बकरियों में विषाणु जनित रोग

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बकरियों में विषाणु जनित रोग

बकरी पालन हमारे देश का काफी प्राचीन व्यवसाय हैं। बकरी को गरीब की गाय के नाम से भी जाना जाता हैं। हमारे देश में बकरियों की कुल संख्या 13.5 करोड़ हैं। बकरी पालन में मृत्यु दर बहुत अधिक हैं आरै यदि मृत्यु दर पर काबू पा लिया जाए तो बकरी पालन बेहतर व्यवसाय साबित हो सकता हैं।

बकरियों में कई तरह के रोग पाए जाते हैं जिससे बकरियों की उत्पादन क्षमता पर विपरीत असर पड़ने से बकरी पालक को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। बकरियों में होने वाली विषाणु जनित बीमारियों का संक्षेप में यहाँ विवरण दिया जा रहा हैं, जिसकी सहायता से बकरी पालक अपने रेवड़ में आई बीमारी की पहचान कर अपने निकटतम पशु चिकित्सक से सलाह लेकर उपचार करवा सकता हैं।

1. बकरी प्लेग/ पी.पी.आर./काटा –

पी.पी.आर. एक विषाणु (मोरबिलि विषाणु) जनित रोग हैं, जो हर उम्र आरै लिंग की बकरियों को ग्रसित कर सकता है। इस रोग से पशुओं की मुत्यु बहुत तेजी से होती है, इसलिए इसे बकरी प्लेग के नाम से भी जाना जाता हैं। अधिक मुत्यु दर की वजह से यह बीमारी आर्थिक रुप से बहुत हानिकारक हैं।

रागे का फलैाव:

यह विषाणु रोगी पशु के द्वारा उत्सर्जित मल, मूत्र, आँख, नाक व मुँह से होने वाले स्राव में प्रचुर मात्रा में विद्यमान रहता हैं, अत: इस रोग से पीड़ित पशु द्वारा स्वस्थ पशु के संपर्क में आने से रोग फैलता हैं। दूषित चारे व पानी से भी यह रोग फैलता हैं|

लक्षण –

रोगी पशु को तेज बुखार हो जाता है जो चार से पाँच दिनों तक रहता है।
मुँह, मसूड़े, तालू, होंठ व जीभ पर छाले हो जाते हैं, जिसकी वजह से प्रचूर मात्रा में तार जैसी लार बहती है।
रोगी पशु के होंठों पर सूजन आ जाती है।
नाक से पानी बहना तथा बाद की अवस्था में मवाद युक्त होकर नासिका को अवरूह् कर देता है, जिससे पशु को सा°स लेने मे कठिनाई आती है तथा मुँह से साँस लेने लगता है।
आँख से पानी बहना, आँखों में सूजन व झिल्ली का रंग गहरा लाल हो जाता है।
पशु को दस्त हो जाते है जिससे पशु के शरीर में पानी की कमी हो जाती है ।
अंत में अन्य विषाणुओं तथा जीवाणुओं के संक्रमण द्वारा रोगी पशु न्यूमोनिया से पीड़ित हो जाता है।

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रोकथाम व उपचार –

रोगी पशु को स्वस्थ पशु से अलग रखना चाहिए।
रोगी पशु को प्रति जैविक औषधि देनी चाहिए ताकि द्वितीय जीवाणु जनित बीमारियों को रोका जा सके।
बाड़े मे दस्त इत्यादि को अच्छी तरह से साफ करें ताकि विषाणु का फैलाव रूक सके।
तीन चार माह के उम्र के बच्चे का टीकाकरण आवश्यक रूप से करवाना चाहिए। इसका असर तीन साल तक रहता ह

2. बकरी चेचक/माता:

बकरी चेचक एक प्रकार बहुत तेजी से फैलने वाला विषाणु (गोटपाक्स विषाणु) जनित संक्रामक रोग है। यह विषाणु सभी उम्र, नस्ल व लिंग की बकरियों को प्रभावित करता है, परन्तु बच्चों, कमजोर व कम प्रतिरोधक क्षमता वाले पशु व दूध देने वाली बकरियों को यह विषाणु ज्यादा प्रभावित करता है।

रोग का फलैाव:

यह विषाणु स्वस्थ बकरी के रोगी बकरी के संपर्क मे आने से, हवा द्वारा आरै कीट मक्खी इत्यादि से फलैता है।

लक्षण –

रोगी बकरियों में बुखार (उच्च ताप) हो जाता है।
आँख व नाक से पानी बहता है।
पूरे शरीर पर फफोले बन जाते है, जो कुछ समय पश्चात पपड़ी में बदल जाते है।
मुँह के भीतरी भाग में फफोले व घाव बन जाते है जिसके कारण पशु खाने पीने में असमर्थ हो जाता है परिणामस्वरुप उत्पादन कम हो जाता है।
कहीं पर पानी रखा है तो जानवर अपना मुँह पानी में डाल कर रखता है।

रोकथाम व उपचार –

रोगी पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए एवं उसकी देखभाल भी अलग से करनी चाहिए तथा बीमार पशु को नरम चारा देना चाहिए।
रोगी पशु को प्रतिजैविक औषधि देकर द्वितीय जीवाणु संक्रमण से बचाव किया जा सकता है।
पशुचिकित्सक की सलाह लेकर माता रोग से बचाव के लिए टीकाकरण अवश्य करवाना चाहिए।

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3. मुँहपका एवं खुरपका रोग /एफ.एम.डी. –

एफ.एम.डी. एक विषाणु (एफथो विषाणु) जनित रोग है, जो विभाजित (दो खुरों वाले) पशुओं मे पाये जाते है, यह रोग छोटे व बड़े सभी पशुओं में होता है।

रोग का फैलाव –

इस रोग के विषाणु रोगी पशु के सम्पर्क, संक्रमित आहार व संक्रमित पानी के ग्रहण करने से स्वस्थ बकरियों में प्रवेश कर जाते हैं।

लक्षण –

रोगी पशु को तेज बुखार हो जाता है।
मुँह से लार (झागदार व रस्सीदार) गिरना ।
मुँह के भीतरी भाग में फफोले बनने लग जाते है, जो बाद में फोड़े व घाव बन जाते हैं। इन घावों के कारण दर्द होता है जिसके कारण पशु खाने पीने में असमर्थ हो जाता है तथा चारा न खाने के कारण बकरियाँ कमजोर हो जाती है परिणामस्वरुप शारीरिक भार व उत्पादन कम हो जाता है तथा मृत्यु दर भी बढ़ जाती है।
पशु के खुरों के बीच में भी फफोले, फोडे़ व घाव हो जाते हैं, जिसके कारण पशु लंगड़ाकर चलने लगता है।
नासिका और खुरों के बीच होने वाले घावों मे द्वितीय जीवाणु का सक्रमण भी हो सकता है, अगर इन घावों का शीघ्र ही उपचार न किया जाए तो इनमें कीडे़ पड़ जाते है।

रोकथाम व उपचार –

रोगी पशु को स्वस्थ बकरियों से अलग रखना चाहिये ।
मुँह के छालों में बोरोग्लिसरीन मलहम लगाना चाहिये।
खुरों के छालों को लाल दवा (पौटेशियम परमैग्नेट) /फिटकरी / नीले थोथे (कापर सल्फेट) /फोर्मलीन के घोल से दिन में दो बार धोना चाहियें ।
पशुचिकित्सक की सलाह लेकर इस रोग से बचाव के लिए टीकाकरण अवश्य करवाना चाहिए। यह टीका प्रथम बार चार माह की उम्र पर लगाया जाता हैं तत्पश्चात प्रत्येक 6 महीनें पर लगाते हैं इसलिए बकरी का टीकाकरण वर्ष में दो बार ( वर्षा ऋतु से पहले आरै बसन्त ऋतु के आरम्भ) करवाना चाहियें।

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4. ब्लू टंग –

यह एक विषाणु ( ओरबी विषाणु) जनित रोग हैं।

रोग का फैलाव –

यह विषाणु क्यूलिकोइडस नामक मच्छर के माध्यम से फैलता हैं।

लक्षण –

रोगी पशु को तेज बुखार हो जाता है।
मुँह से लार गिरती है व नाक से स्राव होता है।
मुँह व नाक पर लाली बढ़ जाती हैं।
कुछ पशुओं में जीभ नीले बैंगनी रंग की हो जाती हैं।
पशु सुस्त होकर चारा खाना छोड़ देता हैं।

रोकथाम व उपचार –
रोगी पशु को स्वस्थ बकरियों से अलग रखना चाहिये ।
टीकाकरण करवाना चाहियें।

5. कन्टेिजयस पोस्टलर डरेमर्टेाइिटस/कन्टेिजयस एक्थाइमा / माहेा / मुहां रागे / सोर माउथ –

यह एक विषाणु (पैरापोक्स विषाणु ) जनित रोग हैं, जो बच्चो के ज्यादा प्रभित करता हैं। यह रोग पशुओं के सर्द ऋतु में प्रभित करता हैं। सामान्यता इस रोग में मृत्यु दर काम होती हैं, लेकिन रोगी पशु का उत्पादन काम हो जाता हैं जिसकी वजह से बकरी पालक को आर्थिक हानि पड़ती हैं।

लक्षण –

रोगी पशु को तेज बुखार हो जाता है।
रोगी पशु को भूख नहीं लगती ओर पशु सुस्त हो जाता हैं।
आँख व नाक से पानी टपकता हैं।
नथनों व होठों पर फफोले व घाव बन जाते हैं, जिसके कारण बच्चे दूध नहीं पी पातें और शारीरिक रूप से कमज़ोर हो जाते हैं।

रोकथाम व उपचार –

रोगी पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए एवं उसकी खान-पान की व्यवस्था भी अलग से करनी चाहिए आरै बीमार पशु को नरम चारा देना चाहिए।
घावों को लाल दवा से धोकर प्रतिजैविक औषधि का लेप लगाना चाहिए।
रोगी पशु को प्रतिजैविक औषधि देकर द्वितीय जीवाणु संक्रमण से बचाव करना चाहिए।

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