बाद पशु बीमार होना या दुग्ध उत्पादन में कमी होना आदि समस्याओं से दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में भारत एक अग्रगण्य देश के रूप में उभर रहा है। इस वितवर्ष में भारत का दुग्ध उत्पादन 143 मिलियन टन है जो कि विश्व के कुल दुग्ध उत्पदन का 16% है। श्वेत क्रान्ति के इस आयक प्रयासों में, सुनियोजित योजना विविध डेरी विकास कार्यक्रमों, कृषकों, सक्रिय सहकारिताओं की विशेष भूमिका रही है। दुग्ध एवं दुग्ध उत्पादन भारतीय खाद्य व्य्वस्स्था के महत्व पूर्ण अंग है और इसकी मांग दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। डेरी व्यवसाय भी करोड़ों सीमान्त और छोटे किसानों के आजीविका निर्वाह का महत्वपूर्ण स्रोत बन गया है। पशुपालन व्यवसाय मुख्यतः हरे चारे पर निर्भर करता है क्योंकि हरा-चारा ही पशुओं के लिए पोषक तत्वों का एक मात्र सस्ता एवं सूक्ष्म स्रोत है। अतः पशुपालन व्यवसाय की सफलता के लिए पशुओं को वर्षभर हरे चार की उपलब्धता करना आवश्यक है। वर्तमान में हमारे देश में 63% हरा चारा एवं 24% सूखे चारे की कमी, यह मांग आगामी वर्षों में और ज्यादा बढ़ेगी। बढ़ती हुई चारे की मांग की आपूर्ति को केवल प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाकर ही पूरा किया जा सकता है। प्रस्तुत डेरी समाचार अंक में पशुपोषण के आवश्यक सूक्षम तत्व, पशुओं के लिए पानी का महत्व अजोला व शुगरग्रेज चारे हेतु नवीन विकल्प तथा बहुवर्षीय चारे के बारे में आलेख प्रस्तुत किये गये हैं आशा हैं किसान भाइयों को या अंक लाभकारी सिद्ध होगा।

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सेलेनियम———–

पशु प्रजनन प्रक्रिया के दौरान और प्रजनन के बाद उत्पन्न होने वाले विकारों से पशु स्वास्थ्य और दुग्ध उत्पादन में गिरावट आती है जिससे पशुपालक का काफी नुकसान होता है। प्रजनन विकारों से पशु की रक्षा करने के साथ-साथ पशु और नवजात बच्चों की रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ाने के ऊद्देश्य से सेलेनियम का बाकी सूक्ष्म तत्वों से अधिक महत्व है। प्रजनन के बाद जेर अटकना, गर्भाशय खराब होना, अंडाशय में रसौली, ज्यादा दूध देने वाले पशु में सामान्य रोग जिससे अनियमित मदचक्र, गर्भधारण न होना, अयन में द्रव जमा होना, थनैला रोग, प्रतिकारक शक्ति कम होना, गर्भधारण देर से होना, दुग्ध उत्पादन में गिरावट आना आदि समस्याओं उत्पन्न हो सकती है। खाद्य में सेलेनियम की पर्याप्त मात्रा होने से इन सभी समस्याओं से पशु को बचाया जा सकता है।

एक किलो दूध में 0.01-0.025 मि.ग्रा. सेलेनियम स्रावित होता है। 0.3 मि.ग्रा. शुष्क पदार्थ सेलेनियम सभी दुधारू पशु के लिए पर्याप्त होता अहि। गर्भावस्था के दौरान 1.4 मि.ग्रा. प्रतिदिन और गर्भावस्था के अंतिम 21 दिनों में में 1.7 मि.ग्रा, प्रति सेलेनियम पर्याप्त है। दुग्ध उत्पादन के दौरान 10 किलो दूध देने वाले पशु के लिए 2.5 मि.ग्रा. और 20 किलो दूध देने वाले 3.0 मि.ग्रा. प्रतिदिन सेलेनियम पर्याप्त है। 6 मि.ग्रा. सेलेनिय्म प्रतिदिन ज्यादा दुध देने वाले पशु को थनैला रोग से बचाता है। चारे में कैल्शियम की मात्रा कम से कम 0.5% और ज्यादा से ज्यादा 1.3% होने से सेलेनियम का अवशोषण कम होता है। खाद्य में सल्फर की मात्रा अतिरिक्त होने से सेलेनियम के अवशोषण में बाधा आती है।

आयोडीन—————

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कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और वसा के चयापचन के लिए थायरोक्सिन हारमोंस की आवश्यकता होती है। शरीर में ग्लूकोज अतिरिक्त होने पर ग्लूकोज को संचित करना और ग्लूकोज की कमी होने पर संचित ग्लूकोज उपलब्ध कराना आदि के लिए थायरोक्सिन की आवश्यकता होती है। ग्लूकोज के अलावा प्रोटीन उपलब्धता बढ़ाने के लिए भी थायरोक्सिन की आवश्यकता होती है। दुग्ध उत्पादन के उद्देश्य से थायरोक्सिन हार्मोन बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है। थायरोक्सिन हार्मोन बनाने के लिए आयोडीन आवश्यक है। गर्भावस्था की आखिरी दिनों में दुग्ध उत्पादन और ठण्ड के समय थायरोक्सिन का उत्पादन बढ़ जाता है। पशु आहार में आयोडीन की मात्रा 0.6 मि.ग्रा. 100 किलो शरीर बहार पर्याप्त है। एक किलो दूध में 30-300 मि.ग्रा. आयोडीन स्रावित होता है। ज्यादा दूध देने वाले पशु में थायरोक्सिन का उत्पादन 2-3 मि.ग्रा. गुणा बढ़ जाता है। इसलिए इनके आहार में आद्योदीन की मात्रा 1.5 मि.ग्रा. प्रति 100 किलो शरीर भार होना चाहिए। चारे में पत्तागोभी, सरसों, शकरकंद, सोयाबीन, चुकंदर, शलजम आदि होने से आयोडीन के अवशोषण में बाधा आती है इस परिस्थिति में आयोडीन की मात्रा अधिक होनी चाहिए। चारे में आयोडीन 0.5 मि.ग्रा. प्रति किलो शुष्क पदार्थ से अधिक नहीं होना चाहिए।

जिंक—————

पशु शरीर में कोशिकाओं की वृद्धि, हारमोंस के निमार्ण, उपापचयन, भूख नियंत्रण, रोग प्रतिकारक शक्ति आदि नियंत्रित करने वाले एंजाइम के लिए जिंक की आवश्यकता होती है। खुर और स्तन क बाहरी सुरक्षा आवरण (कोइटिन) बनाने में जिंक की आवश्यकता होती है। खुर और अयन स्वास्थ्य के साथ-साथ शरीर में तैयार होने वाले हानिकारक ऑक्सीकारक तत्वों को क्रियाविहीन करने के लिए जिंक पर निर्भर एंजाइम की आवश्यकता होती है। चारे में जिंक की पर्याप्त मात्रा खून और कालोस्ट्रम एम्युनोग्लोबिंस बढ़ाता है जो पशु स्वास्थ्य और नवजात बछड़ों के लिए अधिक लाभदायक है। जिंक की कमी से भूख में कमी, पशु का विकास रुक जाना, वृषन का विकास न होना, सींग और खुर कमजोर होना, अंडाशय का विकास न होना, अनियमित मदचक्र, गर्भाधारण डेरी से होना आदि समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। 500 किलो के पशु के लिए गर्भावस्था के दौरान आहार में जिंक की मात्रा 410 मि.ग्रा. प्रतिदिन और 20 किलो दूध देने वाले पशु के ली 670 मि.ग्रा. प्रतिदिन पर्याप्त है। बीमारी और तनाव इन परिस्थितियों में शरीर में जिंक की जरूरत बढ़ जाती है। जिंक और कॉपर एक दूसरे के विरुद्ध है। खाद्य में जिंक की मात्रा अधिक होने से कॉपर के अवशोषण में बाधा आती है।

कॉपर——————

शरीर में तैयार होने वाले कई अत्यावश्यक एंजाइम और लोहे के अवशोषण के लिए कॉपर की आवश्यकता होती है। शरीर में तैयार होने वाले ऑक्सीकारक तत्वों जो शरीर की कोशिकाओं के लिए हानिकारक होते हैं और इनको नष्ट करने के लिए कॉपर की आवश्यकता होती है। कॉपर की कमी से पशु का विकास धीमी गति से होता है। हड्डियाँ कमजोर होना, प्रजनन क्षमता कम होना, रोगप्रतिकारक क्षमता कम होना, यौवनारम्भ देर से होना, बार-बार गर्भधारण ना करना, भ्रूण मर जाना, जेर अटकना आदि समस्याएं आ सकती है। 500 किलो शरीर बहार वाले पशु के लिए गर्भावस्था के 100 दिन तक 103 मि.ग्रा. प्रतिदिन और 225 से ब्याने तक 140 मि.ग्रा. प्रतिदिन कॉपर पर्याप्त है\ दुग्ध उत्पादन के दौरान 10 किलो दूध देने वाले पशु के लिए 130 मि.ग्रा. और 20 किलो दूध देने वाले पशु के लिए 170 मि.ग्रा. कॉपर प्रतिदिन पर्याप्त है। खाद्य में सल्फर और मोलीब्डनम की अधिक मात्रा होने से कॉपर अवशोषण में बाधा आती है। इसलिए कॉपर और मोलीब्डनम 3:1 के अनुपात में होना चाहिए।

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मैंगनीज—————–

नया विरल तत्वों की तरह मैगनीज शरीर में तैयार होने वाले हानिकारक ऑक्सीकारक पदार्थों को अकार्यक्षम करने में काम आता है। शरीर के ढांचे में उपास्थी को मजबूत बनाने में मैगनीज अत्यावश्यक है। खाद्य में मैगनीज की कमी से पशु का ढांचा विकसित न होना, पशु का विकास धीमी गति से होना, पैरों में कमजोरी, सांधे (ज्वाएंट ) बड़े होना, हड्डियों की ताकत कम होना, पशु कमजोर होना, पैर गुथना आदि समस्याएं उत्पन्न हो सकती है। इन सभी समस्याओं से पशु के प्रजनन पर विपरीत असर पड़ता है। जैसे कि पशु की प्रजनन क्षमता कम होना, गर्भाधारण न होना, पशु का गर्मी में रहना परन्तु गर्मी के लक्षण न दिखना आदि कठिनाइयों से पशुपालक गुजर सकता है। 500 किलो वजन के पशु के लिए गर्भवस्था के दौरान 175 मि.ग्रा. मैंगनीज प्रतिदिन पर्याप्त है। दूध उत्पादन के दौरान 10 लीटर दूध के 175 मि.ग्रा. और 20 किलो दूध के लिए 214 मि.ग्रा. मैंगनीज प्रतिदिन पर्याप्त है।

क्रोमियम————–

संक्रमण काल यानि ब्याने के पहले 21 दिन और 21 दिन बाद, यह समय दुधारू पशु के जीवन का सबसे नाजुक समय होता है। इन दिनों जरा सि अनदेखी पशुपालक का भारी आर्थिक नुकसान है। इन दिनों पशु काफी तनाव में रहता है। इससे शरीर में कुछ हानिकारक तत्वों क्स स्राव बढ़ जाता है। पशु चारा खाना कम कर देता है। खून में ग्लूकोज पर्याप्त मात्रा में होने पर भी कोशिकाओं को उपलब्ध नहीं हो पाता है। शरीर की ऊर्जा की कमी दूर करने के लिए शरीर का वसा प्रयोग होता है। इससे पशु ब्याने के बाद पतला और कमजोर हो जाता है। पशु में किटोसिस उत्पन्न हो सकता है। पशु की रोगप्रतिकारक शक्ति का कम होना आदि समस्याएँ उत्पन्न हो सकती है। अब तक हुए अनुसंधानों से यह अनुमान लगाया गया है कि तनाव के दोनों में खाद्य में क्रोमियम की पर्याप्त मात्रा होने से पशु का चारा खाना बढ़ जाता है। शरीर की कोशिकाओं में ग्लूकोज और प्रोटीन की उपलब्धता बढ़ जाती है। इससे ब्याने के बाद पशु और बच्चा दोनों सेहतमंद रहते हैं और दोनों की रोग प्रतिकारक शक्ति भी बढ़ जाती है। दूध उत्पादन में भारी बढ़ोत्तरी आती है। खाद्य में 10 मि.ग्रा. क्रोमियम प्रतिदिन पर्याप्त है।

 

 

 

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