दुधारू पशुओं में ब्याने की अवधि में होने वाले प्रमुख रोग

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दुधारू पशुओं में ब्याने की अवधि में होने वाले प्रमुख रोग
by-DR RAJESH KUMAR SINGH ,JAMSHEDPUR,JHARKHAND, INDIA, 9431309542,rajeshsinghvet@gmail.com
दुधारू पशुओं में ब्याने/ब्यांत से लगभग एक महिना पहले एवं ब्याने के एक महिना बाद का समय संक्रमण काल कहलाता है। मुख्यतः गाय एवं भैंस में यह एक अति संवेदनशील अवस्था होती है, क्योंकि इस अवधि के दौरान पशु के शरीर में बहुत कम समय में काफी परिवर्तन देखने को मिलते हैं। शरीर में होने वाले इन परिवर्तनों की वजह से इस अवस्था के दौरान पशु को कार्य तनाव का सामना करना पड़ता है। शरीर में होने वाले इन परिवर्तनों एवं तनाव की वजह से पशु के शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है, जिसकी वजह से इन पशु के रोगग्रस्त होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इस अवस्था के दौरान पशु के शरीर में पोषक तत्वों की मांग भी बढ़ जाती है। जिसकी वजह से भी पशु के शरीर में विभिन्न अल्पता रोग होने की संभावनाएं भी बढ़ जाती है। दुधारू पशुओं में इस संक्रमण काल के दौरान होने वाले प्रमुख रोग एवं समस्याएं निम्नलिखित हो सकती है-
(1) दुग्ध ज्वर रोगः
यह रोग मादा पशुओं में ब्याने से कुछ दिन पहले या कुछ दिन बाद तक होने वाला एक खतरनाक रोग है। मुख्यतः (80 प्रतिशत) यह रोग पशु के ब्याने के पश्चात् पहले 48 घन्टों में ज्यादा होता है। देशी भाषा में इस रोग को कई जगह पर पशु का सुन्नपात में आना या पशु का ठण्ड में आना भी कहा जाता है। दुग्ध ज्वर रोग का मुख्य कारण पशु के शरीर में कैल्शियम लवण की कमी होना है। जर्सी गाय एवं जाफराबादी भैंस की नस्लों में यह रोग ज्यादा होता है।
दुग्ध ज्वर रोग की संभावनाएं 5–10 वर्ष की उम्र के पशुओं में मुख्यतः 3–7वीं ब्यांत के दौरान ज्यादा होती है। प्रायः अत्यधिक दूध उत्पादन करने वाले पशुओं में यह रोग ज्यादा देखने को मिलता है। पशु की ब्यांत के दौरान अत्यधिक ठण्डा वातावरण एवं लम्बी दूरी तक पशु को लेकर जाना, आदि भी इस रोग के होने के लिए सहायक सिद्ध हो सकते हैं। दुग्ध ज्वर रोग की शुरूआती अवस्था में मांसपेशियों में जकड़न एवं उत्तेजना देखने को मिल सकती है, जो कि बहुत ही कम समय (कुछ घंटे) के लिए होती है। इसके पश्चात् इस रोग में पशु खड़ा नहीं रह पाता एवं बैठ जाता है, तथा गर्दन को घुमाकर पीछे की तरफ देखने लगता है। इसके अतिरिक्त पशु का सुस्त हो जाना, शरीर का तापमान कम हो जाना, आंखों की पुतलियों का चैड़ा हो जाना, गुदा द्वार से अपने आप गोबर का निकलना एवं पशु द्वारा चारा- पानी खाना बंद कर देना इत्यादि लक्षण भी देखने को मिलते हैं। उपरोक्त अवस्थाओं में अगर उचित इलाज नहीं किया जाता है तो पशु जमीन पर लेट जाता है एवं शरीर का तापमान कम होने के कारण शरीर ठण्डा हो जाता है। ज्यादा देर तक लेटे रहने की वजह से पशु को अफारा भी आ जाता है। इस अवस्था में पशु किसी भी बाहरी हरकत का जवाब देना बंद कर देता है एवं पशु की खून की नस मिलना भी मुश्किल हो जाती है। पशु को इस अवस्था में पहुँचने के बाद उपचार होना भी मुश्किल हो जाता है, एवं मृृत्यु होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
(2) थनैला रोगः
थनैला रोग अयन/गादी/लेवटी एवं थनों को प्रभावित करने वाली समस्या है, जो कि समस्त पशु प्रजातियों के मादा पशुओं जैसे गाय, भैंस, भेड़, बकरी, ऊँटनी इत्यादि में देखने को मिलता है। परन्तु ज्यादातर यह रोग गाय एवं भैंस में पाया जाता है। अधिकांशतः यह रोग जीवाणु संक्रमण के कारण होता है। इस रोग के जीवाणुओं का प्रसारण संक्रमित पानी बिछावन, पशुओं के लिए उपयोग में लाने वाले उपकरण (बर्तन, दूध निकालने के मशीन, आदि) एवं दूध दोहने वाले व्यक्ति के हाथों हो सकता है। पशुशाला में पाई गई अस्वच्छता, गादी या थनों में चोट तथा अपूर्ण दूध निकालना पशु को इस रोग के प्रति संवेदनशील बनाते हैं। सामान्यतः दुग्धकाल के प्रारम्भ या अन्त में यह रोग होने की संभावना ज्यादा होती हैं, तथा व्यस्क/अधिक आयु वाले पशु इस रोग से अधिक प्रभावित होते हैं। थनैला रोग से प्रभावित पशुओं में पाये जाने वाले लक्षणों में दूध की मात्रा एवं गुणवत्ता में गिरावट, गादी या थनों में सुजन एवं दर्द, दूध में छिछड़े या खुन आना या कई बार तो बिल्कुल भी दूध ना आना या दूध की जगह पानी जैसा पदार्थ निकलना, पशु की लेवटी गादी या थनों का पत्थर की तरह सख्त हो जाना या गादी और थनों में गाँठ बन जाना तथा कई बार पशु को बुखार आना एवं भूख का कम हो जाना इत्यादि हो सकते हैं।
बहुत बार पशुओं में अलाक्षणिक थनैला भी देखने को मिलता है, जिसमें केवल पशु के दूध की मात्रा एवं गुणवत्ता में काफी कमी देखने को मिलती है। अलाक्षणिक थनैला के कारण पशुपालकों को ज्यादा आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है, क्योंकि लक्षणविहीन होने के कारण पशुपालकों का ज्यादा ध्यान इस तरफ नहीं जा पाता है एवं समय पर उचित उपचार नहीं होता है। पशुओं में उपर दिए गए कोई भी लक्षण दिखाई देने पर पशु का दूध अपने नजदीकी पशु रोग जाँच प्रयोगशाला में जाँच करवाकर तुरंत पशु-चिकित्सक से उचित एवं पूरा ईलाज करवाना चाहिए। उपचार में देरी करने पर यह रोग बढ़ सकता है तथा ठीक होने की संभावना कम हो जाती है, एवं पशु के एक या एक से अधिक थनों के खराब होने की संभावना रहती है। पशुओं में होने वाला थनैला रोग भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में पशुओं में होने वाली सबसे मँहगी बीमारियों में से एक है, जिसकी वजह से पशुपालकों को बहुत भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। इसके अलावा कई बार थनैला रोग के लिए जिम्मेदार जीवाणुओं की वजह से मनुष्य में भी कई प्रकार के रोग होने का खतरा बना रहता है। इन सबको ध्यान में रखते हुए पशुपालकों को चाहिए कि वो अपने पशुओं को थनैला रोग से बचाने के लिए निम्न बातों को ध्यान में रख सकते हैं- रोगग्रस्त पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग रखें एवं पशु चिकित्सक की सलाह से पूरा ईलाज करवाएं, रोगग्रस्त पशु का दूध सबसे आखिर में निकालें एवं किसी पशु के यदि एक या दो थनों में ही रोग हुआ हो तो रोगग्रस्त थनों का दूध सबसे आखिर में निकालें एवं ऐसे पशु/थनों का दूध पशुशाला, में या इसके आसपास नहीं फैके, दूध निकालते समय पशुशाला, हाथों, पशु की लेवटी एवं थनों की साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखें पशु का दूध समय पर तथा पूरा निकालना चाहिए तथा दूध निकालने के सही तरीका का इस्तेमाल करें एवं अंगूठे का प्र्रयोग नहीं करना चाहिए, दूध निकालने से पहले एवं बाद में पशु-चिकित्सक की सलाह से लाल दवाई या किसी की अन्य जीवाणुरोधक औषधि से टीट-डीपींग का इस्तेमाल करना चाहिए, किसी पशु का दूध निकालना बंद करना हो तो थनों में पशु-चिकित्सक की सलाह लेकर जीवाणु प्रतिरोधक दवाई डालकर छोड़ना चाहिए, पशु की लेवटी एवं थनों पर चोट लगने से बचाना चाहिए, दूध निकालने के उपरान्त पशु को कम से कम आधा घंटा बैठने नहीं देना चाहिए, जिन कारणों की वजह से थनैला रोग होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं, उनका खास ध्यान रखना चाहिए, जैसे कि पशु के थनों या लेवटी पर घाव होना या चोट लगना, ज्यादा दूध देने वाले पशु, पशु की गादी या थनों का ज्यादा नीचे लटके हुए होना, ब्याने के तुरंत पश्चात् पशु के अन्य रोग (दुग्ध ज्वर, जेर ना गिराना एवं बच्चेदानी का संक्रमण इत्यादि) होना। इन सब बातों के अतिरिक्त थनैला रागे के लक्षण दिर्खाइ देने पर तरु तं नजदीकी पश-ु चिकित्सक से पशु का उपचार करवाना चाहिए।
(3) ब्याने के बाद पशु का दूध ना देनाः
कई बार ऐसा भी देखने में आया है कि ब्याने के तुरंत बाद पशु ना तो पावसता है और ना ही बिल्कुल भी दूध देता है। जबकि पशु देखने में पूरी तरह स्वस्थ लगता है, जैसे कि पशु द्वारा चारा-पानी खाना, गोबर-पेशाब करना, चलना-फिरना, उठना-बैठना, शरीर का तापमान, इत्यादि। बहुत बार ऐसी परिस्थिति में पशु की लेवटी। गादी को देखकर लगता ही नहीं की यह ताजा ब्याया हुआ है। ना ही गादी/लेवटी में कोई सूजन आदि देखने को मिलती है। इस तरह की समस्या के लिए पशु में थैनेला रोग एवं कैल्सियम की कमी के अलावा अन्य कारण भी जिम्मेदार हो सकते हैं, जैसे कि हारमोनस की समस्या, मानसिक समस्या इत्यादि। यह समस्या कई बार उन पशुओं में भी देखने को मिलती है जिनमें खीस (किली) पूरी या बिल्कुल भी नहीं निकाली गई हो। ऐसी स्थिति में पशुपालकों को देर न करते हुए तुरंत अपने नजदीकी पशु- चिकित्सक से सम्पर्क करके पशु का उचित ईलाज करवाना चाहिए।
(4) कीटोनमियताः
इस रोग का कारण पशु के शरीर में दोषपूर्ण ग्लुकोज का चयापचय है, जिसकी वजह से पशु के रक्त में कीटोन प्रकृति के तत्वों की अधिकता हो जाती है एवं मूत्र, दूध एवं सांस में कीटोन तत्वों का उत्सर्जन बढ़ जाता है। यह रोग पशुओं में उनके अधिक दूध उत्पादन की अवस्था में अधिक पाया जाता है। भेड़ एवं बकरियों में यह रोग गर्भावस्था में पाया जाता है, इसलिए इन पशुओं में इसे गर्भावस्था विषाक्ता के नाम से जाना जाता है। भली-भांति पोषित पशुओं में अधिक प्रोटीन आहार, प्राथमिक दुग्धाबस्था में अल्प ऊर्जा पूरित आहार, अपर्याप्त श्रम एवं आहार में कोबाल्ट की अल्पता का संबंध भी इस रोग से है। यह रोग क्षयकारी एवं मानसिक बीमारी के रूप में पाया जाता है। प्रभावित पशुओं में धीरे-धीरे भूख की कमी (पशु दाना/चाट खाना कम या बंद कर देता है, परन्तु सुखा चारा खाता रहता है) एवं दूध उत्पादन की कमी के रूप में प्रकट होता है। पशु का शारीरिक वजन तथा चमड़ी के नीचे की वसा कम हो जाती है, एवं पशु धीरे-धीरे कमजोर होने लगता है।
पशु के दूध, मूत्र एवं सांस से कीटोनिक (मीठी) गन्ध आने लगती है। मानसिक रोग की स्थिति में पशु में जबड़ों की भ्रामक गतिशील अत्याधिक लार, अति संवेदनशीलता, अन्धापन, लड़खड़ाहट, असामान्य चाल तथा घोड़े की तरह लात मारना देखा गया है। पशु की माँसपेशियों में हलचल तथा अकडऩ भी देखने को मिल सकता हैं. भर एवं बकरियों में यह रोग गर्भावस्था के दौरान मानसिक रोग के रूप में प्रकट होता हैं तथा प्रभाबित पशुओं में चलने की बिबश्ता देखी जाती है। प्रभावित पशु अपने सिर को किसी अजीवित वस्तु के विरुद्ध टकराते हैं। इस रोग की चिकित्सा के लिए 20 से 25 या 50 प्रतिशत ग्लूकोज़ पशु की रक्तवाहिनी में लगाया जाता है। इस रोग के उपचार के लिए प्रोपाईलिन ग्लाईकोल, ग्लिसरिन, सोडियम प्रोपियोनेट, ऐड्रिनोकोर्टिक्वाइड, ग्लुकोकोर्टिक्वाइड या इंसुलिन का प्रयोग भी लाभकारी सिद्ध होता है। पशु आहार में कोबाल्ट, फास्फोरस एवं आयोडीन की उचित मात्रा, संतुलित पशु आहार एवं व्यायाम से इस रोग को हाने से रोका जा सकता है।
(5) फास्फोरस अल्पताः
यह रोग फास्फोरस तत्व की कमी से होने वाला रोग है, जो प्रभावित पशुओं लाल रक्त कोशिकाओं के नष्ट होने तथा रक्ताल्पता (अनीमीया) के रूप में परिलक्षित होता है। यह रोग 3 से 6 ब्यांत की अवधि के दौरान अथवा अत्यधिक दूध देने वाले पशुओं में ज्यादा पाया जाता है तथा ब्याने के 2 से 4 सप्ताह के बाद यह रोग अधिक देखा गया है। गाय की बजाय भैंस में यह रोग अधिक पाया जाता है। भूख की कमी, कमजोरी, दूध उत्पादन में कमी, पशु के शरीर में रक्त की कमी एवं श्लेष्मिक झिल्लियों का पीलापन, पशु के शरीर में जल की कमी के कारण गोबर का सूखा एवं कठोर होना, पशु के पेशाब का गहरा भूरा (काॅफी के जैसा) या लाल होना, पीलिया तथा हृदय की गति बढ़ जाना इस रोग में पाये जाने वाले मुख्य लक्षण है। प्रभावित पशु के शरीर में रक्त की कमी (अनमीया) तथा भूख की कमी के लिए प्रभावित पशु को फास्फोरस उपलब्ध कराने के लिए सोडियम ऐसिड फास्फेट रक्त मार्ग (नस में) तथा त्वचा के नीचे दिया जा सकता है। पशु चारे के साथ हड्डियों का चूरा या डाइकैल्शियम फास्फेट भी लाभकारी होता है। रक्त बढ़ाने के लिए काॅपर, लोहा तथा कोबाल्ट सम्मिश्रित टाॅनिक लाभकारी होत हैं। रोग की रोकथाम के लिए ऐसे क्षेत्र जहाँ की मिट्टी में फास्फोरस की कमी हो में पशुओं को पूरक आहार के रूप में खनिज मिश्रण संतुलित आहार के साथ नियमित रूप से देना चाहिए।
(6) बच्चेदानी संबंधित समस्याएंः
पशुओं में ब्यांत के दौरान कई प्रकार की बच्चेदानी संबंधित समस्या रोग भी हो सकती हैं, जैसे कि बच्चेदानी का घूम जाना, ब्याने के दौरान समस्या होना, गर्भापात हो जाना, पशु का समय से पूर्व ब्याना, मरा हुआ बच्चा पैदा होना, बच्चेदानी का पशु के शरीर से बाहर आ जाना (पीछा दिखाना), पशु द्वारा जेर ना डालना, बच्चेदानी में मवाद पड़ जाना, इत्यादि। इस प्रकार की कोई भी समस्या होने पर पशुपालकों को चाहिए कि वो देर न करते हुए तुरंत अपने नजदीकी पशु-चिकित्सक से सम्पर्क करके स्थिति से आवगत कराते हुए पशु का उचित एवं पूरा ईलाज करवाएं। अगर उपरोक्त समस्याओं में पशु को समय पर उचित ईलाज नहीं मिलता है, तो पशुपालकों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है तथा पशु की मृृत्यु भी हो सकती है।
जैसा कि उपरोक्त बताई गई पशुओं में संक्रमण काल की विभिन्न समस्याओं में बताया गया है कि यह सभी काफी गंभीर किस्म के रोग हैं। अतः पशुपालकों को सलाह दी जाती है कि वो इनके बारे मे सचेत एवं सजग रहे तथा ऐसे कोई भी लक्षण दिखाई देने पर तुरंत अपने पशु-चिकित्सक को दिखाएं तथा उपचार करवाएं। इसके अतिरिक्त अगर पशुपालक अपने पशु की देखभाल वैज्ञानिक तरीके से करते हुए पशु को संतुलित आहार, खनिज मिश्रण एवं उचित व्यायाम तथा समय-समय पर पशु-चिकित्सक की सलाज लेते रहें तो इन सभी समस्याओं/रोगों से काफी हद तक बचा जा सकता है।

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