ब्रायलर की ब्रूडिंग मैनेजमेंट
सिर्फ पोल्ट्री में ही नहीं,लगभग हर क्षेत्र में यह माना जाता है कि एक अच्छी शुरुवात कामयाबी का आधा फासला तय
करने के बराबर ही होती है। पोल्ट्री हमेशा से इस मान्यता का सत्यापन करती आई है।
पहले सात दस दिन की तैयारी ब्रायलर में और अच्छी ग्रोवर की तैयारी को लेयर में बहुत महत्वपूर्ण माना गया है।
ब्रायलर की ब्रूडिंग मैनेजमेंट यानी पहले सात दिन की व्यवस्था भी अपने आप में इतना बड़ा विषय है कि एक मैसज
में समाया नहीं जा सकता, फिर भी फार्मर भाइयों की मांग पर इसके कुछ विशेष पहलुओं पर रौशनी डाल रहा हूँ।
चूज़े जब अंडे से बाहर आते हैं और लंबी यात्रा कर के आपके पास आते हैं, तो उनकी कुछ विशेष जरूरतें होती है। इन्हें
समझ कर पूरा कर सकें तो जीत अपनी है। इन्हें पूरा करना ही लक्ष्य है, तरीके कई हो सकते हैं।
इन जरूरतों के नाम निम्नलिखित हैं।
1) पीने योग्य तापमान पर साफ़ पानी
2) फ़ार्म का और भूसी का सही तापमान व आर्दता (नमी)
3) पर्याप्त जगह, परंतु अत्याधिक जगह नहीं।
4) आसानी से उपलब्ध पानी और दाना
5) पर्याप्त रोशनी
6) साफ़ सुथरा बीमारी मुक्त फ़ार्म
7) एनर्जी का जरिया
8) इलेक्ट्रोलाइट
9) प्रोबियोटिक
10) विटामिन
11) जहाँ जरूरत हो एंटीबायोटिक ।
12) समय समय पर खाना खाने के लिए याद दिलाने वाला व जगाने वाला व्यक्ति।
इन सब लक्ष्यों को पाने के लिए सबके अपने तरीके हैं। मेरा तरीका मै साझा कर रहा हूँ।
पानी का तापमान 20-25 सेल्सियस हो और किसी दवा जैसे की एसीडीफायर, सैनिटाइजर या दोनों की मदद से साफ़
किया हो।
फार्म और भूसी का सही तापमान पाने के लिए बच्चा आने के पहले से ही ब्रूडर चला कर तापमान नियंत्रित कर ले।
पहले हफ्ते 90 F का तापमान और 60 % RH (नमी) को सही माना गया है।
पर्याप्त जगह के लिए, ठंडी में 0.35 से लेकर गर्मी में 0.5 वर्ग फ़ीट तक प्रति चूज़े को जगह दे सकते हैं। इसके लिए
राउंड ब्रूडिंग अभी भी बहुत कारगर तरीका है। यदि 15 फ़ीट व्यास और 1.5 फ़ीट ऊंचाई का घेरा बनाये (ब्रूडर गार्ड) तो
उसमें लगभग 175 वर्ग फ़ीट क्षेत्र फल बनेगा जो की ठंडी में 500 बच्चो और गर्मी में 400 बच्चो के लिए पर्याप्त है।
ऐसा एक घेरा बनाने के लिए लगभग 47 फ़ीट शीट लगेगी। कार्ड बोर्ड, प्लास्टिक और मेटल प्रायः इस्तेमाल किया
जाता है।
इससे बच्चे अधिक भागकर एनर्जी भी नहीं गवाएंगे। बीमारिया भी सीमित होंगी, अगर स्पॉट ब्रूडिंग या इलेक्ट्रिक
ब्रूडिंग करेंगे तो ज्यादा कारगर होगा, दाना पानी आसानी से मिल पायेगा और तापमान कम ज्यादा होने का संकेत
खुद बच्चे दे देंगे। हालांकि ज्यादा तर ये व्यवस्था लोग सिर्फ ठंडी में करते हैं, इसे कुछ सुधार के साथ हर मौसम में
किया जा सकता है।
पहले 3 दिन पेपर फीडिंग, पहले सप्ताह टायर फीडिंग, प्लेट फीडिंग, मिनी ड्रिंकर् लगाने से बच्चे दाना पानी आसानी
से ढूंढ पाते हैं। फिर धीरे धीरे इन्हें हटाया जा सकता है।
पेपर फीडिंग के लिए 20 ग्राम दाना प्रति चूज़े के हिसाब से हिसाब करके उसे छोटे छोटे ढेर के तौर पर रखने से दाने की
बर्बादी कम होती है। घंटे घंटे पर थोड़ा बहुत दाना इस तरह से छिड़के की कागज़ पर उसकी आवाज आये और बच्चे
उसको खाने के लिए ढूंढे।
गत्ते से बच्चा निकलते समय यदि 10 प्रतिशत बच्चो का मुंह पानी और दाने में छुआया जाये तो सभी बच्चे दाना पानी
जल्दी ढूंढ सकेंगे।
रोशनी पहले सप्ताह 25 लक्स और उसके बाद 10 लक्स होनी चाहिए। उसकी इंटेंसिटी/ तेजी/ उग्रता बहुत ज्यादा
ना हो वरना बच्चे एक दुसरे को चोंच मारेंगे। पह्ले दिन 24 घन्ते, दूसरे दिन से 7 वे दिन 23 घन्ते रोशनी दे/
थर्मा मीटर बच्चे से जमीन से 1.5 फ़ीट ऊपर और बुखारी या ब्रूडर से 1.5 से 2 फ़ीट दूर होना चाहिए।
पानी बच्चे के आने के पहले ही उपलब्ध होना चाहिए। दाना कब देना चाहिए इस पर बहुत मत भेद है। पुरानी मान्यता
थी की दाना देर से और कम प्रोटीन का देने से योल्क गलने में सहायता मिलती है। नयी रिसर्च कहती है कि जब बच्चा
पानी ढूंढ ले, तब यानी लगभग 2-3 घंटे बाद से दाना दिया जाना चाहिए। दाना खाने से योक बेहतर ही गलता है।
ब्रूडिंग की दवाइयां बहुत ही मतभेद वाला और विवादस्पद मुद्दा है।लोग गुड़, सोडा, नौसादर से बच्चो का स्वागत
करते आये हैं, लेकिन अब बच्चो की जरूरत को ध्यान में रख कर नए नए उत्पाद आ गए हैं। ऐसे में इन पुराने तरीको
के पर्याय उपलब्ध हैं। पुराने तरीको से सीख लेते हुए नए व वैज्ञानिक तरीके से काम करना समय की मांग है। मेरा
तरीका भी इसी सोच पर आधारित है।
प्रोबीओटिक बहुत आवश्यक है। माँ के पहले दूध की तरह आंत में अच्छे बैक्टीरिया की कॉलोनी बनाता है। अच्छे
इलेक्ट्रॉल के साथ ये अक्सर दिया होता है। ना हो तो अलग से जरूर डाले।
भूखे प्यासे बच्चे के लिए इलेक्ट्रॉल बहुत ज्यादा जरूरी है वरना वो पानी का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे। नौसादर और
सोडा जैसी चीज़े भी इलेक्ट्रॉल में अक्सर होती हैं।
ग्लूकोस यानी एनर्जी का जरिया भी ज्यादा तर उत्पादों में उपलब्ध है। कुछ उत्पादों में एनर्जी के तुरंत उपलब्ध होने
वाले और धीरे धीरे उपलब्ध होने वाले दो तरह के शक्कर उपलब्ध हैं, और इनसे फायदा लिया जा सकता है। ज्यादातर
उत्पादों में विटामिन सी भी उपलब्ध है। अतः सिर्फ अच्छा इलेक्ट्रॉल इस्तेमाल करके आप बच्चे की ज्यादातर
जरूरतों का ध्यान रख सकते हैं।
इसके बाद विटामिन ए, डी, ई, सी, और विटामिन बी समूह के उत्पाद भी उपलब्ध हैं जिन्हें सूचि में शामिल किया जा
सकता है।
वैक्सीनेशन के इर्द गिर्द विटामिन ई -सेलेनियम का उपयोग लाभप्रद माना गया है।
जहाँ गाउट या किडनी सम्बंधित दिक्कत देखने मिलती हैं, वहां किडनी टॉनिक का उपयोग भी किया जाता है। पानी न
मिलने से, बीमारी के चलते, व गलत गुणवत्ता के गुड़ के उपयोग से भी किडनी पर तकलीफ पड़ती है, जिस वजह से
किडनी टॉनिक पारंपरिक तौर से इस्तेमाल होता आया है।
आखिर में सबसे मुश्किल मुद्दा एंटीबायोटिक का। उपयोग करे की नहीं, करें तो कौन सी करे। इसका एक साधारण
जवाब नहीं होता। यदि पानी साफ़ हो और बच्चा स्वस्थ आया हो तो प्रोबीओटिक की मदद से ब्रूडिंग संभव है, लेकिन
दुर्भाग्य वश जिस स्तर की मैनेजमेंट हम छोटे और मध्य स्तर के फामर करते हैं, जैसा पानी और चूज़े हमें उपलब्ध है,
अभी शायद हम पूरी तरह से ब्रूडिंग एंटीबायोटिक हटाने के लिए तैयार नहीं हैं।
(ऐसा मेरा तत्कालीन अनुभव है)
ऐसे में एंटीबायोटिक वो सही जो (सी. आर.डी) और ई. कोलाई दोनों से कुछ राहत दे, जो दवा उस समय मुर्गी या
मनुष्य के ईलाज के लिए इस्तेमाल ना हो रही हो, और जो लिवर किडनी तथा अन्य अंगों पर बहुत ज्यादा बुरा प्रभाव
ना डालती हो।
ऐसे में एक से अधिक दवाई का मिश्रण भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
मुझे उम्मीद है कि इस लेख से ज्यादा तर जिज्ञासा शांत हुई होगी तो बहुत सी जागी भी होगी। ऐसे में संपर्क करके
अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
डॉ प्रवीण सिंह
रोग विज्ञान विशेषज्ञ।
9161000400