पशुओं में क्षय रोग: ट्यूबरकुलोसिस
ट्यूबरकुलोसिस अर्थात् क्षय रोग मबेशियों एवं पालतु पशुओं को प्रभावित करने वाली जटिल बीमारी है। यह रोग न केवल गाय, भैंस, बकरी, सूअर को प्रभावित करता है अपितु यह संक्रामक रोग पशुओं से मुख्यतः गायों व भैसों से मनुष्यों में भी फैलता है। घोड़ों व भेड़ों में इस रोग के प्रति अन्य पशुओं की तुलना में सहनशीलता अधिक होती है।
रोग का कारण व संक्रमण:
क्षय रोग एक जीवाणु जनित रोग है-जो कि माइक्रोबैक्टिरियम बोविस के नाम से जाना जात है। यह रोग संक्रमित पशु की सांस, थूक; बलगमद्ध, पेशाब, दूध व प्रजनन तंत्र के अंगों से होने वाले स्राव के माध्यम से, इनकें संपर्क में आने के कारण दूसरे पशुओं एवं मनुष्यों में फैलता है। प्रायः संक्रमित पशु रोग के लक्षण उत्पन्न होने से पूर्व ही जीवाणु का प्रसार पर्यावरण में व अन्य पशुओं में करने लगते हैं। जंगली पशु भी इस जीवाणु के वाहक की भूमिका निभाते हैं। सांस के द्वारा या खांसी, छिंक के दौरान उत्पन्न महीन बूंदे/फुवार इस रोग के जीवाणु के फैलने का मुख्य कारण हैं। इसके अलावा संक्रमित गोबर, पेशाब से संक्रमित चारा, पानी आदि भी रोग का प्रसार करते हैं।
कृत्रिम गर्भाधान में प्रयुक्त होने वाला वीर्य/बीज यदि क्षय रोग से ग्रसित नर का हो या कृत्रिम गर्भाधान में प्रयुक्त होने वाले उपकरण नली आदि यदि संक्रमित पशु में प्रयोग किये गये हो तो भी क्षय रोग का संक्रमण हो जाता है।
पशुशाला में पशुओं की संख्या अधिक होने अर्थात घनत्व अधिक होने पर रोग की संभावना अधिक हो जाती है क्योंकि इन परिस्थितियों में स्वस्थ पशुओं के बीमार पशु के संपर्क में आने की संभावना अधिक होती है। इसी प्रकार खुले मैदानों में चरने वाले मवेशियों में संक्रमण की संभावना कम होती है क्योंकि खुले में रहने वाले मवेशियों की एक दूसरे की संपर्क में आने की संभावना कम ही होती है। देशी नस्लों की गायों में विदेशी नस्लों की गायों की तुलना में रोग होने की संभावाना कम होती है। उम्र के साथ-साथ रोग होने की संभावना बढ़ती जाती है।
सूअर में रोग होने की संभावना उन स्थानों पर अधिक होती है जहाँ गोवंशीय/महिषवंशीय पशुओं की जनसंख्या प्रायः ज्यादा प्रभावित होती है क्योंकि सूअर में यह जीवाणु सामान्यतः संक्रमित पशु के दूध, मांस आदि से बने खाद्य पदार्थो के सेवन द्वारा होता है या उन चारागाहों पर चरने पर संक्रमण के अवसर बढ़ जाते हैं जिन पर गोवंशीय/महिषवंशीय पशु भी साथ साथ चरते है क्योंकि संक्रमित मवेशियों के मल-मूत्र आदि स्रावों से घास आदि संक्रमित हो जाते है तथा अन्य पशुओं में जीवाणु/बीमारी के प्रसार के कारण बनते है।
बकरियाँ रोग के प्रति काफी संवेदनशील होती है तथा इनमे रोग होने की संभावना काफी अधिक होती है। भेड़ों को प्रायः अधिक सहनशील माना गया है किंतु जिन स्थानों पर गोवंशीय/ महिषवंशीय मवेशियों की जनसंख्या अधिक होती है, वहाॅ भेड़ों में भी रोग अधिक पाया जाता है।
घोड़ों में भी बीमारी कम ही देखने को मिलती है। नमी वाली पशुशालाओं में जहाँ धूप कम आती है, बिछावन गीली होती है तथा हवा आर-पार नहीं हो पाती ऐसी पशुशाला में पलने वाले पशुओं में रोग से ग्रसित होने की संभावना अधिक होती है। मनुष्यों में भी यह रोग मुख्यतः सा°स के माध्यम से या संक्रमितकच्चा दूध पीने से अधिक होता है।
रोग के लक्षण:
रोग से ग्रसित पशु का वजन तेजी से कम होने लगता है, पशु को भूख बहुत अधिक लगती है। पशु का तापमान सामान्य न होकर परिवर्तित होता रहता है, सामान्यतः पशु को बुखार बना रहता है। इसी लक्षण के कारण क्षय रोग को तपेदिक भी कहा जाता है। प्रभावित मवेशी सुस्त रहने लगता है अपितु आँखें चमकदार बनी रहती हैं।
फेफड़ों में संक्रमण के दुष्प्रभाव के कारण पशु को खांसी हो जाती है, जो सामान्यतः प्रयुक्त होने वाली दबाइयों से ठीक नहीं हो पाती तथा लंबे समय तक बनी रहती है। धीरे-धीरे फेफड़े नष्ट होने लगते हैं, जिसके फलस्वरूप पशु को सांस लेने में अत्याधिक कठिनाई होने लगती हैं। फेफड़ों की झिल्ली आवरण को बनाने वाली परत में भी सूजन आ जाती हैं तथा फेफडा़ें के चारों आरै पानी भरने लगता हैं। सांस की नलियों की लिम्फनोडस् की सूजन के कारण सांस की नलिया व दबाव के कारण भोजन नलिका भी अवरूह् हो जाती है जिससे गैस जमा होने के कारण पेट फूलने लगता है (अफारा हो जाता है)। यदि आंतों में भी संक्रमण हो जाता है तो पशु को भूख कम लगने लगती है तथा आंतों में अल्सर बन जाता है। यह जीवाणु थनों को भी प्रभावित करता है। इसके कारण थन बड़े हो जाते है तथा थनों में उपर की तरफ गांठे बनने लगती है। सूूअर में गर्दन की लिम्फनोडस् में संक्रमण प्रायः कोई लक्षण पैदा नहीं करता। सूअर में सिर की या मस्तिष्क के जोड़ों की टी. बी. अधिक सामान्य है।
घोडा़ें में भी यह जीवाणु गर्दन की लिम्नोडस् को अधिक प्रभावित करता हैं। गर्दन में सूजन, अकडऩ व जमीन से घास न चर पाना आम लक्षण हैं अपितु खा°सी व नाक से पानी बहना कम ही देखने को मिलता हैं।
भेड़-बकरियों में सामान्यतः निमोनिया देखने को मिलता है जो कि खांसी व सांस लेने में तकलीफ से आसानी से पहुंचाया जा सकता है। कभी-कभी बकरियों में आंतों का संक्रमण होने के कारण अल्सर हो जाते हैं तथा दस्तों की समस्या भी हो जाती है। वयस्क बकरियों में रोग धीरे-धीरे फैलता/पनपता है अपितु बच्चों में यह अत्यंत तेजी से फैलता है।
रोग का निदान:
बलगम की जांच द्वारा तथा बीमारी को करने वाले जीवाणु की पहचान द्वारा।
रोग के लक्षणों द्वारा भी रोग की पहचान हो सकती हैं।
शव परीक्षण करने पर गायें, भैंस, भेड़ व बकरियों के फेफड़ों व प्रभावित अंगों में गांठें मिलती हैं। इन गांठों में मवाद क्रीम जैसे या केसरिया रंग का होता है एवं क्रीम या पनीर की भाँति होता है। आंतों में भी गांठें मिलने की संभावना होती है।
ट्यूबरकुलिन टेस्ट – इस टेस्ट के विभिन्न प्रारूप होते है। साधारणतः ट्यूबटकुलिन द्रव्य को गर्दन पर त्वचा/खाल में लगाया जाता है। यदि 48-72 घंटे के भीतर उस स्थान पर गर्म दर्द वाली सूजन आ जाती है तो पशु को क्षय रोग से ग्रसित मान लिया जाता है। इस टेस्ट का दूसरा प्रारूप स्टोरमान्ट टेस्ट है, इसमें गर्दन में खाल में पहले टीके के सात दिन के अन्दर सामान्यतः पहले टीके के 48 घंटे बाद दूसरा इंजेक्शन दिया जाता है। यदि 24 घंटे के अंदर त्वचा की मोटाई 5 मी. मी. से अधिक की बृद्धि होती है तो उसे तपेदिक रोग से ग्रसित पशु मान लिया जाता है। इसके अलावा एलीसा, पी. सी. आर. जैसी तकनीकों से भी रोग की पहचान की जा सकती हैं।
रोग के नियंत्रण एवं बचाव के उपाय:
प्रायः विकसित देशों में इस बीमारी के उन्मूलन के लिए वध विधि का प्रयोग किया जाता है, अपितु भारतीय परिवेश में गोवंशीय पशुओं का वध प्रतिबंधित है, अतः क्षय रोग से ग्रसित पशुओं को अन्य पशुओं से दूर अलग बाड़े में रखना चाहिये।
क्षय रोग की चिकित्सा मानवों की भांति पशुओं में भी लम्बे समय तक चलती है जो कि व्यवहारिक नहीं है। पशुओं में भी आईसाेिनकाेिटनिक एसिड; आईसाेिनयाजिड़ एवं परैा-अमिनासेलैीसाइकिलिक एसिडद्ध के प्रयागे द्वारा किया जा सकता है। स्ट्रेप्टोमेाइसिन सल्फेट का प्रयोग भी लाभकारी परिणाम देता है। आइसोनियाजिड 5 मि. ग्रा. प्रति किलों वजन की दर डेढ़ माह के लगातार प्रयोग पर अच्छे परिणाम देता है। विषम परिस्थितियों में 10 -12 माह तक 10 मि. ग्रा. प्रति किलों वजन की दर से इसका प्रयोग करना होता है, जिससे दूध के माध्यम से जीवाणु का प्रसार रोका जा सकता है।
बकरियों में 300 मि. ग्रा. रिफैमपीन एवं 300 मि. ग्रा. आइसोनियाजिड मुख द्वारा तथा साथ में 500 मि. ग्रा. स्टन्न्प्टोमाइसिन का मांसपेशियों में टीके द्वारा प्रयोग चिकित्सा में अत्यंत सहायक है। समय-समय पर; वर्ष में दो बारद्ध ट्यूबरकुलिन टेस्ट द्वारा जांच करनी चाहिये तथा संक्रमित पशुओं का वध कर देना चाहिए या कम से कम उन्हें अन्य पशुओं से दूर अलग कर देना चाहिये। मृत पशुओं को जला देना चाहिये या गड्ढ़े में चूना डालकर दफना देना चाहिए। क्षय रोग ग्रसित पशु के संपर्क में आने वाले पशु पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिये तथा उनकी भी उचित जांच होनी चाहिये।
बी. सी. जी. का टीकाकरण किया जा सकता है किंतु यह रोग से पूर्ण रूप से बचाव करने में सक्षम नहीं होता है। नये पशुओं को पशुशाला में टेस्ट करने के पश्चात् ही लाना चाहिये। पशुपालकों की भी नियमित जांच होनी चाहिये। पशुशाला हवादार होनी चाहिए जिसमे धूप आती हो तथा बाडे़ में अधिक भीड़ नहीं होनी चाहिए।
उपर्युक्त वर्णित बातों का अनुसरण कर किसान भाई/पशुपालक क्षय रोग से अपने पशुओं एवं स्वयं तथा अपने परिवार का बचाव कर सकते हैं व रोग के नियंत्रण में सहायता कर सकते हैं।