कैसे बचायें आपने पशुओं को टिटनेस रोग से??
यह रोग होता है क्या?
धुनषबाय को अंग्रेजी भाषा में टिटनेस के नाम से जाना जाता है, जो कि इसका ज्यादा प्रचलित नाम है। धुनषबाय क्लोस्ट्रीडियम टिटेनाई नामक जीवाणु से पशुओं में होने वाला एक घातक संक्रामक रोग है। कई जगह इस रोग को स्थानीय भाषा में धनुष्टंकार के नाम से भी जाना जाता है लगभग सभी प्रजाति के पशुओं के साथ-साथ यह रोग मनुष्य में भी पाया जाता है। घोड़े एवं खच्चर प्रजाति के पशु इस रोग के लिए अन्य पशुओं से ज्यादा संवेदनशील होते हैं। प्रायः भेड़, बकरी एवं सुकर प्रजाति के पशुओं में भी यह रोग बहुतायत में देखने को मिल सकता है। सामान्यतः श्वान एवं गाय प्रजातियों में इस रोग की संवेदनशीलता एवं होने की संभावना काफी कम होती है।
2. यह रोग कैसे एवं क्यों होता है?
क्लोस्ट्रीडियम टिटेनाई नामक जीवाणु एवं इससे उत्पन्न विष के कारण धनुषबाय रोग होता है। धनुषबाय अथवा टिटनेस रोग एक मिट्टी/मृदा जनित रोग हैं, क्योंकि इसके कारक जीवाणु मिट्टी में बहुतायत में पाए जाते हैं। इन जीवाणुओं की स्पोर (बीजाणु) अवस्था मिट्टी एवं पशुओं के गोबर इत्यादि में कई वर्षों तक जीवित रह सकती हैं, जो कि पशुओं एवं मनुष्य में इस रोग के संक्रमण का कारण बन सकते हैं। सामान्यतः इस जीवाणु प्रतिरोध तरीकों के प्रति असंवेदनशील होते हैं। किसी नुकीली वस्तु एवं लोहे की वस्तु से पशु के शरीर पर होने वाले गहरे घाव मुख्य रूप से इस रोग के संक्रमण का कारण बनते हैं. पशुओं के शरीर पर यह घाव किसी नुकीली वस्तु, बधियाकरण, रोम-कर्तन, कर्ण छेदन या जनन के समय किसी चोट की वजह से हो सकते हैं एवं धनुषबाय का कारण बन सकते हैं।
इस रोग के जीवाणु का संक्रमण पशु की जेर हाथ से निकालने या पशु के ब्यानें के दौरान मदद करते समय साफ-सफाई का ध्यान ना रखने की वजह से भी हो सकता है। पशुओं के बाल एवं खासकर भेड़ की ऊन काटने के समय होने वाले घाव भी इस रोग के संक्रमण का कारण बन सकते हैं। पशुओं के नवजात बच्चों में नाल पर हुए घाव से भी इस रोग के होने का खतरा रहता है। खेतीबाड़ी या अन्य कृषि कार्यों के लिए काम में आने वाले पशुओं में पैरों में चोट लगना स्वाभाविक हैं, जिसकी वजह से भी इन पशुओं में टिटनेस रोग होने की संभावना बनी रहती है। पशुओं में शल्य-चिकित्सा के दौरान अगर साफ- सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता एवं उपयुक्त ईलाज नहीं किया जाता है, तो भी इस रोग के पनपने की संभावना ज्यादा रहती है। पशुओं में किसी भी तरह की चिकित्सा के दौरान काम में लाई जाने वाली सुई या अन्य को औजार अगर पूरी तरह साफ-सुथरे तथा जीवाणु-रहित नहीं हो तो भी धनुषबाय रोग होने की संभावना बनी रहती है। अतः यहां पर यह कहना अधिक उचित होगा कि पशु के शरीर पर होने वाले किसी भी प्रकार के घाव खासकर गहरे घाव को अगर साफ-सुथरा एवं जीवाणु रहित नहीं रखा जाता एवं अगर घाव पर मिट्टी लगी रहती है, तो ऐसे पशुओं में धनुषबाय/टिटनेस रोग होने की संभावना ज्यादा रहती है।
3. इस रोग में पाए जाने वाले लक्षण क्या-क्या हैं?
धनुषबाय रागे के लिए जिम्मेदार क्लोस्ट्रीडीय टिठनाई नामक जीवाणु से उत्पन्न होने वाले विष की प्रकृति स्नायु- तंत्र को प्रभावित करने वाली होती है। इसलिए इस रोग से प्रभावित पशुओं में पशु में कान खड़े होना उठी हुई पूंछ, गर्दन में खिचांव, अति संवेदनशीलता तथा उत्तेजना इत्यादि लक्षण दिखाई देते हैं। बकरियों में खासकर माँसपेशियों में खिचांव की वजह से उनका पूरा शरीर लकड़ी की तरह अकड़ जाता है। टिटनेस से प्रभावित पशुओं की तीसरी पलक उभर जाती है। पशुओं खासकर गाय एवं भैंस प्रजातियों में उनकी पूंछ हैंडपम्प के हैंडिल की तरह मुड़ी हुई प्रतीत होती है। पशुओं के जबड़ो में अत्यधिक जकड़न एवं खिचांव होने के कारण चारा-पानी लेने में कठिनाई होती है, अतः इस अवस्था को ‘‘लाॅक-जा’’ भी कहा जाता है। अत्यधिक प्रभावित पशु धराशायी हो जाता है एवं मौत भी हो सकती है। धनुषबाय से प्रभावित पशुओं में इस रोग के उत्पन्न होने वाले लक्षणों का प्रकार एवं मात्रा इस रोग के जीवाणुओं द्वारा शरीर में उत्पन्न विष की मात्रा पर निर्भर करती है। इस रोग के शुरूआती दौर में प्रभावित पशुओं में चलने के दौरान अकड़न देखने को मिलती है। माँसपेशियों की जकड़न एवं जुगाली कम या बन्द होने की वजह से इस रोग से प्रभावित पशुओं में अफारा भी देखने को मिलता है। बाद की अवस्था में इस रोग से प्रभावित पशु के शरीर की लगभग सभी माँसपेशियां जकड़ जाती हैं, जिसकी वजह से पशु को सांस लेने एवं अन्य सभी शारीरिक क्रियाओं में काफी कठिनाई महसुस होती है, तथा इस रोग से प्रभावित पशु की मृत्यु भी छाती की माँसपेशियों में अत्यधिक जकड़न की वजह से सांस बंद होने के कारण होती है।
4. इस रोग की पहचान कैसे करें?
पशुओं में धनुषबाय अथवा टिटनेस नामक रोग की पहचान के लिए वैसे तो इसके लक्षण की काफी हद तक पर्याप्त होते हैं। ऊपर दिए गए लक्षणों में से कोई भी लक्षण पशु में दिखाई देने पर तुरंत अपने नजदीकी पशु- चिकित्सक से संपर्क करके इस रोग की पहचान करवानी चाहिए। लक्षणों के आधार पर पहचाने के अतिरिक्त इस रोग में पशु के खुन की जाँच एव शरीर पर घाव अथवा चोट से निकलने वाले पानी जैसे द्रव्य की जाँच करवाकर भी इस रोग का पता लगाया जा सकता है।
5. इस रोग का उपचार क्या-क्या है?
पशुपालकों के लिए यह विशेष ध्यान देने की बात है कि पशुओं में धुनषबाय/टिटनेस रोग की चिकित्सा या उपचार इसकी अन्तिम अवस्था में सम्भव नहीं है। अतः पशु में इस रोग के शुरूआती लक्षण दिखाई देते ही यथासम्भ्व जितना जल्दी हो सके इस रोग का उपचार शुरू करवा देना चाहिए। पशु चिकित्सकों द्वारा इस रोग के उपचार के लिए पेनीसीलीन नामक एंटीबायोटीक का प्रयोग किया जाता है। अत्यधिक द्रव्य (ग्लुकोज/सलाईन) का रक्त मार्ग से प्रयोग भी इसके ईलाज के दौरान पशु-चिकित्सक द्वारा किया जाता है, जो कि पशु के शरीर से इसके जीवाणु द्वारा किया जाता है, जो कि पशु के शरीर से इसके जीवाणु द्वारा उत्पन्न विष की मात्रा को बाहर निकालने में अति प्रभावकारी है। टिटनेस ऐंटीटोक्सिन का प्रयोग भी इस रोग की चिकित्सा में अति प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है। इसके अतिरिक्त, पशु के शरीर पर जिस घाव या चोट की वजह से धनुषबाय रोग हुआ है, उसकी भी अच्छी तरह से साफ-सफाई एवं चिकित्सा बहुत जरूरी है। अतः पशुपालकों को यह सलाह दी जाती है कि पशु में धनुषबाय रोग के लक्षण दिखाई देने पर तुरंत अपने नजदीकी पशु-चिकित्सक से पशु का उचित एवं पूरा उपचार करवाना चाहिए। इस रोग के उपचार में देरी आपके पशु की मौत का कारण भी बन सकती है।
6. इस रोग से बचाव एवं रोकथाम के उपाय क्या-क्या हैं ?
पशुओं में धनुषबाय या टिटनेस रोग की रोकथाम एवं बचाव के लिए पशुपालकों को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:-
1. पशु के शरीर के किसी भी हिस्से पर हुए घाव या चोट खासकर गहरे घाव को अच्छी तरह से साफ करना चाहिए। इसके साथ-साथ घाव अथवा चोट को हवा लगने दें एवं हाइड्रोजन परऑक्साइड से उपचारित करें क्योंकि इस रोग के जीवाणु ऐसे घाव या गहरी चोट में ज्यादा पनपते हैं जहाँ की हवा (ऑक्सीजन) की कमी होती है।
2. पशुओं में 3-4 महीने की उम्र पर टीटनेस टाॅक्साइड (टी.टी.) का टीका लगवा सकते हैं। इसके साथ-साथ ग्याभिन पशुओं में गर्भावस्था की अन्तिम अवस्था में एक महीने के अन्तराल पर टी.टी. के दो टीके लगवाने चाहिए।
3. पशुओं की ऐसी प्रजातियों जिनमें की यह रोग ज्यादा होता है जैसे कि घोड़े एवं खच्चर में इस रोग की रोकथाम के लिए खास ध्यान रखना चाहिए। खासकर घोड़ों में पैरों में नाल लगवाते समय टी.टी. का टीका अवश्य लगवाना चाहिए।
4. ब्यांत के समय के दौरान पशु एवं पशु के बाड़े की साफ-सफाई का विशेष तौर पर ध्यान रखना चाहिए। ऐसे पशु जिनकी जेर हाथ से निकलवाई हो या जिन पशुओं में पाछा दिखाने की शिकायत हो में साफ-सफाई का विशेष ध्यान देना चाहिए।
5. पशुओं में होने वाली किसी भी प्रकार की छोटी या बड़ी शल्य चिकित्सा के दौरान हुए घाव/चीरे की ड्रेसींग या मरहम-पट्टी के दौरान साफ-सफाई का ध्यान रखना चाहिए। इस दौरान प्रयोग में लाए जाने वाले उपकरण एवं अन्य औजार भी साफ-सुथरे एवं जीवाणु रहित होने चाहिए।
6. पशुओं में किसी भी प्रकार की चोट लगने से बचाने के लिए पशुपालकों को विशेष ध्यान रखना चाहिए। खेतों या चारागाहों की बाड़ पर लगे हुए नुकीले एवं जंग लगे हुए तारों से लगनी वाली चोट से पशुओं को बचाना चाहिए।
7. पशुओं मंे बाल या ऊन काटने, बंधियाकरण, रोम कर्तन या कर्ण छेदन इत्यादि के दौरान होने वाले किसी भी घाव की साफ-सफाई से देखभाल करनी चाहिए तथा ध्यान रखना चाहिए कि इस दौरान कोई घाव पशु के शरीर पर होना ही नहीं चाहिए।
8. पशु के नवजात बच्चों में नाल पर हुए घाव के लिए कोई लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए एवं इसकी नियमित रूप से मरहम-पट्टी करनी चाहिए।
9. पशुओं में किसी भी तरह का टीका या इंजेक्शन लगाने के लिए हमेशा नई सुई का एवं प्रत्येक पशु के लिए अलग सुई का प्रयोग करना चाहिए।
10. पशु के शरीर पर कोई भी चोट लगने पर खासतौर पर जंग लगे हुए नुकीले तारों से हुए गहरे घाव पर पशु को टिटनेस टाॅक्सोईड (टी.टी.) का टीका अवश्य लगवाएं।
11. उपरोक्त सभी सावधानियों के अलावा पशुओं में टिटनेस या धनुषबाय रोग के कोई भी लक्षण दिखाई देने पर शुरूआत में ही तुरंत अपने नजदीकी पशु-चिकित्सक से पशु का उचित एवं पूरा ईलाज करवाएं।