पशुओं में रक्त मूतना रोग, लक्षण व निदान

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पशुओं में रक्त मूतना रोग, लक्षण व निदान

डॉ दानवीर सिंह यादव, डॉ रश्मि चौधरी, डॉ श्वेता राजोरिया और डॉ. नवल सिंह रावत

सहायक प्राध्यापक, पशु चिकित्सा एवं पशुपालन महाविद्यालय, महू, नानाजी देशमुख वेटरनरी साइंस यूनिवर्सिटी जबलपुर (म. प्र. )

यह बिमारी आमतौर पर व्याने के 2-4 सप्ताह के बाद या यहां तक की गर्भावस्था के अंतिम दिनों में होती है| यह बिमारी ज्यादातर भैंसों में होती है| इस बिमरी को स्थानीय भाषा में लाहू मोटाना कहा जाता है| यह बिमारी शरीर में फास्फोरस की कमी की वजह से होती है| मिट्टी में इस लवण की कमी से चारे में फास्फोरस की कमी होती है व पशु के शरीर से कमी चले जाती है| ज्यादा तर जिन पशुओं को सूखा घास/चारा खिलाया जाता है| उनमें फास्फोरस की कमी की संभावना ज्यादा रहती है|

अक्सर देखने में आता है कि पशुओं विशेषकर दुधारू पशुओं के पेशाब का रंग लाल दिखाई देता है। कई किसान इसे नजरअंदाज भी कर जाते हैं, जिसकी उन्हीं बड़ी कीमत चुकानी पड़ जाती है। कभी-कभी पशुओं की मौत भी हो जाती है। पेशाब में खून आना या रक्त मुतना रोग पशुओं में पाया जाने वाला एक असंक्रामक रोग है । इस राग में प्रभावित पशु के पेशाब का रंग पेशाब में खुन/ रक्त/ लहू आने के कारण लाल हो जाता है। यह रोग गाय एवं भैंस प्रजाति के पशुओं में प्राय: पाया जाता है, तथा गाय की बजाय भैंस में यह रोग अधिक देखा गया है। पशुओं में रक्त मुतना रोग 3 से 6 ब्यांत की अवधि के दौरान तथा अत्यधिक दूध देने वाले पशुओं में ज्यादा पाया जाता है। यह रोग पशु के ब्याने के बाद 2 से 4 सप्ताह की अवधि के दौरान अधिक देखा गया है। कई परिस्थितियों में यह रोग पशुओं में गर्भावस्था की अन्तिम अवस्था में भी पाया जाता है। मुख्य रूप से यह रोग पशुओं में एक चयापचय में गड़बड़ी की वजह से उत्पन्न होता है । पशुओं में यह समस्या उन क्षेत्रों में ज्यादा पाई जाती है, जहाँ की मिट्टी में फॉस्फोरस नामक तत्व की कमी होती है। हमारे देश में खासकर भैंस में यह रोग एक स्थानिक समस्या के रूप में प्रचलित है। अंग्रेजी भाषा में इस रोग को पोस्ट पारचुरियंट हिमोग्लोबिनयुरिया (पी.पी.एच.) के नाम से जाना जाता है। वैज्ञानिक भाषा में इस रोग को बबेसियोसिस रोग भी कहा जाता है।

  • यह रोग होता कैसे है
    पशुओं में रक्त मुतना रोग फॉस्फोरस तत्व की कमी से होने वाला रोग है, जो कि प्रभावित पशुओं में लाल रक्त कोशिकाओं के नष्ट होने की वजह से पेशाब में खुन आने (रक्त मुतना) तथा रक्ताल्पता (अनीमीया) के रूप में परिलक्षित होता है। ऐसे पशु जिनकी दूध उत्पादन की क्षमता ज्यादा होती हैं परन्तु असंतुलित आहार खासकर आहार में फॉस्फोरस तत्व की कमी (केवल सुखा चारा खिलाना) होती है, उनमें यह रोग होने की संभावना ज्यादा होती है। पशु आहार में फुल गोभी, पत्ता गोभी, शलजम तथा राई घास की अधिकता भी पशुओं को इस रोग के प्रति संवेदनशील बनाती है। जिन पौधों में ऑक्जलेट्स की मात्रा अधिक पाई जाती है, ऐसे पौधों को चारे के रूप में पशुओं को खिलाने की वजह से भी इस रोग के होने की संभावना बढ़ जाती है। पशुओं को नियमीत रूप से खनिज मिश्रण नहीं खिलाने की वजह से भी इस रोग के होने की संभावना ज्यादा रहती है। इस रोग को फैलाने में रक्त पीने वाले परजीवी अहम भूमिका निभाते हैं।
  • रोग के प्रमुख लक्षण
    पशुओं में इस रोग का मुख्य लक्षण लाल पेशाब आना है, इसलिए इसको रक्त मुतना रोग कहा जाता है। भूख की कमी, कमजोरी एवं दूध उत्पादन में कमी देखने को मिलती है। पेशाब के साथ खुन आने की वजह से पशु के शरीर में रक्त की कमी एवं श्लेष्मिक झिल्लियों का सफेद या पीलापन दिखाई देता है। पेशाब का रंग गहरा भूरा (कॉफी के जैसा) देखने को मिलता है । शरीर में पानी की कमी होने की वजह सेगोबर सुखा एवं कठोर हो जाता है। शरीर में खुन की कमी की वजह से हृदय गति बढ़ जाती है तथा रक्त की कमी (अनीमिया) एवं पीलीया के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। पशु जुगाली करना भी बन्द कर देता है। अनीमिया की वजह से पशु को सांस लेने में भी दिक्कत होने लगती है, पशु की सांस लने की गति भी बढ़ जाती है तथा समय पर उचित ईलाज के अभाव में पशु की मौत भी हो सकती है।
  • रोग की पहचान
    गाय एवं भैंस प्रजाति के पशुओं में लाल पेशाब आना कई प्रकार की बिमारियों में देखने को मिलता है । यदि कोई पशु गर्भावस्था की अंतिम अवस्था में हो या पशु अभी 2 से 4 सप्ताह की अवधि में ही ब्याया हो एवं पशु को बुखार नहीं हो तथा पशु के पेशाब का रंग गहरा भूरा (कॉफी के रंग जैसा हो) हो, ऐसी परिस्थिति में इस बात की संभावना ज्यादा हो जाती है कि पशु फॉस्फोरस नामक तत्व की कमी से होने वाले रक्त मुतना रोग से ग्रसित है। पशुपालकों को चाहिए की ऐसी स्थिति में तुरंत अपने पशु-चिकित्सक से संपर्क करें एवं पशु के रोग का उचित तरीके से पता लगवाएं। इस रोग के निदान के लिए पशु एक पेशाब एवं खुन की प्रयोगशाला में जाँच करवाकर भी इस रोग का पता लगाया जा सकता है।
  • रोग का उपचार
    पशु-चिकित्सकों द्वारा इस रोग के उपचार के लिए प्रभावित पशु को सोडियम ऐसिड फॉस्फेट रक्त मार्ग (नस में) तथा त्वचा के नीचे एवं मुँह द्वारा दिया जाता है। इस दवाई की मात्रा एवं उपचार का समय पशु-चिकित्सक प्रभावित पशु की अवस्था देखकर तय करते हैं। पशु चारे के साथ हड्डियों का चूरा या डाइकैल्शियम फॉस्फेट भी इस रोग में लाभकारी सिद्ध होता है। पशु के शरीर में रक्त बढ़ाने के लिए कॉपर, लोहा तथा कोबाल्ट सम्मिश्रित टॉनिक भी लाभकारी साबित होते हैं। पशु की भूख बढ़ाने के लिए इस रोग में लिवर टॉनिक एवं अन्य औषधियाँ भी दी जाती है। अत: पशुपालकों को चाहिए कि इस रोग से प्रभावित पशु का पशु चिकित्सक के द्वारा पूरा एव उचित इलाज करवाए।
  • इस रोग से बचाव कैसे करें?
    वैज्ञानिक तौर पर पशु चारे में फॉस्फोरस तत्व की मात्रा कम से कम25 प्रतिशत होनी चाहिए। अगर इससे कम मात्रा है तो पशुओं को नियमित तौर पर डाईकैल्शियम फॉस्फेद देना चाहिए। एक व्यस्क पशु को रोजाना 20 ग्राम फॉस्फोरस पशु चारे में मिलना चाहिए तथा दुधारू पशु को इसके अतिरिक्त रोजाना 0.8 ग्राम अतिरिक्त प्रति 500 ग्राम दूध उत्पादन पर दी जानी चाहिए। पशुपालकों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पशु चारे में फुल गोभी, पत्ता गोभी, शलजम तथा राई घास की अधिकता ना हो, अन्यथा यह रोग होने की संभावना बढ़ जाती है । इस रोग की रोकथाम के लिए ऐसे क्षेत्र जहाँ की मिट्टी में फॉस्फोरस तत्व की कमी हो में पशुओं को पूरक आहार के रूप में खनिज मिश्रण संतुलित आहार के साथ नियमित रूप से देना चाहिए।
  • https://www.pashudhanpraharee.com/%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%82-%E0%A4%AA%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%93%E0%A4%82-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%B2%E0%A4%B9%E0%A5%82-%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A4%A8/
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