पशुओं में सर्रा रोग से बचाव एवं रोकथाम कैसे करे ?
Post no-1411 Dt 21/12/2019
Compiled & shared by-DR RAJESH KUMAR SINGH ,JAMSHEDPUR,JHARKHAND, INDIA, 9431309542,rajeshsinghvet@gmail.com
सर्रा पशुओं में पाया जाने वाला एक संक्रामक विकार है, जो पशुओं में मृत्यु तथा उत्पादन में गिरावट के कारण गंभीर आर्थिक हानि के लिए उत्तरदायी है। यह एक व्यापक रोग है जो विश्व के अनेक भागों से उल्लेखित है। कमजोरी के कारण इस रोग से ग्रासित पशु अन्य बीमारियों का शिकार जल्दी हो जाता है जैसे मुँहखुर, गलघोटू इत्यादि।
कारणः
सर्रा का प्रसारण मुख्यतः टैबेनस (डांस) वंश की मक्खियों के काटने से होता है। जो इस रोग के लिए उत्तरदायी परजीवी (ट्रिपैनोसोमा) को रक्त चूसने के समय संक्रमित पशु से स्वस्थ पशु को फैलती हैं। ये मक्खियाँ बरसात के मौसम में व बरसात के बाद के समय में अधिक सक्रिय होती हैं।इसलिए इस मौसम मैं पशुओं मैं सर्रा अधिक मिलता हैं। यद्यपि सर्रा के अव्यक्त सक्रंमण पुरे वर्ष मिलते हैं।जब पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता काम होती हैं तब अब्यक्त संक्रमित पशु मैं बीमारी के लक्षण दिखाई देते हैं।
परिचयः
यह रोग भैंस, गाय, अश्व, ऊँट एवं शूकर के साथ-साथ जंगली जानवरों में भी मिलता है। भेड़-बकरियों में भी यह रोग उल्लेखित है।
यह रोग ऊष्णकटिबंधीय जलवायु वाले प्रदेशों में मिलता है, क्योंकि यह जलवायु टैबेनस वंश की मक्खियों के पनपने के लिए अच्छी है।
रोग के लक्षणः
पशुओं की विभिन्न जातियों में सर्रा की प्रकृति और प्रकोप अलग-अलग होते है।
गाय और भैंस में सर्रा मुख्यतः लक्षणहीन रोग है, लेकिन कुछ रोगी पशुओं मैं यह घातक रूप ले लेता हैं।
सर्रा से प्रभावित सभी पशु रक्ताल्पता के शिकार होते हैं और उनमें मांसपेशियों की दुर्बलता देखी जा सकती है।
रोगी पशुओं में ऐडिमा गर्दन, कोख और पैरों के निचले हिस्सों में देखा जा सकता है।
रोगी पशुओं में रूक-रूक कर बुखार आता है।
अधिक घातक स्थिति में प्रभावित पशु अपने बंधे हुए स्थान पर चक्कर काटने लगता है और दीवारों पर या खूंटे से सिर मारने लगता है।
परजीवी गर्भवती मादा पशुओं में नाल के माध्यम से भ्रूण को संक्रमित कर सकता है, जिस कारण से गर्भपात हो जाता है या भ्रूण असामयिक (वक्त से पहले) पैदा हो जाता है।
अश्व वंश के पशुओं में प्रगतिशील दुर्बलता, रक्ताल्पता और ऐडिमा के साथ-साथ गर्दन व बगलों में खाल पर पित्त निकल आते हैं।
पशु को चलने में परेशानी होती है, कई पशु पैर घिसड़ाते हुए चलते है या चलते-चलते गिर जाते हैं।
पशु को नेत्र-शोथ (कंजाइक्टिविटिस) हो जाता है और आँख से टपके आते हैं। कुछ पशुओं की आँख में सफेदी आ जाती है।
सर्रा से ग्रसित ऊँट अपने झुंड से अलग रह जाता है और लम्बी दूरी तक चलने में असमर्थ रहता है।
चिरकालिक अवस्था में ऊँट में यह रोग लम्बी अवधि (तीन साल) तक बना रहता है और पशु की उत्पादन क्षमता को प्रभावित करता है।
चिकित्साः
सर्रा की चिकित्सा के लिए तत्काल पशु चिकित्सक से परामर्श करें।
पशु के तीव्र स्वास्थ्य लाभ के लिए रक्तवर्धक एंव लिवर टाॅनिक देने चाहिए।
पुनर्नवा या गंधपर्णा की पौध एंव जडें, गिलोय और आँवला भी सर्रा के लिए उपयोगी औषधि है।
पशु में रक्ताल्पता को दूर करने के लिए फेरस सल्फेट (10 ग्राम) व काॅपर सल्फेट (5 ग्राम) को 500 ग्राम गुड़ में मिलाकर प्रतिदिन खिलाएं अथवा अश्वगन्धा की पत्तियों या जड़ के 20 ग्राम चूर्ण को 250 ग्राम गुड़ के साथ दिन में एक बार एक सप्ताह तक खिलाएं।
रोकथामः
सर्रा मक्खियों द्वारा फैलता है, अतः मक्खियों की रोकथाम करके सर्रा से बचा जा सकता है। मक्खियों से बचाव के लिए बाड़े में साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए तथा धुआँ एवं कीटनाशक दवाओं का प्रयोग मक्खियों को पशुओं एवं पशुओं के बाड़े से दूर भगाने के लिए किया जाना चाहिए। टैबेनस वंश की मक्खियाँ झाड़ियों में प्रजनन करती है, अतः झाड़ियों को काटकर इन मक्खियाँ की आबादी को नियंत्रित किया जा सकता है।
पशुओं की कुछ नस्लें सर्रा के लिए प्रतिरोधी होती है। ऐसी नस्लों के प्रजनन को बढ़ावा देकर भी पशुओं को सर्रा से बचाया जा सकता है।मारी से प्रभावित क्षेत्रों में पशुओं के खून की नियमित जाँच करनी चाहिए ताकि रोग का पता चलने पर समय रहते रोग पर काबू पाया जा सके।