पशुओं का प्रमुख आपदाओं के दौरान प्रबन्धन

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पशुओं का प्रमुख आपदाओं के दौरान प्रबन्धन

अकाल :
देष के किसी भाग में कई वर्षों से औसत वर्षा का यदि 90 प्रतिशत कम बरसात होती है तो उस स्थिति को अकाल माना जाता है किंतु यही अकाल यदि लगातार कई वर्षों तक बना रहता है तो किसानों के लिए दुखदायी हालात बन जाते हैं। मानसून के मौसम में पानी न बरसने पर खेती व पशुपालन से वांछित उत्पादन नहीं मिलता है। पिछली शताब्दी के दौरान देष को कई बार गंभीर अकाल झेलने पड़ें हैं। अकाल के लिए संवेदनषील क्षेत्रों से पशुधन का निष्क्रमण चारा-पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए तेजी से होने लगता है। प्रभावित क्षेत्रों में पानी के दुरूपयोग पर रोक, पशुओं के क्रय-विक्रय की व्यवस्था गोषालाओं में चारा पानी का इंतजाम चारा बहुत क्षेत्रों से आपूर्ति तथा भूख से न मरें इस बात की व्यवस्था तथा निष्क्रमण मार्ग पर आहार, पानी एवं दवा का इंतजाम, योजनाबद्ध ढंग से किया जाना चाहिए। अकाल के दौरान पशुओं के शरीर मे आई कमी बछड़ों व मेमनों में कमजोरी, मादा में बांझपन, रोेगों के प्रति उपजी सवंदेनशीलता तथा मृत्यु जैसी स्थितियों को हल करने की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। अकालग्रस्त क्षेत्रों के किसानों पशुपालकों के कर्जे में ब्याज की वसूली में छूट या माफी तथा नए पशुओं की खरीद के लिए ब्याज रहित ऋण की व्यवस्था राहत कार्य का अंग होना चाहिए।

बाढ़ :
हमारे देष में बाढ़ देष के किसी न किसी हिस्से मेें लगभग प्रत्येक वर्ष कहर ढ़ाती है। असम, बिहार, उत्तर-प्रदेष, उड़ीसा, पष्चिम बंगाल में बाढ़ के प्रकोप से हर साल हजारों लाखों लोग बेघर होते हैं और करोड़ों की फसल, पशुधन व जानमाल का नुकसान होता है। यह क्रम स्थायी एवं दूरगामी व्चवस्था न होने के कारण लगभग हर साल देखने मेे आता है। बाढ़ संभावित क्षेत्रों में वर्षा के साथ ही लोगों को उनके पशुधन के साथ ऊँचे स्थानों पर बसाया जाना ही एक मात्र उपाय होता है। अधिक वर्षा व बाढ़ से पशुओं को रोग होने लगते हैं। इनमें गलघोटू, त्वचा के रोग, नयूमोनिया, परजीवी संक्रमण एवं खुर के रोग तथा उचित आहार न मिलने से शरीर भार में गिरावट व पशुओं की उत्पादन क्षमता में कमी जैसी हानियां होती हैं।

बाढ़जन्य आपदा प्रबंधन में निम्न बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए:-
1. वर्षा एवं बाढ़ की भविष्यवाणी
बाढ़ के संभावित क्षेत्रों की पहचान

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सुव्यसस्थित सिंचाई तंत्र का निर्माण

जल-मल के निकास की सही व्यवस्था

बाढ़ प्रभावित या संभावित क्षेत्र से जन व पशुधन को सुरक्षित स्थान पर ले जाना

पशु व मनुष्यों मेें टीकाकरण

तत्कालिक रोगों की उपचार व्यवस्था

वस्तुतः बाढ़ एवं सूखा भारत में सिक्के के दो पहलू के स्थापित हो चूके हैं। इस भू-भाग के कुछ देषों के किसी क्षेत्र में बाढ़ एवं सूखा कमी से छुटकारा पाने के लिए जल सरंक्षण ही एक मात्र विकल्प बचता है। जल के उचित संरक्षण उपायों मे बांध बनाना नदियों को जोड़ना, नहरों का निर्माण और देष में उपलब्ध संपूर्ण जल को देष में ही एक दिषा से दूसरी दिषा में घूमाकर काम में लेना उपयुक्त कदम होगा। नदियों के जोड़ने का कार्य ही इन आपदाओं का स्थायी हल हो सकता है तथा भारत एवं पड़ोसी देषों को बाढ़ एवं सूखा की विभीषिका से राहत दिला सकता है। उदाहरण के लिए दामोदर घाटी बांध परियोजना जैसी व्यवस्था से न केवल बाढ़जन्य आपदा से राहत मिलती है बल्कि बिजली भी मिलती है। जल संरक्षण के लिए कुछ और प्रयास भी किए जा सकते हैं जैसे फसल या खेत की परंपरागत ढंग से सिंचाई में पानी काफी व्यर्थ हो जाता है और यही पानी स्प्रिंकलर विधि अपनाकर काफी हद तक बचाया जा सकता है। इसी प्रकार वर्षा का जल घरों में संग्रहण किया जाना भी एक अन्य उपाय है।

अग्नि दुर्घटनाएँ :
जंगल में आग लगने पर खुले घूम रहे वन्य जीवों के मरने की संभावना अधिक नहीं होती किंतु बाँध कर रखे गए पशु बहुधा आग लगने पर बुरी तरह जल जाते हैं। सूखाग्रस्त क्षेत्रों में चारे का भंडार पशु बाड़े के आसपास ही किया जाता है। आग लगने पर गाँव में काँटेदार झाड़ियों से घिरे बाड़ में मौजूद पशुओं को सुरक्षित निकाल पाना कठिन हो जाता है। राजस्थान में चारे के ढेर में लगी आग से पशुओं के जलने या जलकर मरने की दुर्घटनाएं बहुधा होती रहती है। कई क्षेत्रों में पानी की कमी या अग्निषामक दल दूर होने पर जन-धन की हानि बहुत अधिक होती हैं। अपने देष में पशुपालन व कृषि के परम्परागत तरीकों में अभी तक अग्निषामक व्यवस्था का कोई स्थान नहीं है किंतु पशु पालन से जुड़े आग बुझाने वाले एवं आग की सूचना देने वाले यंत्रों की उपलब्धता जरूरी है। धुआँ सूचक व्यवस्था अपनाने पर अग्नि दुर्घटनाओं में 50-60 प्रतिशत की कमी आई और कम पशुओं की मृत्यु देखने में मिलती है।

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सुरक्षात्मक उपाय :
1. पशुपालन प्रक्षेत्रों में कार्यरत सभी कर्मचारियों को अग्निषामक व्यवस्था की जानकारी दी जानी चाहिए।
2. अग्निषामक दल के कर्मचारियों को समय-समय पर प्रषिक्षण एवं कवायद कराते रहना चाहिए।
3. आग लगने पर पशुओं को संभालने के ढंग की जानकारी भी दी जानी चाहिए।
4. बड़े पशुओं को अग्निषामक दस्ते की पोषाक से परिचित कराया जाना चाहिए ताकि मौके पर रंग देखकर भड़के नहीं।
5. पड़ोसियों को भी ऐसी दुर्घटनाओं के प्रति सावधान व सजग रहने की जानकारी आवष्यक होती है।
6. चरागाह के बीच-बीच में ट्रेक्टर की मदद से चैड़ी पट्टियाँ बना देनी चाहिए, ताकि आग लग जाने पर वह आगे न बढ़ पाए और उस पट्टी पर पशु खड़े किये जा सकें तथा जरूरी वाहन भी आ जा सके।
7. पशु बाड़ों में प्रवेष द्वार के अतिरिक्त एक अन्य आकस्मिक द्वार का प्रावधान भी रखना चाहिए।
8. आकस्मिक उपयोग के लिए जलस्त्रोत के पास लम्बे पाइप व पानी की टंकी की व्यवस्था होनी चाहिए।
9. समीपी थाना, प्रषासनिक कार्यालयों एवं अग्निषामक दल का फोन नम्बर भी मुख्य भवन के आसपास दर्षाया जाना चाहिए।
10. अग्नि दुर्घटना की जानकारी देने वाली आधुनिक सुविधाओं यथा धुआँ सूचक यंत्र संवेदनषील स्थानों पर लगाया जाना चाहिए।

ग्रामीण स्थितियों में कुछ और बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए :
1. चारा व पशु बाड़े अलग-अलग बनाए जाने चाहिए तथा भंडारित चारे के ढेर भी अलग हो तो अच्छा होगा।
2. पशुचारा व चारा भंडार के ऊपर या आसपास से अवैध या असुरक्षित तरीके से बिजली के तार/कनैक्षन न लें तथा बिजली के तारों के आसपास चारे का भंडारण न करें और ऐसे स्थान पर पशुषाला न बनाएँ।
3. पशुषाला या चारा भंडार के पास रेत से भरे कट्टे / फावड़ा/ वेलचा आदि की व्यवस्था रखें।
4. खलिहान में काम करते समय या रखवाली के समय बीड़ी, तम्बाकू एवं शराब न पिएँ और न ही किसी और को पीने दें।
5. खेत खलिहान में खाना बनाने के बाद आग पूरी तरह बुझा दें।
6. पड़ोसियों में अग्नि दुर्घटनाओं का ध्यान रखने की जिम्मेवारी व समझ की पालना करें।
7. क्षेत्रीय प्रषासन व अग्नि शामक दस्ते का फोन नम्बर अपने पास अवष्य रखें।

खतरनाक सामग्रियाँ व रसायन :
अकाल, बाढ़ एवं आग की आपदाओं के अतिरिक्त खतरनाक सामग्रियों या रसायनों (खतरनाक + रसायन – खतरसायन) के फैल जाने से भी क्षेत्रीय लोगों व पशुओं को खतरा पैदा हो जाता है। बहुआयामी सामाजिक विकास के साथ ही खतरनाक सामग्रियों व रसायनों की दुर्घटनाओं की संभावना अधिक हो जा रही हैं समुन्द्र में तेल का फैलाव, समुद्री जीवों के लिए तथा तेल की पाइप लाइनों से तेल का रिसाव स्थानीय संकट पैदा कर देता है। गैस पाइप लाईन में विस्फोट समीपी क्षेत्र के वातावरण को प्रदूषित करता है। खतरनाक रसायनों से उत्पन्न आपदा को सँभालने के लिए प्रषिक्षित लोगों की जरूरत होती हैं अतः आम लोगों को यथासंभव दूर रहकर प्रषासन की मदद करनी चाहिए। अमेरिका जैसे विकसित देष में जहाँ सुरक्षा के व्यापक प्रबंध व प्रषिक्षण की व्यवस्था है, वहाँ भी 5 वर्ष की अवधि में लगभग 34500 खतरनाक रसायनिक दुर्घटनाओं से मानव समाज प्रभावित हुआ और आष्चर्यजनक स्थिति यह रही कि प्रभावित लोगों में मात्र 20 प्रतिशत लोगों को ही तत्काल उपचार दिया जा सका। विकासषील देषों में भी ऐसी आपदाओं को संभालने की व्यवस्था विकसित की जा रही है।
सुनामी जैसी आपदा से समुन्द्री जल में भारी जहरीले रसायनों के पहुँच जाने की संभावना से नकारा नहीं जा सकता। कालांतर में मछलियों एवं समुन्द्री जीवों से तैयार मानव व पशु आहार में भी खतरनाक रसायन हो सकते हैं। भोपाल गैस त्रासदी से प्रभावित लोगों में तात्कालिक मृत्यु के अतिरिक्त विषाक्तता का कुप्रभाव लम्बे समय तक असर दिखाता रहा है। गर्मी के दिनों में सड़कों के किनारे फैले कोलतार से कहीं पशु की त्वचा व पंख बहुधा प्रभावित होते हैं जिसके फलस्वरूप उन्हें श्वसन व पाचन तंत्र संबंधी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती है।

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रसायनिक दुर्घटना होने पर तात्कालिक उपाय :
1. स्थानीय थाना या प्रषासन को तत्काल सूचित करना चाहिए।
2. आम आदमी को ऐसी दुर्घटना से दूरी बनाए रखनी चाहिए।
3. पशु एवं मानव चिकित्सा विभाग को भी जानकारी देनी चाहिए।
4. आपदा प्रबंधन से जुड़े लोगों व तकनीकी संस्थाओं से सलाह लेकर आपदा प्रबंधन हेतु जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए।
5. प्रभावित क्षेत्रों में तकनीकी राय के अनुसार ही पशुओं को चराने के लिए ले जाएँ।
व्यवसायिक सुरक्षा एवं स्वास्थ्य प्रषासन जैसी इकाइयाँ ऐसे सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण योगदान करती हैं। हमारे देष में भी आपदा प्रबंधन के लिए केन्द्र व राज्य स्तर पर विषेषज्ञों युक्त सक्रिय इकाइयों की स्थापना की गई है।

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