क्लोन क्लोनिंग क्या है?

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क्लोन क्लोनिंग क्या है?

क्लोन एक ऐसी जैविक रचना है जो एकमात्र जनक (माता अथवा पिता) से अलैंगिक विधि द्वारा उत्पन्न होता है. उत्पादित ‘क्लोन‘ अपने जनक से शारीरिक और आनुवंशिक रूप से पूर्णत: समरूप होता है. यानी क्लोन के DNA का हर एक भाग मूल प्रति के बिलकुल समान होता है. इस प्रकार किसी भी जीव का प्रतिरूप बनाना ही क्लोनिंग कहलाता है. क्या आप जानते हैं कि क्लोनिंग द्वारा किसी कोशिका, कोई अन्य जीवित हिस्सा या एक संपूर्ण जीव के शुद्ध प्रतिरूप का निर्माण होता है.

शरीर कोशिकाओं नामक बहुत छोटे जीवों से बना है. ये कोशिकाएं अपना सामान्य काम करती हैं जो डीएनए उन्हें करने के लिए कहता है. DNA को de-oxy-ribo-nucleic acid कहा जाता है जो सभी जीव जन्तुओं में अनुवांशिक कोड है. एक बच्चे को यह अनुवांशिक कोड आधा पिता से और आधा मां से मिलता है. एक बच्चा एकल कोशिका से बनता है यानी अंडा कोशिका से जिसमें पिता और मां दोनों का DNA होता है. यह कोशिका पूर्ण रूप से बच्चे को बनने के लिए लाखों में विभाजित होती है. इस प्रक्रिया को विभेदीकरण (differentiation) कहते है. प्रत्येक सेल मूल सेल की एक कॉपी होता है और उसमें समान आनुवांशिक कोड होता है.

प्रयोगशाला में किसी जीव के शुद्ध प्रतिरूप को तैयार करने के दो तरीके हैं: आर्टिफिशियल एम्ब्र्यो ट्विनिंग (Artificial Embryo Twining) और सोमेटिक सेल न्यूक्लीयर ट्रांसफर (Somatic Cell Nuclear Transfer).

आर्टिफिशियल एम्ब्र्यो ट्विनिंग (Artificial Embryo Twining)

क्लोन निर्माण का यह निम्न प्रौद्योगिकीय तरीका है, जो जनन की प्राक्रतिक प्रक्रिया का ही अनुसरण करता है. लेकिन प्रक्रतिक प्रक्रिया से भिन्न, यह प्रक्रिया मां के गर्भ की जगह पेट्री डिश (Petri Dish) में पूरी की जाती है. पेट्री डिश में स्पर्म और अंडाणु के मिलने से विकसित भ्रूण कोशिकाओं को आरंभिक चरण में ही अलग कर लिया जाता है. इन भ्रूण कोशिकाओं को अल्प समय तक पेट्री डिश में विकसित होने के बाद सरोगेट मां के गर्भ में धारण कराया जाता है.

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एक ही निषेचित अंडे के विभाजन से जुड़वां बच्चों के विकसित होने के कारण वे दोनों अनुवांशिक रूप से समान होते हैं.

सोमेटिक सेल न्यूक्लीयर ट्रांसफर (Somatic Cell Nuclear Transfer, SCNT)

क्या आप जानते हैं कि यह क्लोन करने की आधुनिक तकनीक है. इसकी प्रक्रिया आर्टिफिशियल एम्ब्र्यो ट्विनिंग से भिन्न होती है, परन्तु इसके द्वारा भी किसी जीव का क्लोन ही तैयार होता है. इसे न्यूक्लीयर ट्रांसफर भी कहते हैं.

आइये इस प्रक्रिया के बारे में अध्ययन करते है.

इस प्रक्रिया में कायिक कोशिका (Somatic Cell) का किसी जीव से निष्कासन कर, उसके केन्द्रक को निकाल दिया जाता है. अंडाणु (egg cell) से केंद्रक एवं सारे DNA को निकाल कर उसमें कायिक कोशिका (Somatic Cell) से निकाले गए केंद्रक को डाल दिया जाता है. जिससे यह ताज़े निषेचित अंडे की तरह व्यवहार प्रदर्शित करने लगते हैं.

निषेचन क्रिया प्रारंभ करने हेतु इन पर विद्युत तरंगे प्रवाहित की जाती हैं, जिससे कोशिका विभाजन शुरू हो जाता है. इस प्रक्रिया के तहत पूर्ण विकसित अंडाणु को मादा के गर्भ में आरोपित कराकर समरूप क्लोन्स प्राप्त करते हैं.

क्लोनिंग प्रक्रिया कैसे होती है?

क्लोनिंग की प्रक्रिया के लिए, केवल अंडाणु (egg cell) की ही आवश्यकता होती है. वैज्ञानिक एक पशु की कोशिका से DNA निकालते हैं और इसे अंडाणु में डाल देते हैं. ये अंडाणु किसी अन्य जानवर से लिया जाता है. इम्प्लांटेशन प्रक्रिया से पहले अंडाणु से न्यूक्लियस या DNA को एक बहुत अच्छी सुई की मदद से हटा दिया जाता है.

क्लोनिंग के प्रकार

1. जीन क्लोनिंग या आणविक क्लोनिंग (Gene Cloning or Molecular Cloning)

इसके अंतर्गत पहले जीन अभियांत्रिकी का प्रयोग कर ट्रांसजेनिक सूक्ष्मजीव या ट्रांसजेनिक बैक्टीरिया का निर्माण किया जाता है. फिर उचित वातावरण का निर्माण कर उस GM (Genetically Modified) बैक्टीरिया के क्लोन प्राप्त किये जाते है. इनका उपयोग अनेक कार्यों जैसे मानव उपयोगी, प्रोटीन निर्माण यानी इंसुलिन आदि में किया जाता है.

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2. रिप्रोडक्टिव क्लोनिंग (Reproductive Cloning)
इसके अंतर्गत कायिक कोशिका स्थानान्तरण तकनीक या अन्य क्लोनिंग तकनीकों का उपयोग कर किसी जीव की प्रतिक्रति तैयार की जाती है.

3. थेराप्यूटिक क्लोनिंग (Therapeutic Cloning)
इसके अंतर्गत क्षतिग्रस्त ऊतकों या अंगों को स्थानांतरित करने या उनमें सुधार करने के लिये भ्रूणीय स्तंभ कोशिकाओं का उत्पादन किया जाता है.

क्लोनिंग के लाभ

क्लोनिंग की प्रक्रिया को पौधों की वृद्धि, रोग-निरोधक व रसायन-प्रतिरोधी क्षमता को उपयुक्तता प्रदान करने के लिए किया जा रहा हैं.

सर्वाधिक लाभप्रदा विशेषता क्लोनिंग की यह है कि इसके द्वारा विभिन्न जलवायुविक एवं प्रतिकूल कृषि मौसम दशाओं में उत्पादकता प्रदान करने वाली पादप-प्रजातियों का विकास संभव है. जैसे मरुस्थल में जल्दी से बढ़ने वाले पादपों की किस्मों को इसके तकनीक के द्वारा तैयार करना.

यहां तक की क्लोनिंग तकनीक को राष्ट्रीय महत्व के वन-वृक्षों की फसल के विकास में प्रभावी माना गया है.

इस तकनीक की मदद से जानवरों की अच्छी नस्लों को क्लोन किया जा सकता है. विलुप्तप्राय पशु पक्षियों का क्लोन तैयार कर उन्हें नष्ट होने से बचाया जा सकता है.

इस तकनीक की मदद से प्लास्टिक सर्जरी आसानी से की जा सकती है. मानव क्लोनिंग की तकनीकी के जरिये डॉक्टर इच्छुक व्यक्ति से अस्थि, मज्जा, वसा, कार्टिलिज और कोशिकाओं के समान जैविक संरचना वाला हूबहू प्रतिरूप तैयार कर सकेंगे, जिससे शल्य चिकित्सा पर चामत्कारिक प्रभाव पड़ेगा. यानी कि किसी दुर्घटना में व्यक्ति के क्षत-विक्षत अंगों को बिल्कुल दुरुस्त किया जा सकेगा.

अब क्लोनिंग तकनीक इतनी आम हो गई है कि माता-पिता के लिए अपने बच्चे के लिंग का चयन करना संभव हो गया है. वे अपनी विशेषताओं का चयन कर सकते हैं. उदाहरण के लिए अगर माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे में अल्बर्ट आइंस्टीन का आईक्यू होना चाहिए तो क्लोनिंग के जरिये ऐसी विशेषताओं को विकसित करना संभव है.

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वैज्ञानिकों ने क्लोनिंग की मदद से ऐसे पौधे बनाए हैं कि पौधों में दवाओं को डाला जा सकता है. जब मानव ऐसे पौधों का उपभोग करेंगे, तो वे भोजन के पोषक तत्वों के साथ दवा भी ले सकते हैं. क्लोनिंग के माध्यम से पौधों में कई टीकों को भी विकसित किया जा सकता है.

मादा के अंडे को गर्भ से बाहर निकाला जाता है; यह एक शुक्राणु के साथ निषेचित (fertilized) होता है. जब अंडा निषेचित होता है तो इसे फिर से मां के गर्भ में स्थानांतरित किया जा सकता है. इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप, मां एक सामान्य बच्चे को जन्म दे सके

यह प्रक्रिया जानवरों को पीड़ित भी कर सकती है: रिपोर्टों से पता चलता है कि सरोगेट पशु कुछ प्रतिकूल परिणाम प्रकट कर रहे थे और जिन जानवरों को क्लोन किया जा रहा था उनमें बीमारियां हो रहीं थी और यहां तक कि उच्च मृत्यु दर भी थीं.

वर्तमान समय में होने वाले अनुसन्धानों और विकास के आधार पर भविष्य में होने वाले कुप्रभावों का अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता है. इससे मानव जाति का वर्ग परिवर्तन हो सकता है या इस पर खतरनाक प्रभाव पड़ सकते है.

क्लोनिंग के बारे में कुछ अन्य तथ्य

क्लोन जानवर सामान्य, मूल जानवरों की तुलना में तेज़ी से उम्र में बढ़ते हैं.

वैज्ञानिक क्लोनिंग प्रक्रिया की मदद से कुछ लुप्तप्राय प्रजातियों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं.

2009 में National Dairy Research Institute (NDRI) करनाल के वैज्ञानिकों ने भैंस के प्रथम क्लोन ‘समरूपा’ और उसके बाद ‘गरिमा’ को विकसित किया था. 2013 में क्लोन भैंस ‘गरिमा II’ ने ‘महिमा’ को जन्म दिया था.

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