कतला

0
337

कतला एक प्रसिद्ध और जल्दी बढ़ने वाली कार्प है। यह प्रकृति में गैर हिंसक होती है। यह ज्यादातर बांगलादेश की पदमा, मेघना और बरीगंगा नदियों में पायी जाती है। भारत में इसे भाकुरा के रूप में भी जाना जाता है। इसका शरीर चौड़ा, लंबा सिर, निचला होंठ समतल और मोटा, काला सलेटी रंग, किनारों पर से सिलवर रंग, हल्के गुलाबी रंग के चाने होते हैं। इसकी पीठ, पेट से अधिक बाहर की ओर होती है और पंख काले रंग के होते हैं। यह पानी की ऊपरी सतह से भोजन लेती है और इसके विकास के लिए किनारे और सतह की वनस्पति बहुत उपयोगी होती है। यह मॉनसून के मौसम के दौरान वर्ष में एक बार अंडे देती है। स्वादिष्ट भोजन और उच्च प्रोटीन सामग्री के कारण इसकी मांग अपेक्षाकृत अधिक होती है। इसे आसानी से साफ और गहरे पानी के टैंकों और तालाबों में पाला जा सकता है। इनकी वृद्धि टैंकों से ज्यादा धान के खेतों में होती है। यह एक वर्ष में 1.5 किलो से ज्यादा वजन बढ़ाती है। यह अपने शरीर के प्रति किलो भार के अनुसार 0.80-1.20 लाख तक अंडे देती है। इसे मरीगल और रोहू मछली के साथ समान अनुपात में पाला जाता है। इस नसल का प्रतिवर्ष औसतन उत्पादन 0.08 मिलियन प्रति एकड़ होता है। यह जल्दी बढ़ने वाली मछली है जो कि एक वर्ष में 1200—1400 ग्राम भार प्राप्त करती है। यह 25 —32 डिगरी सेल्सियस के तापमान पर अच्छे से बढ़ती है। तालाब से निकालने के वक्त कतला का भार 1.5—2.0 किलो होता है।

चारा

बनावटी फीड : सामान्यत: मछली की बनावटी फीड बाज़ार में उपलब्ध रहती है। यह फीड पैलेट के रूप में होती है। गीला पैलेट और शुष्क पैलेट। गीले पैलेट में, फीड को सख्त बनाने के लिए कार्बोक्सी मिथाइल सैलूलोज़ या जेलेटिन डाला जाता है और उसके बाद इसे बारीक पीस लिया जाता है और पेलेट्स में तैयार किया जाता है। यह स्वस्थ होता है पर इसे लंबे समय तक स्टोर नहीं किया जा सकता। सूखे पैलेट में इसे लंबे समय तक स्टोर किया जा सकता है। इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जा सकता है। इनमें 8-11 प्रतिशत नमी की मात्रा होती है। सूखे पैलेट दो तरह के होते हैं। एक सिंकिग टाइप और दूसरी फ्लोटिंग टाइप।

READ MORE :  मांगुर मछली पर क्यों लगी रोक?

प्रोटीन : मछली की विभिन्न नसलों को उनके आहार में प्रोटीन की विभिन्न मात्रा की जरूरत होती है जैसे मैरीन श्रृंप को 18-20 प्रतिशत, कैटफिश को 28-32 प्रतिशत, तिलापिया को 32-38 प्रतिशत और हाइब्रिड ब्रास को 38-42 प्रतिशत की आवश्यकता होती है।

वसा: मैरीन मछलियों की सेहत और उचित वृद्धि के लिए उन्हें उनके भोजन में वसा के रूप में एन 3 HUFA की आवश्यकता होती है।

कार्बोहाइड्रेट्स : स्तनधारियों में कार्बोहाइड्रेट ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत होता है। मछली की फीड में लगभग 20 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट की आवश्यकता होती है।

फीड के प्रकार : मछलियों की फीड दो तरह की होती है एक पानी में तैरने वाली और दूसरी पानी में डूबने वाली। मछली की विभिन्न नसलों के लिए विभिन्न खुराक की सिफारिश की जाती है। जैसे श्रृंप मछली सिर्फ पानी में डूबने वाली फीड ही खाती है। मछली के विभिन्न आकार के अनुसार, फीड विभन्न आकार में पैलेट के रूप में उपलब्ध होती है।

औषधीय खुराक : औषधीय खुराक का उपयोग तब किया जाता है जब मछली फीड खाना बंद कर दे या बीमार हो जाये। औषधीय फीड मछली को बीमारियों से बचाने के लिए औषधीय फीड का उपयोग किया जाता है।

नस्ल की देख रेख
शैल्टर और देखभाल : मुख्यत: वह भूमि जो खेतीबाड़ी के लिए अच्छी नहीं होती, उसे फिश फार्म बनाने के लिए उपयोग किया जाता है। फिश फार्म के लिए कुछ बातों को ध्यान रखना चाहिए जैसे भूमि में पानी को रोक कर रखने की क्षमता होनी चाहिए। रेतली और दोमट भूमि पर तालाब ना बनायें। यदि आप मिट्टी की जांच करना चाहते हैं तो भूमि पर 1 फीट चौड़ा गड्ढा खोदें और इसे पानी से भरें। यदि गड्ढे में पानी 1-2 दिनों के लिए रहता है तो यह भूमि मछली पालन के लिए अच्छी है। लेकिन यदि गड्ढे में पानी नहीं रहता तो यह भूमि मछली पालन के लिए अच्छी नहीं है। मुख्यत 3 तरह के तालाब होते हैं। नर्सरी तालाब, मछली पालन तालाब और मछली उत्पादन तालाब।

खाद प्रबंधन : मछली पालन में मुख्यत: जैविक और अजैविक खादों का उपयोग होता है।

READ MORE :  सिलवर कार्प

अजैविक खादें : इसमें खनिज पोषक तत्व होते हैं जिनका निर्माण उदयोगों में होता है और सामग्री एग्रीकल्चर्ल खेतों से ली जाती है। इसमें मुख्यत: जानवरों की खाद, चिकन खाद और अन्य जैविक सामग्री शामिल होती है। जैविक सामग्री जैसे कंपोस्ट, घास, मल और धान की पराली शामिल होती है।

जैविक खादें : इसमें खनिज पोषक तत्व और जैविक सामग्री दोनों शामिल होते हैं। यह मुख्यत: स्थानीय लोगों द्वारा तैयार की जाती है जिसमें जानवरों और खेतीबाड़ी का व्यर्थ पदार्थ होता है। इसमें मुख्यत: कम से कम एक पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फासफोरस और पोटाशियम शामिल होते हैं।

मछली के बच्चे की देखभाल : स्कूप या कप की सहायता से प्रौढ़ मछली टैंक में से मछली को निकालें। मछली के बच्चे को आईड्रॉपर की सहायता से इन्फूसोरिया की कुछ बूंदे, जो कि तरल खुराक होती है, को एक दिन में कई बार जरूर देनी चाहिए। कुछ दिनों के बाद जब वे आकार में आधे इंच के हो जाये, तो उन्हें नए टैंक में रखें, जहां पर उनके बढ़ने की आवश्यक जगह हो।

बीमारियां और रोकथाम
• पूंछ और पंखों का गलना : इसके लक्षण है पूंछ और पंखों का गलना, पंखों के कोने हल्के सफेद रंग के दिखते हैं और फिर यह पूरे पंखों पर फैल जाते हैं और अंतत: ये गिर जाते हैं।

इलाज : कॉपर सल्फेट 0.5 प्रतिशत से इलाज करें। मछली को 2-3 मिनट के लिए कॉपर सलफेट के पानी में डुबो दें।

• गलफड़े गलना : इस बीमारी में गलफड़े सलेटी रंग के हो जाते हैं और अंत में गिर जाते हैं। मछली का सांस घुटने लगता है और वह सांस लेने के लिए पानी की सतह पर आ जाती है और आखिर में दम घुटकर मर जाती है।

इलाज : मछलियों को 5-10 मिनट के लिए नमक के घोल में डुबोकर इस बीमारी का इलाज किया जाता है।

• ई यू एस : शरीर पर फोड़ों का होना, चमड़ी और पंखों का खुरना, जिससे मछली की मौत हो जाती है।

इलाज : पानी में 200 किलो प्रति एकड़ चूना डालें और पानी में खादें ना डालें।

READ MORE :  मछली पालन कैसे शुरू करे?

• सफेद धब्बों का रोग : मछली की त्वचा, गलफड़े और पंखों पर सफेद धब्बे पड़ जाते हैं।

इलाज : मछलियों को 0.02 प्रतिशत फारमालीन के घोल में 7-10 दिनों के लिए, एक घंटा हर रोज़ डुबोयें।

• काले धब्बों का रोग : शरीर पर काले रंग के छोटे धब्बे दिखते हैं।

इलाज : मछली को पिकरिक एसिड के घोल 0.03 प्रतिशत के घोल में 1 घंटे के लिए डुबोयें।

• मछली की जुंएं : इसके कारण मछली की वृद्धि धीमी हो जाती है, पंख ढीले पड़ जाते हैं और त्वचा पर रक्त के धब्बे पड़ जाते हैं।

इलाज : मैलाथियोन (50 ई सी) 1 लीटर को प्रति एकड़ में 15 दिनों के अंतराल पर तीन बार डालें।

• मछली की जोक : इसके कारण त्वचा और गलफड़े जख्मी हो जाते हैं।

इलाज : इस बीमारी के इलाज के लिए मैलाथियोन 1 लीटर प्रति एकड़ में डालें।

• विबरीओसिस : इसके कारण तिल्ली और आंतों पर सफेद या सलेटी रंग के धब्बे पाये जाते हैं।

इलाज : ऑक्सीटैटरासाइक्लिन 3-5 ग्राम प्रति एल बी 10 दिनों के लिए दें या 6 दिनों के लिए मछली की फीड में फुराज़ोलीडोन 100 मि.ग्रा. प्रति किलो प्रति मछली को दें।

• फुरूनकुलोसिस : इसके लक्षण हैं त्वचा का गहरा होना, तिल्लियों का बड़ा होना, तेजी से सांस लेना और खूनी बलगम आना। यह रोग मछलियों में मृत्यु दर की वृद्धि करता है।

इलाज : 10-14 दिनों के लिए सल्फामेराज़िन 150-220 मि.ग्रा. प्रति किलो मछली के भार के हिसाब से प्रति दिन दें या फीड में फुराज़ोलिडोन 25-100 मि.ग्रा. प्रति किलो मछली के भार के हिसाब से प्रति दिन 10 दिनों के लिए दें या ऑकसीटैटरासाइक्लिन 50-70 मि.ग्रा. प्रति किलो मछली के भार के हिसाब से प्रति दिन 10 दिनों के लिए दें या फीड में ऑक्सोलिनिक एसिड 25-100 मि.ग्रा. प्रति किलो मछली के भार के हिसाब से प्रति दिन 10 दिनों के लिए दें।

• लाल मुंह रोग : इसके लक्षण हैं पंखों, मुंह, गले और गलफड़ों का सिरे से लाल होना।

इलाज : विभिन्न तरह के एंटीबायोटिक और टीकाकरण उपलब्ध हैं जो लाल मुंह रोग के इलाज के लिए उपयोग किए जाते हैं।

Please follow and like us:
Follow by Email
Twitter

Visit Us
Follow Me
YOUTUBE

YOUTUBE
PINTEREST
LINKEDIN

Share
INSTAGRAM
SOCIALICON