मछलि का पालन -भाग 2

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हिमाचल प्रदेश में ट्राउट का उत्पादन

  1. परिचय
  2. साइट का चयन
  3. तालाबों का निर्माण
  4. तालाब में जल की आपूर्ति
  5. एक ट्राउट फार्म के लिए आवश्यक भौतिक-रासायनिक मानक
  6. सेवन योग्य आकार की मछली
  7. स्वच्छता

परिचय

भारत के हिमाचल प्रदेश में ट्राउट की अधिकता को देखते हुए ज़ोन दो और तीन में अत्यधिक बहुमूल्य मछली “रेनबो ट्राउट” की पैदावार के लिए विशाल क्षमता का निर्माण हुआ है। इन दो क्षेत्रों के तहत कृषि के लिए मौसमी परिस्थितियां शीतजलीय कृषि के लिए बेहद अनुकूल हैं। हाल ही में मिले संकेत इंगित करते हैं कि ट्राउट कम ऊंचाई पर 1000 एमएसएल तक पैदा की जा सकती है, बशर्ते जल की अधिकतम गुणवत्ता और मात्रा सुनिश्चित की जाए।

साइट का चयन

ट्राउट की पैदावार के लिए इस तरह का स्थान चुनना चाहिए जहां नदी, झरने जैसे बारहमासी स्रोत के माध्यम से उचित गुणवत्ता और मात्रा में पानी उपलब्ध हो।

तालाबों का निर्माण

ट्राउट मछली की पैदावार के लिए सीमेंट के पुख्ता तालाब/ रेस वे की आवश्यकता होती है। आयताकार तालाब गोल कुंड से बेहतर होते हैं। एक ट्राउट रेस वे का किफायती आकार 12-15 एम x 2-3 एमएस x1.2 -0.5 एम होना चाहिए जिसमें पानी की आवक और अतिप्रवाह एक तारजाल स्क्रू से कसा होना चाहिए ताकि पैदा की गई प्रजाति के निकास को रोका जा सके। पैदावार की उचित सुविधा तथा समय-समय पर टैंक की सफाई की सुविधा के लिए तालाब के पेंदे में एक ड्रेन पाइप होनी चाहिए|

तालाब में जल की आपूर्ति

ट्राउट के तालाब में पानी की आपूर्ति एक फिल्टर/ अवसादन टैंक के ज़रिए होनी चाहिए। इस क्षेत्र में विशेष रूप से मानसून के मौसम में गाद की बहुत समस्या होती है जब पानी मटमैला होता है, जो ट्राउट की पैदावार के लिए अच्छा नहीं है। एक ट्राउट फार्म के लिए पानी की मात्रा भंडारण के घनत्व, मछली के आकार के साथ ही पानी के तापमान से संबंधित है। इसलिए, यह आवश्यक है कि पानी का प्रवाह बहुत ध्यान से नियामित किया जाए। उदाहरण के लिए, 30,000 फ्राइज़ के लिए 15 लीटर/ मिनट पानी चाहिए, 250 ग्राम से कम की मछली के लिए 10-12 डिग्री सेंटीग्रेड पर 0,5 लीटर/किग्रा/मिनट प्रवाह की आवश्यकता है। उपर्युक्त किफायती आकार के पानी के टैंक में पानी का 15 डिग्री सेंटीग्रेड पर 5-50 ग्राम फिंगरलिंग्‍स के भंडारण के लिए 52 घन मीटर प्रति घंटा होना चाहिए। इस प्रकार, पानी का प्रवाह ऐसे नियंत्रित किया जाता है कि मछलियां एक जगह पर इकट्ठा नहीं हों और तेजी से चलें भी नहीं। पानी के तापमान में वृद्धि के साथ पानी का प्रवाह भी बढ़ाया जाना चाहिए।

एक ट्राउट फार्म के लिए आवश्यक भौतिक-रासायनिक मानक

ट्राउट की सफल पैदावार के लिए जिम्मेदार भौतिक-रासायनिक मानक हैं तापमान, घुलनशील ऑक्सीजन, पीएच और पारदर्शिता।

तापमान : मछली 5 से 18 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान सीमा के भीतर अच्छी तरह से पनपती है, लेकिन ऐसा पाया गया है कि यह 25 डिग्री सेंटीग्रेड तक तापमान बर्दाश्त कर सकती है और इसमें मछलियों की मौत नहीं होती। हालांकि, मछलियों की अधिकतम वृद्धि 10 से 18 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान सीमा के भीतर पाई जाती है।

घुलनशील ऑक्सीजन : ऑक्सीजन सांद्रता की सीमा 5.8-9.5 मिलीग्राम/लीटर है। यदि ऑक्सीजन सांद्रता 5 मिलीग्राम/लीटर हो तो पानी का प्रवाह बढ़ाना उचित होगा।

पीएच : ट्राउट के लिए न्‍यूट्रल या थोड़ा क्षारीय पीएच सबसे अच्छा है। सहन करने योग्य पीएच के न्यूनतम और अधिकतम मान क्रमशः 4.5 और 9.2 हैं, हालांकि, यही पीएच रेंज इस मछली के विकास के लिए आदर्श है।

पारदर्शिता : एकदम पारदर्शी पानी की जरूरत होती है और उसमें ज़रा भी गन्दगी नहीं होनी चाहिए। गंदगी का जमाव 25 सेमी से अधिक नहीं होना चाहिए।

भंडारण का घनत्व : यह जल आपूर्ति, पानी के तापमान, गुणवत्ता/पानी और चारे के प्रकार के साथ संबंधित है। यदि पानी का तापमान 20 डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर है, तो भंडारण का घनत्व सुझाए गए घनत्व से कम रखा जाना चाहिए। फ्राई फिंगरलिंग्‍स (5 से 50 ग्राम) का भंडार पानी की प्रति घन मीटर सतह पर 20 किलो मछली की दर से किया जाता है।

चारे की आपूर्ति : चारे की मात्रा मुख्य रूप से पानी के तापमान और मछली के आकार पर निर्भर करती है। यदि पानी का तापमान 18 डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर है, तो सुझाए गए चारे को आवश्यकता का ठीक आधा कर देना चाहिए और 20 डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर चारा देना बंद करना ही बेहतर होगा। आसमान में बादल छाने पर या मटमैला पानी होने पर भी चारा नहीं देना चाहिए।

चारा उपलब्‍ध कराने का एक व्यावहारिक फॉर्मूला नीचे दिया गया है:

घटक घटक की दर 10 किलो चारा तैयार करने के लिए मात्रा ( किलो)
मछली का भोजन 50 5
सोयाफ्लेक 10 1
मूंगफली का केक 20 2
गेहूं का आटा 10 1
अलसी का तेल 9 0.9
सप्लेविट – एम् 1 0.1
कॉलिन क्लोराइड 0.1 0.01

फिंगरलिंग्‍स की बेहतर वृद्धि के लिए 4-6% की दर से चारा दिया जाना आवश्यक है, लेकिन चारे के नियम का पालन करने के लिए पानी के तापमान पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। 10-12 डिग्री सेंटीग्रेड पानी के तापमान की रेंज में 6% चारा देना आदर्श है, लेकिन जब यह 15 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाता है, तो चारे को 4% तक कम करना चाहिए और 19 डिग्री से अधिक पर आदर्श मात्रा सिर्फ 50% होनी चाहिए। प्रति माह आदर्श वृद्धि दर 80 ग्राम है।

सेवन योग्य आकार की मछली

250 ग्राम वजन पाने के बाद मछली निकाल लेने की सलाह दी जाती है क्योंकि इस आकार के बाद विकास की गति धीमी हो जाती है और उसे पाल कर बढ़ाना फायदेमंद नहीं होता है।

स्वच्छता

ट्राउट की पैदावार में सफाई एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है। समय-समय पर ट्राउट को या तो 10% फॉर्मेलिन या 4 पीपीएम पोटैशियम नाइट्रेट के घोल से साफ़ और कीटाणुरहित करना चाहिए। संक्रमित मछली को तुरंत टैंक से हटा दिया जाना चाहिए और यदि कोई रोग हो तो किसी मछली विशेषज्ञ से परामर्श लिया जाना चाहिए।

स्त्रोत

पंगेसियस मछली : एक परिचय

  1. परिचय
  2. पंगास मछली की बनावट
  3. पंगेसियस मछली की विशेषताएं

परिचय

पंगेसियस सूचि जिसका लोकप्रिय नाम “पंगास” है, वास्तव में वियतनाम देश के मेकांग नदी डेल्टा का मूल निवासी है तथा मुख्य रूप से वियतनाम, चीन थाईलैंड, कम्बोडिया, म्यांमार इत्यादि देशों में बड़े पैमाने पर पालन किया जाता है | पंगेसियस सूचि तथा पंगेसियस हेपोथेलमिस विशेष रूप से तालाबों या केज में पाली जा रही है |

भारत में पंगेसियस सर्वप्रथम पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश के रस्ते थाईलैंड से 1995-96 में लायी गयी | आज यह मछली मीठे पानी में पाली जानेवाली दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी प्रजाति है | वियतनाम पंगेसियस उत्पादन में विश्व में प्रथम स्थान रखता है | भारत में “आंध्र-प्रदेश” पंगेसियस उत्पादन में सबसे अग्रणी राज्य है | वायुश्वासी होने के कारण पंगास कम घुलित आक्सीजन में जिन्दा रहने में सक्षम है |

पंगास मछली की बनावट

पंगास एक कैट फिश है जो आडर सीलुरीफ़ोरमीस के अंतर्गत पंगेसिडी परिवार का सदस्य है | यह प्रजाति सर्वभक्षी है, जिसका प्राकृतिक भोजन प्लवक, जलीय कीट, शैवाल, छोटी मछलियाँ इत्यादि है | इसका शरीर शल्क रहित, सिर छोटा, मुहं बड़ा, शरीर पर काले लकीर एवं आँख बड़ी होती है | बार्वेल्स (मूछें) दो जोड़ी होती है जिसमें उपरी बार्वेल्स निचली से बड़ी होती है | गिल रेकर्स विकसित अवस्था में होती है | इसका स्वीम ब्लाडर तथा त्वचा वायुश्वासी अंग का कार्य करती है |

पंगेसियस मछली की विशेषताएं

  • एस मछली का वृद्धि दर अधिक है |
  • इसकी मांग घरेलू एवं विदेशी बाजारों में है |
  • इसकी रोग निरोधक क्षमता अपेक्षाकृत ज्यादा है |
  • वयुश्वासी होने के कारण कम घुलित आक्सीजन वाले पानी में भी जिन्दा रहने में सक्षम है |
  • इसके शरीर में कांटे कम है, अत: इसे प्रसंस्करण के लिए बहुत अच्छा माना जाता है |
  • अधिक घनत्व में पालन कारन आसान है |
  • कृत्रिम भोजन बहुत आसानी से ग्रहण करती है |
  • कार्प मछलियों साथ भी पंगास का पालन किया जा सकता है |
  • जलाशयों में केज के लिए बहुत ही उपयुक्त माना गया है |

 

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, झारखण्ड सरकार

 

पंगेसियस सूचि का प्रेरित प्रजनन

  1. परिचय
  2. प्रजनन प्रक्रिया

परिचय

पंगेसियस का स्ट्रिपिंग द्वारा प्रजनन सर्वप्रथम 1995 में कराया गया | भारत के साथ-साथ अन्य दशों में पंगेसियस का स्पान एवं बीज उत्पादन के लिए प्रेरित प्रजनन तकनीक का उपयोग किया जा रहा है | इस प्रजाति की मादा तीसरे वर्ष में लैंगिक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है, परन्तु अधिकांश नर दूसरे वर्ष ही परिपक्व हो जाते हैं | औसतन एक मादा प्रति किलोग्राम शारीरिक वजन की दर से करीब एक लाख अंडे देती है | इनका प्रजनन काल मई-जून महीना होता है | अंडे चिपकने वाले होते हैं | प्रजनन के लिए कृत्रिम हारमोन के इंजेक्शन का इस्तेमाल किया जाता है, जिसकी मात्रा निम्न है :

क्रम हार्मोन नर मादा
1 ओवाप्रिम 0.1 – 0.2 ml/kg 0.3 – 0.4 ml/kg
2 ओवाटाइड 0.1 – 0.2 ml/kg 0.4 – 0.5 ml/kg

प्रजनन प्रक्रिया

इंजेक्शन देने के बाद नर और मादा को अलग रखा जाता है | 8-12 घंटे के बाद स्ट्रिपिंग विधि द्वारा अण्डों को निषेचित किया जाता है | मादा के अंडों को पहले एक सूखे ट्रे में इक्कठा किया जाता है | इसके बाद नर से स्ट्रिपिंग कर प्राप्त मिल्ट को किसी पक्षी के पंख के द्वारा अण्डों में अच्छी तरह मिलाया जाता है एवं उसमें पानी मिलाया जाता है, जिससे निषेचन की क्रिया पूरी हो जाती है |

सामान्यत: 10 लाख अण्डों को निषेचित करने के लिये 1 मी.ली. मिल्ट पर्याप्त होता है | मिल्ट को अण्डों के साथ मिलाने के बाद पानी का छिड़काव शुक्राणुओं को सक्रिय करने के लिए बहुत जरुरी होता है, ताकि शुक्राणु अण्डों के माइक्रोपाइल (छिद्र) से अन्दर जा कर निषेचन की प्रक्रिया पूरी कर सके | पंगास के 1 किग्रा में अण्डों की संख्या औसतन 16 लाख होती है | निषेचित अंडे 22-24 घंटे में हैच कर जाते हैं तथा इसके बाद 24 घंटों में हैचलिंग से जुड़ा हुआ योल्क शैक अवशोषित हो जाती है | अण्डों के हैचिंग के लिए पानी की गुणवत्ता बहुत ही महत्वपूर्ण होती है | जल में घुलित आक्सीजन की मात्रा >5ppm तथा ph का मान 7.5 के आस-पास अच्छा माना जाता है | जल में आयरन या क्लोरिन अधिक मात्रा हैचिंग की परक्रिया को हानि पंहुचा सकती है | अत: पंगास का प्रजनन एवं जीरा उत्पादन के लिए स्थान का चयन करने से पहले इन बातों का ध्यान रखना बहुत ही आवश्यक है |

 

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, झारखण्ड सरकार

पंगेसियस के लिए नर्सरी तालाब प्रबंधन

  1. परिचय
  2. संचयन तालाब प्रबंधन

परिचय

नर्सरी तालाब में स्पान से फ्राई का उत्पादन पंगेसियस मत्स्य पालन का सबसे महत्वपूर्ण चरण माना जाता है | अत: इसका उचित प्रबंधन आर्थिक दृष्टिकोण से बहुत ही महत्वपूर्ण है | स्पान के संचयन से पहले पानी को पूर्णत: निकालकर तालाब को सूरज की रोशनी में छोड़ दिया जाता है ताकि मिटटी पूरी तरह से सूख जाए | तालाबों में जहां सालों भर पानी रहता है, जल की निकासी संभव नहीं है वहां जल के खर-पतवार के हाथ से चुनकर या जाल चलाकर हटा देना चाहिए | सतह पर तैरने वाले जलीय पौधों के 2, 4-D नामक रसायन का प्रयोग का उन्मूलन किया जा सकता है, इसके लिए 3-4 किलोग्राम/ एकड़ / की दर से प्रयोग कर सकते हैं | अधिक जलीय शैवाल का होना भी अच्छा नहीं माना जाता है | जलीय शैवालों के समूह के उन्मूलन के लिए सीमाजाईन का प्रयोग 1-2 किलोग्राम / एकड़ की दर से किया जाना चाहिए |

तालाबों में अवांछित मछलियों का उन्मूलन आवश्यक है | खाऊ मछलियाँ, मछलियों के जीरों को खा जाती है जबकि अन्य छोटी जंगली मछलियाँ लाताब में उपस्थित अधिकांश भोजन को हड़प जाती है | संचयन के पूर्व इनका उन्मूलन करना अति आवश्यक है –

रसायन मात्रा पानी में जहर की असर
ब्लीचिंग पाउडर

(30 प्रति० क्लोरिन)

120-140 किलोग्राम/एकड़/मी. 7-8 दिन
महुआ खल्ली 1000 किलोग्राम/एकड़/मी. 20-25 दिन
डेरीस रूट पाउडर 60-70 किलोग्राम/एकड़/मी. 25-30 दिन

तालाबों में संचयन के पहले हानिकारक जलीय कीटों का उन्मूलन कर लेना आवश्यक है | बार-बार जाल चलाकर इन्हे हटा लेना चाहिए | इसके अलावा डीजल या कैरोसिन तेल 20-25 लीटर/ एकड़ की दर से प्रयोग करना चाहिए | आजकल नुभान का प्रयोग 70-100 मी.ली. प्रति एकड़ की दर से उपयोग कर कीटों का उन्मूलन कर लेते हैं |

तालाब में चूना का प्रयोग (200 किलोग्राम/एकड़) की दर से करना चाहिए | चूना के प्रयोग के एक सप्ताह बाद प्लवक का उत्पादन के लिए कार्बनिक खाद (गोबर) के साथ-साथ रासायनिक खाद के रूप में यूरिया एवं एस०एस०पी० या डी०एस०पी० एवं म्यूरेट आफ पोटाश का प्रयोग करना चाहिए |

खाद मात्रा/प्रति एकड़ में
यूरिया 10 किलोग्राम
एस०एस०पी० 10 किलोग्राम
पोटास 1-2 किलोग्राम
कच्चा गोबर 2000 किलोग्राम

पंगेसियस प्राम्भिक अवस्था में स्वजन भक्षी होता है | अत: इसकी रोकथाम के लिए तालाब में जन्तु प्लवक का समुचित स्तर बरकरार रखना बहुत ही आवशयक है | इसके अतिरिक्त पाउडर फीड के रूप में कृत्रिम आहार बाहर से देते रहना चाहिए | नर्सरी तालाब के 50 लीटर पानी में प्लवक की मात्रा कम से कम 4 मी.ली. होना अच्छा माना जाता है | नर्सरी तालाब में स्पान को 400-500/वर्ग मी.की दर संचयन करना चाहिए | चार सप्ताह के उपरान्त इसका आकार 0.8-1.0 ग्राम हो जाता है | इसके बाद इन्हें बड़े नर्सरी तालाब में संचयन करना चाहिए | अगले दो महीने में पंगास 15-20 ग्राम वजन प्राप्त कर लेती है, जो बड़े तालाबों में संचयन हेतु उत्तम आकर है|

संचयन तालाब प्रबंधन

पंगेसियस की अंगुलिकाओं को स्थानांतरण के 1 दिन पहले किसी भी प्रकार का कृत्रिम भोजन नहीं दिया जाना चाहिए ताकि सथानान्तरण के समय ज्यादा मल-मूत्र त्याग न करें तथा आक्सीजन की मात्रा ज्यादा कम न हो | तालाबों में पंगेसियस का पालन दो विधि द्वारा किया जाता है –

1) एकल पालन – 10-15 ग्राम की अंगुलिकाओं का संचयन 10000-20000/प्रति हेक्टेयर के दर से कर सकते हैं जिससे 15-20 टन/हे. उत्पादन लिया जा सकता है |

2) मिश्रित पालन – जब कार्प या अन्य प्रजातियों के साथ पंगेसियस का पालन किया जाता है तो इसकी संचयन दर 10000/ हे. से ज्यादा नहीं रखी जाती है | इस विधि में 10-12 टन/हे. उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है | संचयन तालाब का आकार से अधिक 5 एकड़ एवं पानी की गहराई 1.5 मी. तक रखना ठीक है | चूना का प्रयोग 200 किग्रा/ एकड़ संचयन के पूर्ण करना चाहिए | जैविक खाद के रूप में गोबर या मुर्गी का खाद 1000 किग्रा/ एकड़ को 10 भागों में बाँट कर संचयन काल के दौरान प्रयोग करते रहना चाहिए |

 

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, झारखण्ड सरकार

 

पंगेसियस (पंगास) पालन एक लाभकारी व्यवसाय

  1. परिचय
  2. पंगेसियस मछलियों की विशेषताएं
  3. तालाब का चयन
  4. जल की गुणवत्ता
  5. संचयन तालाबों में पालन की विधि
  6. पूरक आहार
  1. पंगेशियस मछली का भोजन
  2. विशिष्टता
  1. विपणन

परिचय

पंगास आज मीठे पानी में पाली जाने वाली दुनिया क तीसरी सबसे बड़ी प्रजाति है। यह प्रजाति 6-8 माह में 1.0 – 1.5 किग्रा की हो जाती है तथा वायुश्वासी होने के कारण कम घुलित आक्सीजन को सहन करने की क्षमता रखती है।भारत में आंध्रप्रदेश पंगास का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है।

झारखण्ड की जलवायु पंगेसियस मछली पालन के लिए अनुकूल है ।यहाँ के मौसमी तालाबों को देखते हुए 7-8 माह में ही 1.0 से 1.5 किग्रा वजन की मछली प्राप्त कर सकते हैं ।यह शार्क मछलियों की तरह चमकदार होती है तथा इसे छोटे अकार में एक्वेरियम में भी पाला जा सकता है।

पंगेसियस मछलियों की विशेषताएं

  1. इसकी वार्षिक वृद्धि दर अधिक है ।
  2. वायुश्वासी होने के कारण कम घुलित आक्सीजन वाले जलीय स्त्रोतों में पाली जा सकती है ।
  3. इस मछली की मांग व्यापक है ।
  4. अन्य मछलियों की तुलना में इसमें पतले कांटें काम होते हैं इसलिए यह प्रजाति प्रसंस्करण के लिए उपयुक्त है ।
  5. इस प्रजाति में रोगनिरोधक क्षमता अधिक है।
  6. भारतीय मुख्या कार्प के साथ आसानी से पालन की जा सकती है ।

तालाब का चयन

पंगास पालन के लिए संचयन तालाब का क्षेत्रफल 0.5 से 1.0 एकड़ तक अच्छा माना जाता हैपरन्तु 10-15 एकड़ तक क्षेत्रफल में भी इसका पालन संभव है तालाब में पानी की गहराई 1.5 – 2.0 मी.तक होनी चाहिए।अधिक गहराई वाले तालाब उपयुक्त नहीं हैं क्योंकि वायुश्वासी होने के कारण ये बार बार पानी की सतह पर आकर आक्सीजन लेती हैं।ज्यादा गहराई होने से इन्हें ऊपर आने और जाने में ज्यादा ऊर्जा खपत करनी होगी जिससे उनकी वृद्धि दर कम हो जाती है।

जल की गुणवत्ता

पंगास की अच्छी वृद्धि एवं अच्छे स्वास्थ्य के लिए निम्नलिखित जलीय गुणों का होना आवश्यक है

तापक्रम 26-30 c
पी०एच० 6.5 – 7.5
घुलित आक्सीजन >5 ppm
लवणता < 2 ppt
क्षारीयता 40-200 ppm
कुल अमोनिया <0.5 ppm

संचयन तालाबों में पालन की विधि

संचयन तालाबों में डाले जाने वाली अंगुलिकाओं को आस-पास ही तैयार करना चाहिए क्योंकि दूर से अंगुलिकाओं का परिवहन कर लाना और संचयन करना काफी कठिन है। अधिक दूरी के परिवहन से मछलियों को काफी चोट आती है, एक दूसरे के कांटे उनको घायल करते हैं एवं खरोंच के कारण बीमारी होने के ज्यादा आसार होते है।

सिर्फ पंगास मछली पालन (एकल पालन) हेतु 10-15 ग्राम की अंगुलिकाओं को 20,000-25,000 प्रति हे० की दर से संचित किया जा सकता है जिससे 15-20 पंगास का उत्पादन लिया जा सकता है। जब पंगास मछली का पालन कार्प मछलियों के साथ किया जाए तब इसकी संचयन दर 10,000-12,000 प्रति हे० होनी चाहिए जिसमें 10-12 टन प्रति हेक्टेयर अनुमानित उत्पादन होगा ।जैविक खाद (गोबर) का प्रयोग 1000-12000 प्रति हे० पालन अवधि में 8-10 भागों में बांटकर करना चाहिए ।रासायनिक खाद के रूप में यूरिया 5 किग्रा/एकड़ एवं सिंगल सुपर फास्फेट 6-7 किग्रा/एकड़ प्रति 3 महीने में एक बार उपयोग करना चाहिए।

पूरक आहार

पंगास मछली की खेती में पूरक आहार के रूप में फैक्ट्री फारमूलेटेड फ्लोटिंग फीड ही सर्वोतम है और इसके उयोग से ही वंचित उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

पंगेसियस मछली मुख्यत: पूरक आहार पर निर्भर रहती है, जिससे पालन में बहुत आसानी होती है। प्रारंभिक अवस्था में यह छोटी मछलियों, तालाब में उलब्ध काई तथा घोंघें को खाती है। बड़े होने पर यह सर्वभक्षी हो जाती है तथा तालाब में पूरक आहार को बड़े चाव से खाती है ।अगर तालाब में प्राकृतिक भोजन की उपलब्धता अच्छी हो तो पूरक आहार में खर्च काफी काम आता है ।पूरक आहार के रूप में बाजार में उपलब्ध विभिन्न कंपनियों का भोजन उपलब्ध है।

मछलियों के शारीरिक भार के हिसाब से फ्लोटिंग फीड का उपयोग करने वाले किसानों की सुविधा हेतु आहार तालिका निम्न है: –

मछली कस शारीरिक भार (gm) फ्लोटिंग फीड के दानों का आकार (nm) प्रतिशत भोजन (शारीरिक भार का) प्रोटीन की मात्रा भोजन में
5-10 1.5 7% 32%
10-20 2 6% 32%
20-30 2 5% 32%
30-40 3 4% 28%
50-100 3 3-5% 28%
100-200 4 2-5% 28%
200-300 4 2% 28%
300-400 4 1-5% 28%
400-600 4 1-5% 28%
600-700 4 1-5% 28%
700-800 4 1% 28%
800-1000 4 1% 24%

पालान करते समय हर 15 दिन के अन्तराल में जाल चला कर तालाब में मछलियों के वजन का आकलन कर आहार मात्रा निर्धारित करनी चाहिए ।

पंगेशियस मछली का भोजन

भींगा हुआ भोजन इस खेती के लिए उपयुक्त नहीं है ।इसकी वृद्धि के लिए सर्वोतम भोजन पानी की सतह पर तैरने वाला माना जाता है ।फ्लोटिंग फीड इस मछली के लिए ज्यादा उपयुक्त है ।भोजन में अधिक प्रोटीनयुक्त पदार्थ का उपयोग किया जाता है ।यदि पालन किसी अन्य मछली की प्रजाति के साथ हो रहा हो तो हम बैग के द्वारा भी भोजन दे सकते हैं ।

विशिष्टता

यह अन्य कार्प मछलियों के साथ भी पाली जा सकती है ।जिन क्षेत्रों में कम लवणीय पानी उपलब्ध है वहां भी इसकी खेती की जा सकती है ।चूँकि यह अन्य मछलियों के साथ भोजन में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं करती है, अत: इन्हें दूसरे मछलियों के साथ भी पालन किया जा सकता है ।

सावधानियां

चूँकि यह सर्वभक्षी मछली है, अत: इन्हें नदियों में जाने से रोका जाना चाहिए ।एकल खेती में 15-20 ग्रा० की अंगुलिकाओं को 20 हजार/ हे. की दर से संचयन करने से 20-25 टन प्रति हे. की दर से संचयन करने से 20-25 टन प्रति हे. की फसल 7-8 माह में उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है ।

जाड़े के दिनों में विशेषकर जब तापमान 15 सेल्सियस से कम हो जाता है तो मछली तनाव में आ जाती है। खाना नहीं के बराबर खाती है जिससे इसका वजन घटने लगता है। ऐसी स्थिति में अक्टूबर माह तक मछली की निकासी कर ली जाए।

विपणन

चूँकि एस मछली के मांस में काँटा नहीं होता है इसलिए आसानी से इसका पीस बनाया जा सकता है ।बाजार में इसकी मांग तेजी से बढ़ रही है तथा अधिक उत्पादन होने पर इसे प्रोसेसिंग पर विदेशों में भी भेजा जा सकता है ।

पंगास पालन में ध्यान देने वाली छोटी-छोटी बातें

  1. संचयन तालाब में अधिक दूरी  से परिवहन कर लाये गए अंगुलिकाओं या फ्राई को संचयन से पहले एक ड्रम में पोटेशियम परमैगनेट का 10% का घोल बनाकर 30-40 सेंकेण्ड डुबाकर निकालने के बाद संचयन करना चाहिए ।ऐसा करने पर बीमारी के संक्रमण का खतरा बहुत कम हो जाता है ।
  2. अंगुलिकाओं का परिवहन न कर फ्राई का परिवहन कर अपने तालाबों में ही अंगुलिकाओं को तैयार कर संचयन करना ज्यादा बेहतर होता है ।
  3. पूरक आहार के रूप में दिये जाने वाले प्रतिदिन के फीड राशन को एक बार न देकर उसे बांटकर 3 से 4 बार में भोजन देना ज्यादा लाभकारी है ।ऐसा करने से भोजन का पाचन एवं उपयोग ज्यादा अच्छा होआ है एवं वृद्धि ज्यादा होती है ।
  4. हर 10 दिनों के अंतराल में 1 दिन पूरक आहार नहीं देना चाहिए ।एक दिन छुट्टी का दिन होना चाहिए ।ऐसा करने पर फीड की बचत होती है एवं वृद्धि में कोई कमी नहीं होती है तथा ऐसा करने पर मछलियों की पाचन शक्ति में भी वृद्धि होती है ।
  5. सप्ताह के एक दिन मकई का दर्रा, चावल का कोढ़ा को मिलाकर भी भोजन दिया जा सकता है ।इसे कच्चा न देकर उसे अच्छी तरह मिलाकर भोजन दें ।ऐसा करने से भोजन का पाचन अच्छा होता है एवं उनके वृद्धि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है ।किन्तु इसे कम मात्रा में दिया जाय अन्यथा इसके जाल में चिपकने का डर रहता है ।
  6. एस मछली के पालन में भोजन की मात्रा जानने के लिए हर 15 दिन के अंतराल में मछलियों का औसत वजन जानते रहना चाहिए ।
  7. जाड़े के मौसम के प्रारंभ में ही तालाब में उचित मात्रा में चूना का प्रयोग जरूर कर लेना चाहिए ।इससे बीमारियों के संक्रमण का खतरा कम हो जाता है ।
  8. जरुरत से ज्यादा भोजन देने से हमेशा बचना चाहिए। सघन खेती में जरुरत से ज्यादा पूरक आहार देने से कभी-कभी पानी में अमोनिया की सान्द्रता बढ़ जाती है।अमोनिया की मात्रा पानी में ज्यादा हो जाने पर मछलियाँ मर भी सकती है।अत: इसे हमेशा ध्यान में रखना चाहिए।
  9. ठंडे महीने की तुलना में गर्मी के महीनों में पंगास की वृद्धि तेजी से होती है ।अत: संचयन गर्मी के शुरुआत में करना ज्यादा अच्छा है ताकि गर्मी में संचयन एवं पालन कर ठंडे के महीने में इनकी शिकारमाही एवं बाजार में बिक्री की जा सके।

 

पंगास मछली पालन के लिए तालाब निर्माण

  1. परिचय
  1. तालाब की मिट्टी निम्न प्रकार से जलकृषि में सहायक होती है

परिचय

मत्स्य पालन में तालाब से मछलियों की उत्पादकता जल की प्राथमिक उत्पादकता पर निर्भर करती है । जिसमें तालाब की मिट्टी की किस्म का महत्वपूर्ण भूमिका है । तालाब निर्माण के साथ-साथ उसके जल की मिट्टी अनेक रासायनिक – जैविक क्रियाओं के माध्यम से तालाब के पानी की उत्पादकता निर्धारित करती है । प्राथमिक उत्पादकता कालांतर में मत्स्य उत्पादन को नियंत्रित करती है । इसका कारण यह है कि तालाबों में मछलियाँ अपना भोजन प्राथमिक तौर पर जल में उपलब्ध प्लवकों तथा अन्य जीव जंतुओं पर करती हैं।

तालाब की मिट्टी निम्न प्रकार से जलकृषि में सहायक होती है

  1. यह तालाब के जल-धारण क्षमता को निर्धारित करती है ।
  2. यह वायु संजोने में सहायक है जो नितलों में उपस्थित जीवों के श्वसन प्रदान करती है ।
  3. तालाब की मिट्टी अपनी तली पर कई जैव रसायनिक / रसायनिक क्रियाओं में सहायक है ।
  4. इसके अघुलनशील कण जल में टब्रिडीटी उत्पन्न करते हैं,जिससे सूर्य की किरणे तली तक नहीं पहुँच पाती है ।
  5. मिट्टी की रसायनिक क्रियाएं पादक प्लवकों में वृद्धि में सहायक होती है,जिन्हें मछलियाँ भोजन के रूप में ग्रहण करती है ।

उन्नत तालाब हेतु मिट्टी के आवश्यक गुण

मत्स्य पालन हेतु उपयुक्त मिट्टी की भौतिक जाँच, मिट्टी के गठन एवं उसकी संरंचना पर की जाती है । मिट्टी में उपलब्ध बालू एवं क्ले की मात्रा से स्थापित होता है कि मिट्टी तालाब निर्माण के लिए उपयुक्त है अथवा नहीं । तालाब निर्माण का तात्पर्य उसके जल –धारण से है । अधिक बालू का अनुपात जल रिसाव को बढ़ावा देता है जिससे तालाब में बार-बार पानी भरना आवश्यक हो जाता है तथा जलकृषि आर्थिक घाटा उन्मुख हो जाती है । मिट्टी की संपीडता द्वारा मिट्टी की आपसी पकड़ अथवा मजबूती का ज्ञान होता है जिससे तालाब के बाँध निर्माण में उनकी चौड़ाई एवं ढलान के निर्धारण में सहायता मिलती है ।

मिट्टी के रसायनिक गुण

मिट्टी के भौतिक गुण के अतिरिक्त इसके रसायनिक गुण तथा पी०एच० आर्गेनिक कार्बन, नाइट्रोजन एवं मिट्टी में उपलब्ध फस्फोरस प्रमुख है। उदासीन मिट्टी अथवा न्यूट्रल स्वायल (पी०एच०: 7.0) सर्वाधिक उपयुक्त मिट्टी मानी जाती है क्योंकि इस मिट्टी के पोषक तत्वों की जल में विमुक्ति संतुलित मात्रा में होती है। अम्लीय पी०एच० मछलियों में कई बीमारियाँ उत्पन्न करता है तथा उच्च पी०एच० होने पर मछलियों को भूख कम लगने एवं अल्प वृद्धि की शिकायत हो जाती है । आर्गेनिक कार्बन की कमी से तालाब की प्राथमिक उत्पादकता कम हो जाती है। इससे प्लवकों का उत्पादकता कम हो जाती है । इससे प्लवकों का उत्पादन कम होता है ।

मिट्टी का वर्गीकरण

मछली पालन में मिट्टी में उपलब्ध कणों के आधार पर इसका वर्गीकरण किया जाता है । कणों या अन्य गुण जैसे प्लास्टिसिटी, कम्प्रेसिब्लिटी के आधार पर मिट्टी के 12 किस्मों में वर्गीकरण किया गया है । मुख्यत: मिट्टी के कण तीन आकर में होते हैं ।

(क) सैंड – 2.0 से 0.50 मि०मी०।

(ख) सिल्ट – 0.05 से 0.002 मि०मी०।

(ग)  क्ले – 0.02 मि०मी० से कम।

निर्माण या उत्पत्ति के आधार पर मिट्टी को काली मिट्टी लाल मिट्टी, लैटेराईट मिट्टी, एलुवियल मिट्टी, रेगिस्तानी मिट्टी, तराई मिट्टी, दलदली मिट्टी आदि में विभाजित किया जाता है । यह वर्गीकरण अत्यंत जटिल है एवं भारत में इस प्रकार मिट्टी को करीब 25 किस्मों में विभाजित किया गया है । मछली पालन के मद्देनजर काली मिट्टी में कार्बनिक कार्बन, नाइट्रोजन तथा फास्फोरस जैसे पोषक तत्वों की कमी होने के कारण एवं कैल्शियम तथा मैग्नेशियम की कमी होती है । लाल मिट्टी तथा लैटेराईट स्वायल में पी०एच० कम होने के कारण एवं कैल्शियम तथा मैग्नेशियम की कमी से मछली पालन के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता है । एलुवियल स्वायल भारत में पाई जाने वाली प्रमुख मिट्टी है तथा रंग में यह हल्की स्लेटी से पीली भूरी या गहरी स्लेटी हो सकती है । इस मिट्टी में पोटाश तथा अल्कली भरपूर मात्रा में होता है । अगर इस मिट्टी में अन्य पोषक तत्व यथा नाइट्रोजन, फास्फोरस आदि को समुचित मात्रा में पूरक के तौर पर दिया जाय तो यह मिट्टी मछली पालन के लिए सर्वथा उपयुक्त हो जाती है ।

रेगिस्तानी मिट्टी में बालू के कण की अधिकता होती है । इस मिट्टी में कार्बन अधिक होने के साथ-साथ लवण की मात्रा भी समुचित होती है । इसके कारण इसका पी०एच० मछली पालन हेतु उपयुक्त होता है और संरचना में यह मिट्टी सैंडी लोम जैसी होती है । मछली पालन के लिए यह उपयुक्त है ।

दलदली मिट्टी तथा लवणीय मिट्टी मछली पलान हेतु बहुत उपयुक्त नहीं होती है । अगर नए तालाब का निर्माण करना है तो उचित यही प्रतीत होता है कि मिट्टी को ध्यान में रखकर स्थल का चयन क्या जाय । अगर तालाब पुराना है तो उसका जीर्णोद्धार तथा उसकी तली का निर्माण इस प्रकार किया जाय कि उसकी मिट्टी का परिसंशोधन हो जाए एवं जल में आवश्यक तत्व उपलब्ध हो जाएं ।

मछली पालन के लिए तालाब का निर्माण

मछली पालन के लिए तालाबों का आकार, उसका क्षेत्रफल, उसकी गहराई, उसकी बनावट महत्वूर्ण है । तालाब बनाने से पहले स्थानों का चयन करना चाहिए । इसके लिए महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित हैं : –

  1. उस स्थान की मिट्टी में पानी जामव की क्षमता अधिक होनी चाहिए ।
  2. जमीन जहाँ कृषि कार्य करने में कठिनाई होती है तथा जल जमाव की सम्भावना हो, ऐसी जमीन मत्स्यपालन के दृष्टिकोण से काफी उपयुक्त होती है ।
  3. ऐसी जमीन जहां उर्वरकों का शोषण नहीं हो ।
  4. उस स्थान की मिट्टी का पी०एच० मान उदासीन के करीब (5 – 8.5) होना चाहिए ।
  5. तालाब के लिए खुली जगह का चुनाव आवश्यक है । तालाब छायादार जगह में नहीं होना चाहिए ।
  6. तालाब के आस-पास सदाबहार जलस्त्रोत होना आवश्यक है ।
  7. तालाब तक पहुंचने के लिए सड़क की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए ।
  8. यदि ऊपर दी गई शर्तों में से अधिकांश उपलब्ध हों तो इस तरह का पोखर व्यवसायिक दृष्टिकोण से काफी उपयुक्त होगा ।

तालाब बनाने से पहले मिट्टी की जाँच

जिस स्थान पर तालाब है उस स्थान के मिट्टी की जाँच प्रयोगशाला से अवश्य करा लेनी चाहिए। मिट्टी जाँच का एक आसान तरीका है जो स्वयं किया जा सकता है । करीब 10-12 स्थान से 3-4 इंच अन्दर की मिट्टी को खोदकर निकाल लें । सभी जगह की मिट्टी को अच्छी तरह मिलाकर एक जगह किसी प्लास्टिक के बर्तन में रख लें। यदि मिट्टी सुखी हुई हो तो उसमें थोडा पानी का छींटा डालकर हल्का गीला कर लें । फिर हाथ के द्वारा मिट्टी का गोला बनाकर बाल की तरह उपर उछालते हुए हाथ में वापस लें । यदि गोला हथेली में वापस आने तक टूट कर बिखर जाय तो समझें की मिट्टी तालाब निर्माण के लिए उपयुक्त नहीं है । यदि वापस हथेली में गोला उसी रूप में आ जाये जो समझे कि मिट्टी मत्स्यपालन के लिए उपयुक्त है । ऐसी मिट्टी में पानी रखने की क्षमता काफी होती है ।

झारखण्ड राज्य में सामान्यता तीन प्रकार की मिट्टी है : –

  1. बालुआई मिट्टी
  2. लोमी (दोमट) मिट्टी
  3. चिकनी मिट्टी

बलुआई मिट्टी मत्स्यपालन के दृष्टिकोण से उपयुक्त नहीं होती है । ऐसी जमीन पर तालाब का निर्माण नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसे मिट्टी में पानी का जमाव रखने की क्षमता काफी कम होती है । लोमी मिट्टी (दोमट/मटियार) तालाब के लिए उपयुक्त होती है । चिकनी मिट्टी तालाब के लिए अत्यधिक उपयुक्त होती है, क्योंकि ऐसे तालाब में पानी का जमाव रखने की क्षमता काफी अधिक होती है । चिकनी मिट्टी में एक खास लसलसापन होता है ।

तालाब का आकार एवं बनावट

तालाब आयताकार होना चाहिए । लम्बाई और चौड़ाई का अनुपात 2:1 या इसके आसपास होनी चाहिए । चौड़ाई हमेशा 50मी० से कम होनी चाहिए । माडल तालाब के लिए लम्बाई 50 मी० और चौड़ाई 20 मी० होनी चाहिए । सूर्य प्रकाश पाने में 2.5 मी० गहराई तक ही जा सकती है । इसे Euphotic Zone कहते हैं । अत: ज्यादा गहराई व्यर्थ होती है ।

बाँध

बांधों की चौड़ाई एवं उसकी बनावट ऐसी होनी चाहिए कि तालाब के जल द्वरा डाले गये दबाव को सहन कर सकें । साथ ही पानी को रिस कर बाहर नहीं जाने दें । बाँध का निर्माण करने के पहले बांस की खुटियाँ गाड़कर रेंखांकित कर लेना चाहिए । बाँध बनाने से पहले उसके आसपास के पेड़ पौधे, खर-पतवार जड़ सहित एवं रोड़ा पत्थर भी हटा लेना चाहिए । रेखांकित किये गये सतह के उपरी भाग में करीब 20 से.मी. मिट्टी काटकर हटा देना चाहिए । ऐसा करने से बाँध का उपरी स्तर एक सतह में आ जाता है । तालाब की खुदाई के द्वारा निकली गई मिट्टी से बांध बनाना चाहिए । बाँध बनाने के लिए चिकनी मिट्टी का होना बहुत आवश्यक है । क्योंकि चिकनी मिट्टी, कणों को एक दूसरे से जोड़ सकती है । लेकिन केवल चिकनी मिट्टी से भी बाँध नहीं बनाना चाहिए, क्योंकि उसके सूखने पर उसमें दरार पड़ जाती है । इसलिए अच्छा बाँध बनाने के लिए 15 से 25 प्रतिशत रेतीली मिट्टी, 60 से 80 प्रतिशत बलुई मिट्टी, 8 से 15 प्रतिशत चिकनी मिट्टी को मिलाकर बाँध का निर्माण करना चाहिए । बाँध बनाते समय प्रति एक फीट डालने के बाद उसपर पानी का छिड़काव कर पीट-पीट कर दबा देना चाहिए ताकि वः धंस नहीं सके ।

बाँध का निर्माण

बाँध सीधे खड़ा नहीं होना चाहिए क्योंकि खड़ा बांध काफी कमजोर होता है । अत: पाने के दबाव को बर्दाश्त करने के लिए इसे ढलान युक्त होना चाहिए ।

तालाबों के बाँध प्राय: मिट्टी के बनाये जाते है । कुछ राज्यों में जहां तालाबों में सघन मत्स्य पालन किया जाता है वहीँ सीमेंट या कंक्रीट के बाँधों का निर्माण भी कराया जाता है । इन तालाबों में प्राकृतिक उत्पादकता का कोई महत्त्व नहीं होता है क्योंकि सघन मत्स्य पालन में आहार तथा घुलनशील आक्सीजन की पूरक व्यवस्था होती है ।

बाँध की ऊंचाई एवं बांध की शिखर की चौड़ाई

तालाब के चारों ओर बनाये गये बाँध की ऊंचाई तालाब की तली से 3.8 मी० रखी जाती है, जिससे मिट्टी बैठने के बाद भी ऊंचाई कम से कम 3.5 मी० रह जाय । मिश्रित मत्स्यपालन में तालाब में पानी की गहराई 2-2.5 मी० होनी चाहिए ।

बांधों के प्रकार

प्रक्षेत्र पर दो प्रकार के बांधों की आवश्यकता होती है

  1. मुख्य अथवा बाहरी (पेरिफेरल डाईक) इन बंधों के निर्माण में जल भराव की क्षमता विकसित करने हेतु तालाब को बाढ़ से सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से किया जाता है। तालाब के चारों ओर निर्मित होने वाला बाँध पेरिफेरल डाईक की श्रेणी में आता है ।
  2. विभाजन बाँध (पार्टीशन या सेकेंडरी डाईक) यह बाँध एक तालाब को दूसरे तालाब से अलग करने के उदेश्य से बनाया जाता है।मुख्यतया बाँध की अपेक्षा यह थोड़ा नीचा तथा पतला होता है ताकि निर्माण लागत कम हो सके ।

बाँध की ऊंचाई की गणना

तालाब के बाँध के निर्माण में बांधों की ढलान तथा बाँध के उपरी सतह की चौड़ाई का भी अपना महत्त्व है । व्यवसायिक मत्स्य प्रक्षेत्रों में तालाबों के बांधों पर मध्यम एवं भारी वाहन भी गुजरते हैं । ऐसी स्थिति में कम से कम 3.7 मी० से 6.0 मी० तक बाँध की चौड़ाई रखना आवश्यक हो जाता है । वैसे सामान्य आकार में उपरी बाँध की चौड़ाई बाँध की ऊंचाई पर निर्भर करती है जो निम्न प्रकार हो सकती है –

बाँध की ऊंचाई (मीटर में) बाँध की चौड़ाई (मीटर में)
3.0 से कम 2.4
3.0 से 4.5 3.0
4.5 से 6.0 3.7
6.0 से 7.5 4.3

बांधों की ढलान

साधारण मिट्टी के लिए बाँध की ढलान यानि आकार और ऊंचाई का अनुपात 2:1 होना चाहिए । हल्की भुरभुरी मिट्टी के लिए आधार और ऊंचाई का अनुपात 3:1 होना चाहिए एवं हल्की– बलुई एवं नर्म चिकनी मिट्टी के लिए अनुपात 4:1 होना चाहिए ।

तालाब के बांधों को ढाल देने का मुख्या उदेश्य इन्हें समुचित मजबूती प्रदान करना है । अधिक ढाल के बाँध की निर्माण लागत कम होती है किन्तु वे बांध तालाबों की लहरों अथवा बाहरी दबाव को झेल नहीं पाते हैं । मजबूती की दृष्टि से कम ढाल के बाँध को इतना समुचित ढाल दिया जाता है की वे मजबूत भी रहें तथा निर्माण लागयत न्यूनतम रहें । विभिन्न प्रकार की मिट्टियों के लिए अनुशंसित ढाल की गणना निम्न रूप से दी जा रही है ।

मिट्टी के प्रकार अन्दर का ढाल बाहर का ढाल
सैंडी-लोम 1:2 – 1:3 1:1.5 – 1:5
सैंडी क्ले 1:0 – 1:5 1:0 – 1:5
मजबूत क्ले 1:1 1:1
अन्दर की इंटों की सतह 1:1 – 1:1.5 1:1.5 – 1:2
अन्दर की और कंकरीट की सतह 0:75 – 1:1 1:1.5 – 1:2

फ्री बोर्ड – यह बाँध की ऊंचाई का वह भाग है, जो तालाब के जल स्तर से उपर रहता है । इसके अतिरिक्त ऊंचाई द्वारा तालाब का पानी तरंगों के रूप में बहार नहीं जा सकता है तथा मछलियों भी कूद कर तालाब से बाहर नहीं जा सकती है । फ्री बोर्ड ऊंचाई सामान्यत आकस्मिक वर्षा से भी तालाब को सुरक्षित रखता है । फ्री बोर्ड की ऊंचाई विभिन्न परिस्थितियों में अलग-अलग होती है किन्तु भूमिबंधित राज्यों के लिए सामान्य आकलन निम्न प्रकार से किया जा सकता है –

तालाब की विभिन्न लम्बाईयों पर फ्री बोर्ड की अनुमानित ऊंचाई

तालाब की ऊंचाई (मी.में ) न्यूनतम फ्री बोर्ड (मी.में )
20 से कम 0.3
200 से 400 0.5
400 से 800 0.6

बांध बैठाने की गणना

बाँध निर्माण की प्रक्रिया में मिट्टी को अधिकतम घनत्व देना आवशयक है । यह तभी संभव है जब मिट्टी में समुचित मात्रा में नमी उपस्थित हो । सामान्यत: 15 से 20 सें० मी० मोटी मिट्टी की तह को रोलर से बैठा कर दूसरी सतह देनी चाहिए । यदि मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बहुत ज्यादा हो तो ऐसी स्थिति में स्वायल सेटलमेंट अलाउंस 15-20 प्रतिशत तक रखी जाती है ।

जल निकासी का प्रबंध

बांधों के निर्माण के लिए मजबूत तथा कम जल रिसाव वाली मिट्टी का उपयोग आवश्यक है । एक आदर्श मत्स्य प्रक्षेत्र के लिए सभी तालाबों से जल निकासी का प्रबंध आवश्यक है । तालाब में पानी की आउटलेट दो प्रकार का होता है जो स्थानीय आवश्यकता पर निर्भर करता है । एक प्रकार के आउटलेट में तालाब की औसत जल धारण सतह के ठीक उपरी जाली के साथ पाइप लगा दिया जाता है ताकि अतिवृष्टि के समय तालाब का पानी बांधों के ऊपर से नहीं निकले । महाझींगा, मांगुर तथा इसी प्रकार के अन्य जलकृषि में तालाबों को यदाकदा पूर्ण रूप से सूखने की आवश्यकता होती है । ऐसी स्थिति में तालाब की तली के स्तर पर या उससे थोडा नीचे की ओर की आउटलेट पाइप (ह्युम पाइप) लगा रहता है । आउटलेट पाईप का व्यास तालाब के आकार एवं जलक्षेत्र पर निर्भर करता है सामान्यत: छोटे तालाबों के लिए एक फीट व्यास का पाइप इस्तेमाल होता है । औसतन एस बात का ख्याल रखा जाता है कि पानी अधिकतम दो से तीन दिनों के अन्दर पूर्ण रूप से बाहर निकाल जाय ताकि मछलियों पर अचानक प्रतिकूल स्थिति नहीं आए तथा उनके रक्षा की समुचित व्यवस्था हो सके ।

विस्थापित जल का आयतन

विभिन्न व्यास के आउटलेट पाइप द्वारा विस्थापित जल का आयतन निम्न प्रकार है –

ह्युम पाईप का व्यास (इंच में) विस्थापित जल का आयतन (लीटर प्रति टन)
4 454
6 1325
12 3065

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, झारखण्ड सरकार

 

पंगेसियस पालन में आकस्मिकतायें एवं उपचार

  1. परिचय
  2. पंगेसियस सूचि में होने वाली प्रमुख बीमारियाँ एवं उपचार

परिचय

मछलियाँ शरीर की सभी प्रक्रियाएं जल में पूरी करती है। चूँकि ये स्वास लेने, भोजन ग्रहण करने, वृद्धि, उत्सर्जन, लवण का संतुलन एवं प्रजनन के लिए पूर्णत: जल पर आश्रित है अत: जल का भौतिक एवं रासायनिक गुणों को समझना मत्स्यपालन की सफलता के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। जलकृषि की सफलता-असफलता बहुत हद तक जल की गुणवत्ता पर निर्भर करती है।

पंगेसियस सूचि (पंगास) जिसकी वृद्धि अन्य मछलियों की तुलना में ज्यादा है, का सघन पालन आज झारखण्ड के साथ-साथ देश के कई राज्यों में तालाबों एवं केज में हो रहा है । वातावरण में अवांछनीय परिवर्तन के कारण मछलियों तनाव में आ जाती है, जिससे बीमारियों के संक्रमण का खतरा काफी बढ़ जाता है। बीमारियों के कारण हुए नुकसान को मत्स्य पालन में सबसे बड़ा नुकसान माना जाता है। अत: पंगेसियस के सफल उत्पादन के लिए किसानों को जल की गुणवत्ता एवं इसके स्वास्थ्य प्रबंधन पर ध्यान देना अति आवश्यक है ।

विज्ञान में एक प्रचलित कहावत है “बीमारी के उपचार से अच्छा उसका रोकथाम है”।

मत्स्य पालन में ज्यादातर बीमारियों का संक्रमण मछलियों के वातावरण (जल) की गुणवत्ता में अवांछनीय परिवर्तन के कारण ही शुरू होता है। पंगेसियस पालन के लिए निम्नलिखित जलीय गुणवत्ता को अच्छा माना जाता है।

क्र. जल का पारामीटर मान
1 तापमान 26-30 C
2 पारदर्शिता 30 – 40 cm
3 ph 6.5 से 8.0
4 घुलित आक्सीजन >4 ppm
5 कुल क्षारीयता (as CaCo3) 80-120 ppm
6 हाइड्रोजन सल्फाइड <0.002 ppm
7 कुल अमोनिया <0.5 ppm

जल की गुणवत्ता प्रबंधन के साथ-साथ भोजन के साथ प्रोबायोटिक का उपयोग भी मत्स्य कृषक आजकल सघन मत्स्य पालन में करने लगे हैं। प्रोबायोटिक मछलियों के रोग निरोधक क्षमता को काफी बढ़ा देते हैं। ठंडे के मौसम में जब रोग संक्रमण की सम्भावना ज्यादा होती है, फीड के साथ प्रोबायोटिक का उपयोग हमेशा लाभप्रद है।

पंगेसियस सूचि में होने वाली प्रमुख बीमारियाँ एवं उपचार

  1. बेसीलरी नेक्रोसीस :पंगेसियस में होने वाली यह एक घातक बीमारी है एवं इससे किसानों को काफी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ता है। यह रोग एक जीवाणु ऐडवरसीला इक्टालूरी के संक्रमण से होता है। ज्यादातर संक्रमण तापमान में गिरावट के समय होता है । मछलियों के त्वचा एवं गलफड़े  पीले हो जाते हैं तथा प्लीहा, लीभर एवं किडनी में छोटे-छोटे सफेद दाग दिखाई देते हैं। इसके उपचार के लिए कृत्रिम भोजन के साथ एंटीबायोटिक के रूप में आक्सीट्रासाइक्लीन या सल्फोनामाइद को मिलाकर एक या दो सप्ताह तक दिया जाता है। उपचार के साथ-साथ जल की गुणवत्ता जांच कर उसमें सुधार करना चाहिए।
  2. रेड स्पॉट यह बीमारी ज्यादातर तापमान में परिवर्तन के साथ-साथ परिवहन में हुए तनाव के समय देखी जाती है। इसका कारक ऐरोमोनास हाइड्रोफिला, ऐरोमोनास सर्बिया एवं ऐरोमोनास समूह के जीवाणु के संक्रमण से होता है । इसके संक्रमण से मुहं के आस-पास रक्तस्त्राव, पंखों के आधार पर रक्स्त्राव एवं भेंट फूल कर लाल हो जाती है । यह रोग फ्राई, फिंगरलिंग, बड़ी मछली सभी अवस्थाओं में देखी जाती है । इसका भी उपचार भोजन के साथ एंटीबायोटिक का उपयोग कर किया जाता है । इसके साथ-साथ जल की गुणवत्ता में भी सुधार करना जरुरी होता है ।
  3. व्हाईट स्पॉट यह बीमारी प्रोटोजोवा परजीवी इकथायोप्रथ्रीस मल्टीफीलीस के संक्रमण से मछलियों के त्वचा एवं गलफड़ों से छोटे –सफ़ेद दाग हो जाते हैं एवं मछलियाँ सुस्त हो जाती है । मछलियों को 10-15 ppm फरमालीन में 30 मिनट तक आक्सीजन प्रवाह में रखा जाता है एवं पुन: निकाल दिया जाता है। तालाब को 1 ppm पोटाशियम परमैगनेट से डिसइन्फेक्टेंट(विषाणुयुक्त) कर के भी एस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है।
  4. फंगस इन्फेक्शन– यह पंगेसियस के फ्राई एवं अंगुलिकाओं में ज्यादातर देखा जाता है । परिवहन के समय लगे चोटों के स्थान पर फंगस के हईफी अपना निवास स्थान बना लेते हैं। मछलियों की गति एवं संतुलन काफी प्रभावित हो जाती है। इसके उपचार के लिए 10% पोटाशियम परमैगनेट में मछलियों को डुबोकर 30-40 सेकेंड तक रखा जाता है एवं पुन: निकाल दिया जाता है ।
  5. गिल फ्लूकयह बीमारी एक प्रोटोजोआ परजीवी के संक्रमण से होती है। संचयन के तुरंत बाद यह बीमारी अंगुलिकाओं में ज्यादातर देखी जाती है। इसके संक्रमण से गलफड़े सफेद हो जाते हैं एवं मछलियाँ सुस्त हो जाती है। साथ ही सतह पर आने लगती है। तालाब में 1 ppm पोटाशियम परमैगनेट का घोल छिड़काव कर संक्रमण को कम किया जाता है।

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, झारखण्ड सरकार

 

मछलियों का मूल्य संवर्धन

  1. परिचय
  2. ताजा मछली की जांच
  3. फिलेटिंग कैसे करें

परिचय

मछली के बिना कांटे वाले मांस के टुकड़े को फिलेट तथा मछली के कांटेयुक्त रिंग नुमा टुकड़े को स्टिक कहते हैं | अत्याधुनिक मार्केट/सुपर मार्केट/ डिपार्टमेंटल स्टोर में मछली के फिलेट था स्टिक अलग-अलग साइज तथा प्रकार के उपलब्ध है | मछली के फिलेट के प्रयोग बच्चों, बूढों, तथा बीमार व्यक्तियों के लिए बहुत ही फायदेमंद है क्योंकि इसमें काँटा नहीं होता है तथा अपनी इच्छा के अनुसार उसकी कटिंग की जा सकती है | आज-कल भाग दौड़ की जिंदगी में भोजन बनाने के समय कम है ऐसी स्थिति में फिलेट रेडी टू कुक का अच्छा उपाय है |

ताजा मछली की जांच

मछली खरीदने से पहले उसकी जांच कर लेनी चाहिए | इसके लिए मछली के आँख को सर्वप्रथम देखना चाहिए | ताजा मछली की आँखें चमकदार, साफ तथा उभरे हुए होती है जबकि बासी मछली की आँखें धंसे हुए तथा हलके रंग के धुंधली होती है | ताज़ी मछली की बाह्य त्वचा नमीयुक्त तथा चमकीले, गलफड़े गहरे लाल तथा स्लेष्मायुक्त होती हैं तथा शारीर पर उंगली से दबा कर छोड़ने पर मांस अपनी पूर्व अवस्था में आ जाता है | ताजा मछली की गंध भी अलग किस्म की होती है | फिलेट एवं स्टिक नमीयुक्त तथा गहरे रंग की हो तभी खरीदें | यदि फिलेट एवं स्टिक का रंग धुंधला या मध्यम हो तो उस्मेनी बदबू आ रही हो तो उसे ना खरीदें | फ्रोजेन फिश खरीदना हो तो उसके सही आकार तथा रैपर को देखें | उसमें आइस क्रिसटल, खून के धब्बे तथा रंगहीन त्वचा एवं मांस रैपर में नहीं रखे गये हो | इसका ध्यान रहे कि जब बर्फ पिघले तो पैकेट में रखे मांस से दूर रहे अन्यथा नमी के सम्पर्क में आने से वे रंगहीन तथा बदबू देने लगेगी |

मछली को फ्रिजर में रखने से पहले मछली मांस के टुकड़े को टिशू पेपर या हेवी ड्यूटी प्लास्टिक थैली में ही लपेटे | पैकेट के ऊपर लेवल लगा दें, जिसमें मछली के प्रजाति, काटन के प्रकार, वजन तथा पैकिंग तिथि जरूर हो | लीन फिश को छ: महीनों तक तथा वसायुक्त मछली को 3 महीने तक फ्रीजर में रखा जा सकता है | उसकी बनावट तथा गुणवत्ता को बरकरार रखने के लिए मछली के टुकड़े को फ्रीजर में से निकल कर रात भर खुले में छोड़ देना चाहिए | उसके बाद पानी से डूबाकर धोने के बाद पकाने के काम में लाना चाहिए |

भारत में मछलियाँ सिर, धड, एवं पूंछ के साथ ही अधिकतर बिक्री की जाती है | छोटी मछली को पकाने के पहले उकसे चोंयटे तथा आँतों को निकाल दिया जाता है | बड़ी मछलियों के सर गलफड़े, चोयटे तथा आँतों को निकाल कर पकाया जाता है | मछली की त्वचा जो एक प्रकार से मछली के मांस के रक्षक होते हैं, मछली को अत्यधिक स्वादिष्ट तथा रसदार बनाते है | फिलेटिंग चमड़ी के साथ या बिना चमड़ी के भी हो सकती है |

साधारणत: ताजा मछली को मांस की गुणवत्ता के अनुसार दो भागों में बांटा जा सकता है : –

(1)   लीन एवं वसायुक्त मछली – इसमें 1-5 % तक वसा होती है |

(2)   वसायुक्त मछली – इसमें 5-35% तक वसा होती है |

वसायुक्त मछली का मांस गहरे लाल, काले तथा तीखे स्वाद वाली होती है |

फिलेटिंग कैसे करें

फिलेटिंग हेतु सामग्री – कटिंग बोर्ड, तेजधार वाली चाकू, पानी ट्रे, बाल्टी इत्यादि |

  1. सबसे पहले मछली को धो लें |
  2. मछली को कटिंग बोर्ड पर लिटा दे |
  3. गिल के पास नरम मुलायम माँस का पता लगाए |
  4. मछली के सिर के पीछे से रीढ़ तक चीरा लगा दें |
  5. मछली के सिर को एक हाथ से पकडे तथा दूसरी हाथ से चाकू की सहायता से 60 के कोण बनाते हुए चीरा लगाएँ तथा चीरे को सर से पूंछ तक बढ़ाएं | ध्यान रहे कि मछली के आंतों तथा गाल ब्लाडर को क्षति ना पहुंचे |
  6. चाकू से क्षैतिज दिशा में मेरुदंड के समानन्तर चीरा लगा दें |
  7. धीरे-धीरे नाजुक माँस के भाग को सर से पूंछ की तरफ काटते जायें | रीढ़ की हड्डी को काट दें तथा मांस के भाग को उठाते रहें | फिलेट को निकाल कर अलग रख दें |
  8. मछली के दूसरी तरफ का फिलेट इसी प्रकार निकाल लें |
  9. प्रथम बार में पूर्ण रूप से माँस अलग नहीं होती है | तो चिंता न करें | कोशिश यह होनी चाहिए कि कुछ तो फिलेट के साथ माँस के टुकड़े मिले |
  10. त्वचा अलग करने के लिए त्वचा सहित फिलेट को इस प्रकार रखें कि त्वचा नीचे की तरह हो |
  11. यदि त्वचा सहित फिलेट करना हो तो चोंयटे को भोथरी चाकू से खुरच कर अलग कर दें |
  12. चाकू से क्षैतिज चीरा लगा कर त्वचा अलग करें और उसके बाद चाकू से धीरे-धीरे समान्तर मछली के माँस को अलग करें तथा चमड़ी को एक हाथ से पकड़े दूसरी हाथ से चाकू के माध्यम से फिलेट निकाल लें |

फिलेट निकालने के बाद उसे साफ पानी में धो ले जालीदार बर्तन में 30 मिनट तक रखें ताकि पानी सूख जाए, तत्पश्चात उसे प्लास्टिक पैकिंग कर फ्रीजर में रखें या फिर आइस बाक्स में रखें |

 

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, झारखण्ड सरकार

केज (पिंजरा) में मछली पालन

  1. भूमिका
  2. केज (पिंजरा) पालन – एक परिचय
  3. केज मत्स्य पालन से लाभ
  4. केज मत्स्य पालन के विभिन्न चरण
  5. केज के प्रकार
  6. स्थान का चुनाव
  7. केज निर्माण समाग्रियों की व्यवस्था
  8. संचयन
  9. पूरक आहार
  10. पूरक आहार तालिका
  11. वृद्धि
  12. प्रबंधन
  13. मीठापानी केज जलकृषि में विश्व के १० अग्रणी देश निम्नलिखित हैं

भूमिका

पिछले दशक में वैश्विक मत्स्य मांग काफी तेजी से बढ़ने कारण केज मत्स्य पालन पूरे विश्व में काफी तेजी से फैल रहा है। झारखण्ड में जलाशयों का कुल जलक्षेत्र लगभग 1 लाख 15 हजार हेक्टेयर है जो राज्य के लिए मत्स्य उत्पादन का एक बहुत बड़ा संसाधन है। राज्य के जलाशयों में स्वत: बीज संचयन की सफलता की दर बहुत कम है। अत: ऐसी परिस्थिति में जलाशयों में केज कल्चर का उपयोग बड़ी अंगुलिका तैयार करने में किया जा सकता है। साथ ही साथ जलाशयों में केज स्थापित कर सही मत्स्य प्रजातियों का संचयन एवं पालन से वहां मत्स्य उत्पादन काफी बढ़ाया जा सकता है।

केज (पिंजरा) पालन – एक परिचय

केज (पिंजरा) जाल द्वारा सभी ओर से बंद के पिंजरे के जैसा संरचना है जो पानी के प्रवाह एवं दबाव को लम्बे समय तक सहन कर सकता है। एशिया महादेश के कई देशों में जलाशयों एवं खुले समुद्र में केज निर्माण का मत्स्य पलान का कार्य वर्षों पहले से चला आ रहा है। आज झारखण्ड सहित देश के कई राज्यों में केज मत्स्य पालन प्रगति पर है।

झारखण्ड में छोटे मध्यम एवं बड़े आकार के कुल 252 जलाशय हैं जिसका जलक्षेत्र लगभग 115000 हे. है। इतने बड़े जल संसाधन को ध्यान में रखकर सतत मत्स्य उत्पादन की ओर ले जाना एवं अधिक से अधिक लोगों के भोजन में पोषक तत्व के रूप में मछली लाने के उदेश्य से ही जलाशयों में केज बनाकर पूर्णत: पूरक आहार आधारित मछली पालन कार्य मत्स्य विभाग, झारखण्ड सरकार द्वारा शुरू किया गया है, जो मत्स्य पालन की दिशा में एक नई पहल है। राज्य योजना के तहत सर्वप्रथम हटिया जलाशय में 8 केज की ईकाई लगाई गई है और इसमें पतराटोली मत्स्यजीवी सहयोग समिति, धुर्वा के साथ समन्वय स्थापित कर मत्स्य पालन का कार्य प्रारंभ किया गया है। प्रति केज प्रथम चरण में 2000-3000 किग्रा मछली उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित किया गया है इसके साथ-साथ चांडिल एवं तेनुघाट जलाशयों में RKVY अधीन NMPS योजना अंतर्गत के मत्स्य पालन का कार्य बड़े पैमाने पर शुरू किया गया है। चांडिल जलाशय में कुल 48 युनिट केज का निर्माण कर स्थापित कर दिया गया है एवं तेनुघाट में निर्माण कार्य प्रगति पर है। स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए एवं निर्माण खर्च को कम रखने के उदेश्य से जीआई पाइप्स के द्वारा केज का फ्रेम निर्माण किया गया है।

केज मत्स्य पालन से लाभ

  1. अधिक घनत्व में मत्स्य अंगुलिकाओं का संचयन कर सघन मत्स्य पालन किया जा सकता है।
  2. युनिट क्षेत्रफल में उत्पादकता ज्यादा है।
  3. मजदूरी खर्च कम है।
  4. इससे जलाशय के पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है।

केज मत्स्य पालन के विभिन्न चरण

  1. केज स्थापित किये जाने योग्य स्थान का चुनाव।
  2. केज के प्रकार (संरचना) का चयन।
  3. केज निर्माण सामग्री की व्यवस्था।
  4. केज की स्थापना।
  5. संचयन की जानेवाली मत्स्य प्रजातियों का चुनाव।
  6. मत्स्य बीजों का संचयन।
  7. पूरक आहार।
  8. केज कल्चर का प्रबन्धन।

केज के प्रकार

केज मत्स्य पालन में साधारणत: चार प्रकार का केज देखे जाते हैं- स्थायी पिंजरे, तैरते हुए पिंजरे, पनडुब्बी रूपी पिंजरे, पानी में डूबे हुए पिंजरे मुख्यत: नदी/नहर के प्रवाह के रास्ते में छिछले पानी में जहां गहराई 1-3 मीटर हो लगाया जाता है। केज मुख्यत: एक फ्रेम के मदद से टिका होता है, जिसमें जाल पानी के फ्रेम के मदद से टिकी होती है, जिसमें जाल पानी में फ्रेम के साथ लटकती है। तैरते हुए केज अलग-अलग डिजाइन में आवश्यकता अनुसार बनाया जाता है। इस प्रकार के केज का प्रचलन मत्स्य पालन में ज्यादातर हो रहा है। पनडुब्बी रूपी पिंजरे, पानी में डूबे हुए केज का प्रचलन मत्स्य पालन में बहुत ही कम है।

स्थान का चुनाव

केज मत्स्य पालन की सफलता बहुत कुछ सही स्थान के चुनाव पर निर्भर करती है। जलाशयों में केज स्थापित करने के लिए सही स्थान हेतु निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

  • तैरते हुए केज को ऐसी जगह में स्थापित करना चाहिए जहाँ पानी की गहराई कम से कम 6 मीटर या उससे ज्यादा है।
  • जहां पानी का बहाव धीमा हो।
  • पानी औद्योगिक प्रदूषण से परे हो।
  • स्थान सुरक्षित एवं पहुँच के दायरे में हो।
  • जहां पानी में बड़े जलीय पौधे नहीं हो।
  • जहां पर जानवरों एवं स्थानीय लोगों का क्रियाकलाप नहीं हो।

केज निर्माण समाग्रियों की व्यवस्था

फ्रेम :- सस्ते एवं मजबूत समग्री का चुनाव केज निर्माण के लिए आर्थिक दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण है। केज के फ्रेम के निर्माण के लिए साधारणतया बाँस की लकड़ी या जी०आइ० पाईप का उपयोग किया जाता है। फ्रेम को नट बोल्ट से फिक्स कर दिया जाता है।

फ्लोट :– फ्रेम को मजबूती एवं पानी में फ्लोट करने के लिए या तो स्टील के ड्रम या प्लास्टिक के ड्रम का उपयोग किया जाता है। 12 मीटर लम्बे एवं 8 मीटर चौड़े आयताकार केज के फ्रेम को तैराने के लिए 200 लीटर क्षमता वाले 36 पीस प्लास्टिक ड्रम की आवश्यकता होती है। ड्रम को ऊपर और नीचे फ्रेम के बीच सेंडविच की तरह लोहे की पट्टी से बाँधा जाता है।

सिंकर : – स्थानीय पत्थर या सीमेंटेड संरचना जो भारी हो, को नाइलोन रस्सी द्वारा सभी किनारों से लटका दिया जाता है जो केज के आकार को बनाये रखता है।

एंकर :– 40-50 किलो ग्राम के पत्थर या सीमेंटेड सरंचना को एंकर के रूप में उपयोग किया जाता है। मजबूत नाइलन रस्सी से इसे बांधकर जलाशय के तल में फिक्स कर दिया जाता है। एंकर केज को सही स्थान पर जकड़कर रखता है ताकि केज को जलाशय में ज्यादा चलाचल नही हो।

जाल : साधारणतया एचडीईपी या नायलोन निर्मित जाल का उपयोग बड़ी मछलियों के उत्पादन के लिए किया जाता है। जाल के फांद संचय किये जाने वाली मछलियों पर निर्भर करता है। भारत में केज पालन में उपयोग होने वाले ज्यादातर जाल का निर्माण गारवारे कंपनी द्वारा किया जाता है। 24 मिलीमीटर,18 मिलीमीटर,16 मिलीमीटर,10 मिलीमीटर इत्यादि मेस का जाल देश में आसानी से उपलब्ध हो जाता है।

कैटवाक :– केज के फ्रेम के ऊपर आवागमन का रास्ता कैटवाक कहलाता है। कैटवाक स्थानीय लकड़ी या बांस का बनाया जाता है। स्थानीय उपलब्धता पर इसकी संरचना अन्य वस्तुओं से भी बनाई जा सकती है। केज ऊपर आवागमन के लिए इसका बनाना जरुरी है। लकड़ी को जी०आइ० पाईप या बांस के फ्रेम से मजबूती से फिक्स कर कैटवाक तैयार किया जाता है।

केज की स्थापना :– फ्रेम को सबसे पहले चयनित स्थान में एंकर करने के बाद जाल को बाँधने का कार्य किया जाता है। सिल्क रोप की मदद से जाल को फ्रेम में इस तरह बांध दिया जाता है कि फिसलन न हो। नेट को सतह के किनारे में सिंकर से बांध दिया जाता है ताकि जाल सीधा और सही आकार के बना रहे। जाल के निचले सतह को जलाशय के सतह से 2 से 3 मीटर उपर रखना चाहिए ताकि केंकड़े या अन्य प्रजातियाँ तो जल पर रहते हैं इसे हानि नहीं पहुंचाएं।

  1. संचयन की जाने वाली मत्स्य प्रजातियों का चुनाव :केज मत्स्य पालन के लिए कई प्रजातियों को उपयुक्त माना गया है। केज पालन के पहले निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
    1. स्थानीय स्तर पर मत्स्य बीजों की उपलब्धता।
    2. चयनित मछली की बाजार में मांग।
  • पूरक आहार की उपलब्धता इत्यादि।

केज में पालन होने वाले प्रजातियों में निम्नलिखित गुण होने चाहिए

  1. वृद्धि दर तेज हो।
  2. बाजार में अधिक मांग हो।
  3. पूरक आहार को आसानी से ग्रहण करती हो।
  4. रोग निरोधक क्षमता ज्यादा हो।
  5. ज्यादा घनत्व में रहने में सक्षम हो।

संचयन

केज का उपयोग फ्राई से अंगुलिका के उत्पादन के साथ-साथ टेबल साईज मछली उत्पादन के लिए किया जाता है। अंगुलिकाओं को संचयन हेतु ज्यादा दूरी से परिवहन नहीं करना अच्छा माना जाता है। अंगुलिकाओं का उत्पादन या तो केज में ही करना चाहिए या तो केज के आस-पास तालाबों में इसका उत्पादन करना चाहिए। ज्यादा दूरी से फिंगरलिंग का परिवहन करने में उसमें चोट लगने तथा संक्रमण के कारण कम उत्तरजीवी प्राप्त होते हैं। केज में फ्राई या अंगुलिकाओं के संचयन के पहले इन्हें 5% नमक के घोल तथा 5% KMnO(पोटेशियम परमैगनेट) के घोल में एक मिनट डुबाकर रखना चाहिए। केज में अंगुलिकाओं का घनत्व प्रजति एवं पालन के तरीके पर निर्भर करता है। साधारणतया एक घन मीटर क्षेत्र के 50-100 पंगेसियस की अंगुलिकाओं का संचयन किया जाता है।

पूरक आहार

साधारणतया सभी प्रजातियों को केज में पाली जाती है, के लिए एक पूरक आहार का उपयोग करना अच्छे उत्पादन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। लोकल फीड या कृत्रिम भोजन दोनों का उपयोग मत्स्य उत्पादन के लिए किया जाता है। कार्प प्रजातियों के लिए लोकल फीड के रूप में सरसों की खल्ली एवं चावल का कोढ़ा 1:1 में मिलाकर खिलाया जा सकता है। शुरू में 3-5% शरीर भार के अनुसार दिन में 2-3 बार भोजन दिया जाना चाहिए। बाद में भोजन को 1-2% शरीर भार तक सीमित कर दिया जाता है। पंगेसियस पालन में ज्यादातर फ्लोरिंग फीड का प्रयोग किया जाता है।

उचित प्रोटीन युक्त भोजन सही मात्रा में पंगेसियस अंगुलिकाओं को खिलाना अच्छे उत्पादन एवं उत्तरजीविता के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। पंगेसियस पालन मुख्यत: पूरक आहार आश्रित मत्स्य पालन है। पंगेसियस मछलियों के शारीरिक भार के आधार पर प्रतिदिन का आहार नीचे लिखित तालिका में दर्शाया गया है।

पूरक आहार तालिका

औसत शरीर भाग (ग्राम) आहार (%) प्रतिशत फीड पिलेटस का आकार (मि०मी०) फीड में प्रोटीन की मात्रा (% की मात्रा)
10 8 2 32
20 6 2 32
40 6 2 32
80 5 3 30
160 4 4 28
280 4 4 28
500 4 4 28
800 2 4 28
1000 1 4 28

वृद्धि

साधारणतया प्रति महीने पंगेसियस 150-160 ग्राम की वृद्धि केज में प्राप्त कर सकता है। हटिया जलाशय रांची में 10 ग्राम औसतन वजन वाले 3000 पंगेसियस मत्स्य अंगुलिकाओं का संचयन प्रत्येक केज में किया गया था। पांच माह में इसका औसतन वजन बढ़कर लगभग 500 ग्राम हो गया। इस तरह प्रति केज यूनिट से कुल उत्पादन 1500 किग्रा है, जिसमें पूरक आहार के रूप में लगभग 1700 किग्रा फ्लोटिंग फीड का उपयोग किया गया है।

प्रबंधन

  1. जल की जाँच – जल की गुणवत्ता की जांच केज में बराबर करते रहना चाहिए। मुख्यत: पानी में घुलित आक्सीजन (DO), ph, अमोनिया इत्यादि की जांच करना जरुरी है }
  2. जल की साफ-सफाई – हर 15 दिन में एक बार ब्रश से जाल को साफ करना चाहिए ताकि इसमें काई इत्यादि का जमाव न हो। अगर कोई मरी हुई मछली हो तो उसे हटा दिया जाना चाहिए।
  3. रूटीन जाँच-जाल के धागे एवं मेस की जाँच बीच-बीच में करनी चाहिए। अगर कोई मेस लूज हो या कट गया हो तो उसकी मरम्मत कर लेना चाहिए।
  4. मछलियों की जांच मछलियों के स्वास्थ्य का निरिक्षण निरंतर करनी चाहिए। अगर कहीं संक्रमण, घाव इत्यादि दिखे तो उसका तुरंत उपचार करना चाहिए। नियमित रूप से मछलियों की वृद्धि की जांच कर पूरक आहार की मांग संतुलित करनी चाहिए।

मीठापानी केज जलकृषि में विश्व के १० अग्रणी देश निम्नलिखित हैं

क्र. देश का नाम उत्पादन में हिस्सा (%)
1 चीन 68.4
2 वियतनाम 12.2
3 इंडोनेशिया 6.6
4 फिलिपिन्स 5.9
5 रूस 1.4
6 टूनेसिया 1
7 लाओस 1
8 थाईलैंड 0.76
9 कम्बोडिया 0.6
10 जापान 0.4

 

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, झारखण्ड सरकार

 

रंगीन मछलियों का पालन एवं एक्वेरियम निर्माण

  1. परिचय
  2. अलंकारी मछलियों के प्रकार
  3. अलंकारी मछलियों का पालन
  4. सहायक उपकरणों का विक्रय
  5. एक्वेरियम निर्माण
  1. एक्वेरियम बनाने के लिए आवश्यक सामग्री
  2. एक्वेरियम प्रबन्धन

परिचय

शहरों तथा कस्बों में रंगीन मछलियों को एक्वेरियम में रखने का प्रचलन दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। यह रखने वाले को सिर्फ मानसिक शान्ति ही नहीं देती बल्कि वास्तु दोष का भी निवारण करती है। आज झारखंड में तमाम रंगीन मछलियाँ दूसरे राज्यों से मंगाई जाती है जबकि इन्हें पालना कठिन नहीं है। खासकर महिलाएं इन्हें आंगन में भी कम पूंजी की लागत से कर सकती है। रंगीन मछलियों के पालन एवं एक्वेरियम निर्माण की तकनीकी जानकारियों से अच्छी आमदनी प्राप्त की जा सकती है।

अलंकारी मछलियों के प्रकार

  1. शिशु जनक – गप्पी, सॉर्ड टैल, प्लेटो, मॉली आदि।
  2. अंड जनक – गॉरामी, गोल्डफिश, एंजल, डॉलर फिश, पुन्टीयस आदि।

अलंकारी मछलियों का पालन

अलंकारी मछलियों के छोटे-छोटे तालाब या सीमेंट टैंक में पाला जा सकता है। इसके लिए जल का प्रवाहबद्ध पद्धति तैयार कर जल की गुणवत्ता बरकरार रखनी चाहिए। इनके लिए बाजार में सजीव एवं कृत्रिम आहार मौजूद हैं।

सहायक उपकरणों का विक्रय

रंगीन मछलियों के प्रजनन, पालन एवं निर्यात के अतिरिक्त इस व्यवसाय में एक्वेरियम की सुन्दरता को बढ़ाने तथा उनके प्रबन्धन हेतु तरह-तरह के पत्थर के टुकड़े, खिलौने, प्राकृति एवं कृत्रिम पौधे, शुष्क आहार, सजीव आहार, फिल्टर आदि की मांग काफी अधिक है। इन सामग्रियों का व्यवसाय भी शुरू कर अच्छी आय प्राप्त की जा सकती है।

एक्वेरियम निर्माण

रंगीन मछलियों का अक्सर एक्वेरियम में पालते है। शीशे का बना हुआ आयताकार टैंक काफी प्रचलित है क्योंकि यह देखने में काफी आकर्षक लगता है तथा इसमें पानी रिसने की संभावना भी कम होती है। इसको बनाने एवं प्रबन्धन की जानकारी एक सफल व्यवसायी के लिए जरूरी है।

एक्वेरियम बनाने के लिए आवश्यक सामग्री

1.शीशे का टैंक, 2. बल्ब लगा ढक्कन, 3. छोटे-छोटे रंग-बिरंगे पत्थर, 4. स्टैंड, 5. जलीय पौधे, 6. सजावटी खिलौने, 7. वायुप्रवाहक, 8. एयरस्टोन, 9. फिल्टर, 10. रंगीन मछलियाँ, 11. हैण्ड नेट, 12. कृत्रिम आहार, 13. बाल्टी एवं मग, 14. स्पंज, 15. स्वच्छ जल।

एक्वेरियम प्रबन्धन

आकर्षक लगने हेतु एक्वेरियम का प्रबन्धन बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसके लिए कुछ बातों का ध्यान देना आवश्यक है।

  1. एक्वेरियम के शीशे की दीवार कुछ समय बाद धुंधली दिखाई देने लगती है इसलिए इसे मुलायम, साफ़ कपड़े से बिना खरोंच के शीशे को प्रतिदिन पोंछना चाहिए।
  2. मछलियों के स्वास्थ्य का परीक्षण प्रतिदिन करना चाहिए।
  3. एक्वेरियम में लगाए गए उपकरणों की क्रियाविधि की जांच समय-समय पर करते रहना चाहिए।
  4. प्रत्येक 15 दिन पर जल का 10-30 प्रतिशत भाग बदलते रहना चाहिए।
  5. अगर किसी कारणवश मछली बीमार हो तो तुरंत उसे अलग कर देना चाहिए।

एक्वेरियम कहां रखें?

एक्वेरियम रखने का स्थान समतल होना चाहिए। एक्वेरियम को लोहे या लकड़ी के मजबूत स्टैंड पर रखना चाहिए। सूर्य की किरणें उसपर सीधी नहीं पड़नी चाहिए, अन्यथा कई जमने की संभावना अधिक हो जाती हैं, जिससे एक्वेरियम गंदा दिखाई देने लगता है। 40 वाट के बल्ब की रोशनी का साधारण एक्वेरियम के लिए उपयुक्त होती है।

रंगीन मछलियों का आहार

मछलियों के अच्छी वृद्धि के लिए कृत्रिम आहार दिन में दो बार निश्चित समय पर 2-3 प्रतिशत शरीर के भार के अनुसार खिलाया जाना चाहिए।

रंगीन मछलियों की पोषण आवश्यकता

प्रोटीन वसा कार्बोहाइड्रेट खनिज विटामिन
30-45% 6-8% 40-50% 1% 1%

रंगीन मछलियों के आहार में कैरोटीन

रंगीन मछलियों का व्यावसायिक मूल्य उनके चमकीलें रंगों पर निर्भर करती है। कैरोटीन मछलियों की त्वचा के रंग का प्राथमिक श्रोत है। चूँकि कैरोटीन केवल पौधों द्वारा संश्लेषित किये जाते हैं इसलिए मछलियाँ इसकी आवश्यकता आहार से पूरी करती है। अत: मछलियों के व्यावसायिक संभावनाओं के देखते हुए यह आवश्यकता है कि उनके आकर्षक रंगों को बनाए रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में कैरोटीन लगातार आहार में मिलाया जाए। निम्नलिखित तालिका द्वारा विभिन्न अवयवों में कैरोटीन की उपलब्धता दर्शायी गई है।

आहार औसत कैरोटीन की मात्रा
अवयवप (मिग्रा./किग्रा.)
पीला मक्का 17
घास का चूरा 320
गेंदे के फूल का चूरा 8800
प्रॉन का चूरा 200

अलंकारी मछलियों के व्यवसाय की असीम संभावनाएँ है। यह स्वरोजगार का एक अच्छा साधन बन सकता है।

स्त्रोत: कृषि विभाग, झारखंड सरकार

 

रंगीन मछली पालन के लिए एक्वेरियम बनाएं

  1. परिचय
  2. किस प्रकार बनायें एक्वेरियम
  1. एक्वेरियम तैयार करने के लिए आवश्यक सामग्री :-
  2. एक्वेरियम कहां और कैसे रखें ?
  1. एक्वेरियम कैसे सजाएं ?
  2. मछलियों के अच्छे स्वाथ्य के लिए पानी की गुणवत्ता निम्नलिखित होनी चाहिए :-
  3. एक्वेरियम में कितनी मछलियाँ रखें ?

परिचय

विश्व में रंगीन मछलियों का व्यापार 50 करोड़ अमेरिकी डालर को पार कर गया है जिसमें भारत की ह्स्सेदारी मात्र 5 करोड़ रुपये का है। हमारे देश में रंगीन मछली पालन शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन का काफी क्षमता रखता है। रंगीन मछलियों को शिशे के एक्वेरियम में पालन एक विशिष्ट शौक है। रंग बिरंगी मछलियों बच्चे एवं बूढ़े सभी का मन मोह लेती है। विज्ञान में यह कहा गया है कि रंगीन मछलियों के साथ समय व्यतीत करने में मानसिक तनाव कम होती है। आजकल एक्वेरियम को घर में सजाना लोगों का एक समान्य फैशन हो गया है।

किस प्रकार बनायें एक्वेरियम

एक्वेरियम तैयार करने के लिए आवश्यक सामग्री :-

  1. पॉलिश किया हुआ शीशे का प्लेट
  2. बल्ब लगा हुआ ढक्कन
  3. आवश्यकतानुसार टेबुल/ स्टैंड
  4. सीलेंट/ पेस्टिंग गन
  5. छोटे-छोटे रंग-बिरंगे पत्थर
  6. जलीय पौधे (कृत्रिम या प्राकृतिक)
  7. एक्वेरियम के पृष्ठ भूमि के लिए रंगीन पोस्टर
  8. सजावटी खिलौने
  9. थर्मामीटर
  10. थर्मोस्टैट
  11. फिल्टर उपकरण
  12. एयरेटर
  13. क्लोरिन मुक्त जल
  14. रंगीन मछलियों पसंद के अनुसार
  15. मछलियाँ का भोजन-जरुरत के अनुसार
  16. हैंड नेट
  17. बाल्टी
  18. मग
  19. स्पंज इत्यादि

एक्वेरियम कहां और कैसे रखें ?

एक्वेरियम रखने का स्थान समतल होना चाहिए तथा धरातल मजबूत होना चाहिए। लोहे या लकड़ी का बने मजबूत स्टैंड या टेबुल का प्रयोग किया जा सकता है। जहां एक्वेरियम रखना है वहां बिजली की व्यवस्था भी आवशयक है।

एक्वेरियम कैसा हो ?

स्वयं एक्वेरियम निर्माण में सावधानी की आवश्यकता होती है। पालिस किये गए शीशे के प्लेट को सीलेंट से जोड़कर आप एक्वेरियम बना सकते हैं। बाजार में उपलब्ध एक्वेरियम बिक्रेता से अपने पसंद का एक्वेरियम खरीद सकते हैं। घरों के लिए एक्वेरियम मुख्यत: 60 x 30 x 30 से.मी. लम्बाई, चौड़ाई एवं उंचाई की मांग अधिक है। शीशे की मोटाई 2-6 मी.मी. होनी चाहिए। एक्वेरियम को ढकने के लिए फाईबर या लकड़ी के बने ढक्कन के चुनाव कर सकते हैं। ढक्कन के अंदर एक बल्ब लगी होनी चाहिए। 40 वाट के बल्ब की रोशनी एक साधारण एक्वेरियम के लिए उपयुक्त है।

एक्वेरियम कैसे सजाएं ?

एक्वेरियम को खरीदने के बाद उसे सजाने से पहले अच्छी तरह साफ पानी से थो लेना चाहिए। इसके बाद साफ बालू की परत बिछा देते हैं और उसके ऊपर छोटे-छोटे पत्थर की एक परत बिछा दिया जाता है। पत्थर बिछाने के बाद थर्मोस्टैट, एयरेटर एवं फिल्टर को लगा दिया जाता है।

एक्वेरियम में जलीय पौधे लगाने का प्रचलन है। बाजारों में आजकल कृत्रिम पौधे तरह-तरह के उपलब्ध है। एक्वेरियम को आकर्षक बनाने के लिए तरह-तरह के खिलौने अपने पसंद से लगाये जा सकते हैं। पौधे एवं खिलौने अपने पसंद से लगाये जा सकते हैं। पौधे एवं खिलौना को सजा लेने के बाद पानी भरा जाता है। एक्वेरियम में भरा जानेवाला पानी क्लोरिन मुक्त होना चाहिए। इसलिए यदि नल का पानी हो तो उसे कम से कम एक दिन संग्रह कर छोड़ देना चाहिए और फिर उस पानी को एक्वेरियम में भरना चाहिए।

मछलियों के अच्छे स्वाथ्य के लिए पानी की गुणवत्ता निम्नलिखित होनी चाहिए :-

परामीटर मात्रा (value)
pH 7.5-8.5
घुलित आक्सीजन 5 मि०ग्रा०/लीटर
क्षारीयता 40-120 मि०ग्रा०/लीटर
तापमान 24 28c

एक्वेरियम में पानी भरने के बाद एक या दो दिन अनुकूलन के लिए छोड़ दिया जाता है। दो दिन बाद मछलियों का संचयन किया जाना बेहतर माना जाता है।

एक्वेरियम में कितनी मछलियाँ रखें ?

एक्वेरियम तैयार कर अनुकूलित करने के बाद उसमें विभिन्न प्रकार की रंग बिरंगी मछलियाँ पाली जाती है। रंगीन मछलियों के अनके प्रजातियां हैं, पर इन्हें एक्वेरियम में एक साथ रखने के पहले जानना आवश्यक है कि ये एक दुसरे को हानि तो नहीं पहुंचाएंगे। छोटी आकार की मछलियाँ रखना एक्वेरियम के लिए ज्यादा बेहतर माना जाता है, जिनका नाम निम्नलिखित है : –

  1. ब्लैक मोली
  2. प्लेटी
  3. गप्पी
  4. सोई टेल
  5. गोरामी
  6. फाइटर
  7. एंजल
  8. टैट्रा
  9. बार्ब
  10. शार्क
  11. आस्कर
  12. गोल्ड फिश

इन मछलियों के अतिरिक्त कुछ देशी प्रजातियाँ हैं जिनको भी एक्वेरियम में रखा जाने लगा है – जैसे – लोच, कोलीसा, चंदा, मोरुला इत्यादि।

आमतौर पर 2-5 से.मी. औसतन आकार की 50 मछलियाँ प्रति वर्ग मी. जल में रखना ज्यादा बेहतर माना गया है।

मछली का आहार क्या हो ?

मछलियों का प्राकृतिक आहार प्लवक है परन्तु एक्वेरियम में मुख्यत: कृत्रिम आहार का प्रयोग किया जाता है। बाजार में रंग-बिरंगे आकर्षण पैकेटों में इनका आहार उपलब्ध है। आहार दिन में दो बार निश्चित समय में 2% शरीर भार के अनुसार दिया जाना चाहिए। यह मात्रा जरुरत के अनुसार बढ़ायी या घटायी जा सकती है। भोजन उतना ही देना चाहिए जितना मछलियां तुरंत खाकर खत्म कर दें। सप्ताह में एक या दो बार प्लवक भी खिलाना चाहिए इससे मछलियों की चमक बनी रहती है।

एक्वेरियम प्रबंधन के लिए आवश्यक बातें :

  1. थर्मोस्टैट द्वारा पानी का तापमान 24-28c के बीच बनाये रखें।
  2. एयरेटर द्वारा वायु प्रवाह निरंतर करना चाहिए।
  3. पानी साफ रखने के लिए फिल्टर का उपयोग करना चाहिए।
  4. एक्वेरियम में उपस्थित अनावश्यक आहार, उत्सर्जित पदार्थों को प्रतिदिन साइफन द्वारा बहार निकालना चाहिए।
  5. हर 15 दिन में एक बार आधा पानी निकलकर स्वच्छ पानी भरना चाहिए।
  6. यदि कोई मछली मर जाती है तो उसे तुरंत निकाल देने चाहिए।
  7. याद कोई मछली बीमार हो तो, इसका उपचार करना चाहिए।

स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय (पशुपालन एवं मत्स्य विभाग), झारखण्ड, राँची – 834002

 

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