पशुओं में होने वाले प्रमुख रोग लक्षण एवं उपचार
सौजन्य से – डॉ राजेश कुमार सिंह
दुधारू पशुओं में होने वाले प्रमुख रोग जैसे-गलाघोंटू, लंगड़ा बुखार (ब्लैक कवाटर), बाह्म व अंतः परजीवी, मिल्क फीवर, थनैला, मुंहपका-खुरपका, आदि के लक्षण एवं उपचार निम्नलिखित है।
गलघोंटू रोग:-
यह रोग अधिकत्तर बरसात के मौसम में गाय व भैंसों में फैलता है। यह घूंतदार रोग है। भैंसों में अधिक होता है। इस रोग के मुख्य लक्षण पशु को तेज़ बुखार होना, गले में सूजन, सासं लेना तथा सासं लेते समय तेज़ आवाज़ होना आदि है। पशु के उपचार के लिए एन्टीबायोटिक व एन्टीबैकटीरियल टीके लगाए जाते है अन्यथा पशु की मृत्यु हो जाती है। इस रोग की रोकथम के लिए रोग- निरोधक टीके जिसका पहला टीका तीन माह की आयु में दूसरा टीका व माह में तथा फिर हर साल टीका लगवाना चाहिए। यह टीका निशुल्क विभाग द्वारा लगाए जाते हैं।
गलाघोंटू ( Hemorrhagic Septicemia ) रोग मुख्य रूप से गाय तथा भैंस को लगता है। इस रोग को साधारण भाषा में गलघोंटू के अतिरिक्त ‘घूरखा’, ‘घोंटूआ’ आदि नामों से भी जाना जाता है। इस रोग से पशु अकाल मृत्यु का शिकार हो जाता है। यह मानसून के समय व्यापक रूप से फैलता है। अति तीव्र गति से फैलने वाला यह जीवाणु जनित रोग, छूत वाला भी है। यह Pasteurella multocida नामक जीवाणु के कारण होता है।
गलाघोंटू बहुत खतरनाक रोग है । लक्षण के साथ ही इलाज न शुरू होने पर एक-दो दिन में पशु मर जाता है। इसमें मौत की दर 80 फीसदी से अधिक है। शुरुआत तेज बुखार (105-107 डिग्री) से होती है। पीड़ित पशु के मुंह से ढेर सारा लार निकलता है। गर्दन में सूजन के कारण सांस लेने के दौरान घर्र-घर्र की आवाज आती है और अंतत: 12-24 घंटे में मौत हो जाती है। रोग से मरे पशु को गढ्डे में दफनाएं। खुले में फेंकने से संक्रमित बैक्टीरिया पानी के साथ फैलकर रोग के प्रकोप का दायरा बढ़ा देता है।
रोग के लक्षण:-
इस रोग में पशु को अचानक तेज बुखार हो जाता है एवं पशु कांपने लगता है। रोगी पशु सुस्त हो जाता है तथा खाना-पीना कम कर देता है। पशु की आंखें लाल हो जाती हैं। पशु को पीडा होती है और श्वास लेने में कठिनाई होती है। श्वास में घर्रघर्र की आवाज आती है। पशु के पेट में दर्द होता है, वह जमीन पर गिर जाता है और उसके मुंह से लार भी गिरने लगती है।
रोकथाम:-
अपने पशुओं को प्रति वर्ष वर्षा ऋतु से पूर्व इस रोग का टीका पशुओं को अवश्य लगवा लेना चाहिए। बीमार पशु को अन्य स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए।
जिस स्थान पर पशु मरा हो उसे कीटाणुनाशक दवाइयों, फिनाइल या चूने के घोल से धोना चाहिये।
पशु आवास को स्वच्छ रखें तथा रोग की संभावना होने पर तुरन्त पशु चिकित्सक से सम्पर्क कर सलाह लेवें।
लंगड़ा बुखार (ब्लैक कवाटर):-
यह रोग गाय व भैंसों में होता है। परन्तु गोपशुओं में अधिक होता है। पशु के पिछली व अगली टांगों के ऊपरी भाग में भारी सूजन आ जाती है। जिससे पशु लंगड़ा कर चलने लगता है या फिर बैठ जाता है। तथा सूजन वाले स्थान को दबाने पर कड़-कड़ की आवाज़ आती है। पशु का उपचार शीघ्र करवाना चाहिए क्योंकि इस बीमारी के जीवाणुओं द्वारा हुआ ज़हर शरीर में पूरी तरह फ़ैल जाने से पशु की मृत्यु हो जाती है। इस बीमारी में प्रोकेन पेनिसिलीन काफी प्रभावशाली है। इस बीमारी के रोग निरोधक टीके निःशुल्क लगाए जाते है।
लंगडा बुखार (Blackleg या ‘ब्लैक क्वाटर्स डिजीज’ या BQ) साधारण भाषा में जहरबाद, फडसूजन, काला बाय आदि नामों से भी जाना जाता है। यह रोग प्रायः सभी स्थानों पर पाया जाता है लेकिन नमी वाले क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैलता है। मुख्य रूप से इस रोग से गाय, भैंस एवं भेंड़ प्रभावित होती है। यह रोग छह माह से दो साल तक की आयु वाले पशुओं में अधिक पाया जाता है।
रोग के लक्षण:-
यह रोग गोपशुओं में अधिक होता है। इस रोग म पशु को तेज बुखार आता है तथा उसका तापमान 106 डिग्री फॉरेनाइट से 107 फॉरेनाइट तक पहुंच जाता है। पशु सुस्त होकर खाना पीना छोड देता है। पशु के पिछली व अगली टांगों के ऊपरी भाग में भारी सूजन आ जाती है। जिससे पशु लंगड़ा कर चलने लगता है या फिर बैठ जाता है। तथा सूजन वाले स्थान को दबाने पर कड़-कड़ की आवाज़ आती है। पशु चलने में असमर्थ होता है।
यह रोग प्रायः पिछले पैरों को अधिक प्रभावित करता है एवं सूजन घुटने से ऊपर वाले हिस्से में होती है। यह सूजन शुरू में गरम एवं कष्टदायक होती है जो बाद में ठण्ड एवं दर्दरहित हो जाती है। पैरों के अतिरिक्त सूजन पीठ, कंधे तथा अन्य मांसपेशियों वाले हिस्से पर भी हो सकती है। सूजन के ऊपर वाली चमडी सूखकर कडी होती जाती है।
पशु का उपचार शीघ्र करवाना चाहिए क्योंकि इस बीमारी के जीवाणुओं द्वारा हुआ ज़हर शरीर में पूरी तरह फ़ैल जाने से पशु की मृत्यु हो जाती है। इस बीमारी में प्रोकेन पेनिसिलीन काफी प्रभावशाली है। इस बीमारी के रोग निरोधक टीके लगाए जाते है।
रोकथाम एवं बचाव:-
वर्षा ऋतु से पूर्व इस रोग का टीका लगवा लेना चाहिए। यह टीका पशु को 6 माह की आयु पर भी लगाया जाता है।
रोगग्रस्त पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए।
भेडों में ऊन कतरने से तीन माह पूर्व टीकाकरण करवा लेना चाहिये क्योंकि ऊन कतरने के समय घाव होने पर जीवाणु घाव से शरीर में प्रवेश कर जाता है जिससे रोग की संभावना बढ जाती है।
सूजन को चीरा मारकर खोल देना चाहिये जिससे जीवाणु हवा के सम्पर्क में आने पर अप्रभावित हो जाता है
बाह्य व अंतः परजीवी:-
पशुओं के शरीर पर जुएँ, चिचड़ी तथा पिस्सुओं का प्रकोप:-
पशुओ में जुएँ, पिस्सु व चिचड़ पशुओं की चमड़ी से खून चूसते हैं। तथा पशुओं में खून की कमी आने से कमजोर हो जाते है। तथा उत्पादन कम हो जाता है। अन्य बीमारियां भी हो जाने का खतरा रहता है। चिचड़ियाँ टीका-फीनर का संक्रमण भी कर देती है। इनसे बचाव हेतु तुरन्त दवाइयों का इस्तेमाल पशु चिकित्साक की सलाह से करना चाहिए।
पशुओं में अतः परजीवी प्रकोप :-
अतः परजीवी पशु के पेट, आंतों, लीवर आदि में रहकर उसके खून व खुराक पर निर्वाह करते हैं। जिससे पशु कमजोर हो जाता है तथा अन्य बीमारियाँ भी प्रभावीं होती है। उत्पादन क्षमता कम हो जाती है। पशु के गोबर के नमूनों की जांच करवानी चाहिए और उचित दवा देने से परजीवी नष्ट हो जाते है।
पशुओं के अन्य रोग जो साधारणतः देखने को मिलते है :-
मिल्क फीवर (Milk Fever) दुधारू पशुओं में होने वाला एक प्रमुख रोग:-
यह मेटाबोलिक बीमारी है हालांकि इसका नाम मिल्क फीवर है। परन्तु इसमें जानवर के शरीर का तापक्रम बढने के ब्याज कम हो जाता है। मासपेशियों में कमजोरी श्वास लेने में कठिनाई, जानवर अपना होश गवा देता है। अगर समय पर इलाज नहीं किया जाता है तो जानवर की मृत्यु हो जाती है।
यह रोग जादा दूध देने वाले जानवरों में बहुतापल होता है। क्योंकि अधिक दूध उत्पादन हेतु शरीर को ज्यादा कैल्शियम बन्द कर देता है।व्याने के आखिरी महीनों में होता है। तो उसका राशन (Concentrate) कम कर देते है या बन्द कर देते हैं। जिससे जानवर के शरीर में कैलशियम की कमी आ जाती है। जानवर सुस्त हो जाता है अपनी गर्दन पेट की तरफ घुमा लेता है। और बैठ जाता है। खड़ा होने में असमर्थ हो जाता है।
बचाव:-
धारू पशुओं को राशन में कैलशियम व फास्फोरस चूंक मिनेरल मिक्चर मिलाकर देना चाहिए। व्याने के 10-15 दिनों तक जानवर का सम्पूर्ण दूध नही दुहना चाहिए। कुछ दूध को लेना में ( Udder) रहने देना चाहिए। उपचार: इंजेक्शन कैल्शियम बोरोग्लूकोनेट 400 से 800 (1000 ml) मि॰ली॰ आधा नाड़ी में (1 / v) तथा आधा चमड़ी के ( s / c) नीचे देना चाहिए। तथा पहले बोतल को शरीर तापमान तक कर लेना चाहिए।
थनैला (Mastifis) / मेस्टइटिस:-
थनैला में दूध वाले पशुओं को लेवे (Udduer)में जीवाणुओं जैसे स्ट्रेपटीकीक्स/- स्तेफलोकोक्स या कोलिफोरम के कारण सोज्स आ जाती है तथा लेषा सख्त हो जाता दूध में विकार पैदा हो जाता है।
बचाव:-
दूध निकालने से पहले व बाद में थनों को किसी एंटीसेप्टिक सोलुशन से धोना चाहिए और दूध निकालने के समय लेवे को साफ़ और सूखा रखना चाहिए।
दूध की सही प्रकार निकालना चाहिए जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।
दुग्ध के बर्तनों की साफ़ सुथरा रखना चाहिए। और रोड़ में सफाई रखनी चाहिए।
पशु को मिनरल मिक्चर जिसमें कैल्शियम, वीतामिन-ई, ए, ज़ीक इत्यादि ही देना चाहिए। रोग होने पर सही उपचार करवाना चाहिए।
मुंहपका-खुरपका रोग:-
मुंहपका-खुरपका रोग (Foot-and-mouth disease, FMD या hoof-and-mouth disease) विभक्त-खुर वाले पशुओं का अत्यन्त संक्रामक एवं घातक विषाणुजनित रोग है। यह गाय, भैंस, भेंड़, बकरी, सूअर आदि पालतू पशुओं एवं हिरन आदि जंगली पशुओं को को होती है।
कारण:-
यह रोग पशुओं को, एक बहुत ही छोटे आंख से न दिख पाने वाले कीड़े द्वारा होता है। जिसे विषाणु या वायरस कहते हैं। मुंहपका-खुरपका रोग किसी भी उम्र की गायें एवं उनके बच्चों में हो सकता है। इसके लिए कोई भी मौसम निश्चित नहीं है, कहने का मतलब यह हे कि यह रोग कभी भी गांव में फैल सकता है। हालांकि गाय में इस रोग से मौत तो नहीं होती फिर भी दुधारू पशु सूख जाते हैं। इस रोग का क्योंकि कोई इलाज नहीं है इसलिए रोग होने से पहले ही उसके टीके लगवा लेना फायदेमन्द है।
लक्षण:-
इस रोग के आने पर पशु को तेज बुखार हो जाता है। बीमार पशु के मुंह, मसूड़े, जीभ के ऊपर नीचे ओंठ के अन्दर का भाग खुरों के बीच की जगह पर छोटे-छोटे दाने से उभर आते हैं, फिर धीरे-धीरे ये दाने आपस में मिलकर बड़ा छाला बनाते हैं। समय पाकर यह छाले फल जाते हैं और उनमें जख्म हो जाता है।
ऐसी स्थिति में पशु जुगाली करना बंद कर देता है। मुंह से तमाम लार गिरती है। पशु सुस्त पड़ जाते है। कुछ भी नहीं खाता-पीता है। खुर में जख्म होने की वजह से पशु लंगड़ाकर चलता है। पैरों के जख्मों में जब कीचड़ मिट्टी आदि लगती है तो उनमें कीड़े पड़ जाते हैं और उनमें बहुत दर्द होता है। पशु लंगड़ाने लगता है। दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन एकदम गिर जाता है। वे कमजोर होने लगते हैं। समय पाकर व इलाज होने पर यह छाले व जख्म भर जाते हैं परन्तु संकर पशुओं में यह रोग कभी-कभी मौत का कारण भी बन सकता है।