by Dr. Amandeep Singh
पीपीआर रोग विषाणु जनित एक महत्वपूर्ण रोग है जिससे बकरियों में अत्यधिक मृत्यु होती है, इसलिए पीपीआर रोग को ‘बकरियों में महामारी‘ या ‘बकरी प्लेग‘ के नाम से भी जाना जाता है। एक अध्ययन के अनुसार पीपीआर रोग से भारत में बकरी पालन के क्षेत्र में सालाना साढ़े पाँच हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है। इसमें मृत्यु दर प्रायः 50 से 80 प्रतिशत तक होती है जोकि अत्यधिक गंभीर स्थिति में बढ़कर 100 प्रतिशत हो सकती है। यह रोग विशेषकर कम उम्र के मेमनों और कुपोषण व परजीवियों से ग्रसित बकरियों में अति गंभीर एवं प्राणघातक सिद्ध होता है। रोग से निर्मुक्त होकर बकरियाँ जीवन पर्यन्त प्रतिरक्षित हो जाती हैं।
पीपीआर रोग का कारक
‘मोरबिल्ली’ नामक विषाणु का संबंध पैरामिक्सोविरिडी परिवार से है। इसी परिवार में मानव जाती में खसरा रोग पैदा करने वाला विषाणु भी पाया जाता है। पीपीआर विषाणु 60 डिग्री सेल्सियस पर एक घंटे रखने पर भी जीवित रहता है परंतु अल्कोहॉल, ईथर एवं साधारण डिटर्जेंट्स के प्रयोग से इस विषाणु को आसानी से नष्ट किया जा सकता है।
पीपीआर रोग का प्रसार
मूलतः यह बकरियों और भेड़ों का रोग है।
बकरियों में रोग अधिक गंभीर होता है।
मेमने, जिनकी आयु 4 महीनों से अधिक और 1 वर्ष से काम हो, पीपीआर रोग के लिये अतिसंवेदनशील होते हैं।
मनुष्यों में यह रोग होना असंभव है।
नजदीकी स्पर्श या संपर्क और निवास से बकरियों में पीपीआर की महामारी फैलती है।
बीमार बकरी की आँख, नाक, व मुँह के स्राव तथा मल में पीपीआर विषाणु पाया जाता है।
बीमार बकरी के खाँसने और छींकने से भी तेजी से रोग प्रसार संभव है।
तनाव, जैसे ढुलाई, गर्भावस्था, परजीविता, पूर्ववर्ती रोग (चेचक) इत्यादि, के कारण बकरियाँ पीपीआर रोग के लिए संवेदनशील हो जाती हैं।
नैदानिक पीपीआर को निम्न परिस्थितियों के होने से जोड़कर भी देखा जाता है-
(1) हाल में विभिन्न आयु की बकरियों और भेड़ों का स्थानांतरण अथवा जमाव
(2) बकरियों के बाड़े अथवा चारे में अकस्मात बदलाव
(3) समूह में नए खरीदे गए पशुओं को सम्मिलित करना
(4) मौसम में बदलाव
(5) पशुपालन एवं आयात-निर्यात की नीतियों में बदलाव
पीपीआर रोग के लक्षण
रोग के घातक रूप में प्रारम्भ में उच्च ज्वर (40 से 42 डिग्री सेल्सियस) बहुत ही आम है।
बीमार बकरियों में नीरसता, छींक तथा आँख व नासिका से तरल स्राव देखा जाता है। इस अवस्था के दौरान पशुपालक अक्सर सोचता है कि बकरियों को ठण्ड लग गयी है और वह उन्हें सिर्फ ठण्ड से बचाने का प्रयत्न करता है।
दो से तीन दिन के पश्चात मुख और मुखीय श्लेष्मा झिल्ली में छाले और प्लाक उत्पन्न होने लगते हैं।
इसी समय बकरियों के मुँह से अत्यधिक बदबू आने लगती है और पीड़ाकर मुँह व सूजे हुए ओंठों के कारण चारा ग्रहण करना असंभव हो जाता है।
तत्पश्चात आँखों का चिपचिपा या पीपदार स्राव सूखने पर आँखों और नाक को एक परत से ढक लेता है जिससे बकरियों को आँख खोलने और साँस लेने में तकलीफ होती है।
ज्वर आने के तीन से चार दिन के पश्चात बकरियों में अतितीव्र श्लेष्मा युक्त अथवा खूनी दस्त होने लगते हैं।
द्वितीयक जीवाणुयीय निमोनिया के कारण बकरियों में साँस फूलना व खाँसना आम बात है। गर्भित बकरियों में पीपीआर रोग से गर्भपात भी हो सकता है।
संक्रमण के एक सप्ताह के भीतर ही बीमार बकरी की मृत्यु हो जाती है।
पीपीआर का उपचार एवं रोकथाम
सर्वप्रथम पशुपालक को झुण्ड की स्वस्थ बकरियों की पहचान कर शीघ्र ही उन्हें बीमार बकरियों से अलग बाड़े में रखना महत्वपूर्ण है। इसके बाद ही रोगी बकरियों का उपचार प्रारम्भ किया जाना चाहिए।
विषाणु जनित रोग होने के कारण पीपीआर का कोई विशिष्ट उपचार नहीं है। हालाँकि जीवाणु और परजीवियों को नियंत्रित करने वाली दवाओं के प्रयोग से मृत्यु दर कम की जा सकती है।
फेफड़ों के द्वितीयक जीवाणुयीय संक्रमण को रोकने के लिए ऑक्सिटेट्रासायक्लीन और क्लोरटेट्रासायक्लीन औषधियां विशिष्ट रूप से अनुशंसित है।
आँख, नाक और मुख के आस पास के जख्मों की रोगाणुहीन रुई के फाहे से दिन में दो बार सफाई की जानी चाहिए. वर्तमान में माना जाता है कि द्रव चिकित्सा और प्रतिजैविक दवाओं जैसे एनरोफ्लोक्सासिन एवं सेफ्टीऑफर के साथ पांच प्रतिशत बोरोग्लिसरीन से मुख के छालों की धुलाई से बकरियों को अत्यधिक लाभ मिलता है।
बीमार बकरियों को पोषक, स्वच्छ, मुलायम, नम और स्वादिष्ट चारा खिलाना चाहिए। पीपीआर से महामारी फैलने पर तुरंत ही नजदीकी सरकारी पशु-चिकित्सालय में सूचना देनी चाहिए।
मृत बकरियों को सम्पूर्ण रूप से जला कर नष्ट करना चाहिए। साथ ही साथ बाड़े और बर्तनों का शुद्धीकरण भी जरुरी हैI
पीपीआर से बचाव का एकमात्र कारगर उपाय
रक्षा पी पी आर:पी पी आर के खिलाफ असरदार उपाए
बकरियों का टीकाकरण ही पीपीआर से बचाव का एकमात्र कारगर उपाय है।
पीपीआर का टीका चार महीने की उम्र में एक मि.ली. मात्रा में त्वचा के नीचे दिया जाता है। इससे बकरियों में तीन साल के लिए प्रतिरक्षा आ जाती है।
सभी नरों और तीन साल तक पाली हुयी बकरियों का दोबारा से टीकाकरण करना चाहिए।
पशुपालक को टीकाकरण के तीन हफ्तों तक बकरियों को तनाव मुक्त रखना जरुरी है।
लेखक
डॉ. विवेक जोशी
पीएचडी शोध छात्र, औषधि विभाग, भाकृअनुप-भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान, इज्जतनगर, बरेली, यूपी