मछलि पालन भाग -3

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सजावटी मछलियों का पालन

  1. सजावटी मछलियां-एक परिचय
  2. मछली की प्रजाति/प्रजनन के लिए सही प्रजाति
  3. सजावटी मछलियों के सफल उत्‍पादन के लिए कुछ नुस्‍खे

सजावटी मछलियां-एक परिचय

सजावटी मछलियों को रखना और उसका प्रसार एक दिलचस्प गतिविधि है जो न केवल खूबसूरती का सुख देती है बल्कि वित्तीय अवसर भी उपलब्धि कराती है। विश्व भर की विभिन्न जलीय पारिस्थितिकी से करीब 600 सजावटी मछलियों की प्रजातियों की जानकारी प्राप्त है। भारत सजावटी मछलियों के मामले में 100 से ऊपर देसी प्रजातियों के साथ अत्यधिक सम्पन्न है, साथ ही विदेशी प्रजाति की मछलियाँ भी यहाँ पैदा की जाती हैं।

मछली की प्रजाति/प्रजनन के लिए सही प्रजाति

देसी और विदेशी ताजा जल प्रजातियों के बीच जिन प्रजातियों की माँग ज्‍यादा रहती है, व्‍यावसायिक इस्‍तेमाल के लिए उनका प्रजनन और पालन किया जा सकता है। व्‍यावसायिक किस्‍मों के तौर पर प्रसिद्ध और आसानी से उत्‍पादन की जा सकने वाली प्रजातियाँ एग लेयर्स और लाइवबीयरर्स के अंतर्गत आ रही हैं।

लाइवबीयरर प्रजातियाँ

  • गप्‍पीज (पियोसिलिया रेटिकुलेटा)
  • मोली (मोलीनेसिया स्‍पीशिज)
  • स्‍वॉर्ड टेल (जाइफोफोरस स्‍पीशिज)
  • प्‍लेटी

एग लेयर्स

  • गोल्‍डफिश (कैरासियस ओराटस)
  • कोई कार्प (सिप्रिनस कारपियो की एक किस्‍म)
  • जेब्रा डानियो (ब्रेकिदानियो रेरियो)
  • ब्‍लैक विंडो टेट्रा (सिमोक्रो-सिम्‍बस स्‍पीशिज)
  • नियोन टेट्रा (हीफेसो-ब्रीकोन इनेसी)
  • सर्पा टेट्रा (हाफेसोब्रीकोन कालिसटस)

अन्‍य

  • बबल्‍स- नेस्‍ट बिल्‍डर्स
  • एंजलफिश (टेरोफाइलम स्‍केलेयर)
  • रेड-लाइन तारपीडो मछली (पनटियस डेनीसोनी)
  • लोचेज (बोटिया प्रजाति)
  • लीफ-फिश (ननदस ननदस)
  • स्‍नेकहेड (चेना ऑरियंटालिस)
गप्‍पीज(पियोसिलिया रेटिकुलेटा) एंजल फिश कॉमन कार्प गोल्ड फिश

 

लीफ फिश लोचेज नियोन टेट्रा रेडलाइन तारपीडो

 

 
रेड वैग प्‍लेटी स्‍नेकहेड स्‍वॉर्ड टेल जेब्रा डानियो

 

रोजीबॉर्ब्‍स                     देसी ड्वार्फ गौरामी
(
पनटियस कॉनकोनियस)

किसी भी नये आदमी को किसी भी लाइवबियरर के साथ प्रजनन पर काम शुरू करना चाहिए और बाद में नवजात की देखभाल की प्रक्रिया को सीखने के लिए गोल्डरफिश या अन्यि किसी एग लेयर पर काम करना चाहिए। जीव विज्ञान पर अच्छी जानकारी, खिलाने का व्य वहार और मछली की स्थिति जानना प्रजनन के लिए जरूरी चीजें हैं। ब्रुड स्टॉशक और लार्वल स्टे ज के लिए जिंदा खाना जैसे ट्यूबीफेक्स् कीट, मोयना, केंचुएं आदि का विशेष ध्यावन की जरूरत होती है। शुरुआती चरण में लार्वा को इंफ्यूसोरिया, अर्टे‍मेनिया नोपली, प्लांेटोंस जैसे रोटिफर्स और छोटे डैफनिया की जरूरत होती है। भोजन की एक इकाई का उत्पाटदन उस इकाई के रख-रखाव के लिए बहुत जरूरी है। अधिकतर मामलों में प्रजनन आसान होता है, लेकिन लार्वा का पालन विशेष देखभाल की माँग करता है। पूरक भोजन के तौर पर किसान स्थानीय कृषि उत्पापद का इस्तेकमाल कर भोजन तैयार कर सकते हैं। स्वाथस्य्कव से जुड़ी समस्यारओं से बचने के लिए फिल्टार किये गये पानी की आपूर्ति की जानी चाहिए। सजावटी मछलियों का प्रजनन वर्ष के किसी भी समय में किया जा सकता है।

सजावटी मछलियों के सफल उत्‍पादन के लिए कुछ नुस्‍खे

सीआईएफए की ऑर्नामेंटल फिश कल्‍चर यूनिट

  1. प्रजनन और पालन इकाई के करीब पानी और बिजली की लगातार आपूर्ति की जरूरत होती है। यदि इकाई झरने के करीब स्थित है, तो वह अच्‍छा होगा जहाँ इकाई ला सकने वाला पानी प्राप्‍त कर सके और पालन इकाई में भी इसी तरह का इंतजाम हो सके।
  2. ऑयल केक, चावल पॉलिश और गेहूँ के दाने जैसे कृषि आधारित उत्‍पादन और पशु आधारित प्रोटीन जैसे मछली के भोजन की निरंतर उपलब्‍धता मछली के लिए खुराक की तैयारी को सुलभ बनाएगी। प्रजनन के लिए चुना गया स्‍टॉक अच्‍छी गुणवत्‍ता का होना चाहिए ताकि वह बिक्री के लिए अच्‍छी गुणवत्‍ता वाली मछलियों का उत्‍पादन कर सके। छोटी मछलियाँ भी अपनी परिपक्‍वता की स्थिति तक वृद्धि करती हैं। यह मछलियों की देखभाल का न केवल अनुभव प्रदान करता है, बल्कि नियंत्रण करने में भी मदद करता है।
  3. प्रजनन और पालन इकाई को हवाई अड्डे/रेलवे स्‍टेशन के पास स्‍थापित करने को तरजीह दी जा सकती है ताकि जिंदा मछलियों को घरेलू बाजार में और निर्यात के लिए आसानी से लाया व ले जाया जा सके।
  4. प्रबंधन को सुगम बनाने के लिए एक मछली पालक ऐसी प्रजातियों का पालन कर सकता है जिन्‍हें एक बाजार में ही उतारा जा सके।
  5. बाजार की माँग की पूरी जानकारी, ग्राहक की प्राथमिकताएँ और व्‍यक्तिगत संपर्क के जरिए बाजार का परिचालन और जनसंपर्क वांछनीय है।
  6. इस क्षेत्र में सम्‍मानीय और विशेषज्ञ समूहों से बाजार में आए बदलावों के साथ-साथ शोध और प्रशिक्षण के जरिए हमेशा संपर्क में रहना चाहिए।

लाइवबियरर के छोटे स्‍तर पर प्रजनन और पालन की आर्थिकी

क्रम संख्‍या सामग्री राशि

(रुपये में)

I. व्‍यय
क. स्‍थायी पूँजी
1. 300 वर्गमीटर क्षेत्र के लिए सस्‍ता छप्‍पर (जाल वाला बाँस का ढाँचा) 10,000
2. प्रजनन टैंक (6’ x 3’ x 1’6”, सीमेंट वाले 4) 10,000
3. पालन टैंक (6’ x 4’ x 2’ सीमेंट वाले 2) 5,600
4. ब्रूड स्‍टॉक टैंक (6’ x 4’ x 2’, सीमेंट वाले 2) 5,600
5. लार्वल टैंक (4’ x 1’6” x 1’, सीमेंट वाले 8) 9,600
6. 1 एचपी पम्‍प वाला बोर-वेल 8,000
7. अन्‍य चीजों के साथ एक ऑक्‍सीजन सिलेंडर

 

5,000
कुल योग 53,800
ख. परिवर्तनीय लागत
1. 800 मादा, 200 नर, 2.50 रुपये प्रति पीस गप्‍पी, मोली, स्‍वॉर्डटेल और प्‍लेटी के हिसाब से 2,500
2. भोजन (150 किलो/प्रतिवर्ष 20 किलो के हिसाब से) 3,000
3. विभिन्‍न तरह के जाल 1,500
4. 250 रुपये प्रति माह के हिसाब से बिजली/ईंधन

 

3,000
5. छेद वाले प्‍लास्टिक ब्रीडिंग बास्‍केट (एक के लिए 30 रुपये के हिसाब से 20 की संख्‍या में) 600
6. महीने में 1000 रुपये के हिसाब से मजदूर 12,000
7. विविध व्‍यय 2,000
कुल योग 24,600
ग. कुल लागत
1. परिवर्तनीय लागत 24,600
2. स्‍थायी पूँजी पर ब्‍याज (प्रतिवर्ष 15 फीसदी के हिसाब से) 8,070
3. परिवर्तनीय लागत पर ब्‍याज (छमाही 15 फीसदी के हिसाब से) 1,845
4 गिरावट (स्‍थायी लागत पर 20 फीसदी) 10,780
कुल योग 45,295
II. कुल आय
  76800 मछलियों की बिक्री एक रुपये के हिसाब से, जिन्‍हें एक माह तक 40 की संख्‍या के हिसाब से तीन चक्रों तक पाला गया हो, यह मानते हुए कि इनमें 80 फीसदी जिंदा बचेंगी 76,800
III. शुद्ध आय (कुल आय- कुल लागत) 31,505

स्त्रोत

 

मछलियों में होनेवाली सामान्य बीमारियाँ एवं उपचार

  1. भूमिका
  2. मत्स्य रोग के सामान्य लक्षण
  3. बीमारी के कारण

भूमिका

पूरे विश्व में मत्स्य पालन के दौरान मछलियों का रोगग्रस्त होना एक बड़ी समस्या है जिससे इस उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जलकृषि के गहन पालन में जहां संग्रहण दर अधिक होती है, वहां मछलियों में बिमारी फ़ैलने की सम्भावना भी सबसे अधिक होती है। इन मछलियों में बिमारी कुछ रोगजनक कीटाणुओं जैसे विषाणु, जीवाणु, प्रोटोजोआ तथा मेटाजोआ जैसे परजीवियों के कारण फैलती है। इन संक्रमण एवं ग्रसन के अलावा कुछ ऐसे पर्यावरणीय कारक भी हैं जो मछलियों में बीमारी एवं उनकी मृत्यु के लिए जिम्मेदार हैं।

मत्स्य रोग के सामान्य लक्षण

मछलियों में बीमारीयों के सामान्य लक्षण हैं – बैचनी, असामान्य तरीके से विचरण, मछलियों का कूदना जल के ऊपरी सतह पर तैरना, हंफनी, किसी कठोर तल पर शरीर को घिसना, समूह में ना रहना, त्वचा का अति चिकना होना, त्वचा या पंख या गलफड़ पर कोई घाव, विकास में कमी तथा बड़े पैमाने पर मछलियों की मृत्यु ।

बीमारी के कारण

मछलियों में बीमारी के कारण एवं सम्बद्ध कारकों को दो बड़े वर्गों में बांटा जा सकता है –

  1. पर्यावरणीय कारक
  2. संक्रमण व ग्रसन संबंधी कारक
  3. पर्यावरणीय कारक :किसी भी जीव के विकास एवं उत्तरजीवीता के लिए उपयुक्त एवं स्वस्थ वातावरण की आवश्यकता होती है। इसकी कमी से होने वाली बीमारियाँ निम्नलिखित हैं –

आक्सीजन की कमी या हाइपोक्सिया

किसी भी जीव के लिए आक्सीजन अत्यंत ही महत्वूर्ण है। मछलियों को स्वस्थ रहने के लिए जल में घुली आक्सीजन की मात्रा 4-5 पी.पी.एम तक होना चाहिये, पर साधारणत: इसकी मात्रा कम ही पाई जाती है।पौधे, जैव पदार्थों की अधिकता, बहि:स्त्राव, अत्यधिक भोज्य पदार्थों का जमाव तथा संग्रहण घनत्व के अधिक होने से आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है जो मछलियों की मृत्यु का कारण बनती है।यह समस्या ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु तथा सुबह के समय अधिक होती है।इसका उपचार जल में आक्सीजन की घुलनशीलता बढ़ाना है जैसे जल में बांस फिराना, जल को पंप करना आदि।इसमें मछलियों के संग्रहण दर को घटाना, अधिक भोजन न देना, बहि:स्त्राव को रोकना, जैव व् खाद न देना , स्वच्छ जल का प्रवाह करना तथा गाद के उपरी सतह को हटाना आदि उपाय किये जा सकते हैं |

  1. संक्रमण एवं परजीवियों के कारण होने वाले रोग
    1. सफेद धब्बेदार रोग – यह रोग इक्थियोपथिरियस प्रोटोजोन द्वारा होता है।इसमें मछली की त्वचा, पंखों व गलफड़ों पर छोटे-छोटे सफेद धब्बे आ जाते हैं।इस बीमारी से जीरा और अंगुलिकाओं में भारी हानि होती है।ये परजीवी मछली एक एपीथिलियम उत्तकों में रहकर इसे नष्ट कर देते हैं।

उपचार :

  • पी.पी.एम मेलाकाईट ग्रीन + 50 पी.पी.एम फार्मीलिन में 2 मिनट डुबोएं।
  • पोखर में 15-25 पी.पी.एम फार्मीलिन हर दुसरे दिन रोग पूरी तरह समाप्त होने तक डालते रहें।
  1. डेक्टाइलोगाईरोसिस व गाईरो डेक्टाइलोसिस :यह कार्प तथा हिसंक मछलियों के लिए एक घातक रोग है। डेक्टाइलोगाईरन मछली के गलफड़ों को संक्रमित करते हैं जिससे गलफड़े बदरंग, शरीर वृद्धि तथा भार में कमी आ जाती है। गाइरोड़ेक्टाइलस ज्यादातर त्वचा पर मिलता है। यह संक्रमित भाग की कोशिकाओं में घाव बना देता है, जिससे त्वचा का बदरंग होना शल्कों का गिरना तथा अधिक श्लेष्म का श्राव होता है।

उपचार :

  1. मछलियों को 500 पीपीएम पोटेशियम परमैगनेट के घोल में 5 मिनट के लिए रखना चाहिए।
  2. 1:2000 का एसटीक एसिड घोल व 2% नमक घोल में 2 मिनट के लिए बारी-बारी डुबाएं।
  3. पोखर में 25 पी.पी.एम फार्मीलिन का प्रयोग करें।
  4. तालाब में मेलेथियान 25 पी.पी.एम की दर से सात दिन के अंदर में तीन बार दें।
  5. आरगुलोसिस : यह रोग आरगुलस नामक क्रस्टेशियन परजीवी से होता है।यह मछली की त्वचा पर गहरे घाव कर देता है जिससे उस पर दुसरे जीवाणु व् फफूंद आक्रमण कर देते हैं और मछलियाँ अधिक संख्या में मरती हैं।

उपचार :

  • 35 मी.ली. साइपरमेथिन या क्लीनर दवा 100 लीटर पानी में घोल कर 1 हैक्टर –मी. के तालाब में 5 दिन के अंतर में तीन बार डालना चाहिए।
  • 25 पी.पी.एम. मैलिथियन को 1 सप्ताह के अंतराल से 3 बार दें।
  1. ड्राप्सी :यह आमतौर पर उन पोखरों में पाया जाता है जहाँ मछलियों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता है। हमें मछली का धड़ उसके सिर के अनुपात से काफी पतला हो जाता है और वे दुर्बल हो जाती है। दुर्बल मछली हाइड्रोफिला नामक जीवाणु के संशपर्स में आती है तो इस रोग से आक्रान्त हो जाती है। इस रोग का प्रमुख लक्षण है, मछली के शल्कों का बहुत अधिक मात्रा में गिरना तथा उसके उदरीय गुहा में पानी का जमाव है।

उपचार :

  • मछलियों को पर्याप्त मात्रा में भोजन देना, साथ ही पानी की गुणवत्ता को बराबर बनाए रखना चाहिए।
  • पोखर में हर 15 दिन में चूना का प्रयोग 100 किग्रा हे. की दर से उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
  1. फिन राट एवं टेल राट :यह रोग प्रमुखत: ऐरोमोनास, फ्लुओरेसेन्स, स्युडोमोनास प्लुओरेसेन्स तथा स्युडोमानस पुट्रिफेसीऐन्स नामक जीवाणुओं के संक्रमण से होता है।मछली के मीन पक्ष तथा पूंछ का सड़कर गिर जाना, इस रोग का प्रमुख कारण है।पहले मीन पक्ष की बाहरी सतह पर सफेद छोटे-छोटे धब्बे आने लगते हैं, जो कि धीरे-धीरे अधिक मात्रा में गलने लगता है।अंतत: 72-120 घन्टे के अन्दर सारी मछलियां मर जाती है।

उपचार :

  • पानी की स्वच्छता ही इसका उपाय है साथ ही फोलिक एसिड को भोजन के साथ मिलाकर खिलाना चाहिए।
  • इमेक्विल नामक औषधि 10 मि.ली. प्रति 100 लिटर पानी में मिलाकर संक्रमित मछली को 24-48 घंटो के लिए इस घोल में रखना चाहिए।
  • 1% एक्रिफलेविन को एक हजार लीटर पानी में 100 मि.ली. की दर से मिलाकर रोगी मछली को इस घोल से 30 मिनट के लिए रखना चाहिए।
  1. लाल घाव का रोग एपीजुटिक अल्सरेटिव सिंड्रोम” : “एपीजुटिक अल्सरेटिव सिंड्रोम” एक अत्यंत ही घातक रोग है तथा इसे “लाल घाव की बीमारी” के नाम से भी जाना जाता है।यह रोग संवर्धनकारी मछलियों के साथ-साथ जंगली तथा असंवर्धनकारी मछलियों को भी व्यापक रूप से प्रभावित करता है।संक्रमित मछली के शरीर में जगह-जगह घाव हो जाते हैं।इनका फैलाव अलग –अलग जाति की मछलियों में अलग-अलग प्रकार से होता है।अतिसंक्रमित मछली के विश्लेषण में कई प्रकार के रोगजनकों जैसे – जीवाणु, विषाणु, फफूंद इत्यादि का सम्मिलित संक्रमण देखा गया है।इन रोगों के प्राथमिक रोगजनक के लिए वैज्ञानिकों के विभिन्न मत है।कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि एरोमोनास हाईड्रोफिला जीवाणु इस रोग के संक्रमण में अति महत्वपूर्ण भुमिका अदा करता है जब कि कई अन्य वैज्ञानिकों ने एफेनोमाईसिस नामक फफूंद को इस रोग के प्राथमिक रोगजनक माना है।

उपचार

यह एक अति घातक रोग है।इसलिए रोग का उपचार अगर जल्दी नहीं किया गया तो कुछ ही समय में यह पुरे पोखर की मछलियों को संक्रमित कर देता है। अतिसंक्रमित मछलियाँ तुरंत मरने लगती है। इसलिए रोग का पता चलते ही तालाब में 600 किग्रा चूना /हे./मी. की दर से 3 बार में हर सात दिन के बाद देना चाहिए। अभी तक उपयोग में लाये गये सभी रसायनों या औषधियों में से यह उपचार काफी हद तक असरदायक साबित हुआ है। सीफा, भुवनेश्वर में कार्यरत वैज्ञानिकों ने इस रोग के उपचार हेतु औषधि तैयार की है।जिसका व्यापारिक नाम “सीफेक्स” दिया गया है।एक लीटर औषधि एक हेक्टेयर जल क्षेत्र में प्रयोग करने से उपस्थित मछलियाँ रोग रहित हो जाती है। यद्यपि इस औषधि के पानी की गुणवत्ता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है, फिर भी यह सुझाव दिया जाता है कि प्राय: 24 घंटे तक तालाब के पानी का प्रयोग से ही 7-10 दिन के अंदर मछलियाँ स्वस्थ्य होने लगती हैं।1 लीटर दवा को 100 लि. पानी में घोल बनाकर तालाबों में डालने से यह रोग निरोधक के रूप में भी काम करता है |

घरेलू उपचार में चूना के साथ हल्दी मिलाने से भी अल्सर घाव जल्दी से ठीक होता है। कली चूना 40 किग्रा/एकड़ एवं हल्दी का चूर्ण 4 किग्रा/एकड़ की दर से प्रयोग करें। आधी मात्रा चूना एवं आधी मात्रा हल्दी चूर्ण मिलाकर तालाब में डालें।पुन: 5 से 7 दिनों के बाद शेष आधी मात्रा का प्रयोग करने से लाभ देखा गया है। मछलियों को सात दिनों तक प्रतिदिन 100 मि.ग्रा. टेरामाइसिन तथा 100 मि.ग्रा. सल्फाडाइजिन नामक दवा को प्रति किग्रा पूरक आहार (भोजन) में मिलाकर मछलियों को खिलाना अच्छा परिणाम देता है |

तालिका नं. 1

मछली पालन हेतु पानी की गुणवत्ता संबंधी प्रमुख कारकों का संतुलित परिमाप

पी . एच. 7.5 – 8.6
अमोनिया 0.2 पी.पी.एम.
कार्बन डायआक्साईट 15-20 पी.पी.एम.
घुलित आक्सीजन की मात्रा 5 पी.पी.एम.
हाइड्रोजन सल्फाइड 0.003 पी.पी.एम.
नाइट्रेट 1.0 पी.पी.एम.
पोटेशियम 5.0 पी.पी.एम.
लवणता 2 पी.पी.एम.

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालयराँचीझारखण्ड सरकार

 

ठंड में मछलियों को बीमारियों से कैसे बचाएँ

  1. परिचय
  2. बीमारी का इतिहास
  3. मछलियों को बीमारी से बचाने के उपाय
  4. मत्स्य पालक से मुखिया बने श्री मंगल मुर्मू की सफलता की कहानी
  5. बुंडू बड़ा बांध में मत्स्य अंगुलिकाओं के संचयन
  6. जानिए मत्स्य प्रक्षेत्र की योजनाएँ
  1. मछुआरों के लिए सामूहिक आकस्मिक दुर्घटना बीमा योजना
  2. मत्स्य कृषकों को मिश्रित मत्स्य पालन के लिए अनुदान

परिचय

चूँकि मछली एक जलीय जीव है, अतएव उसके जीवन पर आस-पास के वातावरण की बदलती परिस्थतियां बहुत असरदायक हो सकती हैं। मछली के आस-पास का पर्यावरण उसके अनुकूल रहना अत्यंत आवशयक है। जाड़े के दिनों में तालाब की परिस्थति भिन्न हो जाती है तथा तापमान कम होने के कारण मछलियाँ तालाब की तली में ज्यादा समय व्यतीत करती हैं । अत: ऐसी स्थिति में ‘ऐपिजुएटिक अल्सरेटिव सिन्ड्रोम’ (EUS) नामक बीमारी होने की संभावना काफी ज्यादा बढ़ जाती है । इसे लाल चक्ते वाली बीमारी के नाम से भी जाना जाता है । यह भारतीय मेजर कॉर्प के साथ-साथ जंगली अपतृण मछलियों की भी व्यापक रूप से प्रभावित करती है। समय पर उपचार नहीं करने पर कुछ ही दिनों में पूरे पोखर की मछलियाँ संक्रमित हो जाती हैं और बड़े पैमाने पर मछलियाँ तुरंत मरने लगती हैं ।

बीमारी का इतिहास

इस रोग का विश्लेषण करने पर यह पाया गया कि प्रारंभिक अवस्था में यह रोग फफूंदी तथा बाद में जीवाणु द्वारा फैलता है ।विश्व में सर्वप्रथम यह बीमारी 1988 में बांग्लादेश में पायी गयी थी, वहाँ से भारतवर्ष में आयी ।

इस बीमारी का प्रकोप 15 दिसम्बर से जनवरी के मध्य तक ज्यादा देखा जाता है जब तापमान काफी कम हो जाता है । सबसे पहले तालाब में रहने वाली जंगली मछलियों यथा पोठिया, गरई, मांगुर, गईची आदि में यह बीमारी प्रकट होती है । अतएव जैसे ही इन मछलियों में यह बीमारी नजर आने लगे तो मत्स्यपालकों को सावधान हो जाना चाहिए । उसी समय इसकी रोकथाम कर देने से तालाब की अन्य योग्य मछलियों में इस बीमारी का फैलाव नहीं होता है ।

मछलियों को बीमारी से बचाने के उपाय

झारखण्ड राज्य में सामान्य रूप से इस बीमारी के नहीं दिखने के बावजूद 15 दिसम्बर तक तालाब में 200 कि०ग्रा०/ एकड़ भाखरा चूना का प्रयोग कर देने से मछलियों में यह बीमारी नहीं होती है और यदि होती भी है तो इसका प्रभाव कम होता है । जनवरी के बाद वातावरण का तापमान बढ़ने पर यह स्वत: ठीक हो जाती है ।

केन्द्रीय मीठाजल जीवपालन संस्था (सिफा), भुवनेश्वर द्वारा इस रोग के उपचार हेतु एक औषधि तैयार की है जिसका व्यापारिक नाम सीफैक्स (cifax) है । एक लीटर सीफैक्स एक हेक्टेयर जलक्षेत्र के लिए पर्याप्त होता है । इसे पानी में घोल कर तालाब में छिड़काव किया जाता है । गंभीर स्थिति में प्रत्येक सात दिनों में एक बार इस दवा का छिड़काव करने से काफी हद तक इस बीमारी पर काबू पाया जा सकता है ।

घरेलू उपचार में चूना के साथ हल्दी मिलाने पर अल्सर घाव जल्दी ठीक होता है । इसके लिए 40 कि० ग्रा० चूना तथा 4 कि०ग्रा० हल्दी प्रति एकड़ की दर से मिश्रण का प्रयोग किया जाता है । मछलियों को सात दिनों तक 100 मि०ग्रा० टेरामाइसिन या सल्फाडाइजिन नामक दवा प्रति कि०ग्रा० पूरक आहार में मिला कर मछलियों को खिलाने से भी अच्छा परिणाम प्राप्त होता है ।

मत्स्य पालक से मुखिया बने श्री मंगल मुर्मू की सफलता की कहानी

दुमका जिलान्तर्गत रामगढ़ प्रखंड स्थित कांजवे पंचायत के मनोहरपुर गांव के श्री मंगल मुर्मू को कौन नहीं जानता । साठ वर्षीय श्री मंगल मुर्मू मछली की कारोबार करके न सिर्फ लखपति बन चुके हैं, बल्कि 32 साल बाद हुए पंचायत चुनाव में ग्रामीणों ने उन्हें कांजवे पंचायत का मुखिया भी चुना है ।

आदिवासी समुदाय से होने के बावजूद मछली के व्यवसाय में जुड़ कर उन्होंने अपनी अलग पहचान बनायी है । तीस वर्ष पूर्व डाडो प्रखण्ड के श्री शीतल केवट से उनकी दोस्ती हुई थी तथा उन्हीं के साथ स्थानीय बाजार में दोनों मछली बेचा करते थे । धीरे-धीरे उन्होंने जाल बुनने के साथ मछली पालन की सारी प्रक्रिया सीख ली तथा पश्चिम बंगाल में मछली का बीज लाकर पहली बार केन्द्र खपड़ा गांव के एक व्यक्ति के निजी तालाब पर साझेदारी में मछली पालन प्रारंभ किया । प्रकारांत में उनका सम्पर्क चाम्पातरी गांव के श्री लूटन केवट से हुआ जो मछली पालन व्यवसाय के लिए जिला मत्स्य कार्यालय में आत-जाते रहते थे । उनके साथ मत्स्यजीवी सहकारी समिति से जुड़ कर सरकार द्वारा दिए जानेवाले प्रसिक्षण दिया गया तथा आन्ध्र-प्रदेश के स्थल अध्ययन यात्रा में भी भेजा गया ।

प्रशिक्षण के उपरान्त जिला मत्स्य कार्यालय, दुमका द्वारा उन्हें मछली का स्पान उपलब्ध कराया गया जिसे भालसुमर स्थित तालाब में रखकर उनके द्वारा मछली का बीज तैयार किया तथा उतरोतर आगे बढ़ते गये ।

आज वे प्रति सप्ताह 90-100 किलोग्राम मछली बाजार में बेचते हैं । फिलहाल उनके पास 8 सरकारी तथा 3 निजी तालाब हैं जिसका कुल जलक्षेत्र करीब 12 एकड़ है । इनमें वे व्यवसायिक रूप से मछली पालन कर रहे हैं । प्रारंभ में वे तालाब में मछली खुद मारते थे तथा बाजार में बेचते थे लेकिन वर्तमान में उनके अधीन 10-15 व्यक्ति काम करते हैं । मजबूरी के रूप में एक किलो मछली मारने पर उन्हें 250 ग्राम मछली मेहताना के तौर पर दिया जाता है । मंगल कहते हैं कि फिलहाल इस धंधा से सलाना 4-5 लाख रुपये की आमदनी है ।

मछली का बीज संचयन करने तथा शिकारमाही के लिए वे अपने पंचायत के हर तालाब पर जाते थे, जिसका कारण उनकी पहचान पंचायत के सभी गांवों में हुई तथा लोग उनके व्यवहार से परिचित हुए, जिसका नतीजा है कि आज वे कांजवे पंचायत के मुखिया बन गये हैं । ग्रामीण उनको मुखिया जी कहकर पुकारने लगे हैं ।

श्री मुर्मू कहते हैं कि वे मछली पालन के व्यवसाय को नहीं छोड़ेंगे तथा पंचायत के सभी सरकारी, गैरसरकारी तालाबों का जीर्णोधार कराने का प्रयास करेंगे तथा अधिक लोगों को मछली पालन करने के लिए प्रेरित करेंगे ।

बुंडू बड़ा बांध में मत्स्य अंगुलिकाओं के संचयन

बुंडू बड़ा बांध की मछलियों की बाजार में काफी मांग है, लेकिन इस बाँध का उपयोग व्यवसायिक उत्पादन के लिए नहीं किया जा सका है । झारखण्ड राज्य सहकारी मत्स्यजीवी संघ (झास्कोफिश) की मदद से सरकार का प्रयास है कि बुंडू में मछली का व्यवसायिक उत्पादन प्रारम्भ होगा । इससे मछुआरों में आर्थिक संपन्नता आएगी । बुंडू बड़ा बांध में 52 हजार मत्स्य अंगुलिकाओं का संचयन करते हुए इस योजना का शुभारम्भ किया गया था ।

झास्कोफिश के प्रबंध निदेशक डॉ० एच० एन० द्विवेदी बताया कि मछुआरों की साझेदारी से एक समिति का गठन किया गया है जिन्हें मछलीपालन के लिए हर संभव मदद दी जायेगी । समिति के माध्यम से ही बीज का संवर्धन किया जायेगी । वहाँ केज बना कर पंगेशियस मछली पालन की भी योजना है साथ ही मछलियों के विपणन के लिए फ्रेश फिश स्टाल निर्माण करने की योजना है । जब मछलियों का उत्पादन अधिक होने लगेगा तो वहां महिलाओं की एक समिति गठित की जायेगी जो मत्स्य प्रसंस्करण का भी काम करेगी ।

इस अवसर पर निदेशक मत्स्य श्री राजीव कुमार झास्कोफिश के प्रबंध निदेशक डॉ०एच०एन० द्विवेदी के साथ उप मत्स्य निदेशक श्री मनोज कुमार, बुंडू नगर पंचायत के उपाध्यक्ष अलविंदर उरांव, जिला परिषद सदस्य विनय कुमार मुण्डा के साथ सैंकड़ों ग्रामीण मछुआगण मौजूद थे ।

जानिए मत्स्य प्रक्षेत्र की योजनाएँ

मछुआरों के लिए सामूहिक आकस्मिक दुर्घटना बीमा योजना

मछुआरों एवं मत्स्य कृषकों के कल्याण हेतु यह एक केन्द्र प्रायोजित योजना है । इस योजना के अन्तर्गत 19 वर्ष से अधिक तथा 65 वर्ष से काम आयु के मत्स्य कृषकों/ मछुआरों का बीमा किया जाता है जिसके प्रीमियम का आधा भाग राज्य सरकार एवं आधा भाग केन्द्र सरकार वहन करती है । बीमित मछुआ/ मत्स्य कृषक को कोई प्रीमियम नहीं देना होता है । बीमित की मृत्यु अथवा पूर्ण स्थायी अपंगता की स्थिति में उनके वैध आश्रित को बीमा कम्पनी द्वारा एक लाख रुपये का भुगतान किया जाता है । आंशिक स्थाई अपंगता की स्थिति में 50 हजार रुपये का भुगतान किया जाता है । बीमा दावा का आवेदन पत्र सभी जिला मत्स्य कार्यालयों में निशुल्क उपलब्ध है । बीमा दावा के साथ थाना में दर्ज एफ़०आइ०आर० की प्रति, मृत्यु की स्थिति में मृत्यु प्रमाणपत्र की प्रति, वैध उतराधिकारी का प्रमाण, पोस्टमार्टम रिपोर्ट तथा मत्स्य जीवी सहयोग समिति की सदस्यता/ पंजीयन का प्रमाण संलग्न करना आवशयक है । आंशिक स्थाई अपंगता की स्थिति में संबंधित जिले के असैनिक शल्य चिकित्सक (सिविल सर्जन) के द्वारा निर्गत प्रमाण पत्र का होना आवशयक है। मृत्यु अथवा दुर्घटना के चालीस दिनों के अन्दर सभी कागजातों के साथ अपने जिले के जिला मत्स्य कार्यालय में दावा प्रपत्र जमा किया जा सकता है।

विषम परिस्थितियों में काम करने वाले मछुआरों/ मत्स्य कृषकों के लिए यह कल्याणकारी योजना है ।

मत्स्य कृषकों को मिश्रित मत्स्य पालन के लिए अनुदान

मत्स्य कृषकों के सदाबहार तालाबों में मिश्रित मत्स्य पालन के प्रत्यक्षण की योजना राज्य में लागू है । प्रत्येक जिले में 2 -4 मत्स्य कृषक जिनके पास सदाबहार तालाब हैं, का चयन इस योजना के लिए किया जता है । इनके तालाबों में अनुशंसित प्रजाति की अंगुलिकाएँ संचित की जाती है । इन्हें कृत्रिम पूरक आहार पर पाला जाता है । इसके लिय कृषक को मो० 30 हजार रुपया प्रति हेक्टेयर की दर से बीज, आहार आदि पर व्यय हेतु आर्थिक सहायता दी जाती है । प्रत्यक्षण की अवधि में मत्स्य पालन से संबंधित आंकड़े विधिवत पंजी में संधारित करना आवश्यक होता है । एक वर्ष में चयनित लाभुक को आगामी वर्ष में इस योजना अन्तर्गत दुबारा सहायता नहीं दी जा सकती है।

इस हेतु आवेदन संबंधित जिला मत्स्य कार्यालय,दुमका में उपलब्ध हैं।

स्त्रोत: जिला मत्स्य पदाधिकारी, दुमका

 

मछलियों में रोग और उपचार

  1. रोग ग्रस्त मछलियों के लक्षण
  2. रोग के कारण
  1. परजीवी जनित रोग
  2. जीवाणु जनित रोग
  1. विषाणु(वायरस) जनित रोग

मछलियाँ भी अन्य प्राणियों के समान प्रतिकूल वातावारण में रोगग्रस्त हो जाती है। रोग फैलते ही संचित मछलियों के स्वभाव में प्रत्यक्ष अंतर आ जाता है। फिर भी साधारणतः मछलियां रोग-व्याधि से लड़ने में पूर्णत: सक्षम होती हैं।

रोग ग्रस्त मछलियों के लक्षण

(1) बीमार मछली समूह में न रहकर किनारे पर अलग-थलग दिखाई देती है, वे शिथिल हो जाती है।

(2) बेचैनी, अनियंत्रित तैरती हैं।

(3) अपने शरीर को बंधान के किनारे या पानी में गड़े बाँस के ठूँठ से बार-बार रगड़ना।

(4) पानी में बार-बार कूद कर पानी को छलकाना।

(5) मुँह खोलकर बार-बार वायु अन्दर लेने का प्रयास करना।

(6) पानी में बार-बार गोल-गोल घूमना।

(7) भोजन न करना।

(8) पानी में सीधा टंगे रहना। कभी-कभी उल्टी भी हो जाती है।

(9) मछली के शरीर का रंग फीका पड़ जाता है। चमक कम हो जाती है तथा शरीर पर श्लेष्मिक द्रव के स्त्राव से शरीर चिपचिपा चिकना हो जाता है।

(10) कभी-कभी आँख, शरीर तथा गलफड़े फूल जाते है।

(11) शरीर की त्वचा फट जाती है तथा उससे खून लगता है।

(12) गलफड़े (गिल्स) की लाली कम हो जाना, उनमें सफेद धब्बों का बनना।

(13) शरीर में परजीवी का वास हो जाता है।

उपराेक्त कारणों से मछली की बाढ़ रूक जाती है तथा कालान्तर में तालाब में मछली मरने भी लगती है।

रोग के कारण

(अ) रासायनिक परिवर्तनः- पानी की गुणवत्ता, तापमान, पी.एच. आँक्सीजन, कार्बन डाईआक्साइड आदि की असंतुलित मात्रा मछली के लिए घातक होती है।

(ब) मछली के वर्ज्य पदार्थ जल में एकत्रित होते जाते है व मछली के अंगों जैसे गलफड़े, चर्म, मुखगुव्हा के सम्पर्क में आकर उन्हें नुकसान पहुँचाते हैं।

(स) कार्बनिक खाद, उर्वरक या आहार आवद्गयकता से अधिक दिए जाने से विषैली गैसे उत्पन्न होते है जो नुकसान दायक होती है।

(द) बहुत से रोगजनक जीवाणु व विषाणु पानी में रहते है जब मछली प्रतिकूल परीस्थिति में कमजोर हो जाती है तो उस पर जीवाणु/विषाणु आक्रमण करके रोग ग्रसित कर देते हैं।

प्रमुखतः रोगों को चार भागों में बांट सकते हैं-

(1) परजीवी जनित रोग

(2) जीवाणु जनित रोग

(3) विषाणु जनित रोग

(4) कवक (फंगस) जनित रोग

परजीवी जनित रोग

आतंरिक परजीवी, मछली के आतं रिक अंगों जैसे से शरीर गुहा, रक्त नलिका, वृक्क आदि में राेग फैलाते हैं जबकि बाह्‌य परजीवी मछली के चर्म,गलफडों, पंखों आदि के रोग ग्रस्त करते हैं।

  1. ट्राइकोडिनोसिस

लक्षण- यह बीमारी ट्राइकोडीना नामक प्रोटोजोआ परजीवी से होती है जो मछली के गलफड़ों व शरीर के बाह्‌य सतह पर रहता है। संक्रमित मछली में शिथिलता भार में कमी तथा मरणासन्न अवस्था आ जाती है गलफड़ों से अधिक श्लेष्म प्रभावित होने से श्वसन में कठिनाई होती है

उपचार-

निम्नर सायनों के घोल में संक्रमित मछली को 1-2 मिनिट डुबाकर रखा जाता है।

  1. 1.5 प्रतिशत सामान्य नमक घोल
  2. 25 पी.पी.एम. फार्मेलिन
  3. 10 पी.पी.एम. काँपरसल्फेट (नीला थोथा) घोल
  4. माइक्रो एवं मिक्सोस्पोरीडिएसिस-

लक्षण- माइक्रोस्पारीडिएसिस रोग अंगुलिका अवस्था में अधिक होता है ये कोशिकाओं मे तन्तुमय कृमिकोष बनाकर रहते है तथा उत्तकों को भारी क्षति पहुंचाते हैं मिक्सोस्पोरीडिएसिस रोग मछली के गलफड़ों व चर्म को संक्रमित करता है।

उपचार-

इनकी रोकथाम के लिए कोई औषधि पूर्ण लाभकारी सिद्ध नहीं हुई है. अतः रोगग्रस्त मछली को बाहर निकाल देते हैं मत्स्य बीज संचयन के पूर्व चूना,व्लीचिंग पावडर से पानी को रोगाणुमुक्त करते हैं।

  1. सफेद धब्बेदार रोग

लक्षण- यह रोग इक्थियाेि थरिस प्रोटोजोन द्वारा होता है इसमें मछली की त्वचा, पंख व गलफड़ों पर छोटे सफेद धब्बे हो जाते है. ये उत्तकों में रहकर उतको काो नष्ट कर देते हैं।

उपचार-

0.1 पी.पी.एम. मेलाकाइट ग्रीन 50 पी.पी.एम. फार्मलिन में 1.2 मिनिट तक मछली को डूबाते हैं पोखार में 15 से 25 पी.पी.एम. फार्मेलिन हर दूसरे दिन रागे समाप्त होने तक डालते हैं।

  1. डेक्टाइलो गाइरोसिस व गाइरो डेक्टाइलोसिस-

लक्षण- यह कार्प एवं हिंसक मछलियों के लिए घातक हैं. डेक्टाइलोगायरस मछली के गलफड़ों कों संक्रमित करते है इससे ये बदरंग, शरीर की वृद्धि में कमी व भार में कमी जैसे लक्षण दर्शाते हैं।

गाइरोडेक्टाइलस त्वचा पर संक्रमित भाग की कोशिकाओं में घाव बना देता है जिससे शल्कों का गिरना, अधिक श्लेषक एवं त्वचा बदरंग हो सकती है।

उपचार-

1 पी.पी.एम. पोटेशियम परमेगनेट के घोल में 30 मिनिट तक रखते हैं।

  1. 1:2000 का ऐसिटिक एसिड केघोल एवं 2 प्रतिद्गात नमकघोल मे बारी-बारी से 2 मिनिट के लिए डूबावें।
  2. तालाब में मेलाथियाँन 0.25 पी.पी.एम. सात दिन के अंतर में तीन बार छिड़कें।
  3. आरगुलौसिस

लक्षण-यह रोग आरगुलस परजीवी के कारण होता है। यह मछली की त्वचा पर गहरे घाव कर देते हैं जिससे त्वचा पर फफूंद व जीवाणु आक्रमण कर देते हैं व मछलियां मरने लगती है।

उपचार-

  1. 500 पी.पी.एम.पोटेशियम परमेगनेट केघोल में 1 मिनिट के लिए डूबाए.

0.25 पी.पी.एम. मेलेथियाँरन को 1-2 सप्ताह के अंतरराल में 3 बार उपयोग करें

जीवाणु जनित रोग

  1. काँलमनेरिस रोग

लक्षण- यह फ्लेक्सीबेक्टर काँलमनेरिस नामक जीवाणु के संक्रमण से होता है, पहले शरीर के बाहरी सतह पर व गलफड़ों मे घाव होने शुरू हो जाते हैं फिर जीवाणु त्वचीय उत्तक में पहुंच कर घाव कर देते है।

उपचार

  1. संक्रमित भाग में पोटेशियम परमेगनेट का लेप लगाए।
  2. 1-2 पी.पी.एम. काँपर सल्फेट काघोल पोखरों में डालें।
  3. बेक्टीरियल हिमारैजिक सेप्टीसिमिया

लक्षण- यह मछलियों में ऐरोमोनाँस हाइड्राेफिला व स्युडोमोनास फ्लुरिसेन्स नामक जीवाणु से हाेते है इसमें शरीर पर फोड़े, तथा फैलाव आता है, शरीर पर फूले हुए घाव हो जाते है जो त्वचा व मांसपेशियो में हुए क्षय को दर्शाता है, पंखों के आधार पर घाव दिखाई देते हैं।

उपचार

  1. पोखरों में 2-3 पी.पी.एम. पोटेशियम परमेगनेट का घोल डालना चाहिए।
  2. टेरामाइसिन को भोजन के साथ 65-80 मि.ग्राम प्रति किलोग्राम भार से10 दिन तक लगातार दें।
  3. ड्राँप्सी

लक्षण- यह उन पोखरों में होता है जहां पर्याप्त भोजन की कमी होती है. इसमें मछली का धड़ उसके सिर के अनुपात में काफी पतला हो जाता है और दुर्बल हो जाती है। मछली जब हाइड्रोफिला नामक जीवाणुं के सम्पर्क में आती है तो यह रोग होता है. प्रमुख लक्षण शल्कों का बहुत अधिक मात्रा में गिरना तथा पेट में पानी भर जाता है।

उपचार

  1. मछलियों को पर्याप्त भोजन देना व पानी की गुणवत्ता बनाए रखना।
  2. पोखर में 15 दिन के अंतरराल में 100 कि.ग्राम प्रति हेक्टर की दर से चूना डालें।
  3. एडवर्डसिलोसिस-

लक्षण- इसे सड़कर गल जाने वाला रोग भी कहते हैं, यह एडवर्डसिला टारडा नामक जीवाणु से होता है।प्राथमिक रूप से मछली दुर्बल हो जाती है,शल्क गिरने लगते है फिर पेशियो मे गैस से फोड़े बन जाते हैं चरम अवस्था में मछली से दुर्गन्ध आने लगती है।

उपचार-

  1. सर्वप्रथम पानी की गुणवत्ता की जांच कराना चाहिए।
  2. 0.04 पी.पी.एम. के आयोडीन के घोल में दो घंटे के लिए मछली को रखना चाहिए।
  3. वाइब्रियोसिस

लक्षण- यह रोग विब्रिया प्रजाति के जीवाणुओं से होता है, इसमें मछली को भोजन के प्रति अरूचि होने के साथ-साथ रंग काला पड़ जाता है, मछली अचानक मरने भी लगती है। यह मछली की आखों को अधिक प्रभावित करता है व सूजन के कारण आंख बाहर निकल आती है व सफेद धब्बे पड़ जाते हैं।

उपचार

आंक्सीटेट्रासाईक्लिन तथा सल्फोनामाइड को 8-12 ग्राम प्रति किलोग्राम भोजन के साथ मिलाकर देना चाहिए।

  1. फिनराँट एवं टेलराँट

लक्षण- यह रोग ऐरोमोनाँस फ्लुओरेसेन्स, स्युडोमोनाँस फ्लुओरेसेन्स तथा स्युडोमोनाँस पुटीफेसीन्स नामक जीवाणु के संक्रमण से होता है, इसमें मछली के पक्ष एव पूंछ सड़कर गिरने लगती हैं। बाद में मछलियां मर जाती है।

उपचार-

  1. पानी की स्वच्छता आवश्यक है।
  2. एमेक्विल औषधि 10 मि.ली. प्रति सौ लीटर पानी में मिलाकर संक्रमित मछली को 24 घंटे तक घोल में रखना चाहिए।

कवक/फफूंद जनित रोग

आंद्रता के बढ़ने पर विशेषकर वर्षा ऋतु के प्रारंभ होते ही वातावरण में फफूंद के जीवाणु फैलने लगते हैं मछली के अंडे, स्पान तथा नवजात शिशु तथा घायल बड़ी मछलियां फफूंद से जल्दी संक्रमित हो ते हैं। वास्तव में फफूंद द्वितीय रोग जनक है जो अनुकूल मौसम में शरीर के घायल अंगों पर आश्रय पाकर फलते-फूलते हैं।

12.सेप्रोलिग्नीयोसिस

सेप्रोलिग्नीयोसिस पैरालिसिका नामक फफूंद से होता है जाल चलाने तथा परिवहन के दौरान मत्स्य बीज के घायल हो जाने से फफूंद घायल शरीर पर चिपक कर फैलने लगता है तथा त्वचा पर सफेद जालीदार सतह बनाता है। यह सबसे घातक रोग है।

लक्षण-

  1. जबड़े फूल जाते हैं अंधापन आने लगता है।
  2. पैक्टोरलफिन एवं काँडलफिन के जोड़ पर खून जमा हो जाता है।
  3. रोगग्रस्त भाग पर रूई के समान गुच्छे उभर आते है।
  4. मछली कमजोर तथा सुस्त हो जाती है।

उपचार-

3 प्रतिशत नमक का घोल या 1:1000 भाग पोटाश के घोल या 1:2000 कैल्शियम सल्फेट के घोल में ५ मिनट तक डुबोने तथा इस रोग के समाप्त होने तक दोहराने से लाभ होता है।

  1. ब्रेकियोमाइसिस-

इसका आक्रमण गलफड़ो पर होता है, जिससे गलफड़े रंगहीन हो जाते हैं जो कुछ समय उपरांत सड़-गल कर गिर जाते हैं।

उपचार-

  1. 250 पी.पी.एम. का फार्मिलिन घोल बनाकर मछली को स्नान दें।
  2. 3 प्रतिशत सामान्य नमक के घोल मछली को विशेषकर गलफड़ों को धोना चाहिए।
  3. जल का 1-2 पी.पी.एम. काँपर सल्फेट (नीला थोथा) से उपचार करना चाहिए।
  4. पोखर में 15-25 पी.पी.एम. की दर से फार्मिलिन डालें।

विषाणु(वायरस) जनित रोग

 

14.एपीजुएटिक अलसरेटिव सिण्ड्रोम (ई.यू.एस.)

गत 22 वर्षो से यह रागे महामारी के रूपमें भारत में फैल रहा है। सर्वप्रथम यह रागे 1983 से त्रिपुरा राज्य में प्रविष्ट हुआ तथा वहां से सम्पूर्ण भारत वर्ष में फैल गया। वर्षा काल के बाद ठीक ऋतु के प्रारंभ में सर्वप्रथम तल में रहने वाली सँवल, मांगूर ,सिंधी बाँम, सिंधाड़, कटरंग तथा स्थानीय छोटी छिलके वाली मछलियां इस राेग से प्रभावित होती हैं। कुछ ही समय में पालने वाली कार्प मछलियां जैसे- कतला, रोहू तथा मिरगल मछलियां भी इस रोग की चपेट में आ जाती हैं। इस महामारी के प्रारंभ में मछली की त्वचा पर जगह जगह खून के धब्बे उभरते हैं जो बाद मे चोट के गहरे घावों में तबदील हो जाते है तथा उनसे खून निकलने लगता है। चरम अवस्था में हरे लाल धब्बे बढ़ते हुए पूरे शरीर पर यहां वहां कर गहरे अलसर में परिणीत हो जाता है। विशेष रूप से सिर तथा पूंछ के पास वाले भाग पर। पंख तथा पूंछ गल जाती है तथा अततः शीघ्र व्यापक पैमाने पर मछलियां मर कर किनारे दिखाई देने लगती है।

कारण-

यह रोग पोखर ,जलाशय तथा नदी में रहने वाली मछलियों में फैल सकता है, परन्तु इस रोग का प्रकापे खेती की जमीन के समीपवर्ती तालाबों ज्यादा देखा गया है, जहां वर्षा के पानीमें खाद,कीटनाशक इत्यादि घुलकर तालाब में प्रवेश करते है। साधरणतः कीटनाद्गाक के प्रभाव से मछली की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। पानी में प्रदूषण अधिक होने पर अमोनिया का प्रभाव बढ़ जाता है तथा पानीमें आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। यह परिस्थिति इस रोग के बैक्टिरिया के लिए अनुकूल होती है, जिससे ये तेजी से बढ़ते है तथा प्रारंभ में त्वचा पर धब्बें के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं जो कालांतर में गहरे अलसर का रूप धारण कर लेते हैं।

इस रागे के फैलने में अनेक कारक अपना यागे दान देते है, जिसमें वायरस,बैक्टिरिया तथा फँगस (फफूंद) प्रमुख है।

बचाव के उपाय-

  1. पूर्व में रोगग्रस्त प्रजनकों जो बाद में भले ही स्वस्थ्य हो जाते हैं ऐसे प्रजनकों से मत्स्य बीज उत्पादित नहीं करना चाहिए।
  2. तालाब के किनारे यदि कृषि भूमि है तो तालाब के चारों ओर बाँध बना देना चाहिये, ताकि कृषि भूमि का जल सीधे तालाब में प्रवेश न करें ।
  3. वर्षा के बाद जल का पी.एच. देखकर या कम से कम 200 किलो चूने का उपयोग करना चाहिए।
  4. शीत ऋतु के प्रारभिक काल में आँक्सीजन कम होने पर पम्प, ब्लोवर से पानीमें आँक्सीजन को प्रवाहित करना चाहिए।

प्रति एकड़ 5 किलो मोटे दाने वाला नमक डालने से कतला व अन्य मछलियों को वर्षा पश्चात्‌ मछली में अन्य होने वाले रोग से सुरक्षा की जा सकती है।

उपचार-

  1. अधिक रोगग्रस्त मछली को तालाब से अलग कर देना चाहिए तथा तालाब में कली का चूना (क्विक लाइम) जो कि ठोस टुकड़ों में हो 600 किलो प्रति हेक्टेयर/मीटर की दर से जल में तीन सप्ताहिक किश्तो में डालने से तीन सप्ताह में नियंत्रित हो जाती है।
  2. चूने के उपयोग के साथ-साथ व्लीचिंग पाउडर 1 पी.पी.एम. अर्थात्‌ 10 किलो प्रति हेक्टर/मीटर की दर से तालाब में डाला जाना कारगर सिद्ध होता है। कम मात्रा में या छोटे पोखर में मछली ग्रसित होता पोटेशियम परमेगनेट 0.5 से 2.0 पी.पी.एम. केघोल में 2 मिनट तक स्नान लगातार 3-4 दिन तक कराने से लाभ होता है।
  3. सिफेक्स- केन्द्रीय स्वच्छ जल संवर्धन संस्थान (सीफा) भुवनेश्वर के वैज्ञानिकों ने अल्सरेटिव सिन्ड्रोम के उन्मूलन हेतु दवा बनाई है जो एक्वावेट लेबारेटरीज राँची द्वारा बेची जाती है। प्रति हेक्टर/ मीटर १ लीटर की दर से पानी का उपचार आवश्यकतानुसार किया जा सकता है। प्रति लीटर इसका मूल्य रू. 950/- के लगभग है।

पी. पी. एम. की गणना कैसे करेंगे

पी. पी. एम. अर्थात्‌ पार्टस पर मिलियन अर्थात्‌ भाग प्रति दस लाख

1 पी. पी. एम. अर्थात्‌ एक घनफुट पानी में 0.283 ग्राम दवाई

कुल मात्रा ग्राम में = जलक्षेत्र की लम्बाई (मीटर में) जलक्षेत्र की चौड़ाई (मीटर में) X

जलक्षेत्र की गहराई (मीटर में) डोज पी. पी. एम

नोटः- एक हेक्टेयर मीटर जलक्षेत्र अर्थात्‌ एक मीटर गहरे एक हेक्टेयर जलक्षेत्र में 1 पी. पी एम. हेतु 10 किलो ग्राम दवा लगेगी।

या

1 पी.पी. एम. अर्थात्‌ एक लीटर पानीमें 0.0001 ग्राम दवाई

या

1 पी.पी. एम. अर्थात्‌ एक गैलन पानी में 0.0083 ग्राम दवाई

स्त्रोत: मध्यप्रदेश शासन, मछुआ कल्याण एव मत्स्य विकास।

 

 

 

मछलियों में होनेवाली सामान्य बीमारियाँ एवं उपचार

  1. भूमिका
  2. मत्स्य रोग के सामान्य लक्षण
  3. बीमारी के कारण

भूमिका

पूरे विश्व में मत्स्य पालन के दौरान मछलियों का रोगग्रस्त होना एक बड़ी समस्या है जिससे इस उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जलकृषि के गहन पालन में जहां संग्रहण दर अधिक होती है, वहां मछलियों में बिमारी फ़ैलने की सम्भावना भी सबसे अधिक होती है। इन मछलियों में बिमारी कुछ रोगजनक कीटाणुओं जैसे विषाणु, जीवाणु, प्रोटोजोआ तथा मेटाजोआ जैसे परजीवियों के कारण फैलती है। इन संक्रमण एवं ग्रसन के अलावा कुछ ऐसे पर्यावरणीय कारक भी हैं जो मछलियों में बीमारी एवं उनकी मृत्यु के लिए जिम्मेदार हैं।

मत्स्य रोग के सामान्य लक्षण

मछलियों में बीमारीयों के सामान्य लक्षण हैं – बैचनी, असामान्य तरीके से विचरण, मछलियों का कूदना जल के ऊपरी सतह पर तैरना, हंफनी, किसी कठोर तल पर शरीर को घिसना, समूह में ना रहना, त्वचा का अति चिकना होना, त्वचा या पंख या गलफड़ पर कोई घाव, विकास में कमी तथा बड़े पैमाने पर मछलियों की मृत्यु ।

बीमारी के कारण

मछलियों में बीमारी के कारण एवं सम्बद्ध कारकों को दो बड़े वर्गों में बांटा जा सकता है –

  1. पर्यावरणीय कारक
  2. संक्रमण व ग्रसन संबंधी कारक
  3. पर्यावरणीय कारक :किसी भी जीव के विकास एवं उत्तरजीवीता के लिए उपयुक्त एवं स्वस्थ वातावरण की आवश्यकता होती है। इसकी कमी से होने वाली बीमारियाँ निम्नलिखित हैं –

आक्सीजन की कमी या हाइपोक्सिया

किसी भी जीव के लिए आक्सीजन अत्यंत ही महत्वूर्ण है। मछलियों को स्वस्थ रहने के लिए जल में घुली आक्सीजन की मात्रा 4-5 पी.पी.एम तक होना चाहिये, पर साधारणत: इसकी मात्रा कम ही पाई जाती है।पौधे, जैव पदार्थों की अधिकता, बहि:स्त्राव, अत्यधिक भोज्य पदार्थों का जमाव तथा संग्रहण घनत्व के अधिक होने से आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है जो मछलियों की मृत्यु का कारण बनती है।यह समस्या ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु तथा सुबह के समय अधिक होती है।इसका उपचार जल में आक्सीजन की घुलनशीलता बढ़ाना है जैसे जल में बांस फिराना, जल को पंप करना आदि।इसमें मछलियों के संग्रहण दर को घटाना, अधिक भोजन न देना, बहि:स्त्राव को रोकना, जैव व् खाद न देना , स्वच्छ जल का प्रवाह करना तथा गाद के उपरी सतह को हटाना आदि उपाय किये जा सकते हैं |

  1. संक्रमण एवं परजीवियों के कारण होने वाले रोग
    1. सफेद धब्बेदार रोग – यह रोग इक्थियोपथिरियस प्रोटोजोन द्वारा होता है।इसमें मछली की त्वचा, पंखों व गलफड़ों पर छोटे-छोटे सफेद धब्बे आ जाते हैं।इस बीमारी से जीरा और अंगुलिकाओं में भारी हानि होती है।ये परजीवी मछली एक एपीथिलियम उत्तकों में रहकर इसे नष्ट कर देते हैं।

उपचार :

  • पी.पी.एम मेलाकाईट ग्रीन + 50 पी.पी.एम फार्मीलिन में 2 मिनट डुबोएं।
  • पोखर में 15-25 पी.पी.एम फार्मीलिन हर दुसरे दिन रोग पूरी तरह समाप्त होने तक डालते रहें।
  1. डेक्टाइलोगाईरोसिस व गाईरो डेक्टाइलोसिस :यह कार्प तथा हिसंक मछलियों के लिए एक घातक रोग है। डेक्टाइलोगाईरन मछली के गलफड़ों को संक्रमित करते हैं जिससे गलफड़े बदरंग, शरीर वृद्धि तथा भार में कमी आ जाती है। गाइरोड़ेक्टाइलस ज्यादातर त्वचा पर मिलता है। यह संक्रमित भाग की कोशिकाओं में घाव बना देता है, जिससे त्वचा का बदरंग होना शल्कों का गिरना तथा अधिक श्लेष्म का श्राव होता है।

उपचार :

  1. मछलियों को 500 पीपीएम पोटेशियम परमैगनेट के घोल में 5 मिनट के लिए रखना चाहिए।
  2. 1:2000 का एसटीक एसिड घोल व 2% नमक घोल में 2 मिनट के लिए बारी-बारी डुबाएं।
  3. पोखर में 25 पी.पी.एम फार्मीलिन का प्रयोग करें।
  4. तालाब में मेलेथियान 25 पी.पी.एम की दर से सात दिन के अंदर में तीन बार दें।
  5. आरगुलोसिस : यह रोग आरगुलस नामक क्रस्टेशियन परजीवी से होता है।यह मछली की त्वचा पर गहरे घाव कर देता है जिससे उस पर दुसरे जीवाणु व् फफूंद आक्रमण कर देते हैं और मछलियाँ अधिक संख्या में मरती हैं।

उपचार :

  • 35 मी.ली. साइपरमेथिन या क्लीनर दवा 100 लीटर पानी में घोल कर 1 हैक्टर –मी. के तालाब में 5 दिन के अंतर में तीन बार डालना चाहिए।
  • 25 पी.पी.एम. मैलिथियन को 1 सप्ताह के अंतराल से 3 बार दें।
  1. ड्राप्सी :यह आमतौर पर उन पोखरों में पाया जाता है जहाँ मछलियों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता है। हमें मछली का धड़ उसके सिर के अनुपात से काफी पतला हो जाता है और वे दुर्बल हो जाती है। दुर्बल मछली हाइड्रोफिला नामक जीवाणु के संशपर्स में आती है तो इस रोग से आक्रान्त हो जाती है। इस रोग का प्रमुख लक्षण है, मछली के शल्कों का बहुत अधिक मात्रा में गिरना तथा उसके उदरीय गुहा में पानी का जमाव है।

उपचार :

  • मछलियों को पर्याप्त मात्रा में भोजन देना, साथ ही पानी की गुणवत्ता को बराबर बनाए रखना चाहिए।
  • पोखर में हर 15 दिन में चूना का प्रयोग 100 किग्रा हे. की दर से उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
  1. फिन राट एवं टेल राट :यह रोग प्रमुखत: ऐरोमोनास, फ्लुओरेसेन्स, स्युडोमोनास प्लुओरेसेन्स तथा स्युडोमानस पुट्रिफेसीऐन्स नामक जीवाणुओं के संक्रमण से होता है।मछली के मीन पक्ष तथा पूंछ का सड़कर गिर जाना, इस रोग का प्रमुख कारण है।पहले मीन पक्ष की बाहरी सतह पर सफेद छोटे-छोटे धब्बे आने लगते हैं, जो कि धीरे-धीरे अधिक मात्रा में गलने लगता है।अंतत: 72-120 घन्टे के अन्दर सारी मछलियां मर जाती है।

उपचार :

  • पानी की स्वच्छता ही इसका उपाय है साथ ही फोलिक एसिड को भोजन के साथ मिलाकर खिलाना चाहिए।
  • इमेक्विल नामक औषधि 10 मि.ली. प्रति 100 लिटर पानी में मिलाकर संक्रमित मछली को 24-48 घंटो के लिए इस घोल में रखना चाहिए।
  • 1% एक्रिफलेविन को एक हजार लीटर पानी में 100 मि.ली. की दर से मिलाकर रोगी मछली को इस घोल से 30 मिनट के लिए रखना चाहिए।
  1. लाल घाव का रोग एपीजुटिक अल्सरेटिव सिंड्रोम” : “एपीजुटिक अल्सरेटिव सिंड्रोम” एक अत्यंत ही घातक रोग है तथा इसे “लाल घाव की बीमारी” के नाम से भी जाना जाता है।यह रोग संवर्धनकारी मछलियों के साथ-साथ जंगली तथा असंवर्धनकारी मछलियों को भी व्यापक रूप से प्रभावित करता है।संक्रमित मछली के शरीर में जगह-जगह घाव हो जाते हैं।इनका फैलाव अलग –अलग जाति की मछलियों में अलग-अलग प्रकार से होता है।अतिसंक्रमित मछली के विश्लेषण में कई प्रकार के रोगजनकों जैसे – जीवाणु, विषाणु, फफूंद इत्यादि का सम्मिलित संक्रमण देखा गया है।इन रोगों के प्राथमिक रोगजनक के लिए वैज्ञानिकों के विभिन्न मत है।कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि एरोमोनास हाईड्रोफिला जीवाणु इस रोग के संक्रमण में अति महत्वपूर्ण भुमिका अदा करता है जब कि कई अन्य वैज्ञानिकों ने एफेनोमाईसिस नामक फफूंद को इस रोग के प्राथमिक रोगजनक माना है।

उपचार

यह एक अति घातक रोग है।इसलिए रोग का उपचार अगर जल्दी नहीं किया गया तो कुछ ही समय में यह पुरे पोखर की मछलियों को संक्रमित कर देता है। अतिसंक्रमित मछलियाँ तुरंत मरने लगती है। इसलिए रोग का पता चलते ही तालाब में 600 किग्रा चूना /हे./मी. की दर से 3 बार में हर सात दिन के बाद देना चाहिए। अभी तक उपयोग में लाये गये सभी रसायनों या औषधियों में से यह उपचार काफी हद तक असरदायक साबित हुआ है। सीफा, भुवनेश्वर में कार्यरत वैज्ञानिकों ने इस रोग के उपचार हेतु औषधि तैयार की है।जिसका व्यापारिक नाम “सीफेक्स” दिया गया है।एक लीटर औषधि एक हेक्टेयर जल क्षेत्र में प्रयोग करने से उपस्थित मछलियाँ रोग रहित हो जाती है। यद्यपि इस औषधि के पानी की गुणवत्ता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है, फिर भी यह सुझाव दिया जाता है कि प्राय: 24 घंटे तक तालाब के पानी का प्रयोग से ही 7-10 दिन के अंदर मछलियाँ स्वस्थ्य होने लगती हैं।1 लीटर दवा को 100 लि. पानी में घोल बनाकर तालाबों में डालने से यह रोग निरोधक के रूप में भी काम करता है |

घरेलू उपचार में चूना के साथ हल्दी मिलाने से भी अल्सर घाव जल्दी से ठीक होता है। कली चूना 40 किग्रा/एकड़ एवं हल्दी का चूर्ण 4 किग्रा/एकड़ की दर से प्रयोग करें। आधी मात्रा चूना एवं आधी मात्रा हल्दी चूर्ण मिलाकर तालाब में डालें।पुन: 5 से 7 दिनों के बाद शेष आधी मात्रा का प्रयोग करने से लाभ देखा गया है। मछलियों को सात दिनों तक प्रतिदिन 100 मि.ग्रा. टेरामाइसिन तथा 100 मि.ग्रा. सल्फाडाइजिन नामक दवा को प्रति किग्रा पूरक आहार (भोजन) में मिलाकर मछलियों को खिलाना अच्छा परिणाम देता है |

तालिका नं. 1

मछली पालन हेतु पानी की गुणवत्ता संबंधी प्रमुख कारकों का संतुलित परिमाप

पी . एच. 7.5 – 8.6
अमोनिया 0.2 पी.पी.एम.
कार्बन डायआक्साईट 15-20 पी.पी.एम.
घुलित आक्सीजन की मात्रा 5 पी.पी.एम.
हाइड्रोजन सल्फाइड 0.003 पी.पी.एम.
नाइट्रेट 1.0 पी.पी.एम.
पोटेशियम 5.0 पी.पी.एम.
लवणता 2 पी.पी.एम.

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालयराँचीझारखण्ड सरकार

 

मत्स्य बीज उत्पादन : एक लाभकारी व्यवसाय

  1. परिचय
  2. मत्स्य स्पान उत्पादन
  3. मत्स्य बीज उत्पादन

परिचय

अच्छे नस्ल के मत्स्य बीज सही समय और सही संख्या में तालाब के संचय करना अच्छे और सफल मत्स्य उत्पादन की सबसे महत्वूर्ण आवश्यकता है |

आमतौर पर यह देखा गया है कि समय पर मत्स्य बीज नहीं मिलने के कारण महंगे मिलने के कारण बहुत से मत्स्य पालकों के तालाब खाली रह जाते हैं या आवश्यकता अनुरूप संचित नहीं हो पाते हैं | झारखण्ड राज्य में लगभग 120 करोड़ मत्स्य बीज की मांग है |

मत्स्य स्पान की आवश्यकता मात्रा का लगभग 80 % और मत्स्य बीज का 40 % मांग की आपूर्ति पं. बंगाल के बांकुड़ा, पुरुलिया आदि सीमावर्ती जिलों से की जाती है | झारखण्ड राज्य में भी मत्स्य स्पान उत्पादन, विशेष कर मछली के बीजों के उत्पादन की बहुत संभावना है | झारखण्ड राज्य लगभग 60% जलकर मौसमी प्राकृति के हैं, जिनमें 6 से 8 माह तक पानी रहता है | ऐसे मौसमी जलकरों का प्रयोग नर्सरी तालाब / रियारिंग तालाब की तरह कर के इनके मत्स्य बीज (फ्राई) तथा फिंगरलिंग का सफलता पूर्वक उत्पादन किया जा सकता है | राँची जिला के सिल्ली अंचल एवं सरायकेला खरसावाँ जिले के मत्स्य पालक बड़े पैमान में मत्स्य बीज उत्पादन कर उसे स्थानीय बाजार में बेचने के साथ-साथ छतीसगढ़ और उड़ीसा के निकटवर्ती जिलों में आपूर्ति कर अच्छी आय अर्जित कर रहे हैं | यह जानना जरुरी है कि एक एकड़ के सदाबहार तालाब में मत्स्य उत्पादन कर एक वर्ष में 1000 कि.ग्रा. मछली यानी 40,000 रुपया अर्जित किया जा सकता है जबकि उसी तालाब या एक एकड़ के मौसमी तालाब में मत्स्य बीज उत्पादन कर दो माह में 50,000 रुपया अर्जित किया जा सकता है | शेष माह में उस तालाब से मत्स्य अंगुलिकाओं या मछली उत्पादन कर 40,000 से 80,000 रूपये की अतिरिक्त आमदनी प्राप्त कर सकते हैं |

मत्स्य स्पान उत्पादन

भारतीय मेजर कार्प मछलियाँ समान्यत: अपने प्राकृतिक आवास नदी में ही मानसून बाढ़ के दौरान प्रजनन करती है | प्रेरित प्रजनन तकनीक के विकास से पूर्व कार्प बीजों का एकमात्र श्रोत नादिय जल ही था | अत: प्राप्त बीजों में वांछनीय एवं अवांछनीय दोनों ही प्रकार के बीज होते थे | बीजों की उस खेप में से (5-7 मि.मी.) वांछनीय बीजों को छांटना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं था | इसके अलावा नादिय स्रोत से बीज कुछ विशेष स्थानों से ही प्राप्त होते थे जिन्हें लम्बी दुरी तक ले जाने में बड़ी समस्या थी क्योंकि परिवहन का खर्च भी अधिक होता है | इस समस्याओं के अतिरिक्त बीजों की उपलब्धता भी मानसून पर आधारित होती थी |

मत्स्य बीजों की उपलब्धता हेतु कृत्रिम प्रजनन के निरन्तर प्रयास किये गए एवं अंततः वर्ष 1957 तथा 1962 में सफलता प्राप्त हुई जब पहले भारतीय कार्प फिर चायनीज कार्प का प्रेरित प्रजनन सफलतापूर्वक कराया गया | मछलियों को पियूष ग्रंथि के सार की सूई लगाईं गई, जिसे आज प्रेरित प्रजनन या हाइपोफ़ाइजेशन के नाम से जाना जाता है | इस सफलता के उपरान्त इस तकनीक में काफी सुधार किया गया है जिससे उत्तरजीवीता दर में वृधि हुई है |  प्रेरित प्रजनन का अर्थ है कि मछलियों को पियूष ग्रंथियों के सार या अन्य सिंथेटिक हारमोन दे कर प्रजनन के लिए प्रेरित करना | इस तकनीक की सफलता का मूल, प्रजनक मछलियों के चयन तथा इनकी रखरखाव में है |

छोटे पैमाने पर मत्स्य स्पान का उत्पादन हापा तकनीक द्वारा किया जा सकता है | अब तो बड़े पैमाने पर मत्स्य स्पान उत्पादन के लिए बड़ी-बड़ी हैचारियाँ स्थापित की गई हैं , जहां प्रत्येक वर्ष 3 से 15 करोड़ तक स्पान उत्पादन किया जाता है | स्पान उत्पादन की प्रक्रिया थोड़ी जटिल एवं ज्यादा पूंजी व्यय वाली है अत: प्रारम्भ में मत्स्यपालकों/ मत्स्य बीज उत्पादकों को किसी प्रतिष्ठित हैचरी से ही मत्स्य स्पान प्राप्त कर कार्य करना चाहिए |

मत्स्य बीज उत्पादन

उन्नत मत्स्य उत्पादन के लिए उन्नत नस्ल के स्वस्थ मत्स्य बीज का समय पर तालाबों में संचयन सबसे महत्वूर्ण है | मत्स्य हैचरी या नदी से प्राप्त मत्स्य स्पान (अंडा से बाहर निकले लगभग तीन दिनों का मछली का बच्चा) को 15 से 20 दिनों तक नियंत्रित एवं अनुकूल वातावरण में पोषण कर उसे बड़े तालाबों में संचय योग्य तैयार करने की व्यवस्था ही नर्सरी या पोषण प्रबन्धन है | भारतीय मुख्य कार्प एवं विदेशी कार्प मछली तथा सिल्वर कार्प / ग्रास कार्प का प्रजनन मानसून के आने के साथ ही शुरू हो जाता है | पं. बंगाल के कुछ भागों में बेहतर और उन्नत ढंग से मत्स्य प्रजनको की देख-रेख कर उनका प्रजनन अप्रैल माह में ही करा लिया जाता है | अतएव मत्स्य बीज उप्तादन के इक्छुक मत्स्यपालक स्पान की उपलब्धता के समय एवं मत्स्य बीज की मांग को देखते हुए नर्सरी का प्रबंधन का समय निर्धारित कर सकते हैं |

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, राँची, झारखण्ड सरकार

 

मत्स्य पालन हेतु मत्स्य बीज परिवहन

  1. परिचय
  2. मत्स्य बीजों की विभिन्न दशाएं
  3. मत्स्य बीज परिवहन
  4. मत्स्य बीज का अनुकूलन
  5. मत्स्य बीजों का आधुनिक परिवहन
  6. संचयन का तरीका

परिचय

मछलियों के छोटे-छोटे बच्चों का उत्पादन, एकत्रीकरण एवं मत्स्य उत्पादन क्षेत्र तक उनका परिवहन मत्स्य पालन का अहम् पहलु है | विभिन्न फसलों का उत्पादन कार्य बीज से प्रारम्भ होता है, उसी प्रकार मत्स्य पालन कार्य भी मछलियों के छोटे-छोटे बच्चों से प्रारम्भ होता है | जिन्हें सामान्यत: मत्स्य बीज कहा जाता है | प्रारंभिक काल में इन मत्स्य बीजों को प्राकृतिक श्रोत्रों से एकत्रित किया जाता था, विशेष कर नादिय श्रोत्रों से | मत्स्य पालन के लिए उपयुक्त मत्स्य बीजों पर ही धयान दिया जाता था एवं इन बीजों को एकत्रित कर परिवहन करने की व्यवस्था को ग्रामीण स्थर पर ही विकसित किया गया | भारत में मत्स्य उत्पादन हेतु भारतीय मेजर कार्प मछलियों (रोहू. कतला और मृगल) के छोटे-छोटे बच्चे और मिठेजल व खारा जल झींगों की लार्वा के बाद की अवस्था को ही मत्स्य बीज माना जाता है | आधुनिक मत्स्य पालन पद्धतियों के कारण प्रेरित प्रजनन द्वारा कॉमन कार्प, ग्रास कार्प, सिल्वर कार्प मत्स्य बीजों का भी उत्पादन किया जा रहा है |

मत्स्य बीजों की विभिन्न दशाएं

सामान्यत: मत्स्य पालन में मछली व् झिगों के विभिन्न दशाओं की मत्स्य बीजों का उपयोग होता है | भारतीय मेजर कार्प मछलियों के संदर्भ में अंडों में स्फुटन के बाद 1 से 4 दिन आयुवाले बच्चों को स्पान या जीरा कहा जाता है | इन जीरों की लम्बाई 5-9 मि.मी. के बीच होती है और बहुत ही नाजुक होती हैं | इस अवस्था में इनके शरीर पर कोई शल्क (स्केल) नहीं होते हैं परन्तु शरीर पर रंगीन पिगमेंट होते हैं | ये छोटी मछलियाँ ठीक तरह से तैर भी नहीं पाती है क्योंकि तब तक इनका पंख पूरी तरह विकसित नहीं होते हैं, और ये अधिकांशत: पानी के बहाव के अनुरूप ही तैरते हैं | झींगों के मामले में स्फुटन के बाद लार्वा तथा लार्वा के विभिन्न अवस्थाओं से होकर तरुण झींगों में विकसित होने में 60-90 दिन लग जाते हैं |

भारतीय मेजर कार्प के सन्दर्भ में दूसरी अवस्था फ्राई (पोना) की है | एस अवस्था के दौरान इनकी लम्बाई 1.5 से.मी. से 5.0 से.मी. के बीच होती है | पोनों के शारीर पर शल्क निकल आते हैं एवं इनका पंख पूरी तरह विकसित तथा इनकी आयु 10-25 दिन हो जाती है | ये मत्स्य फ्राई (पोना) जल प्रवाह के विपरीत तैर सकती है एवं सक्रिय रूप से आहार लेती हैं | इन मत्स्य बीजों में पोना अवस्था के बाद अंगुलिका अवस्था आती है जब ये बीज 10 से  15 से.मी. लम्बाई प्राप्त कर लेती है, तथा 50 से 60 दिन आयुवाली हो जाती है | मछलियों व् झींगों की विभिन्न अवस्थाओं का विवरण निम्नलिखित है : –

क्रम अवस्था आयू लम्बाई संख्या प्रति यूनिट
स्पान (जीरा) 1-4 दिन 5-9 मि.मी. 400-500 / मि.ली.
फ्राई (पोना) 5-30 दिन 1-6 से.मी. 100-200 / मि.ली.
फिंगरलिंग (अंगुलिका) 30-60 दिन 6 से.मी. से अधिक 5-15/ 20 मि.ली.
झींगा लार्वा 10-15 दिन 8 मि.मी. 1.5 से.मी. 50-200 / मि.ली.

उपर्युक्त सभी आकार के बीजों का उपयोग मत्स्य पालन हेतु किया जाता है | इन अवस्थाओं में मत्स्य बीजों का परिवहन बड़े पैमाने पर छोटे-छोटे परिमापों में सरलता से, कम खर्च पर किया जा सकता है |

नोट : स्पान/ डिम्ब (जीरा) प्रति वाटी के हिसाब से मिलता है, जो 40 मि.ली. का होता है एवं उसमें लगभग 20,000 स्पान आता है | सामान्यत: एक लाख स्पान का वजन 140 ग्राम होता है | फ्राई एवं अंगुलिका किसी छोटे जालीदार छिद्रयुक्त कटोरी में लेकर गिनना चाहिये | जीतनी संख्या आए उसी के अनुरूप आवश्यकतानुसार मत्स्य अंगुलिका या फ्राई लेनी चाहिये, क्योंकि विभाग द्वारा गिनती के रूप में फ्राई/मत्स्य अंगुलिका की बिक्री की जाती है | उदहारणार्थ, एक माह तक के फ्राई 100 रूपये / हजार की दर से बेचीं जाती है | निजी मत्स्य बीज उत्पादकों द्वारा मत्स्य बीज किलो में बेचा जाता है | परन्तु यह जानना आवश्यक है की एक किलो में कितनी संख्या में मत्स्य बीज प्राप्त हो रहा है ताकि जलक्षेत्र के अनुरूप सही संख्या में मत्स्य बीज का संचयन हो सके |

मत्स्य बीज परिवहन

चूँकि मछलियाँ एवं झींगे जल में रहती है और श्वास प्रक्रिया हेतु आक्सीजन जल से ग्रहण करती तथा कार्बन-डाई –आक्साईड जल में ही छोड़ती है | अत: जल आक्सीजन से परिपूर्ण होना इन्हें जीवित रखने के लिए आवश्यक है | जब मचियों व् झींगों के जीरा, फ्राई, अंगुलिकाओं व् लार्वा को कम जल परिणाम में परिवहन किया जाता है तो बड़ी मात्रा में आक्सीजन की आवश्यकता होती है | सामान्यत: मत्स्य पालन में बीज उत्पादन क्षेत्र से मत्स्य पालन क्षेत्र तक मत्स्य बीजों का परिवहन आवश्यक हो जाता है चूँकि दोनों क्षेत्र अलग-अलग स्थानों पर स्थिर होते हैं |

मत्स्य बीज परिवहन में तापमान का विशेष महत्त्व होता है | जब जल का तापमान कम (12 – 25 से.ग्रे.) होता है तो इसमें बड़ी मात्रा में आक्सीजन घुला होता है | जल का यह तापमान मत्स्य परिवहन के लिए उपयुक्त है |

अन्य महत्वपूर्ण अंश है, जल का पी.एच.स्तर, जल जल का पी.एच. स्तर 7.0 अर्थात न्यूट्रल रहता है तो ऐसी स्थिति में मत्स्य बीज परिवहन के लिये अनुकूल है | पी.एच.स्तर 7.0 से कम हो तो यह अम्लीय हो जाता है, और अधिक होने पर क्षारीय हो जाता है | दोनों ही स्थितियाँ परिवहन के लिए अनुकूल नहीं है |

इन बातों के आलावा स्वस्थ मत्स्य व् झींगा बीजों का ही परिवहन किया जाना चाहिये अन्यथा वांछित परिणाम नहीं मिल सकते हैं | रोगग्रस्त व् कमजोर मत्स्य बीजों का परिवहन नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि ये बीज परिवहन के दौरान पड़ने वाले दबाव को सहन नहीं कर सकते हैं | परिवहन के लिए ऐसी स्थितियां हों , जहाँ इन बीजों का जीवित अवस्था में बड़ी सरलता एवं सफलता से कम खर्च पर परिवहन किया जा सके | इन छोटी मछलियों को लम्बी दुरी तय करने के दौरान दबाव सहन करना पड़ता है | परिवहन के पूर्व अनुकूलन करना आवश्यक है | समान्यत: स्पान या फ्राई को पौलिथिन के पैकेट में पैक किया जाता है | पैकेट में एक तिहाई पानी तथा दो तिहाई आक्सीजन होता है |

मत्स्य बीज का अनुकूलन

मत्स्य बीज परिवहन के पूर्व अनुकूलन के लिए यह जरूरी है कि उसे हापा में दो-तीन घंटे के लिए रखा जाय | इस क्रम में इन्हें भोजन नहीं मिलता है तथा पेट खाली रहता है, जिसमें परिवहन के दौरान पानी कम गंदा होता है | दो –तीन घंटे हापा में रखने की प्रक्रिया को अनुकूलन कहते हैं | यदि अनुकूलन नहीं किया जाय तो परिवहन के दौरान उनके द्वारा मल-मूत्र त्यागने से पानी में यूरिक एसिड की मात्रा बाढ़ जाएगी, मछली का बीज तनाव में आ जाएगा और बीज मरने लगेंगे |

परम्परागत मत्स्य बीज परिवहन

हमरे देश में मत्स्य पालन एवं मत्स्य बीज परिवहन सदियों पुरानी है | पहले मत्स्य पालन के लिए आवश्यक समस्त बीज नादिय श्रोतों से ही प्राप्त किया जाता था | मानसून काल में मछलियों के प्रजनन समय में मत्स्य बीजों को शूटिंग नेट की सहायता से एकत्रित कर, मत्स्य पालन क्षेत्रों तक ले जाया जाता था | मिटटी के हांडियों में आविल नादिय जल में मत्स्य बीजों को डालकर ले जाया जाता था | हांडी के जल को हाथों से छ्पछपाया जाता था जिससे जल में आक्सीजन की आपूर्ति हो एवं बीजों को पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन मिल सकें | कभी-कभी इन हांडियों को एक बांस के पट्टे के दोनों ओर झुला कर कन्धों पर ढो कर ले जाया जाता था, जिससे अपने आप ही इन हांडियों के जल में छपछपाहट पैदा हो कर, जल में आक्सीजन की आपूर्ति हो जाती थी | मिटटी के हांडियों के उपयोग के कारण जल का तापमान भी अनुकूल 15 से 25 से.ग्रे. रहता था |

मत्स्य बीजों का आधुनिक परिवहन

मत्स्य प्रजनन के दिशा में प्रेरित प्रणाली के समावेश से विशेषकर भारतीय मेजर कार्प मछलियों को पियूष ग्रंथियों के सार की सुई लगाकर प्रजनन कराने की प्रक्रिया तथा हैचरी प्रबन्धन के विकास के विकास से मत्स्य बीज परिवहन में तेजी आयी है | इसके अलावा झींगा के प्रजनन और बीज उत्पादन के आधुनिक तकनीकों के कारण झींगा के बीज भी देश में बड़े पैमाने पर उपलब्ध हैं |

आधुनिक मत्स्य बीज परिवहन में, मतस्य बीजों को स्वस्थ जल एवं आवश्यक परिमाण में आक्सीजन के साथ पोलीथिन बैगों में पैक कर, इन्हें मेटल या कार्डबोर्ड के बक्सों में रख दिया जाता है | ये मेटल या कार्डबोर्ड बाक्स लम्बी दूरी के परिवहन के लिए सुविधाजनक हैं | एस तकनीक से मछलियों के जीरों या झींगों के लार्वा का लम्बी दूरी तक परिवहन आर्थिक रूप से भी काफी लाभदायक है | परिवहन से सम्बंधित विवरण एस प्रकार है : –

  1. कन्टेनर – 15-20 लीटर क्षमता वाली
  2. पौलिथिन बैग – 15 – 20 लीटर क्षमता एवं मोटी परत से बनी
  3. आक्सीजन गैस सिलेंडर – मेडिकल या औधोगिक आक्सीजन
  4. स्वच्छ जल – 5 – 8 लीटर ट्यूबवेल या नल का पानी जिसका तापमान 15-25 डिग्री सें.ग्रे. हो |
  5. मत्स्य बीज –

(क) स्पान/ झींगों का लार्वा 15000 – 20000 प्रति पैकिंग 6-10 घंटों की परिवहन अवधि |

(ख) कार्प मछलियों के पोना (फ्राई) 500-1200 प्रति पैकिंग 6-10 घंटों की परिवहन अवधि |

संचयन का तरीका

मछली के बीज के पैकेट का पानी परिवहन के कारण गर्म हो जाता है इसलिए पैकेट को 10-15 मिनट तक तालाब के पानी में रख दिया जाता है | जब पैकेट के अंदर के पानी का तापक्रम तथा तालाब के पानी का तापक्रम एक हो जाए तो पैकेट खोलकर आधा मुहं पानी में डुबोना चाहिये, जिससे बीज अपने आप पानी में चला जाय | यह काम धीरे-धीरे करना चाहिये, जिससे बीज को कम से कम चोट लगे |

 

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, राँची, झारखण्ड सरकार

 

मछलियों के उत्पादन के लिए खाद की आवश्यकता

  1. परिचय
  2. मछली पालन के लिए आवश्यक उर्वरक
  3. खाद का प्रयोग
  4. एक एकड़ तालाब में खाद की आवश्यकता
  5. मत्स्यपालन में ध्यान देने वाली बातें

परिचय

आप अवगत है की  खेतों में फसल की उत्पादन बढ़ाने के लिए खाद की आवश्यकता होती है। फसलों को पोषक तत्व जमीन से प्राप्त होता है। इसी पराक्र मछलियों की वृद्धि के लिए भी पोषक तत्व भूमि से उपलब्ध होते है। पानी तो सिर्फ  मछलियों के रहने को माध्यम है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मछली भी अन्य फसलों के समान जमीन में उपजाई जाने वाली फसल है। मछलियों का मुख्य भोजन प्लवक (प्लांकटन ) है जिनकी मात्रा बनाये रखने के लिए उर्वरक का प्रयोग अनिवार्य है। आपने यह अनुभव किया होगा है कि जिन तालाबों में मेवेशियों  को धोया जाता है, उसमें मछलियों की वृद्धि अपेक्षाकृत अधिक होती है क्योंकि उनके मल मूत्र स्वतः आते रहते है। इसी प्रकार तैरते बत्तख भी बीट त्याग कर तालाब की उत्पादकता बढ़ाते  है। सड़ी गली पत्तियां भी हरी खाद के रूप में तालाब की उर्वरकता को बढ़ाते हैं।

मछली पालन के लिए आवश्यक उर्वरक

मछलीपालन जलीय खेती है जिन उर्वरकों का प्रयोग खेतों में किया जाता है, उन उर्वरकों को ही  मोटे तौर पर मछलीपालन के लिए आवश्यकता होती है। इन उर्वरकों को दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है।

कार्बनिक खाद/जैविक खाद जो निम्नलिखित है

क.    भेड़, बकरी, सूअर का मल-मूत्र

ख.    बत्तख.मुर्गी का मल-मूत्र

ग.     मवेशियों को गोबर

घ.     हरी खाद

अकार्बनिक खाद.रासायनिक खाद

इसमें यूरिया/सिंगर सुपर फास्फेट/डी.ए.पी. आदि शामिल है।

चूना

चूने का प्रयोग तालाब में किया जाना अनिवार्य है अतः इसे भी हम खाद की ही श्रेणी में रखते हैं। इसके प्रयोग से मिट्टी में वर्तमान पोषक तत्व पानी में उपलब्ध हो पाते हैं। कली चूने को बुझा आकर पानी में घोल का तालाब में इनका छिड़काव् किया जाता है। चूने के प्रयोग से निम्नांकित लाभ है।

  1. पानी के पी.एच. को 50 से 8.50 के बीच संतुलित रखता है अर्थात हल्का क्षारीय बनाये रखता है।
  2. पाने को स्वच्छ एवं स्वास्थ्यप्रद रखते हुए इसमें घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा को बढ़ाता है।
  3. मछलियों को रोगमुक्त रखने में सहायता करता है।
  4. मछलियों की वृद्धि तथा प्रजनकों को समय पर परिपक्व होने में सहायक है।
  5. जब कई दिनों से बादल के कारण सूर्य नहीं निकला हो या मछलियां सूर्योदय के पूर्व सतह पर आकर असमय व्यवहार करती हो तो मछलियों को आकस्मिक मृत्यु से बचाता है।
  6. तालाब में प्रयोग किये जाएं वाले गोबर आदि को तीब्रता से विघटित करता है। चूने का प्रयोग खाद डालने के एक सप्ताह पर्व किया जाता है।

खाद का प्रयोग

  • खाद का प्रयोग जीरा डालने के पूर्व तथा चूना डालने के बाद किया जाता है।
  • गोबर को तालाब के किनारे पर पानी के भीतर डाल दिया जाता है, ताकि धीरे-धीरे रिसकर तालाब के जल में घुलते रहे।
  • गोबर डालने के दो सप्ताह बाद जीरा का संचय किया जाता है, ताकि इस अवधि में प्लवकों की मात्रा के अनुसार खाद को प्रयोग किया जाता है। जैविक एवं रासायनिक खाद का प्रयोग 15 दिनों के अंतराल पर किया जाना चाहिए।
  • मुर्गी के बीट में कार्बनिक तथा अकार्बिनक दोनों तत्व उपलब्ध रहते हैं। अतः यह मत्स्यपालन के लिए विशेष लाभदायक है।
  • अगर तालाब में पानी की गहराई कम हो अथवा पानी का रंग काला,भूरा या गहरा हरा दिखाई दे तो खाद का प्रयोग बंद कर देना चाहिए।

एक एकड़ तालाब में खाद की आवश्यकता

खाद का नाम खाद की मात्रा
गोबर 10,000 किलो प्रतिवर्ष
चूना 200 किलो प्रतिवर्ष
चूरिया 150 किलो प्रतिवर्ष
सिंगल सुपर फास्फेट 150 किलो प्रतिवर्ष
म्यूरेट और पोटाश 25 किलो प्रतिवर्ष

मत्स्यपालन में ध्यान देने वाली बातें

  • मत्स्य बीज संचयन के कम कम दस दिन पूर्व तालाब में जाल चलाने के बाद 200 कि.ग्रा. प्रति एकड़ की दर से बुझा हुआ चूना का प्रयोग करें।
  • तालाब में मत्स्य बीज छोड़ने के पहले मत्स्य बीज के पोलीथिन पैक या हांडी को तालाब के पानी में 10 मिनट रहने दें ताकि मत्स्य बीज वाले पानी और तालाब के पानी के तापमान एक हो जाए। उसके उपरात ही मत्स्य बीज को धीरे-धीरे तालाब के पानी में जाने दें।
  • तालाब में जानवरों को प्रवेश करने से तालाब के तल का पानी एवं सतह का पानी मिलता रहता है जो मत्स्य पालन के लिए लाभदायक है।
  • तालाब के आर-पार खड़े होकर तालाब के पानी पर रस्सी पीटने से/तालाब में जाल चलाने से/लोगों के तैरने से तालाब के पानी में ऑक्सीजन ज्यादा घुलता है तथा मछली का अच्छा व्यायाम होता है जो मछली की वृद्धि के लिए लाभदायक है।
  • दिसम्बर माह के मध्य में तालाब में चूना का एक बार फिर प्रयोग करने से मछलियों में जाड़े में होने वाली लाल चकते की बिमारी से बचा जा सकता है।
  • तालाब में जाल डालने के पहले जाल को नमक के पानी से अच्छी तरह धो लें इससे मछली में संक्रमण वाली बीमारी को प्रकोप नहीं होगा।
  • तालाब में मछली की शिकार माही करते समय पकड़ी गई मछलियों को बिक्री हेतु ले जाने तक हप्पा में या जल में समेट का तालाब में जिन्दा रखने की कोशिश करें। इससे मछली बाजार में ताज़ी पहुंचेगी और उसका अच्छा मूल्य प्राप्त होगा।
  • सुबह में तालाब के चारों ओर घूमें । तालाब के किनारे मिट्टी में बने पद चिन्हों या यहाँ वहां गिरे मछली या घास फूस से आपको तालाब में मछली की चोरी की जानकारी मिल सकती है। साथ ही साथ मछली की सुबह की गतिविधियों/तैरने की स्थिति से भी मछली के स्वास्थ्य की जानकारी प्राप्त होती है।
  • तालाब का पानी यदि गहरा हरा हो जाए या उससे किसी तरह की दुर्गन्ध आती महसूस हो तो अविलम्ब तालाब में बाहर से ताजा पानी डालें तथा किसी भी तरह का भोजन या खाद तालाब में डालना बंद कर दें।
  • यदि सदाबहार तालाब है तो प्रयत्न करें कि आधे किलो से ऊपर की मछली ही निकाली जाए।
  • यदि आसपास मौसमी तालाब है तो उससे छोटे बच्चे 100-150 ग्राम का क्रय का अपने तालाब संचयन करें।
  • मत्स्यपालन के कार्यकलाप के लिए एक डायरी संघारित करे जिससे इस पर होने वाले खर्च तथा आय एवं मछली के उत्पादन का ब्योरा लिखते रहे जो भविष्य में काम आएगा।
  • आपात स्थिति में मत्स्य विशेषज्ञ से संपर्क करें।

स्त्रोत एवं सामग्रीदाता : कृषि विभाग, झारखण्ड सरकार

 

आधुनिक मत्स्य पालन से सम्पन्नता

  1. परिचय
  2. ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में रेन्बो ट्राउट पालन
  3. कम उंचाई के तलीय पहाड़ी क्षेत्रों में कार्प पालन
  4. पर्वतीय क्षेत्रों में विदेशी कार्प मछली पालन

परिचय

पहाड़ी क्षेत्रों में कठिन भौगोलिक परिस्थितियों सीमित संसाधनों, खेतों के छोटे आकार तथा जटिल जलवायु के बावजूद आज भी कृषि एवं कृषि आधारित व्यवसाय ही किसानों की जीविका का मूल आधार है। इन परिस्थितियों के फलस्वरुप ही यहाँ के किसान मिलीजुली एकीकृत खेती करते हैं। सुधरी तकनीकों एवं आधुनिकतम कृषि व्यवहार से पहाड़ के किसानों की आमदनी को बढ़ाया जा सकता है। पर्वतीय क्षेत्रों की ठंडी जलवायु में मछली, लोगों के लिए उत्तम प्रोटीन आहार है। इसके अतिरिक्त मछली पालन जीविकापार्जन के लिए भी अत्यंत उपयोगी है। मिलीजुली खेती – बाड़ी में छोटे – छोटे आकर के तालाब किसानों की कृषि  क्रियाओं में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। तालाबों में संचित जल, मत्स्य पालन के साथ – साथ बागवानी, सब्जी उत्पादन एवं पशुपालन के लिए भी उपयोगी है।

भौगोलिक स्वरुप एवं जलवायु के अनुसार हिमालय के पहाड़ी क्षेत्रों में त्रिस्तरीय मत्स्य पालन किया जा सकता है। समुद्रतल लगभग 1600 मीटर से अधिक ऊँचाई वाले अत्यंत ठंडे क्षेत्र रेन्बो ट्राउट मछली पालन के लिए उपयुक्त हैं। मध्यम ऊंचाई (1000 – 1600 मीटर) वाले पहाड़ी क्षेत्र विदेशी कार्प मछलियों के पालन में सहयोगी हैं। इन तीन विशिष्ट क्षेत्रों के लिए पारिस्थितिक एवं संसाधन विशेष जलकृषि हेतु उपयुक्त एवं सुधरे तौर – तरीके इस प्रकार हैं

ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में रेन्बो ट्राउट पालन

अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में शीतल, शुद्ध और ऑक्सीजनयुक्त बहता हुआ पानी उपलब्ध रहता है। यह पर्वत श्रृंखलाओं पर जमी बर्फ के पिघलने से आता है। यह क्षेत्र रेन्बो ट्राउट अधिक उत्पादन देने वाली तथा ऊँचे दाम पर बिकने वाली विदेशी मछली है। ढलान वाले कंटूर क्षेत्र जहाँ बाहुल्यता से शीतल जल उपलब्ध होता है, इस प्रजाति के पालन के लिए उपयुक्त हैं। जम्मू – कश्मीर राज्य में कश्मीर घाटी, अनन्तनाग एवं लेह – लद्दाख घाटी; हिमाचल प्रदेश में चम्बा, किन्नौर लाहुल स्पीति एवं कुल्लू घाटी, उत्तराखंड में चमोली उत्तरकाशी, देहरादून, चम्पावत एवं पिथौरागढ़ का क्षेत्र, सिक्किम राज्य में वेस्ट, नार्थ एवं ईस्ट सिक्किम का क्षेत्र तथा अरुणाचल प्रदेश में तवांग, दिरांग, टेंगा एवं चेला के कुछ के कुछ क्षेत्र ट्राउट पालन के लिए उपयुक्त हैं। ट्राउट पालन के लिए छोटे आकार (30 वर्ग मीटर) की लंबाई वाले (15 मीटर लंबाई, 2 मीटर चौड़ाई) पक्के तालाब (रेश –वे) की आवश्यकता होती है। पानी में 7 मि. ग्रा./लीटर से अधिक घुलित ऑक्सीजन तथा 6.5 – 8.0 पी एच मान जरूरी होता है। ट्राउट रेश – वे में 40 – 60 अंगुलिकाएं प्रति घन मीटर की दर से संचय करके 12 माह में 300 –  350 ग्राम आकार की मछलियों से लगभग 500 कि. ग्रा. प्रति रेश – वे उत्पादन किया जाता है। तथा 190 लीटर प्रति मिनट पानी का बहाव रखा जाता है। अच्छी प्रबंध व्यवस्था, 100 अंगुलिकाएं प्रति घन मीटर संचय दर, उत्तम आहार व्यवस्था तथा 300 लीटर प्रति मिनट पानी बहाव के साथ 700 – 1000 कि. ग्रा./मछलियों का रेश – वे में उत्पादन किया जा सकता है। रेन्बो ट्राउट की अधिक बढ़वार एवं अच्छे उत्पादन के लिए पानी का तापमान 13 – 180 सेल्सियस होना आवश्यक है। पानी की उपलब्धता के अनुसार ट्राउट फ़ार्म में एक रेश – वे या श्रेणीबद्ध कई रेश – वे का निर्माण किया जा सकता हैं। अनुकूल परिस्थितियां बनाये रखने के लिए रेश – वे का उपयुक्त आकार एवं स्वरुप आवश्यक है। रेश – वे का लंबाईयुक्त 30 वर्ग मीटर का आकार, पानी के इनलेट से आउटलेट डिजाई, अधिक ऑक्सीजन देने, अमोनिया का निष्कासन तथा पानी को साफ रखने में समय सहायक है। रेश – वे को 1 मि. ग्रा./लीटर पोटेशियम परमैंगनेट के घोल से धोकर 80 सें. मी, गहराई तक शुद्ध शीतल जल से भरते हैं। रेश – वे में 300 लीटर प्रति मिनट बहाव के साथ 2 – 5 ग्राम को 100 अंगुलिकाएं प्रति घन मीटर जल की दसर से (3000 अंगुलिकाएं/ प्रति रेश – वे)  संचय करते हैं। समय – समय पर छोटे –बड़ी मछलियों की ग्रेडिंग करते रहते हैं, ताकि स्वयं भक्षण को रोका जा सके। ट्राउट मछली पूरी तरह से दिए गये आहार पर पाली जाती है। इसमें 35 – 40 प्रतिशत उत्तम कोटि की प्रोटीन तथा 10 – 14 प्रतिशत वसा का होना आवश्यक है। ट्राउट मछली का आहार, फिशमिल सोयाबीन मील, गेहूं का आटा स्टार्च, मछली का तेल, ईस्ट मिनरल – विटामिन मिलाकर तैयार किया जा सकता है। अंगुलिकाएं एवं ट्राउट आहार मत्स्य विभाग से प्राप्त किये जा सकते हैं।

लगभग 10 – 12 माह में 300 – 400 ग्राम के आकार की मछलियों को तालाब से निकालकर बेचा जा सकता है। निष्कासन के 1 – 2 दिन पहले आहार नहीं देते हैं। दूर बाजार में भेजने के लिए बर्फ के साथ पैकिंग की जा सकती है। प्रत्येक रेश – वे (30 वर्ग मीटर) से लगभग 1.25 लाख रूपये की शुद्ध आमदनी प्राप्त की जा सकती है। मूल्यवर्धित उत्पादों तथा ब्रांड नेम ‘हिमालयन ट्राउट’ से और अधिक आमदनी प्राप्त की जा सकती है। वर्तमान में देश का ट्राउट उत्पादन लगभग 842 टन है तथा औसतन सालाना वृद्धि दर लगभग 31 प्रतिशत आंकी गई है। कुल उत्पादन का लगभग 80 प्रतिशत उत्पादन हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू एवं कश्मीर राज्य से होता है। अन्य पर्वतीय राज्यों जैसे – उत्तरखंड, सिक्किम तथा अरुणाचल प्रदेश में भी आधुनिकतम तकनीक का प्रसार करके रेन्बो – ट्राउट पालन की व्यव्यापक पहल की गई है, जो कि किसानों की आय वृद्धि में अत्यंत महत्वपूर्ण है।

कम उंचाई के तलीय पहाड़ी क्षेत्रों में कार्प पालन

भारतीय कार्प मछलियाँ (रोहू, कतला, म्रिगल) तथा विदेशी कार्प मछलियों (सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प, कॉमन कार्प) को लगभग 0.1 – 0.4 हैक्टर आकार के कच्चे तालाबों में वर्ष भर पाला जाता है। स्टंट फिश अधिक समय तक नर्सरी में रखी मछली के संचय से वर्ष में दो फसलें लेकर उत्पादन में लगभग दोगुनी वृद्धि की जा सकती है। इस कार्य में तालाब की तैयारी के उपरांत 50 – 80 ग्राम की बड़े आकर की अंगुलिकाएं (स्टंट फिश) 5000 – 6000/ हैक्टर की दर से संचित की जाती हैं तथा नियमित उनके वजन का 2 -3 प्रतिशत सम्पूरक आहार दिया जाता है। 6 माह की अवधि में लगभग 2.5 – 3 टन/हैक्टर मछली की फसल लेकर तालाब को पुन: तैयार करके अंगुलिकाओं का संचय हैं इस प्रकार वर्ष में दो फसलों के द्वारा कुल उत्पादन 5 – 6 टन/हैक्टर लिया जा सकता है। मछली के तालाब के साथ पशु, मुर्गी बत्तख या बागवानी करने से उत्पादन लागत में कमी तथा आमदनी में वृद्धि की जा सकती है। पर्वतीय राज्यों के मैदानी क्षेत्रों तथा कम ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में यह उपयोगी है।

पर्वतीय क्षेत्रों में विदेशी कार्प मछली पालन

ठंडी जलवायु के कारण इन क्षेत्रों में भारतीय कार्प मछलियों की बढ़वार नहीं होती है। अत: यहाँ पर विदशी कार्प जैसे – सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प तथा कॉमन कार्प का समन्वित पालन किया जाता है। परंपरागत ढंग से इस प्रकार मछली पालकर लगभग 34 कि. ग्रा/100 वर्ग मीटर उत्पादन किया जाता है। शीतजल मात्स्यिकी अनुसंधान निदेशालय, भीमताल द्वारा विकसित पॉलीथीन लगे (पॉलीटैक) तालाबों से लगभग 70 कि. ग्रा./100 वर्ग मीटर/वर्ष उत्पादन किया जा सकता है। तालाब में एकत्र जल का उपयोग मछली पालन के साथ – साथ सब्जी तथा बागवानी में सिंचाई हेतु भी किया जाता है। पॉलीथिन पानी के रिसाव को रोकता है तथा पानी के तापमान को 2 – 60 सेल्सियस तक बढ़ा देता है, जो कि मछलियों की बढ़वार में सहायक है। पानी के अधिक तापमान तथा हंगेरियन कॉमन कार्प के संचय से लगभग दोगुनी आमदनी प्राप्त की जा सकती है। नाइट्रोजनयुक्त तालाब का पानी सिंचाई के लिए उपयोगी है तथा सब्जी उत्पादन को बढ़ाने में सहायक है।उपलब्ध जल स्रोत से तालाब पुन: भर लिया जाता है। उपलब्ध हरी घास तथा फसल के पत्तों को ग्रासकार्प खा सकती है। उत्तराखंड राज्य में इसका सफल प्रदर्शन किया है तथा अन्य उपयुक्त क्षेत्रों में भी य तकनीक उपयोगी है।

सारणी 1. ट्राउट के लिए आहार

आकार प्रोटीन प्रतिदिन आहार दर वजन का प्रतिशत प्रतिदिन आहार देने की प्रतिदिन बारंबारता
< 10 ग्राम 40 प्रतिशत 5 – 10 प्रतिशत 7 – 8
< 50 ग्राम 35 प्रतिशत 5 – 6 प्रतिशत 3 – 4
< 50 ग्राम 35 प्रतिशत 2- 3 प्रतिशत 2 – 3

 

लेखन: अतुल कुमार सिंह और नित्यानंद पाण्डेय

स्त्रोत: कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग, भारत सरकार

 

हिमांक संरक्षण (क्रायोप्रिजर्वेशन) तकनीकी से भारतीय प्रमुख कार्प प्रजनक मछलियों का नस्ल सुधार

  1. परिचय
  2. जनन कोष संरक्षण
  3. लघु अवधि ( गैर – क्रयोजेनिक) संरक्षण
  4. दीर्घकालिक (हिमांक या क्रायोजनिक) संरक्षण
  5. कार्प शुक्राणु के हिमांक संरक्षण (क्रायोप्रिजेर्वेशन) प्रोटोकॉल
  1. मिल्ट का संग्रहण एवं गुणवत्ता मूल्यांकन
  2. एक्सटेंडर और क्रायोप्रोटेक्टेंट के साथ संतुलन

परिचय

हल में वर्षों में भारतीय मत्स्यपालन गतिशील रूप से एक विकासशील क्षेत्र बन गया है जिससे कई ने अवसर पैदा हो रहा है। पिछले ढाई दशकों में सात गुना वृद्धि अर्थात 1980 में 0.37 मिलियन टन के मुकाबले वर्तमान में बढ़कर 2.84 मिलियन टन हो गया है जिससे मत्स्य पालन एक भरोसेमंद क्षेत्र के रूप हो गया है जिससे मत्स्य पालन एक भरोसेमंद क्षेत्र के रूप में उभर कर सामने आया है। देश के कुल उत्पादन का 95 प्रतिशत तक हिस्सा बरकरार रख कार्प ने देश के मीठे पानी के मत्स्यपालन उत्पादन पर प्रमुख बरकरार रखा है। भारत मूल रूप से एक कार्प देश है एवं मत्स्य उत्पादन में दोनों देशी और विदेशी कार्प देश है एवं मत्स्य उत्पादन में दोनों देशी और विदेशी कार्प अर्थात कतला (कतला कतला), रोहू (लेबिओ रोहित), मृगल (सीरहन मृगल) 1.8 मिलियन टन के रूप में योगदान करते हैं एवं तीन विदेशी कार्प अर्थात सिल्वर कार्प (हाहाईपफोथेलमिक्स मोलिट्रिक्स), ग्रास कार्प (टीनोफोरिगोडोन आईडीईला) और कॉमन कारप दूसरी सबसे महत्वपूर्ण मछलियाँ हैं। इस क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण इनपुट मत्स्य बीज हैं जो पूरे देश में विभिन्न हैचरी से उपलब्ध कराया जा रहा है।

मत्स्य बीज की गुणवत्तों को बनाये रखने के लिए यह जरूरी है कि अच्छी तरह से प्रजनक पालन  मछलियों के स्टॉक की अदला बदली और पुनपूर्ति करना महत्वपूर्ण है। यह मुख्य रूप से हैचरी में मछलियों में होने वाले अंत: प्रजनन की समस्या से बचने के लिए किया जाता है। हाल ही में हैचरी प्रजनित बीजों की ख़राब वृद्धि मत्स्य पालन समुदायों में एक वास्तविक चिंता रही है। यह बताया गया है कि अंत: प्रजनन का कारण कई पीढ़ियों से हैचरी में एक ही स्टॉक बनाये रखने एवं निकट संबंधित मछलियों में प्रजनन के कारण होता है। अनुवांशिक रूप से अंत: प्रजनन हिमोजिगोसिटी की ओर ले जाता है। लगभग सभी व्यक्तियों में एक हानिकारक असामान्य (रिसेसिव) जीन होते हैं, जो विषम अवस्था में छिपे रहते हैं। संबंधित व्यक्तियों में सामान्य जीनों को साझा करने की संभावना बनी रहती हैं और माता – पिता के बीच निकटता में वृद्धि होने से हानिकारक असामान्य जीनों की जोड़ी की संभावना बढ़ जाती है। जिसके कारण विकास, रोग प्रतिरोध और उत्तरजीविता मी कमी के साथ जनसंख्या में अंत: प्रजनन की स्थिति पैदा हो जाती है। स्टॉक की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए प्राथमिक रणनीति प्रजनक स्टॉक मछलियों का आदान प्रदान करना है। लेकिन परिवहन की बोझिल प्रक्रिया और परिवहन के दौरान प्रजनक मछलियों की होने वाली मृत्यु मछलियों के स्टॉक का वीर्य का संरक्षण करना और भारत के विभिन्न हैचरी में उपयोग कर मछलियों के नस्ल में सुधार करना है। इस प्रकार हैचरी प्रबंधकों को गुणवत्ता के बारे में आश्वासन दिया जा सकता है और 10 मिलीलीटर कार्प के हिमांक संरक्षित मिल्ट से 1 – 2 लाख बीज का उत्पादन कर आसानी के परिवहन  किया जा सकता है इसके अलावा, छोटे प्रक्षेत्रों में प्रजनन के दौरान नर प्रजनन मछलियों की अनुपलब्धता हेमशा पायी जाती है। हैचरी मालिक/प्रबंधक प्रक्षेत्र में अधिक मादा मछली पालन कर सकते हैं और इस तरह सीमित प्रक्षेत्र से संरक्षित मिल्ट का उपयोग कर मत्स्य बीज का आधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार की रणनीति ने देश में पशुओं के क्षेत्र में चमत्कार और क्रांति ला दी है। इसके अलावा, संरक्षित मिल्ट का उपयोग से बीज उत्पादक स्तरों पर अनुवांशिक उन्नयन के क्षेत्र पर गुणक प्रभाव होगा क्योंकि यह प्रभाव मछली पालन के लिए लाभकारी होता है और अंतत: देश के मत्स्य बीज उत्पादकों के आय को दोगुना करने में भी मददगार साबित होगा।

जनन कोष संरक्षण

जनन कोष के संरक्षण की भूमिका का महत्व मत्स्य बीज उत्पादन एवं प्रजनन मछलियों के जीन संबंधी प्रबंधन में बढ़ता जा रहा है। मछलियों के वीर्य के संरक्षण की तकनीकी मुख्यतः स्थापित की गई हैं। जनन कोष में शुक्राणु को कई सप्ताह तक संरक्षित कर ज्यादा अंडों का निषेचन करने में मदद मिल सकती है। जनन कोष को हिमोक संरक्षण करके जीन संसाधन को लम्बे समय तक संचय कर सकते हैं। अभी तक मीठा जल एवं खारा जल की 350 से अधिक प्रजातियों के जनन कोष की संरक्षण में काफी हद तक सफलता प्राप्त कर ली गई है। लेकिन आज तक टिकाऊ अंडों एवं भ्रूण का हिमीकरण की तकनीक का सफल प्रदर्शन नहीं किया जा सका है।

सभी संरक्षण तकनीकी का मुख्य उद्देश्य भण्डारण के तापक्रम को कम करके जनन कोष के संरक्षण की अवधि को बढ़ाना एवं इसके चयापचयी भार को कम करना है। इस विधि का व्यापक उपयोग जीव विज्ञा, जैव चिकित्सा प्रौद्योगिकी और संरक्षण में किया जा सकता है। जर्म प्लाज्मा के हिमांक संरक्षण में शुक्राणु अंडा एवं भ्रूण का भण्डारण शामिल है और सीधे पशु प्रजनन कार्यक्रम में योगदान देता है जर्म प्लाज्मा हिमांक संरक्षण विलुप्त और लुप्तप्राय: मत्स्य प्रजातियों की जीनोम का संचयन के लिए एक्स सीटू संरक्षण में भी सहायता करता है। हिमांक संरक्षण का उपयोग कर जर्मप्लाज्मा  बैंक की स्थापना भविष्य में संरक्षण एवं मौजूद आबादी में योगदान दे सकता है। सही संचयन तकनीकी एवं संचयन स्थिति में जनन कोष का संरक्षण हजारों वर्षों तक किया जा सकता है। चयनित जनन कोष को कुछ अवधि तक जीवित रखने के लिए संचयन की आवश्यकता पड़ती है संचय लघु अवधि (गैर – क्रायोजेनिक) या दीर्घकालिक संचयन (हिमांक संरक्षण) हो सकता है।

मिल्ट नमूनों को दोनों तरह के संरक्षण के लिए थोड़ी हाइपरटोनिक इलेक्ट्रोलाइट मीडियम में तनुकृत किया जाता है जिसे एक्सटेंडर कहा जाता है। कुछ व्यावहारिक एक्सटेंडर तालिका 1 में दिखाया गया है।

लघु अवधि ( गैर – क्रयोजेनिक) संरक्षण

शून्य तापक्रम या शीतल अवस्था में जनन कोष का संरक्षण 3 – 4 दिनों तक बिना हिमांक संरक्षण के किया जा सकता है जिसे अल्प अवधि संचयन तकनीक कहते हैं। कृत्रिम गर्भाधान और नियंत्रित प्रजनन कार्यक्रमों के दौरान मछली के नर जनन कोषों का सर्वोत्तम उपयोग का एक सिद्ध तरीकों में 1 – 2 दिनों के लिए वीर्य का अल्प अवधि संचयन का उपयोग करना है। मिल्ट (वीर्य) का अल्प अवधि संचयन का उपयोग करना है। मिल्ट (वीर्य) नमूनों को एक्सटेंडर के साथ तनुकृत कर बर्फ के साथ थर्मोकोल चेम्बर या रेफ्रीजरेटर में भण्डारण किया जाता है। यह विभिन्न नर और मादागुणों के विभिन्न सिब प्रजनन को डिजाईन करने के लिए उपयोगी है। मछलियों के मिल्ट को का तनुकृत करने के विभिन्न एक्सटेंडर उपलब्ध (तालिका 1) हैं। एक्सटेंडर – सी का उपयोग अल्प अवधि संचयन तकनीक के लिए अधिक आसान और प्रभावी पाया गया है। अच्छे  परिणाम के लिए संरक्षित  मिल्ट नमूनों को अंडे के साथ वीर्यरोपण के पूर्व कमरे के तापक्रम में लाया जाता है। जहाँ तरल नाइट्रोजन की उपलब्धता एक समस्या है वहां अल्प अवधि संरक्षण विधि बहुत ही आसान है। सीफा में इस विधि का उपयोग कर 4 डिग्री से तापक्रम में कतला का नर जनन कोष का दूरदराज स्थान जैसे की अंदमान निकोबार द्वीप समूह से ओडिशा तक सफलतापूर्वक परिवहन किया गया\ एक कतला मादा से एकत्रित अंडे के के साथ निषेचन करने पर 70 प्रतिशत निषेचन और 40 प्रतिशत हैचलिंग प्राप्त किया जा सका है। सीआईएएफ में किये गये अध्ययन से पता चला है कि कृत्रिम निषेचन से पहले भारतीय प्रमुख कार्प वीर्य को 4 डिग्री सेल्सियस तापमान पर अठारह घंटे के लिए सफलतापूर्वक संरक्षित किया जा सकता है।

तालिका 1: एक्सटेंडर का संघटक

एक्सटेंडर संघटक
सोडियम क्लोराइड – 400 मिली ग्राम, कैल्सियम क्लोराइड – 23 मिग्रा. पोटेशियम क्लोराइड – 38 मिग्रा सोडियम हाइड्रोजन कार्बोनेट – 100 मिग्रा. सोडियम डाई हाइड्रोजन फॉस्फेट 41 मिग्रा. मैग्नीशियम सलफेट – 23 मिग्रा.  को 100 मिली डिस्टिल्ड वाटर में घोलें।
बी सोडियम क्लोराइड – 600 मिली ग्राम, कैल्सियम क्लोराइड – 23 मिग्रा. पोटेशियम क्लोराइड – 38 मिग्रा सोडियम हाइड्रोजन कार्बोनेट – 100 मिग्रा. सोडियम डाई हाइड्रोजन फॉस्फेट 41 मिग्रा. मैग्नीशियम सलफेट – 23 मिग्रा.  को 100 मिली डिस्टिल्ड वाटर में घोलें।
सी सोडियम क्लोराइड – 750  मिली ग्राम, कैल्सियम क्लोराइड – 20 मिग्रा. पोटेशियम क्लोराइड – 30 मिग्रा सोडियम हाइड्रोजन कार्बोनेट – 20 मिग्रा. को 100 मिली डिस्टिल्ड वाटर में घोलें।

दीर्घकालिक (हिमांक या क्रायोजनिक) संरक्षण

जीवन क्षमता को लम्बे समय तक बनाये रखने के लिए जनन कोष का संरक्षण हिमांक संरक्षण (क्रायोप्रिजर्वेशन) के माध्यम से किया जा सकता है। शुक्राणु को वर्षों तक तरल नाइट्रोजन में संग्रहित किया जा सकता है जहाँ इस तापमान में एक जीवित कोशिका के सभी जैव रासायनिक क्रियाकलाप लगभग रूक जाते हैं। सही क्रायोप्रिजर्वेशन की संचयन तकनीकी एवं संचयन स्थिति में जनन कोष का संरक्षण हजारों वर्षों तक किया जा सकता है। वीर्य को एक्सटेंडर के साथ तनुकृत किया जाता है और क्रायोप्रोटेक्टेंट के साथ मिलाया जाता है। क्रायोप्रोटेक्टेंट  एक रसायन है जो फ्रीजिंग के दौरान द्रुतशीतन नुकसान से कोशिकाओं को सुरक्षित रखता है।

जनन कोश संचयन की तकनीक मछली के प्रजनकों को निम्नलिखित तरीकों से मददगार साबित हो सकती हैं।

  • नर एवं मादा का असामान्य समयों में परिपक्वता का होना हमेशा ही जनन कोष गुणात्मक एवं संख्यात्मक क्षमता में ह्रास का कारण होता हैं। प्रजाति एवं जैव भौगोलिक क्षेत्र के कारण नरएवं मादा एक ही प्रजनन ऋतु में विभिन्न होते हैं। नर एवं मादा के गैर – संयोग परिपक्वता की समस्या को दूर किया जा सकता हैं, यदि शुक्राणु एवं अंडाणु का भंडारण किया जा जा सकें।
  • पालन योग्य प्रजातियों एवं प्रजनक मछलियों की संख्या एवं आकार का बीज उत्पादन के लिए जनन कोष में मुख्यतः शुक्राणु के संचयन की आवश्यकता बहु निषेचन को बढ़ावा देने के लिए पड़ती है। कभी – कभी हैचरी संचालक को मादा प्रजनक हेतु नर मछलियों की छटनी के लिए अधिक समय लगता हैं, ऐसी स्थिति में वीर्य को अलग से एकत्रित कर बाद के प्रयोग हेतु संचयन किया जा सकता है। प्रकार बीज उत्पादन को कुछ हद तक बढ़ाया का सकता है। इस प्रकार बीज उत्पादन को कुछ हद तक बढ़ाया जा सकता है\
  • जनन कोष का संचयन मछलियों के चयनात्मक प्रजनन कार्यक्रम में अहम भूमिका अदा कर सकते हैं। इससे स्वदेशी स्टॉक में सुधार एवं अपनी स्वदेशी प्रजातियों के प्रजनन और बेहतर स्टॉक के विशेष स्ट्रेन के उत्पादन में सहायक होगा।
  • जनन कोष की हिमांक संरक्षण तकनीक स्वदेशी जर्मप्लाज्मा के संरक्षण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी क्योंकि कई देशी भारतीय मछलियाँ विदेशी मछलियों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती है। इस तकनीक से लुप्तप्राय प्रजातियों के जनन कोष का क्रायोबैंक तैयार करने से प्रजातियों को पर्यावर्णीय गड़बड़ी की वजह से अनुवांशिक परिवर्तनशीलता में कमी के खिलाफ बचाव के रूप में यह कार्य किया जा सकता हैं।
  • एक एकल लिंग पालन के उत्पादन में मदद कर सकता है।
  • यदि जनन कोष को सफलतापूर्वक संरक्षित किया जाता है तो हम अपनी आवश्यकता के अनुसार पूरे वर्ष मछली का विकास कर सकते हैं और जनसंख्या की अनुवांशिक मौलिकता को संरक्षित करने के लिए जीन बैंक को स्थापित कर सकते हैं एवं जीवित रहने के लिए सामान्य स्थिति में सुधार होने के बाद पुन: शामिल करने के लिए उन्हें उपलब्ध कराने में सहायक हो सकता है।

कार्प शुक्राणु के हिमांक संरक्षण (क्रायोप्रिजेर्वेशन) प्रोटोकॉल

कार्प शुक्राणु के हिमांक संरक्षण के सामान्य प्रोटोकॉल को चित्र में दर्शाया गया है और नीचे वर्णित किया गया है:-

मिल्ट का संग्रहण एवं गुणवत्ता मूल्यांकन

पहला कदम शुक्राणुओं को एकत्रित करना है। आम तौर पर शुक्राणु स्वस्थ नर मछलियों से स्ट्रिपिंग विधि द्वारा एकत्र किया जाते है भारतीय प्रमुख कार्प के स्वस्थ नर मछलियों को कार्प पिट्यूरी घोल @ 2 – 3 ml/ किग्रा. या सिंथेटिक हर्मोंन @ 0.1 – 0.2 मिली ग्राम/किलो ग्राम शरीर के वजन के अनुसार प्रेरित किया जाना चाहिए और 3 – 4  घंटे के उत्प्रेरणा के बाद वीर्य का संग्रह किया जा है। वीर्य को किटाणुरहित की गई सेंट्रीफ्यूजड ट्यूबों में एकत्रित किया जाना चाहिए और रेफ्रीजरेटर में रखा जाना चाहिए। नमूना मूत्र और मल से मुक्त होना चाहिए। सामान्य वीर्य नमूनों का प्रसंस्करण इसके संग्रह के समय से एक घंटे के भीतर किया जाना चाहिए। यह आवश्यक है कि संरक्षण के पूर्व संग्रहित मिल्ट का गुणवत्ता मूल्यांकन किया जाए। यदि संग्रहित किये गये मिल्ट की गुणवत्ता ठीक है, तो ही आगे की प्रक्रिया कर्ण, अन्यथा नये नर प्रजनक मछलियों से ताजा वीर्य का संग्रहण करें। मिल्ट का गुणवत्ता मूल्यांकन के लिए वीर्य का रंग, मात्रा, घनत्व, पिएच, शुक्राणुओं की गतिशीलता, शुक्राणुओं की संख्या, स्पेर्मटोक्रीट मान आदि को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

गैर – प्रेरित कार्प मछलियाँ 0.5 से 1.0  मिली लिटर वीर्य प्रति किलोग्राम शारीरिक वहजन के अनुसार देती है जबकि प्रेरित नर मछली 6 – 10  मिली लिटर वीर्य देती है। यह एक महत्वपूर्ण पूर्ण पहलू है जिसे हिमांक संरक्षण से पहले ध्यान देना चाहिए क्योंकि कम मात्रा में मिल्ट की प्राप्ति नर मछलियों की परिपक्वता की स्थिति का संकेत देता है शुक्राणु गतिशीलता को वीर्य मिल्ट का सबसे सरल और सबसे विश्वसनीय संकेतक बताया गया है। एक कार्प वीर्य का नमूना जिसमें स्पर्मटोक्रीट वेल्यू 70 से कम नहीं, शुक्राणुओं की संख्या 1.5 – 2.3 x 109 संख्या प्रति मिली शुक्राणुओं की गतिशीलता 90 प्रतिशत से अधिक हो तो गुणवत्ता नमूना माना जाता है।

एक्सटेंडर और क्रायोप्रोटेक्टेंट के साथ संतुलन

एक्सटेंडर आम तौर पर उम्मीदवार प्रजातियों के सेमिनल प्लाज्मा के भौतिक – रचनात्मक संरचना के साथ संगत होने के लिए डिज़ाइन किये जाते हैं जो शुक्राणु को गैर गतिशीलता लेकिन व्यवहार्य अवस्था में बनाये रखने के लिए बनाये जाए हैं। क्रायोप्रोटेक्टेंट एक रसायन है जो कोशिका को शीतलक ठंड और विगलन प्रक्रिया के दौरान होने वाले नुकसान को कम करता है। क्रायोप्रोटेक्टेंट को दो व्यापक श्रेणियों में बांटा गया है क्रायोप्रोटेक्टेंट जो की कोशिकाओं को पार करने में सक्षम हैं उसे पारगम्य क्रायोप्रोटेक्टेंट के रूप में जाना जाता है। जैसे डाईमिथाइल सल्फाक्साइड (डिएमएसओ), मेथनॉल और गिल्सराल। क्रायोप्रोटेक्टेंट जो की कोशिकाओं को पार करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं उन्हें गैर – पारगम्य क्रायोप्रोटेक्टेंट के रूप में जाना जाता है जैसे शर्करा अर्थात ग्लूकोज या सूक्रोज, पॉलीमर जैसे डेक्सट्रान, दूध और अंडे प्रोटीन आदि। तालिका 1 में वर्णित एक्सटेंडर सी के रासायनिक घटकों को सटीक रूप से तौलकर और दोहरा आसुत जल (डिस्टिल्ड वाटर) में मिलाकर एक्सटेंडर तैयार किया जाता है। इस प्रोटोकॉल में क्रायोप्रोटेक्टेंट के प्रयोग डीएमएसओ  है जो लगातार अच्छा परिणाम देता है। क्रायोप्रोटेक्टेंट को सीधे वीर्य नमूने में मिश्रित नहीं करना चाहिए। इसे पहले एक्सोथर्मल प्रतिक्रिया के कारण रेफ्रीजरेटर में रखा जाता है। इस घोल को डायलुएंट कहा जाता है। डायलुएंट के साथ वीर्य को मिलाते समय समतापीय स्थिति बनाये रखना बहुत महत्वपूर्ण है। डायलुएंट के साथ वीर्य के मिश्रण को मिलाने और फ्रीजिंग प्रक्रिया शुरू करने के बीच के समय अंतराल को संतुलन समय कहा जाता है। भारतीय प्रमुख कार्प के वीर्य के लिए यह आम तौर पर 30 – 45 मिनट है। संतुलन के दौरान  क्रायोप्रोटेक्टेंट विषाक्तता का समय संतुलन की अवधि और तापमान पर भी निर्भर करता है।

फ्रीजिंग प्रोटोकॉल

कार्प शुक्राणुओं के लिए एक  त्वरित फ्रीजिंग प्रोटोकॉल का उपयोग किया जाता है क्योंकि यह थर्मलशौक और अंत:कोशिका में बर्फ बनने की क्रिया को कम करता है। प्रोग्रामिंग योग्य शीतलन कक्ष द्वारा सीलबंद विसोट्यूब को – 15 डिग्री सेल्सियस/मिनट के कूलिंग तापमान पर ठंडा किया जाना आवश्यक होता है। – 60 डिग्री सेल्सियस तापमान पर पहुँचने के बाद विसोट्यूब से जमे हुए वीर्य के नमूनों को भण्डारण हेतु बिना देरी किये क्रायोकेन में रखे तरल नाइट्रोजन में भण्डारण किया जाता है।

विगलन/वार्मिंग एवं निषेचन

विगलन क्रायोप्रोटोकॉल एक महत्वपूर्ण कदम है, जहाँ अगर इष्टतम स्थितियों का पालन नहीं करने से विगलन के दौरान संरक्षित कोशिकाओं में बर्फ गठन रिक्रिस्टालाइजेसन की वजह से होता है। कार्प शुक्राणु के मामले में तेजी से विगलन बेहतर होता है क्योंकि धीमी गति से विगलन होने से छोटी अंत: कोशिका क्रिस्टल का पूनर्योजक हो सकता है जो कोशिकाओं को नुकसान पहुंचा सकता है। वर्तमान प्रोटोकॉल में गर्म पानी (37 डिग्री सेल्सियस) में क्रायोमिल्ट  नमूनों का विगलन किया जाता हैं। विसोट्यूब एवं फ्रेंच स्ट्रा क्रमशः 65 – 70 सेकेंड का समय नर्म तरल पदार्थ बनने में लगता है। फ्रोजन मिल्ट के तरल होने के बाद अनिषेचित अंडों के साथ इसे मिलाने से पहले लगभग 5 सेकेंड के लिए निषेचित पात्र  में विसोट्यूव से वीर्य को निकाल  कर रखना महत्वपूर्ण होता है। यह प्रक्रिया दोनों जनन कोष को कमरे के तापमान पर एक आइसोथथर्मल स्थिति में लाने के लिए किया जाता है। क्रायो वीर्य के साथ निषेचित अंडे को मीठे पानी में 5 – 10 बार धोकर साफ किया जाता है और अत्यधिक क्रोयोप्रोटेक्टेंट को बाहर निकालने के लिए जल प्रवाह अंड सेवन कक्ष में रखा जाता है।

हिमांक संरक्षित वीर्य या मिल्ट की मछलियों के नस्ल उन्नयन में उपयोगिता

अनुवांशिक विविधता को संरक्षित करने के लिए शुक्राणु क्रायोबैंकिंग कैप्टिवीटी में मछलियों के प्रजनन के लिए एक अच्छा विकल्प हो सकता है। शुक्राणु का क्रायोबैकिंग लागत श्रम एवं सुरक्षा के संदर्भ में कैप्टिवीटी में मत्स्य प्रजनन के काफी फायदे हैं। चूंकि समय के साथ बीमारी या अनुवांशिक बहाव से होने वाले नुकसान को जोखिम के बिना विभिन्न पीढ़ियों के हजारों नमूनों को कम से कम स्थान में इस तकनीक से भण्डारण किया जा सकता है। इसके अलावा, फ्रोजेन नमूनों को परिवहन और प्रबंधन अपेक्षाकृत सरल है एवं इसका पुन: मूल रूप में वापसी का योजना करने में अधिक लचीलेपन की अनुमति देता है। मत्स्य पालन और संरक्षण हेतु वर्तमान में शुक्राणुओं के हिमांक संरक्षण (क्रायोप्रिजेर्वेसन) के लिए सामान्य प्रौद्योगिकियां रूस (एनाइयेव, 1998) और यूरोप के साथ ही उतरी और दक्षिण अमेरिका (हार्वे, 1998) के कई शुक्राणु बैंकों में उपयोग किया जा रहा है। हाल ही में केंद्रीय मीठा जल जीवपालन अनुसंधान संस्थान, भुवनेश्वर द्वारा 2009 – 10 के दौरान भारत में चार मत्स्य वीर्य क्रायोबैंक स्थापित किये गये। इन मत्स्य वीर्य क्रायो बैंक (2 आंध्र प्रदेश में और 2 उड़ीसा में) का उपयोग भारतीय प्रमुख कार्प (कतला, लेबिओ रोहिता, सिरहनस मृगला) के नस्ल उन्नयन और अच्छी गुणवत्ता वाले प्रजनक मछली के विकास के उद्देश्य से किया जा रहा है। 2009 – 10  के दौरान दस हैचरी में स्टॉक उन्नयन के लिए इन बैंकों के क्रायोमिल्ट का उपयोग किया गया था। स्थानीय हैचरियों के मादा मछलियों जिसमें कार्प मछली में अंत प्रजनन का दबाव एवं धीमी गति से वृद्धि दर्ज की गई थी। उससे प्राप्त अंडों का निषेचन स्वस्थ नर मछलियों के हिमीकृत शुक्राणु का उपयोग करके 40 प्रतिशत से अधिक हैचलिंग के प्राप्ति की गई। इस तकनीक को लागू करने से कई हैचरी में प्रजनन मछली की स्थिति में वृद्धि संभव हो पाई। हैचरी तक कार्प की क्रायोमिल्ट को ले जाने में आसानी हुई और प्रजनक मछलियों का उत्पादन सफलतापूर्वक किया गया है इसके अलावा भविष्य के प्रजनक स्टॉक के विकास हेतु प्रक्षेत्र के जर्म प्लाज्मा को बदल दिया जाता है। वर्तमान में इन राज्यों में मछली वीर्य क्रायो बैंक के जरिये कार्प मछलियों के हिमांक सरंक्षित वीर्य का उपयोग कर एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसी तरह, कार्प स्टोन उन्नयन के उद्देश्य से भाकृअनुप – सीफा की तकनीकी सहायता से भारत एवं विदेशों में मत्स्य वीर्य क्रायोबैंक  की स्थापना की गई है।

निष्कर्ष

अच्छी तरह से प्रदर्शित किया गया है की संग्रहित मिल्ट द्वारा उत्पादित कार्प बीज, ताजा मिल्ट द्वारा उत्पादित बीज से किसी भी तुलना में निम्न नहीं है। संरक्षित मिल्ट द्वारा विकसित स्टॉक के विकास, प्रजनन की प्रतिक्रिया और अंडजनन क्षमता, ताजा मिल्ट के साथ तुलनीय है। इस प्रकार हिमांक संरक्षित वीर्य या मिल्ट द्वारा मछलियों की नस्ल का अनुवांशिक उन्नयन, जल कृषि में नील क्रांति को प्राप्त करने में एक अहम भूमिका अदा करेगा।

लेखन: धनंजय कुमार वर्मा एवं पद्यामन राउत राय

स्त्रोत: कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग,भारत सरकार

 

मत्स्य पालन के कार्यो का विस्तृत विवरण

  1. चूने का प्रयोग
  2. तालाब के जलीय पौधों का उन्मूलन
  3. मांस भक्षी तथा अनचाही मछलियों का उन्मूलन
  4. तालाब में खाद का प्रयोग
  5. मत्स्य बीज संचय
  6. परिपूरक आहार

चूने का प्रयोग

यह पोषक तत्व कैल्शियम उपलबध कराने के साथ जल की अम्लीयता पर नियंत्रण रखता है। हानिकारक धातुओंको अवक्षेपित करता है। विभिन्न परजीवियों के प्रभाव से मछलियों को मुक्त कराता है तथा तालाब के घुलनशील आँक्सीजन स्तर को ऊंचा उठाता है। नाईट्रोजन उर्वरकों के लगातार उपयोग से तथा जैविक पदार्थो से उत्पन्न अम्लों के कारण मिट्‌टी की अम्लीयता बढ़ जाती है। फलस्वरूप् अम्लीयता की अवस्था में डाला गया फाँस्फोरसयुक्त उर्वरक निरर्थक चला जाता है। अतः उर्वरकों के पूर्ण उपयोग के लिए अम्लीयता को उदासीनता के स्तर तक लाना आवश्यक  है। चूने की मात्रा मिट्‌टी की अम्लीयता के आधार पर निश्चित की जाती है।

अत्यधिक क्षारीय मिट्‌टी (पी.एच.8.5 से अधिक) को गोबर की उचित मात्रा 20-30 टन प्रति हेक्टर के प्रयोग से या जिप्सम के 5-5 टन प्रति हेक्टर के प्रयोग से मत्स्यपालन के योग्य पी.एच. पर लाया जा सकता है।

तली में अधिक मात्रा में कार्बनिक पदार्थ के जमा होने पर उपचार

तालाब के तल में अधिक मात्रा में कार्बनिक पदार्थ हो जाने पर अक्सर विभिन्न प्रकार की जहरीली गैसें पैदा होती है, जो मछली के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती है। अतः तालाब को सुखाकर तली की एक पर्त निकाल देना चाहिए तथा 1 टन प्रति हेक्टर चूना डालकर 15 दिवस के लिए तल को सूर्य की किरण दिखाना चाहिये। यदि तालाब से पानी निकालना संभव न हो तो तल को समय-समय पर रेकिंग करते रहना चाहिए तथा 1 टन चूना प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष किस्तों में डालना चाहिये।

तालाब के जलीय पौधों का उन्मूलन

जलीय वनस्पतियां तालब में उपलब्ध पोषक तत्वों का शोषण कर तालाब की उत्पादकता कम करती है।

जलीय वनस्पतियां मछली के शत्रु को प्रश्रय देती है। ये तालाब के आँक्सीजन के संतुलन को प्रभावित करती है, तथा मत्स्याखेट के समय जाल चलाने में बाधा उत्पन्न करती है। इनकी अधिकता से सूर्य की किरणें तालाब की तली तक नहीं पहुंच पाती है, जिससे मछलियों की बाढ़ प्रभावित होती है। इसलिये मत्स्य पालन के पूर्व जलीय वनस्पतियां का उन्मूलन कर देना चाहिये। तालाब में पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की जलीय वनस्पतियों को मुखयतः तीन वर्गो में बाटां जा सकता हैः-

  1. सतह पर तैरने वाली वनस्पतियां

जलकुम्भी, पिस्टीया, लमेना पौलीरीजा, लेमना माइनर, बोल्फिया एजोला इत्यादि वनस्पतियां इस श्रेणी में आती है।

  1. जलमग्न वनस्पतियां

विभिन्न प्रकार के शैवाल ओटेलिया, वैलिस्नेरिया, हाइड्रीला, सिरेटोफाइलम, लैगारोसिफोन, कारा तथा अन्यवनस्पतियां जो जल की सतह से नीचे ही रहती है इस श्रेणी में आती है।

  1. तालाब के किनारे उथले तथा गहरे जल में पाई जाने वाली जड़दार जलीय वनस्पतियां लिमनैथियम, आइपोमिया, पुसिया, मार्सीलिया कमल इत्यादि।

जलीय वनस्पतियों के उन्मूलन की विभिन्न विधियाँ:-

(क)  यंत्र अथवा हाथ से निकालनाः-

यह विधि छोटे तालाबों के लिये काम में लाई जाती है। मजदूरों द्वारा हाथ से जलीय वनस्पति की सफाई की जाती है। यंत्र विधि में मजदूरों द्वारा हंसिया या कटीले तारों की मदद से जलीय वनस्पति की सफाई की जाती है। आजकल मशीनें भी जलीय वनस्पति की सफाई क लिये उपलब्ध है।

(ख) रासायनिक खरपतवार नाशक दवाओं द्वारा विनाश एवं विघटनः-

यह विधि प्रभावशाली है, इनका प्रयाग अधिक जल क्षेत्रों वाले तालाबों में किया जाता है, रासायनिक विधि में जलीय वनस्पतियां मरकर तालाब की तली में बैठ जाती है, तथा कार्बनिक खाद के रूप में काम आती है और तालाब की उत्पादकता बढा़ती हैं।

नीचे दी गई सारिणी द्वारा किस वनस्पति नाशक का कितनी मात्रा में किन वनस्पतियों पर प्रयोग करना चाहिये उल्लेख किया जा रहा है।

जैविक नियंत्रण विधि

साधारणतः तालाबों में अक्सर जल में डूबी हुई वनस्पतियाँ हाइड्रीला, नाजा, सेरेटोफाइलन देखने को मिलती है। ये सभी जलीय वनस्पतियाँ ग्रासकार्प भोजन के रूप में ग्रहण करती है। ग्रास कार्प मछली जैविक नियंत्रण में बहुत उपयोगी है, ग्रासकार्प के 200 मिलीमीटर या इससे बड़ी साइज के मत्स्य बीज संचय करना उपयुक्त है। जल के सतह पर तैरने वाली वनस्पतियाँ जैसे लेमना, ऐजाला, स्पायरोडेला, वोल्फिया आदि भी ग्रासकार्प द्वारा ग्रहण की जाती है।

मांस भक्षी तथा अनचाही मछलियों का उन्मूलन

बारहमासी तालाबों में अनेक प्रकार की मांसाहारी तथा अनचाही मछलियां रहती है मांसाहारी मछलियां मत्स्य बीज को हानि पहुंचाती है जबकि अनके छोटी-छोटी अनचाही मछलियां भोजन सम्बन्धी स्पर्धा कर नुकसान पहुंचाती हैं। जिन्हें यदि सम्भव हो तो बार-बार जाल चलाकर मांसभक्षी तथा अनचाही मछलियों को निकाल देना चाहिये।

  1. जल निष्कासन विधि

जिन तालाबोंमें जल का पूर्ण निष्कासन तथा पुनः आपूर्ति प्रबंध हो तालाब के सम्पूर्ण जल को निकालकर इन मछलियों को पकड़ लिया जाता है तथा कुछ समय तालाब को सूखने के लिये छोड़ लिया जाता है।

  1. विष प्रयोग विधि

ऐसे तालाबोंमें जिसमें जल निष्कासन तथा जलप्लावन की सुविधा नहीं है। गहराई अधिक होने के कारण बारबार जाल द्वारा भी शत-प्रतिद्गात मछलियों को निकालना संभव नहीं होता है, वहां विष प्रयोग की विधि अपनाई जाती है।

(क)  महुआ खली

महुआ खली को 200 से 250 पी.पी.एम. (दस लाख भाग में एक भाग) या 2000 किलोग्राम से 2500 किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से डालने से तालाब की सारी मछलियाँ मारी जा सकती है। खली का चूर्ण समरूप ढग़ं से तालाब में फैला दिया जाता है। जाल को तालाब के एक छोर से दूसरे छोर तक खींचा जाता है। इस कार्य को 5-6 बार तक जारी रखा जाता है, विष से प्रभावित मछलियाँ बेजान होकर सतह पर आ जाती है। अतः सतह पर आ जाने से उनको पकड़ना  सान हो जाता है। महुआ खली के प्रयोग से मारी गई मछलियाँ पूरी तरह खाने योग्य होती है। जल में इसका विषैलापन करीब पन्द्रह दिन रहता है। तत्पद्गचात यह जैविक खाद में बदल जाता है। मछली बीज का संचय विष का प्रभाव समाप्त हो जाने पर ही किया जाता है।

(ख) अमोनिया

एन हाइड्रा अमोनिया 20 से 25 पी.पी.एम. की दर से उपयोग करने पर प्रभावशाली

होता है। विष का प्रभाव 4 से 6 सप्ताह तक होता है।

(ख)  व्लीचिंग पाउडरः-

व्लीचिंग पाउडर का 25-30 पी.पी.एम. घोल 3-4 घंटे के अन्दर उपयोग करने पर अनचाही मछलियों का उन्मूलन किया जा सकता है। पाउडर को पानी में घोल दिया जाता है तथा घोल को जल के सतह पर तुरन्त डाला जाता है। 3-4 घंटे बाद जाल चलाकर मछलियों को बाहर निकाल लिया जाता है।

तालाब में खाद का प्रयोग

तालाब में मछली के प्राकृतिक भोजन का उत्पादन, जैविक (कार्बनिक) एवं रासायनिक (अर्काबनिक) खाद का उपयोग कर बढ़ाया जा सकता है उसमें उचित मात्रा में समय-समय पर फास्फोरस नाइट्राजेन और पोटाश खाद डाला जाता है। तालाब में खाद डालने के बाद पोषक तत्व जल में घुलकर मिल जाते हैं तथा कुछ तालाब की तली की मिट्‌टी द्वारा बांध लिये जाते हैं और धीरे-धीरे जल और सूर्य की प्रक्रिया से मछली को पोषक तत्व के रूप में जल में उपलब्ध होते रहते हैं। इन उपलबध पोषक तत्वों एवं सूर्य की किरण प्रक्रिया से वनस्पति प्लवकों एवं जन्तु प्लवकों की उत्पत्ति होती है, जो मछलियों के लिये प्राकृतिक खाद्य पदार्थ है जिन्हें खाकर मछलियांतेजी से बढ़ती है। तालाब में खाद के अच्छे उपयोग के लिए लगभग एक सप्ताह के पहले 250 से 300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बिना बुझा चूना (भूरा चूना) डालने की सलाह दी जाती है। जैविक और रासायनिक खाद दोनों ही तरह का समन्वित उपयोग लाभदायक होता है, पहले प्रतिमाह जैविक खाद का प्रयोग करना चाहिये और उसके 15 दिनों के बाद रासायनिक खाद डालना चाहिए। मत्स्यबीज संचयन के 15 दिन पूर्व प्रारंभिक मात्रा 5 हजार किलोग्राम ताजा गोबर प्रति हेक्टयर की दर से डालना चाहिये। दूसरे माह से प्रतिमाह 555 किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से डाला जाता है तथा यूरिया 18 किलोग्राम या कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट 36 किलोग्राम, सिंगल सुपरफास्फेट 30 किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से प्रतिमाह डाला जाता है। सतह पर हरी काई पैदा हो जाये तो खाद न डाले। जब महुआ खली का उपयोग किया जाए तो प्रारंभिक मात्रा गोबर खाद नहीं डालना चाहिये। गोबर खाद को तालाब के किनारे ढ़रे बनाकर डाला जाता है ताकि खाद शनैः-शनैः पानी में घुलती  रहे।

मत्स्य बीज संचय

मिश्रित मछली पालन का मुखय उद्देश्य कम से कम समय में न्यूनतम लागत पर ज्यादा से ज्यादा खाने योग्य मछलियां का उत्पादन करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति उचित मात्रा में मत्स्यबीज का संचय कर उनके अधिक वृद्धि के लिए जैविक और रासायनिक खादों का एवं कृत्रिम भोजन का उपयोग करके प्राप्त किया जा सकता है। मछली पालन में मछलियों की भोजन की आदतें इनकी बढ़ने की क्षमता एवं रहन-सहन की जानकारी होना जरूरी है ताकि तालाब के प्रत्येक जल स्तर पर पाये जाने वाले खाद्य पदार्थ का भोजन के रूप में उपयोग कर सके।

मत्स्य बीज संचयन एवं प्रजाति का अनुपात

जल क्षेत्र में संचय किए जाने वाले मत्स्य बीज का आपस में तालमेल होना आवश्यक  है, जो तालाबों की स्थिति पर निर्भर करता है। जिन तालाबों में वनस्पति प्लवक अपेक्षाकृत अधिक है, तो सिल्वरकार्प का अनुपात कतला से अधिक रखना चाहिए। अधिक गहरे तालाबों में जहां अधिक जलीय वनस्पतियां पायी जाती हैं,वहां रोहू का अनुपात अधिक रखना चाहिए, क्यों कि ऐसे तालाबों में रोहू की वृद्धि तीव्र देखी जाती है। पुराने तालाबों में जहां तल में जैविक पदार्थ काफी अधिक मात्रा में उपलब्ध है, उनमें तल में रहने वाली मछलियां मृगल तथा कामनकार्प का अनुपात अपेक्षाकृत अधिक रखना चाहिए। ऐसे तालाबों में शैवाल तथा अन्य जलमग्न जलीय वनस्पतियां उपलब्ध हैं वहां ग्रास कार्प का संचय किया जा सकता है। इनकी संख्या तालाब में उपलब्ध जलीय वनस्पतियों की मात्रानुसार रखी जानी चाहिए। तालाब में परिपूरक आहार जैविक तथा रासायनिक खाद निर्धारित मात्रा मे उपयोग करने पर मत्स्य बीज की संखया सामान्यतः प्रति हेक्टर 5000 फिंगरलिंग तथा मिश्रित मत्स्य पालन में 10,000 हजार फिंगरलिंग संचय किया जा सकता है। तालाब पूर्ण तैयार होने के उपरांत विभिन्न मत्स्य प्रजातियों का संचयन प्रति हेक्टेयर की दर से निम्न अनुपात में करते हैं।

प्रजाति छह प्रजाति संचयन अनुपात चार प्रजाति संचयन अनुपात तीन प्रजाति संचयन अनुपात
कतला 20 % 40% 40%
सिल्वर कार्प 20 %
रोहू 20 % 30% 30%
ग्रासकार्प 15%
मृगल 15% 20% 30%
कॉमन कार्प 10% 10%  

तालाब में गोबर खाद छोड़ने के पन्द्रह दिन बाद मत्स्य बीज छोड़ना चाहिए। तालाब से भरपूर उत्पादन के लिए छः प्रकार की मछलियों का बीज या चार प्रकार की या तीन प्रकार की मछली बीज का संयोजन अलग-अलग अनुपात में छोड़ा जा सकता है। शहडोल जिले में सामान्यतः तीन प्रकार की प्रजाति के मत्स्य बीज का संचयन कर मत्स्य पालन का कार्य किया जा रहा है।

परिपूरक आहार

केवल खाद डालने से ही मछली का उत्पादन अधिक नहीं प्राप्त किया जा सकता है। मछलीपालन में कम से कम समय में और न्यूनतम लागत पर अधिक से अधिक खाने योग्य मछलियां पैदा की जाए, इसलिये यह आवश्यक  है कि तालाबों में खाद डालने के साथ ही संचित मछलियों को बाहर से परिपूरक आहार दिया जाए। बाहर से भोजन देने में निम्नलिखित बातों का ध्यान देना आवश्यक  है।

(1) आहार मछलियों के लिए रूचिकर हो। (2) सुपाच्य हो। (3) मछलियों की मासंपेशियों के निर्माण में अधिक से अधिक सहायक हो। (4) लागत न्यूनतम हो, तथा (5) आसानी से उपलब्ध हो। उपरोक्त बातों को देखते हुए कृत्रिम भोजन हेतु साधरणतः जिन सामग्रियों का उपयोग किया जाता है, इनमें सरसों की खली, गेहूँ का चोकर, चावल की भूसी, सोयाबीन, मक्का इत्यादि वनस्पति मूल के पदार्थ हैं,जिनका मछलियों के लिए परिपूरक आहार के रूप में उपयोग करते हैं। जन्तु मूल के आहार के रूप में रेशम के कीड़ों के प्यूपा, मछलियों को चूरा फिश मील हड्‌डी का चूर्ण, मुर्गियों के अण्डे, केकड़े एवं घोघे इत्यादि परिपूरक आहार के रूप में व्यवहार किया जाता है।

परिपूरक आहार की दी जाने वाली मात्रा

साधारणतः सरसो या मूंगफली की खली तथा चांवल की भूसी या गेहूं का चोकर बराबर अनुपात में मिश्रण बना संचित मछलियों के कुल वजन का एक से दो प्रतिशत मात्रा रोजाना दी जाती है। प्रतिदिन निम्न मात्रा में परिपूरक आहार दिया जाना चाहिएः-

ग्रासकार्प मछलियों के लिए परिपूरक आहार के रूप में जलीय वनस्पति, जैसे-एजोला लेम्ना, स्पाइरोडेला, वरसीम, हाइड्रीला, नाजा, सिरेटोफाइलम इत्यादि देना चाहिए।

परिपूरक आहार देने में निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य हैं

  1. आहार तब देना चाहिए जब पहले दिया गया आहार मछलियों द्वारा उपभोग कर लिया गया हो।
  2. परिपूरक आहार प्रातःकाल में देना चाहिए।
  3. खली एवं कोढ़ा या फिशफूड का मिश्रण बैग में भरकर तालाब में लकड़ी के स्टैण्ड में बांध देना चाहिए। बैग में छोटे-छोटे छेद कर देना चाहिए, जिससे मछलियां आसानी से भोजन ग्रहण कर सकें और भोजन का दुरूपयोग भी न हो।

 

मछली पालन की विस्तृत जानकारी

  1. मछली पालन कैसे करें?
  2. मिश्रित मछली पालन में आय-व्यय का ब्यौरा (एक एकड़ के लिए)
  3. समन्वित मछली पालन
  4. मत्स्य-बीज उत्पादन
  5. मत्स्य-बीज उत्पादन की वैज्ञानिक विधि (एक एकड़ के लिए)
  6. मत्स्य-बीज (जीरा) उत्पादन में आय-व्यय का ब्यौरा (25 डिसमिल के लिए)

मछली पालन कैसे करें?

  1. तालाब की तैयारी

मछली की बीज (जीरा) को डालने के पूर्व तालाब को साफ़ करना आवश्यक है। तालाब से सभी जलीय पौधों एवं खाऊ और छोटी-छोटी मछलियों को निकाल देना चाहिए। जलीय पौधों को मजदूर लगाकर साफ़ करना अच्छा रहता है और आगे ख्याल रखें कि यह पुन: न पनप सके। खाऊ तथा बेकार मछलियों को खत्म करने के लिए तालाब को पूर्ण रूप से सुखा दिया जाये या जहर का प्रयोग किया जायें। इसके लिए एक एकड़ तालाब में एक हजार किलोग्राम महुआ की खली डालने से दो-चार घंटों में मछलियाँ बेहोश होकर सतह पर आ जाती हैं। पानी में 200 किलोग्राम प्रति एकड़ ब्लीचिंग पाउडर के उपयोग से भी खाऊ मछलियों को मारा जा सकता है। पानी में इन जहरों का असर 10-15 दिनों तक रहता है।

  1. जीरा संचयन:तालाब में छ: चुनी हुई मछलियों के संचयन से उत्पादन अधिक होता है। इन मछलियों की अंगुलिकायें 4000 प्रति एकड़ संख्या में निम्नांकित अनुपात में डालना चाहिए-
देशी मछलियाँ

(प्रति एकड़)

संख्या विदेशी मछलियाँ

(प्रति एकड़)

संख्या
1.       कतला 800 1.       सिल्वर कार्प 400
2.  रोहू 1200 2.  ग्रांस कार्प 300
3.  मृगल 800 3.  कॉमन कार्प 500

 

  1. खाद का प्रयोग:गहन मछली उत्पादन हेतु जैविक एवं रासायनिक खाद उचित मात्रा में समय-समय पर देना आवश्यक है। खाद किस प्रकार से डालें, इसे तालिका में दिखाया गया है।
खाद डालने का समय गोबर: डी.ए.पी: चूना

(मात्रा किलोग्राम/एकड़)

अभुक्ति
1.       जीरा संचय के 20 दिन पूर्व 800 8 200 पानी की सतह पर हरी कई की परत जमे तो
2.  प्रति माह (जीरा संचय के बाद) 400 8 50 खाद नहीं डालें

 

  1. कृत्रिम भोजन:मछली के अधिक उत्पादन के लिए प्राकृतिक भोजन के अलावा कृत्रिम भोजन की आवश्यकता होती है। इसके लिए सरसों की खली एवं चावल का कुंडा बराबर मात्रा में उपयोग किया जा सकता है। मिश्रण डालने की विधि इस प्रकार होनी चाहिए।
भोजन देने की अवधि प्रतिदिन

(मात्रा किलोग्रा./एकड़)

1 जीरा संचय से तीन माह तक 2-3
2 चौथे से छठे माह तक 3-5
3 सातवें से नवें माह तक 5-8
4 दसवें से बारहवें माह तक 8-10

 

इस प्रकार मछली पालन करने से ग्रामीणों को बिना अधिक परिश्रम से और अन्य व्यवसाय करते हुए प्रति वर्ष प्रति एकड़ 1500 किलोग्राम मछली के उत्पादन द्वारा 25 हजार रूपये का शुद्ध लाभ हो सकता है।

मिश्रित मछली पालन में आय-व्यय का ब्यौरा (एक एकड़ के लिए)

मद मात्रा अनुमानित खर्च (रु.)
तालाब का किराया 3000/हें. 1,200.00
मरम्मत 3000/हें. 1,200.00ब्लीचिंग पाउडर
ब्लीचिंग पाउडर 80 किलोग्राम/ 15 रु. 1,200.00
गोबर खाद 5200 किलोग्राम/30 पै. 1,560.00
डी.ए.पी. 96 किलोग्राम/10 रु. 960.00
चूना 750 किलोग्राम/ 2 रु. 1,500.00
अंगुलिकायें 3600/600 हजार रु. 2,160.00
चावल भूसी 2035 किलोग्राम/1 रु. 2,035.00
सरसों खली 2035 किलोग्राम/ 8 रु. 16,280.00
मछली चूना 365 किलोग्राम/10 रु. 3,650.00
अन्य 500.00
ब्याज 10% 3,224.00
कुल लागत   रु.35,469.00

 

मछली उत्पादन=1500 किलोग्राम/40 रु.         = रु.60,000.00

लाभ = (रु. 60,000 – 35,469)               = रु. 245331.00

= रु. 245331.00

इस तरह मिश्रित मछली पालन से एक एकड़ तालाब से प्रतिवर्ष पचीस हजार रूपये का लाभ कमाया जा सकता है।

समन्वित मछली पालन

मछली पालन से अधिक उत्पादन, आय एवं रोजगार के लिए इसे पशुपालन के साथ जोड़ा जा सकता है। यदि मछली पालन से सूकर, मुर्गी या बत्तख पालन को जोड़ दिया जाये तो इसके मल-मूत्र से मछलियों के लिए समुचित प्राकृतिक भोजन उत्पन्न होगा। इस व्यवस्था में मछली पालन से अलग से खाद एवं पूरक आहार की आवश्यकता नहीं होगी। एक एकड़ के तालाब के लिए 16 सूकर या 200 मुर्गी या 120 बत्तख की खाद काफी होगी।

यदि सूकर या बत्तख को तालाब के पास ही घर बनाकर रखा जाये तो इसे खाद को तालाब तक ले जाने के खर्च की बचत होगी तथा बत्तख दिनभर तालाब में ही भ्रमण करती रहेगी तथा शाम होने पर स्वयं ही वापस घर में आ जायेगी। यह व्यवस्था उस तरह के तालाब के लिए उपयोगी है जिसमें मवेशियों के खाद देने और नहाने-धोने की मनाही है। आदिवासी बहुल क्षेत्रों के सामूहिक तालाब में इस व्यवस्था को अच्छी तरह किया जा सकता है तथा रोजगार की संभावनाओं का विकास किया जा सकता है।

मत्स्य-बीज उत्पादन

वैसा तालाब जो काफी छोटा है (10-25 डिसमिल) और जिसमें पानी भी अधिक दिनों तक नहीं रहता है, उसमें बड़ी मछली का उत्पादन संभव नहीं। लेकिन जीरा (मत्स्य बीज) उत्पादन का कार्यक्रम किया जाये तो अच्छी आमदनी प्राप्त होगी। किसान 25 डिसमिल के तालाब से एक बार यानि 15-20 दिनों में पाँच हजार रुपया तथा एक साल में 3-4 फसल कर 15,000-20,000 रु. तक कमा सकता है।

साधारणत: इस क्षेत्रों में मछली बीज की काफी कमी है और बहुत सारे तालाब बीज की कमी के कारण मत्स्य पालन के उपयोग में नहीं आ पाते हैं।

जीरा उत्पादन की विस्तृत वैज्ञानिक विधि एवं आय-व्यय का ब्यौरा निम्नलिखित है –

मत्स्य-बीज उत्पादन की वैज्ञानिक विधि (एक एकड़ के लिए)

समय सामान दर प्रति एकड़
स्पॉन छोड़ने के सात दिन पूर्व गोबर (कच्चा या सड़ा हुआ) 2,000 किलोग्राम
  चूना 100 किलोग्राम
स्पॉन छोड़ने के एक दिन पूर्व डीजल एवं साबुन का घोल 20 ली./एकड़
स्पॉन छोड़ने का समय

(सुबह या शाम)

स्पॉन (किसी एक जाति की मछली या मिश्रित भी ले सकते है) 10 लाख/एकड़
स्पॉन छोड़ने के एक दिन बाद से पूरक आहार दें सरसों खली एवं चावल की भूसी पीसकर बराबर अनुपात में 6 किलोग्राम/एकड़

(आधा सुबह एवं आधा शाम)

स्पॉन छोड़ने के छह दिन बाद से   12 किलोग्राम/एकड़

(आधा सुबह एवं आधा शाम)

स्पॉन छोड़ने के ग्यारह से 15 दिन तक   18 किलोग्राम/एकड़

(आधा सुबह एवं आधा शाम)

 

स्पॉन छोड़ने के सोलहवें दिन से जीरा निकालकर बेचना शुरू करें। यह कार्य सुबह या शाम में करना ज्यादा लाभप्रद है।

मत्स्य-बीज (जीरा) उत्पादन में आय-व्यय का ब्यौरा (25 डिसमिल के लिए)

सामान मात्रा अनुमानित खर्च (रु.)
ब्लीचिंग पाउडर 20 किलोग्राम/15 रु. 300.00
गोबर खाद 500 किलोग्राम/30 पै. 150.00
चूना 25 किलोग्राम/5 रु. 125.00
डीजल एवं साबुन का घोल 5 लीटर/25 रु. 125.00
स्पॉन 2,50,000/6 रु./हजार 1,500.00
आहार 45 किलोग्राम/6 रु. 270.00
  कुल खर्च रु. 2,470.00

 

जीरा उत्पादन = 75,000/ 100 रु. हजार = रु. 7,500.00

लाभ: (7,500 – 2,470) = रु. 5030.00

नोट: चूँकि यह काम बरसात के दिनों में ही होता है और एक फसल में 20-25 दिन लगते हैं इसलिए किसान एक साल में 3-4 फसल पैदा कर 15,000 से 20,000 रु. का लाभ कमा सकता है और जो मछलियाँ तालाब में रह जायेंगी उसे बड़ा होने पर वह बेच कर और लाभ कमा सकता है।

स्त्रोत: कृषि विभाग, झारखंड सरकार

मछली पालन के लिए कुछ आवश्यक बातें

  1. नए तालाब के निर्माण के लिए ऐसी जगह का चुनाव करें जहाँ की मिटटी चिकनी हो। रेतीली मिटटी तालाब के लिए उपयुक्त नहीं रहती है क्योंकि उससे पानी तीव्र गति से रिस जाता है। परिणामस्वरूप उसमें पानी जल्दी-जल्दी भरने की आवश्यकता होती है।
  2. तालाब बनवाने के लिए नीची जगह का चुनव करें। यहाँ पानी अधिक दिनों तक रहेगा तथा बनवाने में खर्च भी कम आएगा।
  3. तालाब कम से कम आधा एकड़ (50 डिसमिल) का बनवाएं।
  4. तालाब का आकर न हो तो बहुत बड़ा होना चाहिए और न ही अधिक छोटा। तालाब आयताकार बनवाएँ, अर्थात तालाब की लम्बाई इसकी चौड़ाई से तीन गुणा हो (1:3) आयताकार तालाब बनवाने में खर्च कम आता है तथा जाल चलाकर मछली निकालने में भी सुविधा होती है।
  5. तालाब की तलहटी साफ रहनी चाहिए। इसमें कोई पत्थर या पेड़ की जड़ इत्यादि न छोड़े, क्योंकि इससे मछली निकालने में परेशानी होती है। तालाब को एक तरफ ढालू बनाएँ-ताकि जरूरत होने पर सम्पूर्ण पानी को निकाला जा सकें।
  6. तालाब के बाँध में किसी तरह का पत्थर तथा पेड़-पौधें का तना न छोड़े, अन्यथा बाद में उस जगह से पानी का रिसाव होता है।
  7. बाँध बनवाते समय मिटटी डालने के बाद उस पर पानी छिड़कें त्तथा पीटकर दबा दें।
  8. तालाब का बाँध इतना चौड़ा तथा मजबूत होना चाहिए कि वह बरसात के दिनों में टूटे नहीं। बाँध के दोनों तरफ घास लगी रहनी चाहिए, जिससे मिटटी का कटाव न हो, अन्यथा धीरे-धीरे बाँध की मिटटी कटकर तालाब में चली जायेगी।
  9. यदि तालाब के अलग-बगल में पानी लेने की व्यवस्था हो तो तालाब की गहराई 5-6 फीट तक रखना ठीक होगा, अन्यथा गहराई 10-11 फीट रखने पर ही गर्मी के दिनों में 3-4 फीट पानी रह पायेगा।
  10. तालाब में बाहर से पानी लाने के रास्ते में पाईप लगा रहना चाहिए। इसके लिए सीमेंट या मिटटी का पक्का पाइप इस्तेमाल किया जा सकता है। बरसात के दिनों में एकत्र अधिक पानी को बाहर निकालने के लिए भी तालाब के बाँध के ऊपर की तरफ पाइप लगी होनी चाहिए। इन दोनों पाइपों में कपड़े की महीन जाली लगानी चाहिए, ताकि तालाब में पाली गई मछलियाँ बाहर न जा सके तथा बाहर की मछली अंदर न आ सके।
  11. मछलियों को दिए जाने वाले पूरक आहार को दो बराबर भागों में बांटकर सुबह-शाम दें।
  12. पानी का रंग गहरा हरा हो जाये तो पूरक आहार और खाद देना बंद कर दें। पानी का रंग साफ़ हो जाये तो पुन: प्रारम्भ करें।
  13. अगर मछली हवा में सांस लेने के लिए पानी की सतह पर कूदे तो तालाब में पानी बदलने की व्यवस्था करें या पम्प द्वारा तालाब की तलहटी के पानी को फब्बारे जैसा तालाब में फूंके।
  14. यदि 3-4 दिनों तक लगातार बादल लगें हों या रुक-रुक कर वर्षा हो रही हो तो तालाब में चूना का प्रयोग करें।
  15. अगर तालाब में मुलायम जलीय पौधे न हों या ऊपर से घास देने की व्यवस्था न हो तो ग्रास कार्प का संचय न करें।
  16. यदि मछलियाँ पानी की सतह पर समूह में घूम रही हों या किसी बीमारी की आंशका हो तो तालाब में चूना का प्रयोग करें और नजदीकी विशेषज्ञ या मत्स्यपालन इकाई, पशुचिकित्सा महाविद्यालय, कांके से सम्पर्क करें।

स्त्रोत: कृषि विभाग, झारखंड सरकार

मछली पालन – अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

  1. मछली पालन के लिए कैसी भूमि का चुनाव करना चाहिए?
  2. मछली पालन के लिए क्या चलते पानी की भी जरुरत होती है?
  3. क्या हम मिट्टी में पानी रखने की क्षमता का पता कर सकते हैं?
  4. पानी एवं मिट्टी का रसायनिक विश्लेषण क्यों?
  5. तालाब की गहराई कितनी होनी चाहिए?
  6. तालाब में पानी का स्तर कितना रखना चाहिए?
  7. क्या 100 वर्ग मीटर के तालाब में मछली पल सकती है?
  8. मछली पालन के लिए पी.एच. कितना होना चाहिए?
  9. तालाब की तैयारी कब करनी चाहिए?
  10. तालाब में चूने का उपचार क्यों और कब करना चाहिए ?
  11. क्या मछली गोबर खाती है?
  12. तालाब में कौन सी मछली पालनी चाहिए?
  13. मछली का बीज तालाब में कब डालना चाहिए?
  14. तालाब में मछली का बीज किस हिसाब से डालना चाहिए?
  15. क्या मछली का बीज प्रति वर्ष डालना पड़ता है?
  16. क्या मछली को अतिरिक्त आहार देना चाहिए?
  17. मछली को अतिरिक्त आहार के रूप में क्या देना चाहिए?
  18. क्या मछ्ली पालन में घर के बचे खुचे पदार्थ का इस्तेमाल कर सकते हैं?
  19. बीमार मछली के क्या लक्षण हैं?
  20. यदि मछली बीमार हो तो क्या करना चाहिए?

मछली पालन के लिए कैसी भूमि का चुनाव करना चाहिए?

खड़े पानी की मछली के लिए ऐसी भूमि का चुनाव करें जिसमें पानी का रिसाव कम हो। पानी की स्थाई आपूर्ति का विकल्प उपलब्ध हो, या भूमि दलदली हो।

मछली पालन के लिए क्या चलते पानी की भी जरुरत होती है?

ट्राउट मछली पालन के लिए चलते एवं कार्प मछली के लिए खड़े पानी की जरुरत होती है ।

क्या हम मिट्टी में पानी रखने की क्षमता का पता कर सकते हैं?

हाँ, मिट्टी का 250 ग्राम तक का नमूना एक मीटर की गहराई तक 3 या 4 स्थानों से इकट्ठा करके इसमें थोड़ा पानी मिला कर हथेली के बीच रखकर दबाएँ यदि यह बन्ध जाता है तो मिटटी में पानी को खड़ा रखने की क्षमता है ।

पानी एवं मिट्टी का रसायनिक विश्लेषण क्यों?

पानी एवं मिट्टी का रसायनिक विश्लेषण से इसमें उपस्थित पोषक तत्व और लवणों का ज्ञान तथा विभिन्न अवयवों की कमी की प्रतिपूर्ति का भी पता चलता है । इन कमियों को दूर करने की व्यवस्था कर मछली उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है।

तालाब की गहराई कितनी होनी चाहिए?

मिश्रित मत्स्य पालन में तालाब की गहराई कम से कम 6 फुट होनी चाहिए । जिसमें पानी का स्तर 5-1/2′ तक रखा जाता है।

तालाब में पानी का स्तर कितना रखना चाहिए?

तालाब में पानी का स्तर 4.5 से 5 फुट होना चाहिए क्योंकि इससे कम पानी होने पर ऊपरी सतह की मछली की वृद्धि पर असर पड़ेगा। पानी का तापमान बढेगा व घुलनशील आक्सीजन का स्तर नीचे गिरेगा जो मछली पालन के लिए उचित नहीं।

क्या 100 वर्ग मीटर के तालाब में मछली पल सकती है?

हाँ परन्तु इससे आर्थिक लाभ नहीं मिल सकता । आर्थिक लाभ की दृष्टि से कम से कम 300 वर्ग मीटर का तालाब उपयुक्त पाया गया है । परन्तु ट्राउट मछली पालन का कार्य 15 x 2 x1.5 मी० को यूनिट में करके एक टन/ वार्षिक पैदावार ली जा सकती है बशर्ते पानी का तापमान 18 डिग्री सेंटीग्रेड से कम व आपूर्ति दर 20 लीटर/सेकंड हो ।

मछली पालन के लिए पी.एच. कितना होना चाहिए?

मछली पालन के लिए पी. एच. 6.5 से 8.5 होना चाहिए। इसकी प्राप्ति हेतु तालाब में चूने का प्रयोग किया जाता है।

तालाब की तैयारी कब करनी चाहिए?

तालाब की तैयारी मछली का बीज डालने से 14 या 15 दिन पहले कर लेनी चाहिए जैसे कि तालाब से कीचड़ निकालना, खरपतवार, जीव-जंतु, कीटों का उन्मूलन एवं चूना और गोबर का उपचार ।

तालाब में चूने का उपचार क्यों और कब करना चाहिए ?

चूने का उपचार हानिकारक कीटाणुओं को नष्ट करने, मिट्टी को उपजाऊ बनाने, मिट्टी को क्षारीय बनाने तथा मछली को कैल्शियम प्रदान करने के लिए करते हैं । इसका उपचार तेज धूप में करना चाहिए ।

क्या मछली गोबर खाती है?

तालाब में गोबर की अधिकतर मात्रा उर्वरक का काम करती है और मछली के प्राकृतिक भोजन की पैदावार बढाने के लिए उपयुक्त होता है और इसे समय समय पर डालते रहना चाहिए । हाँ यदि पुराने गले सड़े गोबर में पेड़ पौधों की पत्तियां हो तो उसे कामन कार्प मछली भोजन के रूप में प्रयोग कर लेती है ।

तालाब में कौन सी मछली पालनी चाहिए?

मछली का चयन स्थान की ऊंचाई से संबंधित है । 1000 से 1500 मीटर तक की ऊँचाई वाले क्षेत्र में विदेशी कार्प की तीन किस्मों को एवं निचले क्षेत्र में कार्प प्रजाति की छ: किस्मों को एक साथ पाला जा सकता है।

मछली का बीज तालाब में कब डालना चाहिए?

मछली का बीज तालाब में मार्च महीने में डालना ज्यादा उचित होता है। मछली बीज संग्रहण से पूर्व तालाब में उपलब्ध मछली के प्राकृतिक भोजन की मात्रा की जाँच कर लेनी चाहिए ।

तालाब में मछली का बीज किस हिसाब से डालना चाहिए?

तालाब में मछली के बीज के रूप में अंगुलिका या शिशु मछली डालनी चाहिए न कि जीरा तथा इनकी संख्या तालाब के क्षेत्रफल का डेढ़ गुना होना चाहिए ।

क्या मछली का बीज प्रति वर्ष डालना पड़ता है?

हाँ, क्योंकि इसकी दो प्रजाति ग्रास एवं सिल्वर कार्प स्वयं प्रजनन नहीं करती एवं मिरर कार्प जो स्वयं प्रजनन करती है उसके बीज को भी दो साल के बदद बदल देना चाहिए।

क्या मछली को अतिरिक्त आहार देना चाहिए?

हाँ, क्योंकि अर्ध सघन स्तर पर मछली कि खेती में मछली कि संख्या ज्यादा तथा प्राकृतिक भोजन कम होता है। अतः अच्छी पैदावार के लिए अतिरिक्त भोजन देना आवश्यक है।

मछली को अतिरिक्त आहार के रूप में क्या देना चाहिए?

मछली को अतिरिक्त आहार के रूप में मूंगफली/सरसों/ अलसी का खली एवं चोकर बराबर मात्रा में मिलाकर मछली के कुल वजन का 2 या 3 प्रतिशत देना चाहिए।

क्या मछ्ली पालन में घर के बचे खुचे पदार्थ का इस्तेमाल कर सकते हैं?

हाँ परन्तु तेलयुक्त पदार्थ का इस्तेमाल न करें ।

बीमार मछली के क्या लक्षण हैं?

पानी के सतह पर अकेले रहना, भोजन न लेना, शरीर को तालाब की दीवारों से रगड़ना, ठीक ढंग से न तैरना, रंग फीका पड़ना तथा श्लक गिरने लगना आदि ।

यदि मछली बीमार हो तो क्या करना चाहिए?

यदि मछली बीमार हो तो तालाब में ताजा पानी छोड़ दें अतिरिक्त भोजन देना बंद कर दें।

स्त्रोत: कृषि विभाग, भारत सरकार

 

माहवार कार्यक्रम-बरेली जिला

  1. जनवरी
  2. फरवरी
  3. मार्च
  4. अप्रैल
  5. मई
  6. जून
  7. जुलाई
  8. अगस्त
  9. सितम्बर
  10. अक्टूूबर
  11. नवंबर
  12. दिसम्बर

जनवरी

2 कुन्तल प्रति हैक्टर की दर से चूने का प्रयोग करें। मछलियों को खीचने वाले जाल से पकड़ कर पोटेशियम परमैगनेट के हल्के घोल में डुबो कर पुनः तालाब में छोड़ दें। तालाब में पानी का स्तर 1 से 1.5 मी. तक बनाये रखें । खाद व उर्वरक न डालें ।

फरवरी

खाद व उर्वरक का प्रयोग करें। कृत्रिम आहार की मात्रा बढ़ा दें ( 3-4 प्रतिषत)। तालाब में पानी का स्तर कम से कम 1.5 मी. बनाये रखें। जाल चलाकर मछलियों की बढ़ोत्तरी की जाँच करें।

मार्च

खीचने वाले जाल को चलाकर मछलियों को पकड़े तथा उन्हे बेचने के लिए बाजार भेजें । उत्प्रेरित प्रजनन द्वारा मत्स्य बीज उत्पादन का लक्श्य हो तो बड़ी स्वस्थ नर व मादा मछलियों को आवश्यकतानुसार चुन कर अलग तालाब में रखें व पालन पोषण करें।

अप्रैल

मछली पालन के तालाब बनाने के लिये स्थान का चुनाव उपयुक्त करें। पुराने तालाबों का सुधार/मरम्मत करें। नये तालाबों का निर्माण करें।

मई

तालाबों की मिट्टी का रासायनिक विश्लेशण करें। पानी की जांच करें। अवांछनीय एवं भक्षक मछलियों को निकाल दें (1 मी. पानी की गहराई वाले तालाब में 25 कुन्तल महुआ की खली डालकर बार बार जाल चलाकर तालाबों से जलीय कीटों व खरपतवारों की सफाई सुनिश्चित करें।

जून

तालाब में पानी आने जाने के रास्तों पर जाली लगाएं। चूना का प्रयोग करें। (250 किग्रा./है) व 1 से 1.5 मी. तक पानी भरें। उर्वरा षक्ति की वृद्धि हेतु 10-20 कुन्तल/है. माह कच्चे गोबर की खाद का प्रयोग करें ।

जुलाई

तालाब में पानी आने जाने के रास्तों पर जाली लगाएं। चूना का प्रयोग करें। (250 किग्रा./है) व 1 से 1.5 मी. तक पानी भरें। उर्वरा शक्ति की वृद्धि हेतु 10-20 कुन्तल/है./माह कच्चे गोबर की खाद का प्रयोग करें।

अगस्त

तालाब के पानी में प्लवकों का निरीक्षण करें व संतोषप्रद मात्रा को कायम रखें। मछलियों के भार का 2-3 प्रतिशत की दर से परिपूरक आहार दें।

सितम्बर

तालाब के पानी में प्लवकों का निरीक्षण करें व संतोषप्रद मात्रा को कायम रखें। मछलियों के भार का 2-3 प्रतिशत की दर से परिपूरक आहार दें।

अक्टूूबर

मछलियों की वृद्धि की नाप जोख करें। कृत्रिम भोजन का प्रयोग करें। मछलियों के स्वास्थ्य की जाँच करते रहें व एवं जलीय कीटों का नियंत्रण करें।

नवंबर

खाद व उर्वरक का प्रयोग करें। मछलियों को पर्याप्त मात्रा में परिपूरक आहार दें। अवांछनीय जलीय जीव जन्तुओं को निकालते रहें।

दिसम्बर

जलीय खरपतवारों को निकालते रहे। बीमारी का निरीक्षण एवं उपचार करें। मछलियों को पर्याप्त मात्रा में परिपूरक आहार दें। खाद व उर्वरक का प्रयोग करें।

स्त्रोत: कृषि विज्ञान केंद्र,आईसीएआर,भारतीय पशुचिकित्सा शोध संस्थान,बरेली

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