पशुपालको द्वारा अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न तथा समाधान

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पशुओं को कितना आहार देना चाहिये?

दूधारू पशुओं में क्षमता अनुसार दूध प्राप्त करने के लिए लगभग 40-50 कि.ग्रा. हरे चारे एवम 2.5 कि. दाने की प्रति किलोग्राम दूध उत्पादन पर आवश्यकता होती है।

यदि हरा चारा पर्यापत मात्रा में उपलब्ध न हो तो क्या दाने की मात्रा बढाई जा सकती है?

हाँ, यदि हरा चारा पर्यापत मात्रा में उपलब्ध न हो तो दाने की मात्रा बढाई जा सकती है।

क्या पशु का आहार घर में बनाया जा सकता है?

हाँ। घर पर दाना मिश्रण बनाने के लिए निम्न छटकों की आवश्यकता होती है:-

(क) खली = 25-35 किलो

(ख) दाना (मक्का, जौई , गेहूं आदि) = 25-35 किलो

(ग) चोकर = 10-25 किलो

(घ) दालों के छिलके = 05-20 किलो

(ङ) खनिज मिश्रण = 1 किलो

(च) विटामिन ए, डी-3 = 20-30 ग्राम

पशुओं के लिए रोज़ घर में दाना मिश्रण बनाने की कोई सामान्य विधि बताएं?

दाना मिश्रण बनाने की घरेलू विधि इस प्रकार है:- 10 किलो दाना मिश्रण बनाने के लिये: अनाज, चोकर और खली की बराबर मात्रा (3. 3 किलो ग्राम प्रति) डाल दें। इस में 200 ग्राम नमक और 100 ग्राम खनिज मिश्रण डालें। दाना बनाने के लिए पहले गेहूं, मक्का आदि को अच्छी दरड़ लें। और खली को कूट लें। यदि खली को कूट नहीं सकते तों एक दिन पहले खली को किसी बर्तन में डालकर पानी में भिगो लें। अगले दिन उसमें बाकि अव्यवों को (दाना,चोकर,नमक,खनिज मिश्रण) इस में मिलाकर हाथ से मसल दें। इस दाने को कुतरे हुए चारे/घास में मिलाकर पशु को खिला सकते हैं।

दुधारू पशुओं को संतुलित आहर कितनी मात्रा में और कब दिया जाए?

इस विषय पर जानकारी दें।  दुधारू पशुओं को आहार उनकी दूध आवश्यकता के अनुसार ही दिया जाना चाहिए। पशुओं का आहार संतुलित होगा जब उसमें प्रोटीन , उर्जा,वसा व खनिज लवण सही मात्रा में ड़ाल दें। देसी गाय को प्रति 2.5 किलो दूध उत्पादन पर आमतौर से 1 किलो अतिरिक्त्त दाना-मिश्रण देना होता है। यह आहार निर्वाह ( शरीर को बनाए रखने के लिए) के अतिरिक्त होना चाहिए। उदाहरण के लिए:- गाय का वज़न = 250 कि. ग्रा (लगभग) दूध उत्पादन = 4 किलो प्रति दिन दी जाने वाली खुराक = भूस/प्राल ४ कि. दाना मिश्रण = 2.85 कि.(1.25 कि. शरीर के निर्वाह के लिए और 1.6 किलो दूध लें)

गाभिन गाय के लिए कितना आहार आवश्यक है?

गाय का वज़न = 250 कि. ग्रा (लगभग) (क) भूस = 4 किलो (ख) दाना मिश्रण= 2.5किलो (1.25 कि.शरीर के निर्वाह के लिये और 1.5 किलो अन्दर बन रहे बच्चे के लिये)

पशुओं के आहर व पानी की दिनचर्या कैसी होनी चहिये?

(क) चारा बांट कर दिन में 3-4 बार खिलना चहिये।

(ख) दाना मिश्रण भी 2 बार बराबर- बराबर खिलाना चहिये।

(ग) हरा और सूखा चारा (भूस और घास) मिश्रित कर खिलाना चाहिये।

(घ) घास की कमी के दिनों साइलेज उपलब्ध कराना चाहिये।

(ङ) दाना, चारे के उपरांत खिलाना चाहीये।

(च) प्रतिदिन औसतन गाय को 35-40 लीटर पानी कि आवश्यकता होती है।

नवजात बछड़ों का पोषण कैसे करें?

अच्छा पोषण ही बछड़ों- बछड़ियों को दूध / काम के लिये सक्षम बनाता है। नवजात बछड़ों के लिये कोलोस्ट्रल (खीस) का बहुत महत्व है। इस से बीमारियों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है। और बछड़े- बछड़ियों का उचित विकास होता है।

बछड़ों- बछड़ियों को खीस कितना और कैसे पिलाना चाहिये?

सबसे ध्यान देने योग्य बात है कि पैदा होने के बाद जितना जल्दी हो सके खीस पिलाना चाहिये। इसे गुनगुना (कोसा) कर के बछड़े के भार का 10 वां हिस्सा वज़न खीस कि मात्रा 24 घंटों में पिलाएं। जन्म के 24 घंटों के बाद बछड़े की आंतों की प्रतिरोधी तत्व (इम्यूनोग्लोब्यूलिन) को सीखने की क्षमता कम हो जाती है। और तीसरे दिन के बाद तो लगभग समाप्त हो जाती है। इसलिए बछडों को खीस पिलाना आवश्यक है।

बछड़ों- बछड़ियों को खीस के इलावा और क्या खुराक देनी चाहिये?

पहले तीन हफ्ते बछडों को उनके शरीर का दसवां भाग दूध पिलाना चाहिये। चौथे और पांचवे हफ्ते शरीर के कुल भाग का 1/15 वां भाग दूध पिलाएं। इसके बाद 2 महीने की उम्र तक 1/20 वां भाग दूध दें। इसके साथ-साथ शुरुआती दाना यानि काफ स्टार्टर और उस के साथ अच्छी किस्म का चारा देना चाहिये।

मिल्क फीवर या सूतक बुखार क्या होता है?

ये एक रोग है जो अक्सर ज्यादा दूध देने वाले पशुओं को ब्याने के कुछ घंटे या दिनों बाद होता है। रोग का कारण पशु के शरीर में कैल्शियम की कमी। सामान्यतः ये रोग गायों में 5-10 वर्ष कि उम्र में अधिक होता है। आम तौर पर पहली ब्यांत में ये रोग नहीं होता।

मिल्क फीवर को कैसे पहचान सकते है?

इस रोग के लक्षण ब्याने के 1-3 दिन तक प्रकट होते है। पशु को बेचैनी रहती है। मांसपेशियों में कमजोरी आ जाने के कारण पशु चल फिर नही सकता पिछले पैरों में अकड़न और आंशिक लकवा की स्थिती में पशु गिर जाता है। उस के बाद गर्दन को एक तरफ पीछे की ओर मोड़ कर बैठा रहता है। शरीर का तापमान कम हो जाता है।

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खूनी पेशाब या हीमोग्लोबिन्यूरिया रोग क्यों होता है?

ये रोग गायों-भैसों में ब्याने के 2-4 सप्ताह के अंदर ज्यादा होता है ओर गर्भवस्था के आखरी दोनों में भी हो सकता है। भैसों में ये रोग अधिक होता है। ओर इसे आम भाषा में लहू मूतना भी कहते है। ये रोग शरीर में फास्फोरस तत्व की कमी से होता है। जिस क्षेत्र कि मिट्टी में इस तत्व कि कमी होती है वहाँ चारे में भी ये तत्व कम पाया जाता है। अतः पशु के शरीर में भी ये कमी आ जाती है। फस्फोरस की कमी उन पशुओं में अधिक होती है जिनको केवल सूखी घास, सूखा चारा या पुराल खिला कर पाला जाता है।

खुर-मुँह रोगकी रोकथाम कैसे कर सकते है?

इस बीमारी की रोकथाम हेतु, पशुओं को निरोधक टीका अवश्य लगाना चाहिये। ये टीका नवजात पशुओं में तीन सप्ताह की उम्र में पहला टीका, तीन मास की उम्र में दूसरा टीका और उस के बाद हर छः महीने में टीका लगाते रहना चाहिये।

गल घोंटू रोग के क्या लक्षण है?

तेज़ बुखार, लाल आँखें , गले में गर्म/दर्द वाली सूजन गले से छाती तक होना, नाक से लाल/।झागदार स्त्राव का होना।

पशुओं की संक्रामक बीमारियों से रक्षा किस प्रकार की जा सकती है?

(क) पशुओं को समय-समय पर चिकित्सक के परामर्श के अनुसार बचाव के टीके लगवा लेने चहिये।

(ख) रोगी पशु को स्वस्थ पशु से तुरन्त अलग कर दें व उस पर निगरानी रखें।

(ग) रोगी पशु का गोबर , मूत्र व जेर को किसी गढ़ढ़े में दबा कर उस पर चूना डाल दें।

(घ) मरे पशु को जला दें या कहीं दूर 6-8 फुट गढ़ढ़े में दबा कर उस पर चूना डाल दें।

(ड़) पशुशाला के मुख्य द्वार पर ‘फुट बाथ’ बनवाएं ताकि खुरों द्वारा लाए गए कीटाणु उसमें नष्ट हो जाएँ।

(च) पशुशाला की सफाई नियमित तौर पर लाल दवाई या फिनाईल से करें।

सर्दियों में बछड़े- बछड़ियों को होने वाली प्रमुख बीमारियों के नाम बताएं।

(क) नाभि का सड़ना (ख) सफेद दस्त। (ग) न्यूमोनिया (घ) पेट के कीड़े (ड़) पैराटाईफाइड़

पशुशाला की धुलाई सफाई के लिये क्या परामर्श है?

पशुशाला को हर रोज़ पानी से झाड़ू द्वारा साफ़ कर देना चाहिये। इस से गोबर व मूत्र की गंदगी दूर हो जाती है। पानी से धोने के बाद एक बाल्टी पानी में 5ग्राम लाल दवाई (पोटाशियम पर्मंग्नते) या 50 मिली लीटर फिनाईल डाल कर धोना चाहिये । इस से जीवाणु ,जूं, किलनी तथा विषाणु इत्यादि मर जाते हैं, पशुओं की बीमारियां नहीं फैलती और स्वच्छ दूध उत्पादन में मदद मिलती है।

संकर पशुओं से कितनी बार दूध निकालना चाहिए?

अधिक दूध देने वाले संकर पशुओं से दिन में तीन बार दूध निकालना चाहिये और दूध निकालने के समय में बराबर का अंतर होना चाहिये। अगर पशु कम दूध देता है तो दो बार (सुबह और शाम को) दूध निकालना उचित है, लेकिन इसके बीच भी बराबर समय होना चाहिये। इस से दूध का उत्पादन बढ़ जाता है और निशचिंत समय पर पशु स्वयं दूध निकलवाने के लिए तैयार हो जाता है।

दुधारू पशुओं को सुखाने का परामर्श डाक्टर क्यों देते है?

ग्याभिन अवस्था में पशु और बच्चे दोनों को अधिक खुराक कि आवश्यकता होती है। अतः ब्याने से तीन माह पहले पशु का दूध निकालना बंद कर देना चाहिये, ताकि आगे ब्यांत में भी भरपूर दूध मिल सके।

पशुओं की गर्मी का पता कैसे लगाया जा सकता है?

(क) पशु की योनि से सफेद लेसदार पदार्थ निकलता है।

(ख) पशु की योनि अन्दर से लाल हो जाती है और उसमें सोजिश आ जाती है।

(ग) पशु बार बार पूंछ उठता है, रंभाता है और बार-बार पेशाब करता है।

(घ) ‘टीजर बुल’ या सांड के द्वारा भी गर्मी का पता लगाया जा सकता है।

ग्याभिन पशु की पहचान कैसे की जा सकती है?

(क) ग्याभिन होने पर पशु दोबारा २०-२१ दिन गर्मी नही आती।

(ख) तीन चार मास में पशु का पेट फूला नज़र आने लगता है।

(ग) पशु कि गुदां में हाथ डाल कर बच्चेदानी का दो में से एक हॉर्न का बढ़ा होना महसूस किया जा सकता है। लेकि यह परीक्षण केवल प्राशिक्षित व अनुभवी पशु चिकित्सक से ही करवाना चाहिये।

बछड़े- बछड़ियों में नाभि का सड़ना क्या होता है? इसकी रोकथाम के उपाय बताएं।

इसे अंग्रेजी में’” नेवल इल “ कहते हैं। नवजात बछड़ों में सफाई की कमी से नाभि में पीप (मवाद) पड़ जाती है। नाभि चिपचिपी दिखाई देती है और उस में सूजन व पीड़ा हो जाती है। बछड़ा सुस्त हो जाता है और जोड़ों के सूजने से लंगडाने लगता है। इसकी रोक थाम के लिये नाभि को किसी कीट नाशक से साफ़ करके टिंक्चर आयोडीन तब तक लगाएं जब तक नाभि सूख न जाए।

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बछड़े- बछड़ियों में सफेद दस्त क्यों होती है?

अंग्रजी में “ व्हाइट सकाऊर “ नामक यह प्राणघातक रोग है जोकि 24 घण्टे में ही बछड़े की मृत्यु का कारण बन सकता है। इसमें बुखार आता है , भूख कम लगती है और बदहज़मी हो जाती है। पतले दस्त होते हैं जिस से बदबू आती है। इस से खून भी आ सकता है। इससे बचाव के लिये बछडों को प्रयाप्त खीस पिलाएं।

बछड़े- बछड़ियों में होने वाले न्यूमोनिया रोग पर प्रकाश डालें।

यह रोग गन्दे व सीलन वाले स्थानों में रहने वाले पशुओं में अधिक फैलता है। यह रोग 3-4 मास के बछड़ों में सबसे अधिक होता है। इस रोग के लक्षण है – नाक व आंख से पानी बहना,सुस्ती, बुखार,साँस लेने में दिक्कत, खांसी व अंत में मृत्यु। इस घातक रोग से बचाव के लिये पशुओं को साफ़ व हवाद बाड़ों में रखें। और अचानक मौसम/तापमान परिवर्तन से बचाएं।

बछड़े- बछड़ियों को पेट के कीड़ों से कैसे बचाया जा सकता है?

दूध पीने वाले बछड़ों के पेट में आमतौर पर लम्बे गोल कीड़े हो जाते हैं। इससे पशु सुस्त हो जाता है, खाने में अरुचि हो जाती है और आँखों की झिल्ली छोटी हो जाती है। इस से बचने के लिये बछड़ों को साफ़ पानी पिलाएं, स्वस्थ बछड़ों को अलग रखें क्योंकि रोगी बछड़ों के गोबर में कीड़ों के अण्डे होते है।

बछड़े- बछड़ियों में पैराटाईफाइड़ रोग के बारे में जानकारी दें।

यह रोग दो सप्ताह से 3 महीने के बछड़ों में होता है। यह रोग गंदगी और भीड़ वाली गौशालाओं में अधिक होता है। इस के मुख्य लक्षण – तेज़ बुखार, खाने में अरुचि, थंथन का सूखना, सुस्ती। गोबर का रंग पीला या गन्दला हो जाता है व बदबू आती है। रोग होते ही पशु चिकित्सक से संपर्क करें।

बछड़ों में पेट के कीड़ों (एस्केरियासिस) से कैसे बचा जा सकता है?

इस रोग की वजह से बछड़े को सुस्ती, खाने में अरुचि, दस्त हो जाते हैं। व इस रोग की आशंका होते ही तुरन्त पशु चिकित्सक से संपर्क करें।

पशुओं में अफारा रोग के क्या-क्या कारण हो सकते है?

(क) पशुओं को खाने में फलीदार हरा चारा, गाजर, मूली,बन्द गोभी अधिक देना विशेषकर जब वह गले सड़े हों।

(ख) बरसीम, ब्यूसॉन , जेई, व रसदार हरे चारे जो पूरी तरह पके न हों व मिले हों।

(ग) भोजन में अचानक परिवर्तन कर देने से।

(घ) भोजन नाली में कीड़ों, बाल के गोले आदि से रुकावट होना।

(ड़) पशु में तपेदिक रोग का होना।

(च) पशु को चारा खिलाने के तुरन्त बाद पेट भर पानी पिलाने से।

पशुओं में अफारा रोग के क्या-क्या लक्षण है?

(क) अफारा रोग के लक्षणभुत स्पष्ट होते हैं। बाईं ओर की कील फूल जाती है और पेट के आकार बढा हुआ दिखाई देता है।

(ख) पेट दर्द और बेचैनी के कारण पशु भूमि पर पैर मारता है और बार-बार डकार लेता है।

(ग) रयुमन का गैसों से अधिक फूल जाने के कारण छाती पर दबाव बढ़ जाता है जिस से साँस ‍लेने में तकलीफ होती है।

(घ) पशु खाना बन्द कर देता है और जुगाली नहीं करता।

(ड़) यह समस्या भेड़ों में अधिक गंभीर होती है और अधिक अफारा होने पर उन की मृत्यु हो जाती है।

पशुओं में अफारा रोग हो जाने पर ईलाज का प्रबंध कैसे करें?

अफारा होने पर इलाज में थोड़ी देरी भी जान लेवा हो सकती है। अफारा होने पर निम्नलिखित उपाय करे जा सकते है:-

(क) रोगी का खाना तुरन्त बन्द कर दें।

(ख) तुरन्त डाक्टर से संपर्क करें। ध्यान रहें की दवाई देते समय पशु की जुबान न पकडें।

(ग) जहां तक हो सके पशु को बैठने न दें व धीरे-धीरे टहलाएं। इससे अफारे में आराम मिलेगा। (घ) पशु को साफ व समतल जगह पर रखें।

(ङ) अफारा का इलाज बहुत सरल है व केवल एक चिकित्सक की मदद से हो जाता है इसलिये डाक्टरी सहायता लेना ठीक रहता है।

(च) अफारा उतर जाने पर तुरन्त खाने को नही देना चाहिये जब तक पेट अच्छे से साफ़ ‌न हो जाए।

पशुओं में अफारा रोग से कैसे बचाव करना चाहिये?

(क) पशुओं को चारा डालने से पहले ही पानी पिलाना चाहिये।

(ख) भोजन में अचानक परिवर्तन नहीं करना चाहिये।

(ग) गेहूं, मकाई या दूसरे अनाज अधिक मात्रा में खाने को नहीं देने चाहिये।

(घ) हर चारा पूरी तरह पकने पर ही पशुओं को खाने देना चाहिये।

(ड़) पशुओं को प्रतिदिन कुछ समय के लिये खुला छोड़ना चाहिये।

पशुओं में लंगड़ा बुखार कब और कहाँ होता है?

यह रोग बरसात शुरू होते ही फैलने लगता है। गर्म और आद्र क्षेत्रों में यह रोग आमतौर पर होता है। जिस जगह यह रोग एक बार हो जाए वहाँ ये प्रायः हर वर्ष होता है। इस रोग का हमला एक साथ बहुत से पशुओं पर तो नहीं होता पर जो पशु इस की चपेट में आ जाए वो बच नहीं पाता। इस रोग को “ब्लैक क्वार्टर”, “ब्लैक लैग” व पुठटे की सूजन का रोग भी कहते हैं।

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लंगड़ा बुखार होने का क्या कारण है?

यह रोग गौ जाति के पशुओं में क्लोस्ट्रीड़ियम सैप्टिकनामक कीटाणु से होता है। ये कीटाणु पशु के रक्त में नही बल्कि रोगी की माँस-पेशियों व मिट्टी तथा खाने-पीने की वस्तुओं में पाया जाता है।

पशुओं में लंगड़ा रोग के लक्षण बताएं?

पशुओं में लंगड़ा रोग के निम्नलिखित लक्षण है:-

(क) पशु पिछली टांगों से लड़खड़ता है व कांपता है।

(ख) पुठठों में सूजन आ जाती है।

(ग) शरीर के अधिक मास वाले भाग (गर्दन,कंधे,पीठ,छाती आदि) में भी सूजन हो सकती है। (घ) सूजे हुए भाग पहले सख्त, पीड़ादायक व गर्म होते हैं। इन में एक प्रकार की गैस पैदा हो जाति है। रोग के लक्षण प्रकट होने के 48 घण्टे में रोगी की मृत्यु हो जाती है।

पशुओं में लंगड़ा रोग का इलाज कैसे करना चाहिये?

एंटीबायोटिक दवाओं का टीका लाभकारी होता है। लेकिन ये टीका आरम्भ में ही लाभदायक होते हैं।

पशुओं को लंगड़ा रोग से कैसे बचाएं?

जिस क्षेत्र में यह रोग होता है वहाँ के पशुपालक अपने 4 मास से 3 वर्ष के सभी गौ जाति के पशुओं को इस रोग के बचाव का टीका अवश्य लगवाएँ। इस टीके का असर 6 माह तक रहता है। मई में यह टीका अवश्य लगवा लेना चाहिये। भेड़ों में उन कतरने या बच्चा देने से पहले यह टीका लगवा लेने चाहिये।

पशुओं में लंगड़ा रोग फैलने पर क्या करना चाहिये?

(क) पशु चिकित्सक से तुरन्त संपर्क कर के बचाव टीका (वैक्सीन) पशुओं को लगवा लेना चाहिये।

(ख) रोग कि छूत फैलने से रोकने के लिये मरे पशुओं व भूमि में 2-2.5 मीटर की गहरई तक चूने से ढक कर दबा देना चाहिये।

(ग) जिस पशुघर में किसी पशु की मृत्यु हुई हो उसे फिनाईल मिले पानी से धोने चाहिये। कच्चे फर्श की 15 सेंटीमीटर गहरी मिट्टी में चूना मिला कर वहाँ बिछा दें।

पशुओं में लंगड़ा रोग की छूत कैसे लगती है?

गौ जाति के पशुओं में इस रोग कि छूत खाने-पीने की वस्तुओं द्वारा फैलती हैं। भेड़ों में यह रोग ऊन उतारने , पूछँ काटने और नपुँसक करने के पश्चात ही होता है।

हिमाचल प्रदेश में गाय-भैंस के प्रमुख जीवाणु जनित रोग कौन-कौन से है?

गाय-भैंस के प्रमुख जीवाणु जनित रोग:- एंथ्रेक्स (तिल्ली रोग) –  टूय्ब्र्कूलोसिस (क्षय रोग) -H.S. (गलघोंटू) – ब्रूसलोसिस –  बलैक क्वाट़र (लंगड़ा बुखार) –     टिटेनस – मस्टाइटिस (थनैला रोग)।

हिमाचल प्रदेश में भेड़-बकरियों के प्रमुख जीवाणु जनित रोग कौन-कौन से है?

भेड़-बकरियों के प्रमुख जीवाणु जनित रोग :-

मिश्रित कोलेस्ट्रिड़ियल संक्रामक रोग –     ब्रूसलोसिस –  फूटराटॅ(खुर पका) –  कन्तेजियस कैपराइनॅ प्लूरोन्यूमोनिया(C.C.P.P.)

हिमाचल प्रदेश में घोड़ों के प्रमुख जीवाणु जनित रोग कौन-कौन से है?

घोड़ों के प्रमुख जीवाणु जनित रोग:-

टिटेनस – ग्ले्न्डरस (Glanders) – स्ट्रैंग्लस (Strangles)

संक्रामक रोग क्या होते है?

सूक्ष्मजीवीजनित रोग जैसे जीवनाणु, विषाणु, फंफूद, माइकोपलाज्मा इत्यदि जनित रोगों को संकामक रोग खते हैं। उदाहरणतः एँथरेकस (तिलली रोग), टूयबरकूलोसिस (क्षय रोग), मुहँ-खुर पका , गलघोंटू इत्यादि।

संक्रामक रोग कैसे संक्रामित होते हैं?

संक्रामक रोग मुखयतः संक्रामक रोगवाहको के सीधे समपर्क में आने से संक्रमित खाद्य पदार्थों पेय वसतुओं और इसके अलावा संक्रमित वयक्ति एवमं पशु भी इन रोगों को स्वसथ वयक्तियों एवमं पशुओं को संक्रमित करने में शयक होते हैं।

संक्रामक रोग छूआछूत रोगों से किस प्रकार भिन्न हैं ?

छूआछूत रोग संक्रामित व्यक्तियों एवं पशुओं के निकट संपर्क में आने से ही फैलता है जबकि संक्रामक रोग निकट सम्पर्क के अलावा संक्रमित खाद्य पदार्थ, पेयवस्तु एवंम संक्रामित कपड़े विद्वावन वर्तन इत्यादि द्वारा भी फैल सकते है। (सभी छुआछूत रोग संक्रामक रोग होते हैं परन्तु सभी संक्रामक रोग छुआछूत के रोग नहीं होते हैं!)

हिमाचल प्रदेश में गाय-भैंस के प्रमुख विषाणु जनित रोग कौन-कौन से है?

गाय-भैंस के प्रमुख विषाणु जनित रोग-

फुट एवं माउथ (मुहँ-खुर पका) रोग –      इन्फैक्सियस बोआइन राइनोट्रैकाईटिस (IBRT) -बोआइन वाइरल डायरिया (B.V.D) – इपैम्हरल फीवर

हिमाचल प्रदेश में भेड़-बकरियों के प्रमुख विषाणु जनित रोग कौन-कौन से है?

भेड़-बकरियों के प्रमुख विषाणु जनित रोग:-

मुहँ-खुर पका रोग –  पेस्टि-डिस्-पेटाइरिस रूमिनैन्ट्स (PPR) – कान्टैजियस् इक्थाइमा (Orf) – ब्लू टँग

संक्रामक रोगों के प्रमुख लक्षण क्या है?

संक्रामक रोगों के प्रमुख लक्षण निम्न है:- –

तीव्र ज्वर –   भूख ना लगना –     सुस्ती -सूखी थोंथ –  कमजोर रूमिनल गति अथवा पूर्ण रूप से स्थिर होना –      दुग्ध उत्पादन में अचानक कमी –   नाक-आँख से स्त्राव – दस्त या कब्ज का होना –   जमीन पर गिर जाना – लेट जाना

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