दूध बढ़ाने के लिए भैंस का नश्ल सुधार
भारत में विश्व की कुल संख्या का 15 प्रतिशत गाय एवं 55 प्रतिशत भैंस हैं और देश के कुल दूध उत्पादन का 53 प्रतिशत भैंस व 43 प्रतिशत गायों से प्राप्त होता है।हमारा देश लगभग 121.8 मिलियन टन दुग्ध उत्पादन करके विश्व में प्रथम स्थान पर है जो कि एक मिसाल है यह उपलब्धि पशु पालन से जुड़े विभिन्न पहलुओं जैसे मवेशियों की नस्ल,पालन-पोषण, स्वास्थ्य एवं आवास प्रबंधन इत्यादि में किए गए अनुसंधान एवं उसके प्रचार-प्रसार का परिणाम है,लेकिन आज भी कुछ अन्य देशों की तुलना में हमारे पशुओं का दुग्ध उत्पादन प्रतिशत अत्यंत कम है।
इस दिशा में सुधार की बहुत सम्भावनाएँ है। भारत में गाय और भैंस मुख्य दुधारू पशु है और देश के कुल दुग्ध उत्पादन का अनुमानित 53 प्रतिशत भैंस, 43 प्रतिशत गाय तथा 4 प्रतिशत अन्य दुधारू पशुओं से प्राप्त होता है। दुधारू पशुओं के आनुवांशिक क्षमता को ठीक से पहचान कर उचित प्रजनन नीति एवं सही नस्ल के पशु का पालन करना आवश्यक है, जिससे दुग्ध उत्पादन को बढ़ाया जा सके।वैसे तो भैंस की अनेक वर्णित नस्लें जैसे मुर्रा, सुरती,नीलीरावी, मेहसाना आदि है, लेकिन अधिक दुग्ध उत्पाद, लम्बी दुग्ध उत्पादन अवधि तथा आसान प्रबंधन के लिए मुर्रा सर्वश्रेष्ठ है। अतः जिन किसान भाइयो ने मुर्रा भैंस पाल रखी हैं उन्हें उत्कृष्ट उत्पादन क्षमता वाले शुद्ध नर के साथ मैटिंग कराकर और अधिकउन्नतशील किया जा सकता है। इससे 10 प्रतिशत अधिक दूध प्राप्त किया जा सकता है। मुर्रा नस्ल देश ही नहीं, विश्व में सर्वश्रेष्ठ है और उत्तर प्रदेश में खूब पाई जाती है। अतः इसकी अनुवांशिकता में किसी परिवर्तन की आवश्यकतानहीं है। इसके अतिरिक्त जो पशुपालक अवर्णित नस्ल की भैंस रखें है, उन्हें मुर्रा नस्ल से संकरण 1⁄4क्राॅस1⁄2 कर आनुवांशिक सुधार करना चाहिए।
भैंस के उत्पादकता को बढ़ाने में प्रजनन एक महत्वपूर्ण साधन है तथा कृत्रिम वीर्य रोपण सहायता प्रजनन का एक अभिन्न अंग है, लेकिन कृृत्रिम गर्भाधान की सफलता अनेक कारकों पर निर्भर करती है। जैसे कि उचित नर व मादा एवं वीर्य रोपण के लिए निपुण भैंसों का चुनाव, वीर्य रोपण के लिए सही समय का चुनाव, वीर्य की उर्वरता की जाँच व गर्भवती मादा का उचित रख-रखाव। इन कारणों की अपर्याप्त जानकारी से गर्भधान दरों में कमी आ सकती है। विफल गर्भाधान से किसानों को भारी आर्थिक हानि पहुँचती है। अतः निम्नलिखित जानकारी सहायता प्रजनन की सफलता व कृषकों की आमदनी को बढ़ा सकती है।जानवरों में वीर्य रोपण सिर्फ मद्काल के दौरान करना चाहिए। यही नहीं, यह भी सुनिश्चित करना अनिवार्य
है कि वीर्य रोपण में प्रयुक्त होने वाले वीर्य की गुणवता की जाँच प्रयोगशाला में की गई हो। सरल मानकों द्वारा वीर्य की गुणवता की जाँच की जा सकती है। मद्काल के दौरान मादा विशेष लक्षण दर्शाती है। जिससे उसके मद्काल में होने का पता चलता है।
भैंस में मद्काल के दौरान प्रकट होने वाले लक्षण:-
मादा को भूख न लगना, पशु का रम्भाना, मादा को विचलित व अधीर होना, मादा का रूक-रूक कर मूत्र विसर्जन करना, मादा की योनी में सूजन व प्रजनन द्वार सेलसीला, चमकीला एवं पारदर्शक पदार्थ का स्त्राव, मादा का पूँछ ऐंठना, मादा का दूसरे पशुओं के साथ आलिंगन करना आदि।मादा के मद्काल में होने का पता टीजर-भैंसा से भी लगाया जा सकता है। टीजर-भैंसा को मादा के पास ले जाने पर यह विशेष लक्षण दर्शाता है। यह मादा के व्यवहार के आधार पर मादा के मद्काल में होने का हाल जता दतेा है।
भैंसा से मद्काल दर्शाती मादा की पहचान:
* भैंसे का मादा पुट् ठे पर ठोढ़ी रखना।
* भैंसे का फ्लेहमन प्रतिक्रिया दर्शाना।
* भैंसे का मादा के साथ आलिंगन करना।
एक बार मादा की मद्काल में सही पहचान हो जाए तो दूसरा महत्वपूर्ण कार्य वीर्य रोपण में निपुण भैंसे का चुनाव व अच्छे वीर्य का प्रयोग हो। प्रयोगशाला में हिमीकृत वीर्य का गुण निर्धारण गुनगुने पानी 1⁄437 डिग्री सेल्सियस1⁄2 में 45 से 60 सैंकेड तक पिघलाकर सरल मानकों द्वारा किया जा सकता है। शुक्राणुओं की प्रगामी गतिशीलता, जिव्यंता तथा प्लाविका झिल्ली की अखंडता, उसकी उर्वरता से सहसम्बंधित है।
कृृत्रिम वीर्य रोपण में उपयुक्त होने वाले वीर्य शक्ति की उर्वरता की जाँच:
वीर्य में शुक्राणुओं की गतिशीलता लगभग 40 प्रतिशत या उससे अधिक होनी चाहिए।
* शुक्राणुओं की गतिशीलता प्रगामी होनी चहिए।
* शुक्राणुओं की प्लाविका झिल्ली अखंडित होनी चाहिए।
* शुक्राणुओं में वीर्य रोपण के समयधारिता की दर कम होनी चाहिए।
* शुक्राणुओं में धारिता को प्राप्त करने की क्षमता की जाँच 1⁄4भैंसे के ताजा स्खलित वीर्य में 6 घंटे तथा हिमीकृत वीर्य में 4 घंटे1⁄2। मादा जननांगों की जानकारी व वीर्य रोपण की सही जगह भी गर्भाधान दर को सुनिश्चित करती है। वीर्य रोपण मादा के गर्भाशय में ही होनी चाहिए।
हिमीकरण:
हिमद्रवण प्रक्रिया शुक्राणुओं में घातक क्षति पहुँचाती है। अंड पित्त युक्त वीर्य विस्तारक में ये क्षति ज्यादा होती है तथा जीवाणुओं और विषाणुओं से होने वाली बीमारियों का खतरा भी होता है, जबकि सोयाबीन दूध युक्त वीर्य विस्तारक में यह क्षति तुलनात्मक कम होती है। सोयाबीन दूध, सोयाबीन से बनाया जाता है और पौधे से निर्मित होने के कारण यह जीवाणुओं और विषाणुओं से होने वाली बीमारियों के खतरे को भी टालता है।