पशुओ को आफरा से कैसे बचाएं ?

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पशुओ को आफरा से कैसे बचाएं ?

आफरा पशुओं में पाई जाने वाली एक गंभीर बीमारी है। यह मुख्य रूप से जुगाली करने वाले पशुओं जैसे गाय, भैंस, बकरी आदि में होती है। जुगाली करने वाले पशुओं का पेट चार भागों (रूमन, रेटिकुलम, ओमेजम एवं एबोमेजम) में विभाजित होता है। जब पेट के रूमन भाग में किसी कारण से बहुत अधिक गैस बन जाती है, तो इसे आफरा कहते है।

आमतौर पर आफरा गीला चारा खाने से होता है। कई बार अगर किसी कारण से पशु को कब्ज हो जाएं तो भी गैस या आफरा की शिकायत होती है। आफरा होने के निम्न कारण है-
पशुओं को ऐसा भोजन अधिक खाने को देना जिससे कि खाने के तुरन्त बाद ही गैसें उत्पन्न हो जाएं जैसे फलीदार हरे चारे, गाजर, मूली, बंद गोभी आदि विशेषकर जब यह गले-सड़े हो।
बरसीम, जई और दूसरे रसदार हरे चारे, विशेषकर जब यह गीले होते है तो आफरे का कारण बनते है।
पशु को खाने के तुरन्त बाद पेट भर पानी पिलाने से।
गेहूं, मकई आदि जिनमें स्टार्च की मात्रा अधिक होती है, इसे अधिक खा लेने से भी आफरा हो जाता है।
चारे-दाने में अचानक परिवर्तन कर देने से।
भोजन में कीडों या खाई हुई वस्तु से रूकावट होना।
पशु को तपेदिक रोग होना।
पशु को भूमि पर गिराते समय उसके शरीर का बांया भाग नीचे की ओर होना और पशु को काफी समय तक इसी अवस्था में रहने देना।
पेट के किसी भाग में कील, तार या ऐसे ही दूसरे पदार्थ का होना जो कि पच न सकें और पेट की हरकत होने में रूकावट डालें।

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लक्षण:
आफरे के लक्षण स्पष्ट होते है। पशुओं में आफरा होने का बहुत आसानी से पता चल जाता है। पेट का आकार अधिक बढा हुआ दिखाई देता है। पेट दर्द एवं बेचैनी के कारण पशु भूमि पर पैर मारता है व बार-बार डकार लेता है। बेचैनी से देखता है और पेट पर पुंछ मारता है।
गोबर और मूत्र थोड़ी-थोड़ी देर में बार-बार करता है। नाड़ी की गति तेज हो जाती है किन्तु तापमान सामान्य रहता है। पशु चारा-पानी बंद कर देता है और जुगाली नही करता है। दूध देने वाले पशुओं में दूध कम हो जाता है।
पेट का गैस से अधिक फुल जाने के कारण छाती पर दबाव पड़ता है जिससे सांस लेने में तकलीफ होती है। पशु सिर आगे की ओर बढ़ा कर खडा होता है। नथुने चैडे हो जाते है और मुंह खुला रहता है। कुछ पशु पसीने से तर हो जाते है या बेचैन एवं सुस्त दिखाई देते है।
अधिक आफरा होने के कारण पशु की हालत गंभीर हो जाती है जो बडे पशुओं की अपेक्षा भेडों में अधिक गंभीर होती है। कभी-कभी मृत्यु हो जाती है।

उपचारः
आफरा हो जाने पर इलाज में थोडी देर करने से पशु की मृत्यु हो जाती है। इसलिए इलाज में देरी नही करनी चाहिए। सावधानी से काम लेकर निम्नलिखित तरीके से इलाज करना चाहिए-
रोगी पशु का चारा-पानी बिल्कुल बंद कर देवें।
उचित चिकित्सकीय सहायता शीघ्र लेनी चाहिए। यह भी ध्यान रखे कि नाल देते समय पशु की जीभ नहीं पकड़नी चाहिए। यदि दवाई पिलाने के बाद भी आराम न आए तो लगभग 12 घंटे बाद ही दवाई तेल के साथ फिर दी जा सकती है।
आफरा बहुत ही अधिक हो तो पशु की जीभ को हाथ से पकडकर बाहर खीचें। एक रस्सा पशु के पेट पर इस प्रकार से डाले कि यह पेट के नीचे से होकर गुजरे और इसके दोनांे किनारे बांयी और दांयी किल के ऊपर से गुजरे। रस्से का एक किनारा बांयी और दूसरा दायी ओर पकड़ लें पशु के बराबर खडे दोनो आदमी रस्से को अपनी-अपनी ओर खीचें और फिर ढीला छोड दें। इस क्रिया को कई बार करें। जब रस्सा कील से फिसलने लगे तो ठीक स्थान पर रख दें। ऐसा करने से रूमन से गैस निकलने लगेगी और आफरा कम होगा, लेकिन यह क्रिया बडी ही सावधानी से करनी चाहिए। यदि रस्सा खींचते समय पशु गिरने लगे तो रस्सा ढीला कर दें और पशु को गिरने से रोकें।
पशु को ऐसे स्थान पर रखे जो साफ और समतल हो और ताजी हवा भली प्रकार आती हो।
जहां तक संभव हो पशु को आफरे के समय बैठने ना दें एवं टहलाना चाहिए जिससे आफरे में आराम मिलता है।
यदि आफरा बंध के कारण हो तो एनीमा करने से भी लाभ हो सकता है।

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बचाव:
पशु को चारा अथवा आहार देने से पहले ही पानी पिलाना चाहिए।
भोजन में अचानक परिवर्तन नही करना चाहिए।
हरा चारा एवं सूखा चारा सही अनुपात में देना चाहिए।
चारे की मात्रा धीरे-धीरे बढानी चाहिए।
पशु को चराने के बाद आराम करने देना चाहिए।
घर में रखे पशु को कुछ समय घूमाना चाहिए।
पशु को प्रतिदिन घुमाने से पेट एवं स्वास्थ्य ठीक रहता है।

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