पशुओं में रोगों की रोकथाम हेतु ब्यबहारिक सुझाव

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पशुओं में रोगों की रोकथाम हेतु ब्यबहारिक सुझाव

एक पुरानी कहावत है कि ‘उपचार से उत्तम बचाव है’। पशुपालक इस कहावत को सत्य सिद्ध करते हुए अपने पशुओं में विभिन्न रोगों की रोकथाम के लिए वैज्ञानिक पद्धतियां अपनाकर पशुओं में होने वाले रोगों से बचाव कर सकते हैं या उनका प्रकोप काफी हद तक कम कर सकते हैं। निम्नलिखित कुछ वैज्ञानिक सुझाव हैं, जो कि पशुपालकों के अपनाने के लिए काफी व्यवहारिक हैं तथा जिनको पशुपालक काफी आसानी एवं सजगता से अपना सकते हैं:-

1. संक्रामक रोगों से बचाव हेतु टीकाकरण
पशुओं में होने वाले विभिन्न संक्रामक रोगों से पशुपालकों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है, इसके साथ-साथ कई संक्रामक रोग मनुष्य के लिए भी हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं। अतः समय से नियमित टीकाकरण द्वारा पशुओं को संक्रामक रोगों से मुक्त रखकर इस आर्थिक क्षति से बचा जा सकता है।
विभिन्न संक्रामक रोगों से बचाव के लिए रोग के संक्रमण के अनुसार विषेष आयु पर और निष्चित अंतराल पर पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार टीकाकरण करवाना चाहिए। टीकाकरण करने के कम से कम दो सप्ताह पूर्व पशुओं को आवष्यकतानुसार कृमिनाषक औषधि पशु-चिकित्सक की सलाह लेकर अवष्य देनी चाहिए। रोगी एवं दुर्बल पशुओं का टीकाकरण नहीं करवाना चाहिए।
टीकाकरण के दो सप्ताह बाद तक पशुओं को तनावमुक्त रखें एवं उपचार के लिए एंेटीबायोटिक, (सल्फा औषधियाँ), कृमिनाषक और प्रतिरक्षा दमनक दवाओं के प्रयोग से बचना चाहिए। विभिन्न महत्त्वपूर्ण संक्रामक रोग जिनके लिए टीके उपलब्ध हैं- मुँह-खुरपका रोग, पी.पीआर.,रेबीज़, चचेक (माता रागे), सकुर ज्वर, गलघोटूं, बसु्रलेाेिसस, टटेनस, एन्ट्रोटेााॅिक्समिया, लंगड़ा बुखर (बी.क्यू.) आदि।

2. आंतरिक परजीवी नियंत्रण
पशुओं के आंतरिक परजीवियों में गोलकृमि, फीताकृमि तथा चपटाकृमि मुख्य है, जो कि पशु के शरीर के भीतरी भागों मुख्यतः आहार नली/आंत/पेट में पाए जाते हैं। आंतरिक परजीवियों की वजह से पशु को दस्त लगना, बदहज़मी होना, पशु का कमजोर होना, पशु के उत्पादन, शारीरिक वृद्धि एवं काम करने की क्षमता में कमी होना, रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आना, पशुओं में मिट्टी खाने की बीमारी (पाईका) होना तथा कई बार पशु की मृत्यु हो जाना जैसे दुष्प्रभाव हो सकते हैं।
आतंरिक परजीवियों का सही पता लगाने के लिए तथा उचित ईलाज करवाने के लिए पशु के मल/गोबर की जाॅंच भी करवाई जा सकती है। आंतरिक परजीवी नियन्त्रण हेतु समय-समय पर पशुओं की आयु गभार्वस्था आरै प्रजाति को ध्यान में रखकर एवं पश-ुचिकित्सक के परामर्ष अनसुार कृमिनाषक औषधियों का प्रयोग करना चाहिए। आंतरिक परजीवियों में प्रतिरोध विकास रोकने के लिए पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार कृमिनाषक औषधि को बार-बार बदलना आवष्यक है।
बाॅंधकर पाले जाने वाले पशुओं में आंतरिक परजीवियों के प्रभाव को निंयत्रित करने के लिए स्वच्छता एवं स्वास्थ रक्षा के उपाय अपनाना बहुत ही आवष्यक है। चरने वाले पशुओं में आंतरिक परजीवियों के नियंत्रण हेतु चक्रीय चराई पद्यति (स्थान बदल करके चराई) को अपनाया जा सकता है। आंतरिक परजीवियों के नियंत्रण के लिए रोगवाहक वेक्टर/माध्यमिक धारकों/इंटरमीडिएट होस्ट (जैसे घोंघा व खून चूसने वाली मक्खियां व चिचड़ियां) का नियंत्रण भी अति महत्त्वपूर्ण है।

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3. बाह्य परजीवी नियंत्रण:
पशुओं के बाह्य परजीवियों में विभिन्न प्रकार की मक्खियां, चिचड़ियां, खाज-खारिष करने वाली बरूथियां तथा जुएं आदि आती हैं, जो कि पशु के शरीर के बाहरी भागों में रहती हैं तथा खून द्रव चूसती हैं। लगभग सभी पशु अपने जीवनकाल में कभी ना कभी इन बाह्य परजीवियों का षिकार होते हैं। बाह्य परजीवियों की वजह से पशु के शरीर में खून की कमी (एनीमिया), पशु का कमजोर होना, त्वचा पर खाज़-खुज़ली होना पशु के बाल/ऊन झड़ जाना, पशु का चिड़चिड़ा हो जाना, त्वचा पर घाव हो जाना, पशु के उत्पादन, शारीरिक वृद्धि एवं काम करने की क्षमता में कमी आना, रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आना, पशुओं में मिट्टी खाने की बीमारी (पाईका) होना जैसे लक्षण देखने को मिलते हैं जिनकी वजह से पशुपालकों को काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है।
इसके अलावा कुछ बाहय परजीबी पशुओं में बिभिन्न प्रकार की बीमारियां जैसे थिलेरियोसिस, बोबेसियोसिस (चिचड़ी बुखार), अनापलासमोसिस, ट्रिपेनोसोमोसिस(सर्रा) तथा लकवा (टीक पैरालिसिस) अदि रोग भी फैलाते हैं, जो की काफी घातक रोग हैं एवं पशुओं के लिए जानलेवा साबित हो सकते हैं। पशुओं के बाहय परजीबी नियंत्रण हेतु समय समय पर पशुओ की आयु, गर्भबस्था और प्रजाति को ध्यान में रखते हुए पशु चिकित्सक के परामर्श अनुसार उचित मात्रा में वं उचुत तरीके से सबधाणी पुर्बक कीटनाशक दवाई का प्रयोग करना चाहिए। कीटनाशक लगाने से पहले पशुओं को इच्छा अनुसार जल पिलाना चाहिए ताकि व उपचार के बाद शरीर को न चाटें।
सामान्यत: सभी कीटनाशक ओषधियां बिषैली होती हैं, अत: इन्हे पशुओं एवं बच्चों की पहुंच से दूर व सुरक्षित स्थान पर रखना चाहिए। ख़राब मौसम में कीटनाशक का उपयोग नहीं करना चाहिए। पशुओ के शरीर पर कीटनाशक दवाई का प्रयोग करने के साथ साथ इनका पशुशालाओं में भी छिड़काव अत्यंत आबश्यक हैं, अन्यथा पशुओं के बाहय परजीबियो का पूरी तरह नियंत्रण नै हो पता हैं।

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4. दुधारू पशुओं में दूध सुखाने हेतु व्यवहारिक सुझााव
दुग्धोत्पादन चक्र में अगली ब्यांत में दुग्धोत्पादन को सकुषल बनाए रखने के लिए दूध सुखाई हुई गायों एवं भैसों के थनों को स्वस्थ रखना अति आवष्यक है। गायों और भैंसों की दूध सुखाने की उपयुक्त अवधि ब्याने से पहले 6 से 8 सप्ताह है। परंतु इस अवधि में प्रोटीन और ऊर्जा समृद्व आहार खिलाना आवष्यक है। आठ सप्ताह से अधिक समय तक सुखाई गाभिन पशुओं में स्थूलता/मोटापा होने की संभावना रहती है। इससे दूध उत्पादन भी घटने की संभावना रहती है।
विसुखावन उपचार से पहले दुधारू पशुओं में दूध दुहनें का कार्य क्रमषः अनियमित और आंषिक करके लगभग एक सप्ताह में समाप्त करना चाहिए। पशुओं का दूध अचानक नहीं सुखाना चाहिए, इससे थनैला रोग होने की संभावना रहती है। विसुखी दुधारू मादाओं में दीर्घकालीक प्रभावी एंटीबायाोटिक को थनों के रास्ते चढ़ाने की क्रिया को गाय विसुखावन उपचार कहते हैं। यह थनों के संक्रमण को रोकने में सहायक होता है, तथा दूध उत्पादन कायम रख करके आर्थिक हानि से बचाता है। ‘गाय विसुखावन उपचार’ के लिए ब्याने के 6-8 सप्ताह पूर्व विसुखी दुधारू मादाओं में पशु चिकित्सक के परामर्ष अनुसार दीर्घकालिक प्रभावी एंटीबायोटिक दवा का थनों के रास्ते इस्तेमाल करें।

5. पशुओं के नवजात षिषुओं का संक्रामक रोगाणुओं से बचाव:
नवजात पशु संक्रामक रोगाणुओं एवं वातावरण में पाए जाने वाले अवसरवादी जीवाणुओं के प्रति अधिक संवेदनषील होते हैं। इसका कारण उनका अविकसित प्रतिरक्षा तंत्र होता है। अतः इन पर ज्यादा ध्यान दें। दस्त/अतिसार, निमोनिया, सेप्टीसीमिया, एन्डोटोक्सिमिया, ओम्फैलोफलेबाइटिस (नाल का सूज जाना), ऑस्टियोमाइलाइटिस, मस्तिष्क ज्वर और संक्रामक आथ्र्राइटिस आदि पशुओं के नवजात पशुओं में पाए जाने वाले मुख्य संक्रामक रोग हैं। नवजातों में प्रतिरक्षा तंत्र अविकसित होने के कारण जीवाणुघाती/एंटीबायोटिक औषधियों को संक्रमण के उपचार हेतु अधिक मात्रा में एवं कम अंतराल पर देने को प्राथमिकता दी जाती है। नवजात पशु में उपरोक्त रोगों के कोई भी लक्षण दिखाई देने पर तुरंत नजदीकी पशु-चिकित्सक से सम्पर्क करके जल्द से जल्द उचित एवं पूरा उपचार करवाना चाहिए। अन्यथा पशुपालकों को नुकसान उठाना पड़ सकता है।

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6. पशुषाला का रखरखाव:
पशुषाला का उचित प्रबन्धन, रख-रखाव एवं साफ-सफाई भी पशुओं को स्वस्थ एवं रोग- मुक्त रखनें, तनाव-मुक्त रखनें तथा स्वच्छ दूध उत्पादन करने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। जिसका सीधा सम्बंध पशुपालकों को पशुओं से होने वाले आर्थिक लाभ-हानि से है। पशुपालकों को चाहिए कि की वो पशुशाला का निर्माण एवं रख-रखाव बैज्ञानिक तरीके से करें तथा उनमे रखे जाने वाले पशुओं के लिए उनकी प्रजाति, लिंग, उम्र तथा गर्भबस्था के हिसाब से अलग-अलग ब्यबस्था करें। पशुशाला में नये पशुओं को रखने से पहले धूमन करने से वातावरण रोगमुक्त होता है, तथा जीवाणुओं पर नियन्त्रण रहता है।

7. पशुओं का आहार प्रबंधन:
किसी भी जीवित प्राणी प्राणी के शरीर को स्वस्थ रखने के लिए संतुलित तथा परूा आहार बहतु महत्त्वपूर्ण है। अगर पशु को वैज्ञानिक रूप से संतुलित तथा पूरा आहार मिलता है तो पशु के शरीर की रागे-प्रतिरोधक क्षमता बनी रहती है तथा बीमारी पनपने की सम्भाबना बहतु कम हातेी है। अगर पशु को उसकी प्रजाति, लिंग, आयु एवं गर्भावस्था के हिसाब से संतुलित तथा पूरा आहार दिया जाता है, तो उसके शरीर की वृद्धि दर, प्रजनन क्षमता, पशु का उत्पादन तथा बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोध क्षमता बनी रहती है जो कि फायदेमंद पशुपालन के लिए बहुत जरूरी है।
पशुपालकों को चाहिए कि वो समय-समय पर पशु-चिकित्सक की सलाह लेकर पशुओं को संतुलित पशु आहार जिसमें कि उचित मात्रा में हरा चारा, सुखा चारा तथा खल-बिनौला शामिल हो, देते रहना चाहिए। इसके साथ-साथ पशुओं को उनकी प्रजाति, आयु, प्रजनन, गर्भावस्था एवं उत्पादन के हिसाब से खनिज-मिश्रण भी अवष्य नियमित रूप से देना चाहिए।
उपयुक्त साबधाणियों एवं सुझाव के अलावा अगर पशुपालकों को अपने पशुओं सम्बधीकिसी भी समस्या का सामना करना पड़ता है, तो तुरंत अपने नजदीकी पशु-चिकित्सक या लाला लाजपत राय पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान विष्वविद्यालय, हिसार के वैज्ञानिकों से सलाह लेकर उनका समाधान करवा सकते हैं।

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