एफ्लाटाॅक्सिनः किसानों की आर्थिक प्रगति में अवरोधक

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एफ्लाटाॅक्सिनः किसानों की आर्थिक प्रगति में अवरोधक

एफ्लाटाॅक्सिन एक महत्वपूर्ण विषाक्त चयापचय (टाक्सिक मेटाबोलाइट) है जो कि चारे एवं खाद्य पदार्थो में कुछ विशेष कवकों द्वारा निर्मित होता है। यह विश्व में सबसे विदित एवं शाोध किया हुआ माईकोटाॅक्सिन है। एफ्लाटाॅक्सिन को पशु और पक्षियों पर हानिकारक प्रभाव डालने वाला सबसे महत्वपूर्ण विषाक्त पदार्थ में शामिल किया गया है। 1960 के दशक में ‘‘अज्ञात‘‘ रोग की वजह से इंग्लैंड में टर्कियो की अत्याधिक मात्रा में आक्समिक मृत्यु हुई, जिसे शाोध के बाद एफ्लाटाॅक्सिन घोषित किया गया था। मइक्रोटोक्सिन की उपज के लिए तीन प्रमुख प्रजातियां मुख्यतः एस्परजिलस, फ्युसेरियम आरै पेनिसिलियम ज़िम्मेदार हैं, जिनमें से एस्परजिलस, एफ्लाटाॅक्सिन का उत्पादन करने वाला मुख्य कवक है। एफ्लाटाॅक्सिन को पशुओं एवं मनुष्यों में विभिन्न रोगों जैसे एफ्लाटाॅक्सिकोसिस के साथ संबद्ध किया गया है। एफ्लाटाॅक्सिकोसिस उच्च नमी और अधिक तापमान वाले उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों की मुख्य समस्या है। एफ्लाटाॅक्सिकोसिस या फफूंदी विषाक्तता भारतवर्ष के पशुधन में भी एक मुख्य समस्या है जो न केवल पशुओं के स्वास्थ्य बल्कि किसानों के आर्थिक नुकसान के लिये भी उत्तरदायी है। अनुचित संग्रहित विषाक्त चारा एफ्लाटाॅक्सिन संक्रमण का मुख्य स्त्रोत है। संक्रमित पशुओं में एफ्लाटाॅक्सिन के अवशेष दूध एवं माँस में पहुंच ज्ञात रहे की पशु एवं पशु उत्पादत खाद्य श्रृंखला का एक अभिन्न अंग हैं इनके माध्यम से इन अवशेषों की मनुष्यों मे आने की सम्भावना बढ़ जाती है। एफ्लाटाॅक्सिन का उत्पादन करने वाली फफूंदी भंडारण किये गये चारे एवं खाद्य पदार्थ जैसे की बिनौला खल, पशु आचार (साइलेज), मक्का, गेहूँ, जौ इत्यादि में प्राय: देखि जाती है. एफ्लाटाॅक्सिन की मात्रा यदि चारे में 100 माइक्रोग्राम प्रति किलोग्राम से अधिक होती है तो इसे बिसक्तता कहा जाता है.
विकास को प्रभावित करने वाले कारकः
फफूंदी (एस्परजिलस फ्लेवस) की वृद्धि हेतु निम्न बिन्दु मुख्य रूप से सहायक है-
a.आक्सीजन की उपलब्धता
b.पर्याप्त नमी (15 प्रतिशत)
c.आपेक्षिक आर्द्रता (90-95)
d. अनुकूल तापमान (24-25 डिग्री सेल्सियस)
सरंक्षित अनाज में फफूदीं लगने की सम्भावना मानसनू में अधिक होती है, क्योंकि इस समय फफूदीं की वृद्धि के लिये तापमान और आर्द्रता उचित मात्रा में उपलब्ध होती है।
एफ्लाटाॅक्सिन के दुष्प्रभाव:
एफ्लाटाॅक्सिन विभिन्न पशुओं एवं पक्षियों में विपरीत प्रभाव प्रकट करता है। मुख्यतः इनमें यकृत रोग दूध एवं अण्डों का कम होना प्रजनन एवं जन्मजात बिकारों का उत्पन्न होना शामिल है। एफ्लाटाॅक्सिन से संक्रमित पशु एवं पक्षियों में उत्पादन क्षमता कम हो जाती है और ये बिमारियों के लिए अतिसंवेदनशील हो जाते है जिसकी वजह से यह किसानों को उत्पादों से होने वाली आय पर प्रत्यक्ष प्रभाव ड़ालते है। आमतौर पर युवा पशुओं में एफ्लाटाॅक्सिकोसिस होने की सम्भावना ज्यादा होती है। एफ्लाटाॅक्सिन न केवल उत्पादन में गिरावट करता है यद्यपि यह दूध में परिवर्तन कर एफ्लाटाॅक्सिन डी-1 डी-2 का उत्पादन भी करता है जिसे कैंसर उत्पन्न करने वाला पदार्थ माना गया है। एफ्लाटाॅक्सिन पशुओं के विभिन्न अंगों में संचित हो जाता है तथा यह दूध एवं माँस द्वारा खाद्य श्रृंखला में शामिल होकर मनुष्यों के शरीर में प्रवेश करने के साथ-साथ हानिकारक प्रभाव जैस यकृत रोग, गुर्दे का रोग, कैंसर रोग, प्रतिरोधक क्षमता का कम होना, प्रजनन अंगों में दुष्प्रभाव, बच्चों में जन्मजात विकृति इत्यादि प्रकट कर सकता है।
एफ्लाटाॅक्सिन की जाँचः
एफ्लाटाॅक्सिन चैदह विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं व ये आपस में भिन्न होते हैं। एफ्लाटाॅक्सिन ताप प्रतिरोधी होते है। जल में ये अधुलनशील होते हैं परन्तु वसा में ये विसर्जित हो जाते हैं। पशुआंे में एफ्लाटाॅक्सिन की संवेदनाशीलता का प्रायः यह क्रम देखा जाता है। खाद्य पदार्थों में एफ्लाटाॅक्सिन का निर्धारण करने के लिये पतली परत ‘क्रोमेटोग्राफी‘ और नियंत्रण रेखा के तरीके श्रमसाहय और समय लेने वाले हैं, इन तरीकों के लिये ज्ञान और आधुनिक तकनीक के अनुभव की आवश्यकता होती है। जैव प्रौधोगिकी के द्वारा इसकी पहचान शीघ्र की जा सकती है एवं इसकी व्यावसायिक उपलब्धता भी है।
एफ्लाटाॅक्सिन की रोकथाम:
एफ्लाटाॅक्सिन की रोकथाम इसके सन्दूषण को कम करने वाला सबसे महत्वपूर्ण कारगार साधन हो सकता है। लेकिन इसके लिये कृषि भंडारण के तरीके, कटाई की परम्परा व फसल प्रबन्धन/प्रसंस्करण में अत्याधिक सुधार की जरूरत है। इसके निवारण के लिये निम्नलिखित बिन्दु महत्त्वपूर्ण है:
पशुओं को फफूँदी लगा चारा देने से बचें।

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पशुओं का आहार बनाते समय हमेशा फफूँदी रहित अनाज का ही प्रयोग करें।

अनाज को पशुओं के लिये आहार बनाने से पहले उसे अच्छी तरह धूप में सुखायें।

फफूँदी लगे अचार (साइलेज) का प्रयोग ना करें।

पशु खाद्य आहार के थैले जमीन से ऊपर व दीवार से दूरी पर रखें।

बिनौला की खल में फफूँदी जल्दी लगती है अतः इसके प्रयोग से बचें।

घुन लगे अनाज का प्रयोग न करें एवं पानी वाली कुण्ड को पलास्टर करायें व साफ रखें।

निष्कर्षः
एफ्लाटाॅक्सिन को सामान्यतः पशु एवं पक्षियों के असामान्य स्वास्थ्य एवं निम्न उत्पादन क्षमता का मूलभूत कारण माना जाता है। इसके अलावा इससे उत्पन्न होने वाले आर्थिक नुकसान भी अहम है। घरेलू पशुओं में एफ्लाटाॅक्सिन की वजह से पोषण विकास एवं प्रजनन सम्बन्धी प्रदर्शन निम्न हो जाता है। एफ्लाटाॅक्सिन कुक्कुट उधोग के भारी नुकसान का भी एक कारण है। यह पक्षियों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम कर उन्हें संक्रमण के लिये अत्यधिक संवेदनशील बना देता है। एफ्लाटाॅक्सिन दूध, माँस, अण्डे और अन्य रूप में उपस्थित है, जो कि मानव स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है एवं चिन्ता का विषय है। दीर्घकालीन रणनीतियाँ एवं खाद्यान सुरक्षा द्वारा यह सुनिश्चिित कराना आवश्यक है कि जैविक पदार्थो का विषहरण और जानवरों को सुरक्षित खाद्य सामग्री कैसे उपलब्ध कराई जाये। राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इसके द्वारा उत्पन्न जोखिम एवं रोकथाम पर कानून बनाकर नियंत्रित कराने की आवश्यकता है।

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