मछली पालन के लिए प्रश्नोत्तर
- परिचय
- आर्थिक दृष्टिकोण से झारखण्ड के तालाबों में पालने के लिये सबसे बढ़िया मछली कौन सी है ?
- एक एकड़ के तालाब में कितना चूना पड़ेगा और साल भर में कितनी बार चूना पड़ेगा, बतलाइये ? चूना तालाब में क्या काम करता है, इसकी भी जानकारी दें |
- तालाब में मछली पालन तो करते हैं | परन्तु तालाब का भिंड (मेड़, बाँध) का क्या उपयोग हो सकता है ?
- मछलियाँ क्या खाती है ? प्लवक क्या है ? तालाब में मछली के सांस लेने हेतु आक्सीजन कहाँ से आता है ? इसे कैसे बढाया जा सकता है ?
- तालाब में सैवाल आदि जलीय घासों के नियंत्रण के लिये क्या करें ?
- तालाब का कुल मछली बेहोश होकर कात में आ जाए (किनारे लग जाए) या ऊपर-ऊपर चलने लगे तो उस हालत में क्या करना चाहिये ?
- कम पानी होने पर तालाब में मछलियाँ क्यों मरने लगती है ? ऐसी अवस्था में क्या उपाय करना चाहिए ?
- जिस गड्ढे में केवल तीन से पांच माह तक ही पानी रहता है, ऐसे गड्ढों में कौन सी प्रजाति की मछली पाली जा सकती है तथा उसमें कितना मत्स्य बीज डाला जाना चाहिये ?
- प्रदर्शनी में महाझींगा के पालन के बारे में बताया गया है | इसके बीज की कमी को देखते हुए इसके पालन की एस क्षेत्र में क्या संभावना है | अगर है तो किस तरह से इसका पालन किया जाए तथा इसे किस प्रकार का भोजन दिया जाना चाहिये?
- कार्प मछलियों के अच्छे बीज की पहचान तो हम कर लेते हैं, झींगा के अच्छे बीज की पहचान कैसे करते हैं ?
- मेरे तालाब में जलीय खतपतवार की एक गंभीर समस्या है जिसके कारण उत्पादन में कमी तथा लागत खर्च अत्यधिक हो जाता है | कृपया एस संबंध में आवश्यक निदान जो कम खर्चीला हो, के बारे में बताने का कष्ट करें |
- क्या आप इस बात की जानकारी देने का कष्ट करेंगे कि वह कौन सी राज की बात (टेकनीक) है जिसके द्वारा आंध्र-प्रदेश कार्प मछलियों के उत्पादन में देश में सबसे आगे बढ़ गया है, यहाँ तक कि आंध्र प्रदेश की मछलियाँ अब झारखण्ड में भी बिकने लगी है ?
- थाई मांगुर के पालन हेतु इधर मत्स्य पालकों का उत्साह बढ़ रहा है | किन्तु इसके बीज काफी महेंगे हैं तथा परभक्षण की प्रवृति भी बहुत अधिक होती है | क्या इसका पालन इस क्षेत्र के लिये उपयुक्त है ? कृपया अपना सुझाव दें |
- धान की फसल के साथ रेहू, कतला या नैनी मछली का पालन कर सकते हैं अथवा नहीं ? यदि हाँ, तो इसकी विधि बताएं | साथ ही कृपया यह भी सुझाव दें कि मछली की अधिक उतापदाकता कैसे संभव है ?
- मैं मत्स्य बीज उत्पादन का काम करता हूँ | यह मेरे जीविका के लिए कितना उपयुक्त है ?
- इस इलाके में जाड़ा माह के शुरुआत होते ही मछलियों में लाल धब्बे वाली बीमारी शरू हो जाती है | इससे इस क्षेत्र का मछली उत्पादन काफी कम हो गया है | कृपया इसके निदान हेतु कुछ सुझाव दें ?
- कभी-कभी तालाब के पानी में जाने पर खुजली क्यों होती है ?
परिचय
प्राय: मत्स्य पालकों एवं मत्स्य बीज उत्पादकों द्वारा मछली पालन एवं मत्स्य बीज उत्पादन में आनेवाली कठिनाइयों के संबंध में समाधान हेतु प्रश्न पूछे जाते हैं | इन प्रश्नों के क्रम में दिए गये प्रश्नोत्तर को मत्स्य पालकों की सुविधा हेतु संकलित किया गया है, जो निम्न प्रकार है |
आर्थिक दृष्टिकोण से झारखण्ड के तालाबों में पालने के लिये सबसे बढ़िया मछली कौन सी है ?
झारखण्ड के पोखरों के लिए अपने देश की प्रमुख कार्प मछलियाँ कतला, रोहू, मृगल तथा विदेशी कार्प मछलियाँ सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प और कॉमन कार्प मछलियाँ पाली जानी चाहिए | इन मछलियों की भोजन संबंधी आदतें अलग-अलग हैं और साथ ही ये मछलियाँ तालाब के विभिन्न स्तरों में रहने की आदि होती है | अत: भोजन को लेकर इनके बीच आपस में कोई रगड़ा-झगड़ा नहीं होता है | यही कारण है कि इन मछलियों को एक साथ पाला जाता है ताकि तालाब के प्रत्येक स्तर पर उपलब्ध खाद्य सामग्रियों का उपयोग हो तथा मछलियों की अधिक से अधिक पैदावार प्राप्त की जा सके |
मछली पालन की इस प्रणाली को कार्प मछलियों की मिश्रित खेती कहते हैं |
एक एकड़ के तालाब में कितना चूना पड़ेगा और साल भर में कितनी बार चूना पड़ेगा, बतलाइये ? चूना तालाब में क्या काम करता है, इसकी भी जानकारी दें |
तालाब में चूना का प्रयोग कई प्रकार से लाभकारी साबित होता है जैसे –
- इसका प्रयोग तालाब के जल के अतिआवश्यक पोषक तत्व कैल्सियम उपलब्ध कराता है |
- यह जल की अम्लीयता को सुधारने में सहायक होता है |
- यह तालाब की मिटटी को उर्वरक अवशोषण हेतु अधिक सक्षम बनाता है |
- यह तालाब के नितलीय जैविक पदार्थों के विघटन में तेजी लाता है |
- यह तालाब में विभिन्न प्रकार के परजीवियों के प्रभाव से संचित मछलियों को मुक्त करता है |
- यह तालाब के जल में घुले हुए आक्सीजन के स्तर को ऊंचा उठता है |
- चूने के प्रयोग से तालाब के जल की स्वच्छता भी कायम रहती है |
चूने का प्रयोग करने से पहले तालाब की मिटटी की पी.एच. का जांच कर लेना चाहिए और पी.एच. मान के आधार पर नीचे दिये गये तालिका के अनुसार चुने का प्रयोग करना चाहिए |
मिटटी का पी.एच. | मिटटी के प्रकार | चूने का प्रयोग दर (कि.ग्रा./हे.) |
4.0 से 5.0 | अति अम्लीय | 800 |
5.1 से 6.0 | माध्यम अम्लीय | 480 |
6.1 से 6.5 | हल्का अम्लीय | 400 |
6.6 से 7.5 | उदासीन (न अम्लीय न क्षारीय) | 200 |
7.6 से 8.5 | हल्का क्षारीय | 80 |
अपने तालाब की मिटटी के पी.एच. की जांच करा कर आप स्वयं निश्चित कर लें कि आपको अपने तालाब के लिए किस मात्रा में चूने का प्रयोग करना होगा |
बाजार में चूना निम्नलिखित तीन रूपों में उपलब्ध होता है :
- रोड़ेदार चूना (कैल्शियम कार्बोनेट)
- भाखरा चूना (कैल्शियम हाईड्रोक्साइड) तथा
- कली चूना (कैल्शियम आक्साइड) |
तालाब के जल में उपरोक्त तीनों प्रकार के चूने का प्रयोग किया जा सकता है लेकिन रोड़ेदार चूना की तुलना में भखरा या कली चूने का प्रयोग अधिक तीव्र और प्रभावकारी होता है | तालाब में चूने का प्रयोग खाद डालने के पूर्व करना चाहिए |
तालाब में मछली पालन तो करते हैं | परन्तु तालाब का भिंड (मेड़, बाँध) का क्या उपयोग हो सकता है ?
तालाब में भिंड (मेड़, बाँध) पर मौसम के अनुसार सब्जी उगाएं | दलहनी, तिलहन फसल उगाएं | केला पपीता आदि फलदार वृक्ष लगाएँ |
साधारणत: 200 वर्गमीटर का प्लाट 5-6 सदस्यों के एक परिवार की सब्जी तरकारी संबंधी आवश्यताएँ पूरी करने के लिए यथेष्ट होता है | तालाब के भिन्डों पर तरकारी उगाने के लिए इससे कहीं अधिक स्थान उपलब्ध होता है, इसलिए भिन्ड़ो पर तरकारी उगाने से न केवल घर की जरुरत पूरी हो सकती है बल्कि अतिरिक्त सब्जियों की बिक्री से अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है |
तालाबों के भिन्ड़ो पर दलहनी एवं तिलहन फसलों की अच्छी खेती होती है | भिन्ड़ो की नई मट्टी पर अरहर की फसल लहलहा उठती है | इसी प्रकार तरह-तरह के फूलों जैसे – गेंदा, गुलाब रजनीगंधा आदि खेती के लिए भी तालाब का भिंड काफी उपयुक्त होता है |
केला पपीता, नींबू, अमरुद इत्यादि फलदार पौधे जल्दी तैयार होकर फल देते हैं | पौधों से तालाब की खूबसूरती भी बढ़ जाती है | पपीता की खेती अक्टूबर में हर 15-20 दिनों पर और मार्च में हर 8-10 दिनों पर सिंचाई की जाती है | केला एवं पपीता आदि के पत्तों का प्रयोग ग्रास कार्प के भोजन के रूप में किया जा सकता है |
तालाब के भिन्डों पर तरकारी तथा फल-फूल की काश्तकारी करते समय पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी भिन्डों को सब्जियों के लिये तथा उत्तरी तटबंधों को फलों की खेती के लिये इस्तेमाल करना चाहिये | साधारणत: यही देखने में आया है कि मछली पालन और बागवानी के समन्वयन से कृषकों को प्राय: 25 से 35 प्रतिशत तक अतिरिक्त मुनाफा प्राप्त हो जाता है |
मुर्गी/ बत्तख / गाय / सूकर पालन के लिए भी भिंड का उपयोग किया जा सकता है |
मछलियाँ क्या खाती है ? प्लवक क्या है ? तालाब में मछली के सांस लेने हेतु आक्सीजन कहाँ से आता है ? इसे कैसे बढाया जा सकता है ?
तालाब में मछलियों का मुख्य भोजन जल में उपलब्ध प्लवक हैं | सूक्षम जलीय वनस्पति एवं जन्तु को प्लवक कहते हैं |(सिल्वर कार्प वनस्पति प्लवक, भोजी, कतला जन्तु प्लवक भोजी मछली है) |
जन्तु प्लवक का भोजन भी वनस्पति प्लवक है | वनस्पति प्लवक ही सूर्य की रोशनी में कार्बन-डाई-आक्साइड गैस एवं पानी के संयोजन से भोजन (कार्बोहाइड्रेट) का निर्माण करती है एवं एस प्रक्रिया में आक्सीजन गैस भी बनता है, जो पानी में घुलकर सभी जलीय वनस्पति एवं जीव की श्वसन के लिये उपलब्ध होता है | सूर्य की रौशनी सभी जलीय वनस्पति प्लवक द्वारा भोजन बनाने की क्रिया को प्रकाश संश्लेषण कहते हैं |
Co2 + H2o———- CH2O + O2
इस प्रकार वनस्पति प्लवक अपने लिये भोजन बनती है | मछलियाँ एवं जन्तु प्लवक एवं जलीय जंतु भोजन के लिए वनस्पति प्लवक पर ही प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से निर्भर है | इसलिये इसे प्राथमिक उत्पादक भी कहते हैं | अत: वनस्पति प्लवक के अच्छे उत्पादन से उन पर आश्रित जन्तु प्लवकों एवं मछलियों का उत्पादन बढ़ता है |
वनस्पति प्लवक —– जन्तु प्लवक ———-मछली
तालाब में सैवाल आदि जलीय घासों के नियंत्रण के लिये क्या करें ?
शैवाल आदि जलीय घासों के नियंत्रण के ग्रास कार्प डालें | एक एकड़ के तालाब में 4 इंच से 6 इंच के ग्रास कार्प 200 से 300 की संख्या में डाली जा सकती है | जो तालाब के जलीय घासों को समाप्त करने के लिये पर्याप्त है | ग्रास कार्प अपने शरीर के वजन से आधे वजन के बराबर घास प्रतिदिन खा सकती है | ग्रास कार्प पर्याप्त भोजन मिलने पर एक साल में 3 से 4 किलो तक का हो सकता है |
तालाब का कुल मछली बेहोश होकर कात में आ जाए (किनारे लग जाए) या ऊपर-ऊपर चलने लगे तो उस हालत में क्या करना चाहिये ?
इस प्रकार की स्थिति वस्तुत: तब उतपन्न होती है जब तालाब के जल में आक्सीजन की कमी हो जाती है | आमतौर पर पुराने तालाबों में होती है जिनकी तली पर जैविक गाद (आर्गेनिक डेट्राइट्स) का अत्यधिक जमाव हो जाता है | ऐसे तालाबों में मलबों के सड़ने की प्रक्रिया में आक्सीजन की काफी खपत हो जाती है और अंतत: संचित मछलियों के लिए आक्सीजन कम पड़ने लगता है | यह समस्या उन परिस्थितियों में भी उत्पन्न होती है जब उर्वरक के प्रयोग से तालाब में सूक्षम जीवाणुओं का भरमार हो जाता है | विशेष रूप से रातों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया धीमी हो जाती है जिससे तालाब में उपलब्ध आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है फलस्वरूप सुबह होते-होते जीवाणुओं एवं मछलियों के लिए आक्सीजन की मात्रा कम पड़ने लगती है और मछलियाँ उपला कर मरने लगती है |
तालाबों में आक्सीजन की कमी लगातार कई दिनों तक आकाश में बादल छाए होने पर भी हो जाती है क्योंकि इन दिनों प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पूर्णरूप से हो नहीं पाती है | तालाब में जब ऐसी स्थिति उत्पन्न हो तो निम्नलिखित उपाय करना चाहिए :-
- कुछ इस प्रकार की युक्ति लगाएं जिससे तालाब के जाल में हिलोरे उत्पन्न किया जा सके, जैसे – तालाब के पानी को हाथ से छलकाएं या सतह पर डंडे मार कर तरेंगे उत्पन्न करें, तालाब में जल्दी-जल्दी तथा बार-बार जाल चलायें आदि |
- तालाब में ताजा जल मिलाएं | अगर आस-पास ताजे पानी की सुविधा उपलब्ध न हो तो टुल्लू पम्प से तालाब के ही जल को फव्वारे की तरह परिसंचित करें |
- अनुकूल परिस्थिति आने तक तालाब में परिपूरक आहार तथा उर्वरक का प्रयोग बंद रखें |
- जल में पोटेशियम परमैगनेट (1 से 2 पी.पी.एम. के दर पर) या चूने (200 किग्रा प्रति हेक्टेयर के दर पर) का प्रयोग भी लाभदायक होता है |
- केला के तनों के छोटे-छोटे टुकड़े कर के तालाब में बिखेरने से भी फायदा होता देखा गया है |
कम पानी होने पर तालाब में मछलियाँ क्यों मरने लगती है ? ऐसी अवस्था में क्या उपाय करना चाहिए ?
तालाब में मछलियों को संचित करने का जो फार्मूला है वह संचित मछलियों के पानी की जरूरतों को ध्यान में रखकर ही निर्धारित किया जाता है | अगर तालाब में पानी कम हो जाएगा तो जाहिर है कि संचित मछलियों के लिए घुटन भरी स्थिति पैदा हो जाएगी और मछलियाँ मर जाएगी | अगर तालाब में पानी कम हो जाएगा तो जाहिर है कि संचित मछलियों के लिए घुटन भरी स्थिति पैदा हो जाएगी और मछलियाँ मर जाएगी | तालाब में पानी कम होने के कई कारण हो सकते हैं |
- “सीपेज” अर्थात जमीन में पानी के रिसने से,
- तालाब के नितल अपर संचित मछलियों के उत्सर्जित मल, जैविक मलवों एवं सिल्ट के जमाव से | आपके तालाब में किस कारण से पानी कम हो रहा है यह देखना जरुरी है | अगर सीपेज की समस्या हो तो गोबर आदि के निरन्तर प्रयोग से समस्या आहिस्ता-आहिस्ता काबू में आएगी | जब तक यह समस्या हल नहीं होती है तब तक ज्यादा पानी भर कर आपको संचित मछलियों की जरुरत पूरी करनी होगी | वाष्पीकरण द्वारा पानी की कमी पूरा करने के लिये भी नया पानी भरना आवश्यक होगा | तलहटी पर उत्सर्जित मल, जैविक मलबों आदि के जमाव को कम करने के लिये केवल नया पानी भरने से काम नहीं चलेगा बल्कि बेहतर होगा कि थोडा-थोडा करके पुराने पानी को आप बाहर निकाल फेंकें और उसकी जगह नया पानी तालाब में डालें | एस प्रक्रिया को जलीय नवीनीकरण अर्थात वाटर रिप्लेनिश्मेंट कहते हैं | यह तय करने के लिये कि महीने में कितनी बार पानी का नवीनीकरण जरूरी होगा यह प्रतिदिन प्रयोग किये जा रहे पूरक आहार की मात्रा पर निर्भर करेगा |
जिस गड्ढे में केवल तीन से पांच माह तक ही पानी रहता है, ऐसे गड्ढों में कौन सी प्रजाति की मछली पाली जा सकती है तथा उसमें कितना मत्स्य बीज डाला जाना चाहिये ?
ऐसे तालाबों का उपयोग मुख्य रूप से कार्प मछलियों के बीज उत्पादन के लिये लाभदायक साबित होता है | गांवों में इस प्रकार के मौसमी गड्ढे प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं | मत्स्य बीज फार्मों से कार्प मछलियों के स्पान या फ्राई प्राप्त कर इन मौसमी गड्ढों में दो –तीन महीने तक पाल कर उन्हें “फिंगरलिंग” अवस्था तक बड़ा कर बीज का अच्छा-ख़ासा व्यापार किया जा सकता है | झटपट मुनाफा के लिये एक अच्छा धंधा है | जहां यह संभव नहीं है वहां कतला , सिल्वर तथा कॉमन कार्प मछली का बीज डालें तो ये चार-पांच महीनों में 200-250 ग्राम की हो जाती है |
प्रदर्शनी में महाझींगा के पालन के बारे में बताया गया है | इसके बीज की कमी को देखते हुए इसके पालन की एस क्षेत्र में क्या संभावना है | अगर है तो किस तरह से इसका पालन किया जाए तथा इसे किस प्रकार का भोजन दिया जाना चाहिये?
महाझींगा के प्रजनन के लिए समुदीय खारा जल आवश्यक है | फलस्वरूप इसके तटवर्ती राज्यों से प्राप्त होता है | अत: आप झींगा के बीज की उपलब्धता की जानकारी मत्स्य विभाग के स्थानीय कार्यालयों से संपर्क कर प्राप्त कर सकते हैं | दूर दराज क्षेत्रों से मांगने में आपको बीज के मद में कुछ अधिक खर्च करना पड़ सकता है लेकिन इसकी भरपाई झींगों की फसल प्राप्त करने के बाद आसानी से हो जाती है क्योंकि मछलियों की तुलना में झींगा 5-6 गुना ऊँचे दामों में बिकते हैं |
चूँकि इस क्षेत्र में महाझींगा का बीज आसानी से सुलभ नहीं हो सकेगा अत: तत्काल हम आपको इसके “मोनो कल्चर” अर्थात एकल पालन की राय नहीं देते | बीज उपलब्धि की असुविधा को ध्यान में रखते हुए बहरहाल आप इसे कार्प मछलियों के साथ ही पालने का कार्यक्रम बनाएं | कार्प मछलियों के मिश्रित पालन में तलवासी मछलियों (मृगल और कॉमन कार्प) के स्थान पर अगर महाझींगा पाले जाए तो यह आर्थिक दृष्टिकोण से अधिक लाभदायक साबित होता है | कार्प और झींगा पालन में सामान्य अवस्थाओं में मछलियाँ (कतला और रोहू, फिंगरलिंग 10 ग्राम वजन की शिशु मछलियाँ) 20,000 प्रति हेक्टेयर की दर पर संचित किये जाते हैं |
कार्प मछलियों के साथ जब झींगा पाला जा रहा हो तब तालाब में उन्हें “मोल्टिंग” के दौरान सुरक्षा प्रदान करने के लिये सुरक्षित स्थान उपलब्ध कराने की आवश्यकता होगी | इसके लिये तालाब में बांस के एक फ्रेम में जलकुम्भी सजा कर या फटे-पुराने जाल को सिकड़ द्वारा लटका कर, पेड़ों की सुखी टहनियों के झुरमुट सजा कर, मोटर गाड़ी के पुराने टायरों का डाल लगा कर, पाइप अथवा तार या खजूर के पत्ते आदि रखकर संचित झींगों को छुपाने की जगह उपलब्ध करायी जा सकती है |
संचित मछलियों के भोजन के लिये आप प्रचलित मिश्रण (राईस ब्रान और खली 1:1) का प्रयोग करेंगे तथा झींगों के लिए बारीक घोंघे-सितुओं का मांस आदि दे सकते हैं |
कार्प मछलियों के अच्छे बीज की पहचान तो हम कर लेते हैं, झींगा के अच्छे बीज की पहचान कैसे करते हैं ?
महाझींगा के अच्छे बीज की पहचान आप निम्नलिखित लक्षणों के आधार अपर कर सकते हैं : –
रंग : बीज का रंग हल्का भूरा होना चाहिये | शरीर पर सफेद धब्बों का होना अस्वस्थ बीज के लक्षण हैं | सिर के दोनों और शारीर के समानान्तर दौड़ती हुई 4-6 काली पत्तियां दिखाई देना स्वास्थ्य बीज के लक्षण है | रोस्ट्रल टिप गुलाबी रंग का होना चाहिये |
चपलता :- तेजी से चलना, इक्कठे न रहना, पुरे क्षेत्र में बराबर बटे रहना, बर्तन पर हल्की ठोंक मारने से चौंक जाना, पानी की धारा के विपरीत दिशा में चलना अच्छे बीज के लक्षण है | झुंड में एक जगह जमा रहना, हल्की से आहट पर कूदना-फाँदना अस्वस्थ बीज के लक्षण है |
भोजन ग्रहण : दिया गया आहार तेजी से खाना अच्छे बीज के तथा आहार के प्रति उदासीनता अस्वस्थ बीज के लक्षण है |
मेरे तालाब में जलीय खतपतवार की एक गंभीर समस्या है जिसके कारण उत्पादन में कमी तथा लागत खर्च अत्यधिक हो जाता है | कृपया एस संबंध में आवश्यक निदान जो कम खर्चीला हो, के बारे में बताने का कष्ट करें |
जलीय खरपतवार से मुक्ति पाने का सर्वोतम उपाय तो यही है की उनके उगने की उनके उगने की प्रक्रिया पर सतत ध्यान रखा जाए और समय-समय पर श्रम द्वारा उनका उन्मूलन किया जाए |
क्या आप इस बात की जानकारी देने का कष्ट करेंगे कि वह कौन सी राज की बात (टेकनीक) है जिसके द्वारा आंध्र-प्रदेश कार्प मछलियों के उत्पादन में देश में सबसे आगे बढ़ गया है, यहाँ तक कि आंध्र प्रदेश की मछलियाँ अब झारखण्ड में भी बिकने लगी है ?
सबसे बड़ी राज की बात तो यही है कि आंध्र-प्रदेश के जलकृषक बड़े ही उधमी प्रकृति के तथा अपने व्यवसाय के प्रति काफी सजग होते हैं | जलकृषि व्यवसाय को किस प्रकार अधिक से अधिक लाभकारी बनाया जाए इस हेतु वे सतत प्रयत्नशील रहते हैं | वस्तुत: यह उनके विवेकपूर्ण व्यवसायिक बुद्धि का ही कामल है जिसकी वजह से जलकृषि व्यवसाय के क्षेत्र में आंध्र-प्रदेश आज देश का अग्रणी राज्य बन गया है |
कार्प मछलियों की जलकृषि में आंध्र-प्रदेश के जलकृषकों को अधिक उत्पादन मुख्य रूप से निम्नलिखित कारणों से प्राप्त होता है |
- पानी की प्रचुरता |
- उपजाऊ मिटटी |
- तालाब का संचयन हेतु एक वर्षीय ठिगने बीज (स्टेंडड इयरलिंग) का प्रयोग |
- तालाब में उर्वरक एवं पूरक आहार का विधिवत् प्रयोग तथा
- नियमित देखभाल |
थाई मांगुर के पालन हेतु इधर मत्स्य पालकों का उत्साह बढ़ रहा है | किन्तु इसके बीज काफी महेंगे हैं तथा परभक्षण की प्रवृति भी बहुत अधिक होती है | क्या इसका पालन इस क्षेत्र के लिये उपयुक्त है ? कृपया अपना सुझाव दें |
थाई मांगुर मूल रूप से अफ्रीका की मछली है जिसका वैज्ञानिक नाम क्लैरियस गाईरीपाईन्स है | अंग्रेजी में इसका नाम “शार्प टूथ कैटफिश” या “नाइल कैटफिश” है | इसे थाई मांगुर के नाम से इसलिए संबोघित किया जाता है क्योंकि यह थाईलैंड से बांग्लादेश होते हुए हमारे देश में पहुंची है | सहज अनुकूलनशीलता एवं तेज बढ़वार के कारण यह जलकृषि हेतु विश्व के कई देशों में ले जायी गयी है | दक्षिणी-पूर्वी एशियाई देशों के एक्वाकल्चर पटल पर यह एकदम छा सी गयी है | इतना कि लोग अब इसके प्रसार के भय से चिन्तित हो उठे हैं, डर है कि प्रजनन द्वारा अपनी तादाद बढ़ा कर यह स्थानीय जलों में कहीं अपना आधिपत्य ही न जमा बैठे |
दक्षिणी पूर्व एशियाई देशों में थाई मांगुर के मांस की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए मांगुर की स्थानीय प्रजातियों के साथ इसकी संकर किस्में तैयार कर ली गयी है जिसे मूल प्रजाति से अधिक सुस्वादु बताया जा रहा है | वस्तुत: एक्वाकल्चर के लिए इन दिनों सर्वत्र मांगुर की इस संकर किस्म का उपयोग किया जा रहा है | क्या पता भारतवर्ष में पहुंची थाई मांगुर भी इसकी एक संकर प्रजाति ही हो |
चूँकि थाई मांगुर भारतवर्ष में औपचारिक ढंग से नहीं आती है अत: मात्सियकी अनुसंधान संस्थानों द्वारा इस मछली पर अभी तक कोई विशेष अध्ययन नहीं किया जा सका है | ऐसी स्थिति में इस क्षेत्र में इसके एक्वाकल्चर के संबंध में अभी कोई अनुशंसा कर देना युक्तिसंगत नहीं है | बहरहाल इस मछली के परभक्षी स्वभाव को ध्यान में रखते हुए हमें सावधानी बरतने की जरुरत है ताकि खामख्वाह इसके चलते स्थानीय मात्सियकी के लिए कोई मुसीबत न खड़ी हो जाए | बेहतर हो कि इसे अपने तालाब में नहीं पाले |
धान की फसल के साथ रेहू, कतला या नैनी मछली का पालन कर सकते हैं अथवा नहीं ? यदि हाँ, तो इसकी विधि बताएं | साथ ही कृपया यह भी सुझाव दें कि मछली की अधिक उतापदाकता कैसे संभव है ?
एशिया के कई देशों में धान की फसल के साथ मछली पालने का चलन है | खेतों में मुख्य रूप से कॉमन कार्प, तेलपिया कोलिसा, चना तथा क्लैरियस प्रजाति की मछलियाँ पाली जाती है | धान के खेतों में मछलियों के होने से धान के फसल को काई प्रकार से लाभ पहुंचता है | मछलियों के होने से धान के फसल को कई प्रकार से लाभ पहुंचता है | मछलियाँ के होने से धान के फसल को कई प्रकार से लाभ पहुंचता है | मछलियाँ भोजन की खोज में मिटटी को उलट-पलट करती रहती है, इससे खेत की जुताई होती रहती है | मछलियाँ घान में लगने वाले कीड़ों तथा उनके लार्वे-प्युपे का भी सफाया करती रहती है | इसके अलावा मछलियों द्वारा उत्सर्जित मल-मूत्र से खेत की उर्वरता भी बढती रहती है |
धान के खेतों में मछली पालने के लिए खेत के चारों ओर या तीन ओर खाई खोद दी जाती है | बरसात में खेत और खाई दोनों में पानी भरा होता है जबकि जाड़े में खेत प्राय: सूख जाता है और सारा पानी सिमट कर खाई में बचा रह जाता है | इस प्रकार खेत में संचति मछलियाँ बरसात में पुरे खेत में विचरती है लेकिन जाड़े में उनके विचरने का दायरा खाई तक ही सिमित रह जाता है | इस रीती से एक वर्ष में एक खेत से धान की दो फसलें (खरीफ और रबी) तथा मछली की एक फसल प्राप्त की जा सकती है |
आप धान के खेत में रेहू, कतला और नैनी का पालन उपरोक्त रीती से कर सकते हैं | इन मछलियों के पालन की सारी प्रक्रिया वाही है जो आमतौर पर तालाबों में मछली पालन के लिये अपनाई जाती है | धान के खेतों में मछली पालन करते समय दो बातों पर आपको विशेष ध्यान देने की जरुरत होगी –
- खेत ऐसी जगह पर बना होना चाहिये जहां जलापूर्ति की सुविधा उपलब्ध हो |
- खेत में कीटनाशक दवाओं का प्रयोग न हो | मछलियों की अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए पर्याप्त मात्रा में पूरक आहार का प्रयोग आवश्यक होगा |
मैं मत्स्य बीज उत्पादन का काम करता हूँ | यह मेरे जीविका के लिए कितना उपयुक्त है ?
कार्प मछलियों का बीज उत्पादन अपने आप में एक अच्छा –ख़ासा स्थापित व्यवसाय है | मछली पालन की बढती लोकप्रियता के साथ इस व्यवसाय के पनपने का सीधा संबंध है | आप इस व्यवसाय को थोडा वैज्ञानिक आधार देकर इसे अधिक लाभकारी बना सकते हैं | जैसे –
- प्रजनक मछलियों का पालन करके अन्य बीज व्यपारियों के लिए आप प्रजनक बैंक का काम कर सकते हैं |
- अगेती प्रजनन द्वारा आप जलकृषकों को असमय भी बीज उपलब्ध करा सकते हैं |
- सेलिक्टिव प्रजनन द्वारा बीज की उत्तम किस्में तैयार कर सकते हैं |
- इच्छुक लोगों को मत्स्य बीज प्रजनन का प्रशिक्षण दे कर आप एक स्कुल चला सकते हैं और अच्छा ख़ासा धनोपार्जन कर सकते हैं |
इस इलाके में जाड़ा माह के शुरुआत होते ही मछलियों में लाल धब्बे वाली बीमारी शरू हो जाती है | इससे इस क्षेत्र का मछली उत्पादन काफी कम हो गया है | कृपया इसके निदान हेतु कुछ सुझाव दें ?
रोग प्राय: रेहू, मृगल, ग्रास कार्प, सिल्वर कार्प, कवई, सौरा, गरई, मांगुर, सिंघी, बुल्ला आदि मछलियों में व्यापक रूप से देखने को मिलता है | इसमें शरीर के अनके भागों पर लाल-लाल धब्बे जैसे घाव दिखाई देते हैं | एस रोग को चूने के प्रयोग से ठीक किया जा सकता है परन्तु यह खर्चीला पड़ जाता है | इसके लिये केन्द्रीय मीठा जल जीवपालन अनुसंधान, भुवनेश्वर में “सीफेक्स” नामक एक दवा बनायी गयी है जिसके प्रयोग से यह रोग ठीक हो जाती है | एक मीटर गहरे जल वाले एक हेक्टेयर के तालाब में लाल घाव की बीमारी हो जाय, तो उसमें 1 लीटर “सीफेक्स” का प्रयोग किया जाता है | सीफेक्स को पहले पानी में मिलाकर तनुघोल बनाते हैं | उसके बाद तालाब में बराबर रूप से चारों तरु छिड़काव करते हैं | दवा प्रयोग करने के तीन दिन बाद रोग का फैलाव रुक जाता है | सातवें दिन तक 70 प्रतिशत घाव भर जाता है | आप अगर यह दवा खरीदना चाहते हैं तो मत्स्य विभाग के स्थानीय कार्यालय से संपर्क करें |
घरेलु उपचार में चूना के साथ हल्दी मिलाकर प्रयोग करने से अल्सर घाव ठीक हो जाता है | इसके लिए कली चूना 40 किग्रा / एकड़ एवं हल्दी का चूर्ण 4 किग्रा/ एकड़ का प्रयोग करें | आधी मात्रा चूना एवं आधी मात्रा हल्दी का चूर्ण मिलाकर तालाब में डालें | पुन: 5 से 7 दिनों तक प्रतिदिन 100 मि.ग्रा. टेरामाईसिन तथा 100 मि.ग्रा. सल्फाडाइजिन नामक दवा को प्रति किग्रा पूरक आहार (भोजन) में मिला कर मछलियों को खिलाना अच्छा परिणाम देता है |
कभी-कभी तालाब के पानी में जाने पर खुजली क्यों होती है ?
तालाब का पानी गंदा होने या ज्यादा शैवाल होने से ऐसा होता है | तालाब में 1 ली.प्रति एकड़ की दर से फार्मलीन का प्रयोग इस स्थिति में फायदेमंद होता है |
स्त्रोत: मत्स्य निदेशालय, राँची, झारखण्ड सरकार
मछली उत्पादन
- झारखंड में मिश्रित मछली पालन
- रेनबो ट्राउट का उत्पादन
- हिमाचल प्रदेश में मछली की बहुफसली खेती
- एक्वाकल्चनर के जरिये गंदे पानी की सफाई
- कार्प फ्राई और फिंगरलिंग्स का व्यावसायिक उत्पादन
झारखंड में मिश्रित मछली पालन
इस लेख में झारखण्ड राज्य में मिश्रित मछली पालन के तरीकों का विश्लेषण किया गया है. इस राज्य में जहाँ मछली पालन एक बहुत बड़े व्यवसाय के रूप में उभर रहा है और कई युवाओं को रोज़गार की नयी दिशा दे रहा है, ये जानकारी बहुत उपयोगी है. झारखंड में मिश्रित मछली पालन
रेनबो ट्राउट का उत्पादन
रेनबो ट्राउट मछली की एक प्रजाति है। यह मूलतः विदेशों में ठंढे पानी में पायी जाती है और इसे भारत के कई इलाकों में इसका उत्पादन शुरू किय गया है। हिमालय की तराई, कश्मीर, कर्नाटक के पश्चिमी घाटों की ऊपरी इलाकों, तमिलनाडु और केरल रेनबो ट्राउट के कल्चर के लिए आदर्श स्थान है। भारत में शहरी लोगों के बीच इस मछली की माँग बहुत अधिक है। वर्तमान में भारत में इस मछली की बिक्री ताजी ठंड की गई स्थिति में की जाती है। विभिन्न प्रकार के मूल्य संवर्धित उत्पादें बनाने के लिए यह प्रजाति आदर्श मानी जाती हैं।
हिमाचल प्रदेश में मछली की बहुफसली खेती
मछली की बहुफसली खेती-खेती के तरीकों का पैकेज
मछली की पैदावार के लिए पानी की बारहमासी उपलब्धता आवश्यक है। इस नज़रिए से पहाड़ी क्षेत्र में मछली की पैदावार जलग्रहण क्षेत्रों में, नदियों की धाराओं और नदियों के किनारों या ऐसी किसी भी जगह पर की जा सकती है जहां पानी की आपूर्ति या तो सिंचाई चैनल या सिंचाई पम्पिंग योजना द्वारा सुनिश्चित हो।
स्थल का चयन
मछली की बढ़त के लिए एक ऐसे स्थल का चयन किया जाना चाहिए जहां पानी झरने, नदी, नहर की तरह एक नियमित स्रोत के माध्यम से उपलब्ध हो या इस उद्देश्य के लिए स्थिर जल वाली भूमि भी विकसित की जा सकती है। मिट्टी पूरी तरह रेतीली नहीं होनी चाहिए, लेकिन वह रेत और मिट्टी का मिश्रण होना चाहिए ताकि उसमें पानी को रोकने की क्षमता हो। क्षारीय मिट्टी मछली के अच्छे विकास के लिए हमेशा बेहतर होती है। तालाब के निर्माण से पहले, मिट्टी के भौतिक-रासायनिक गुणों का परीक्षण किया जाना चाहिए।
तालाबों का निर्माण
तालाब का आकार और बनावट भूमि की उपलब्धता व उत्पादन के प्रकार पर निर्भर करते हैं। एक आर्थिक रूप से व्यावहारिक परियोजना के लिए तालाब का न्यूनतम आकार 300 वर्ग मीटर गहरा और 1।5 मीटर से कम नहीं होना चाहिए। एक ठेठ तालाब के पानी की प्रविष्टि तार जाल के साथ अवांछित जंतुओं की प्रविष्टि रोकने के लिए होनी चाहिए और अतिरिक्त पानी के अतिप्रवाह के निकास से इकट्ठा पैदावार को रोकने के लिए भी तार जाल लगाना चाहिए। पैदावार को इकट्ठा करने तथा तालाब को समय-समय पर सुखाने के लिए तालाब के तल में एक ड्रेन पाइप होनी चाहिए। तालाब की दीवार या मेंढ़ अच्छी तरह दबाकर मज़बूत, ढलानदार और घास या जड़ी बूटियों के साथ होना चाहिए ताकि उन्हें कटाव से बचाया जा सके। जलग्रहण क्षेत्र को भी एक मिट्टी का बांध बनाकर तालाब में परिवर्तित किया जा सकता है।
तालाब में फसल डालने की तैयारी
(i) चूना डालना
हानिकारक कीड़े, सूक्ष्म जीवों के उन्मूलन, मिट्टी को क्षारीय बनाने और बढती मछलियों को कैल्शियम प्रदान करने के लिए तालाब में चूना डालना ज़रूरी है। यदि मिट्टी अम्लीय नहीं हो तो चूना प्रति 25 ग्राम प्रति वर्ग मीटर की दर से प्रयोग किया जा सकता है और यदि मिट्टी अम्लीय है तो चूने के मात्रा 50% से बढा दें। पूरे टैंक में चूना फैलाने के बाद उसे 4 दिनों से एक सप्ताह के लिए सूखा छोड देना चाहिए।
(ii) खाद :
खाद प्लेंक्टन बायोमास की वृद्धि के उद्देश्य से डाली जाती है, जो मछली के प्राकृतिक भोजन का कार्य करती है। खाद की दर मिट्टी की उर्वरता स्थिति पर निर्भर करती है। मध्य पहाड़ी क्षेत्र में गोबर जैसी जैविक खाद का 20 टन/हेक्टेयर अर्थात 2 किलो प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र प्रयोग किया जाता है। प्रारंभिक खाद के रूप में कुल आवश्यकता का 50% और इसके बाद बाकी 50% समान मासिक किश्तों में प्रयोग किया जाना चाहिए है। खाद भरने के बाद टैंक में पानी डालकर उसे 12-15 दिनों के लिए छोड़ दें।
(iii) जलीय खरपतवार और पुराने तत्वों पर नियंत्रण
काई के गुच्छों में अचानक वृद्धि अधिक खाद या जैविक प्रदूषकों की वजह से होता है। ये गुच्छे कार्बन डाइऑक्साइड का काफी मात्रा में उत्सर्जन करते हैं, जो मृत्यु का कारण बन सकती है। अगर पानी की सतह पर लाल मैल दिखाई देता है, तो यह काई के गुच्छे शुरु होने का संकेत है। खाद और कृत्रिम भोजन तुरंत रोका जाना चाहिए और तालाब में ताजा पानी दें। अगर काई के गुच्छे बहुतायत में हैं तो तालाब के सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में चुनिन्दा रूप से 3% कॉपर सल्फेट या 1 ग्राम/मीटर पानी के क्षेत्र की दर से सुपरफॉस्फेट डालें। अच्छी पाली जाने वाली मछलियों को स्थान और भोजन की प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए हिंसक और पुरानी मछलियों का उन्मूलन आवश्यक है। इन मछलियों का जाल में फंसाकर या पानी ड्रेन कर या तालाब को विषाक्त बनाकर नाश किया जा सकता है। आम तौर पर इस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल विष है महुआ ऑयलकेक (200 पीपीएम), 1% टी सीडकेक या तारपीन का तेल 250 लिटर/ हेक्टेयर की दर से। अन्य रसायन जैसे एल्ड्रिन (0।2 पीपीएम) और ऎंड्रिन (0।01 पीपीएम) भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं लेकिन इनसे परहेज किया जाना चाहिए। इन रसायनों के उपयोग के मामले में, मछली के बीज (फ्राय/फिंगरलिंग्स) का स्टॉकिंग के उन्मूलन कम से कम 10 से 25 दिनों के लिए टाला जा सकता है ताकि रसायनों/अवशेषों को समाप्त किया जा सके।
स्टॉकिंग
अधिकतम मत्स्य उत्पादन में संगत रूप से, तेजी से बढ़ने वाली प्रजातियों के विवेकपूर्ण चयन बहुत महत्व है। तीन प्रजातियों यथा मिरर कार्प, ग्रास कार्प और सिल्वर कार्प का संयोजन प्रजाति चयन की आवश्यकताओं को पूरा करता है और यह मॉडल राज्य के उप शीतोष्ण क्षेत्र के लिए आदर्श सिद्ध हुआ है। इनमें से, मिरर कार्प एक तल फीडर है, ग्रास कार्प एक वृहद- वनस्पति फीडर है और सिल्वर कार्प है सतह फीडर है।
प्रजातियों का अनुपात
प्रजातियों के अनुपात का चयन आमतौर पर स्थानीय परिस्थितियों, बीज की उपलब्धता, तालाब में पोषक तत्वों की स्थिति आदि पर निर्भर करता है। जोन द्वितीय के लिए सिफारिशी मॉडल में प्रजातियों का अनुपात – 2 मिरर कार्प: 2 ग्रास कार्प: 1 सिल्वर कार्प है।
स्टॉकिंग का विवरण
स्टॉकिंग की दर आमतौर पर तालाब की प्रजनन क्षमता और जैव उत्पादकता बढाने के लिए खाद देने, कृत्रिम भोजन, विकास की निगरानी और मछली के अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने पर निर्भर करती है। कृत्रिम भोजन के साथ इस क्षेत्र के लिए स्टॉकिंग की सिफारिशी दर 15000 फिंगरलिंग्स प्रति हेक्टेयर है। बेहतर अस्तित्व और उच्च उत्पादन के लिए तालाबों को 40-60 मिमी आकार के फिंगरलिंग्स से स्टॉक करना अच्छा है। तालाब को खाद देने के 15 दिनों के बाद सुबह-सुबह या शाम को स्टॉक करना अच्छा है। स्टॉकिंग के लिए बादल भरे दिन या दिन के गर्म समय से परहेज करना चाहिए।
पूरक भोजन
खाद देने के बाद भी मछली पालन के तालाबों में प्राकृतिक भोजन के जीवों का स्तर अपेक्षित मात्रा में नहीं रखा जा सकता है। इसलिए, मछली विकास की उच्च दर के लिए प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और वसा से भरपूर पूरक आहार आवश्यक है। कृत्रिम आहार के लिए आम तौर पर मूंगफली के तेल और गेहूं के चोकर का 1:1 अनुपात में केक इस्तेमाल किया जाता है। जहां तक हो सके, फ़ीड पपड़ियों या कटोरियों के आकार में कुल बायोमास के २% की दर से देना चाहिए और उन्हें हाथ से तालाबों में विभिन्न स्थानों पर डालना चाहिए ताकि सभी मछलियों को समान विकास के लिए फ़ीड समान मात्रा में मिले।
ग्रास कार्प को कटी हुई रसीला घास या त्यागी गयी पत्तियों के साथ खिलाना चाहिए। मछली पालन के लिए रसोई का अपशिष्ट भी अनुपूरक फ़ीड के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
एक व्यावहारिक फ़ीड सूत्र जो मछली फार्म, सीएसके हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय में व्यवहार में है, नीचे दिया गया है:
10 किलो फ़ीड की तैयारी के लिए :
सामग्री | (%) | मात्रा |
मछली का खाना | 10 | 1.0 किलो |
गेहूं की भूसी | 50 | 5.0 किलो |
मूंगफली का केक | 38 | 3.8 किलो |
डीसीपी | 2 | 0.2 किलो |
सप्लेविट-एम | 0.5 | 0.05 किलो |
प्रति इकाई क्षेत्र में बेहतर पैदावार के लिए 2-3% की दर से पूरक भोजन ज़रूरी है चूंकि इस क्षेत्र में पानी के प्राकृतिक उत्पादकता बहुत कम है।
विकास की निगरानी
पोषक तत्वों के अलावा अन्य अ-जैव कारक जैसे तापमान, लवणता और रोशनी का काल मछली की वृद्धि प्रभावित करते हैं। स्टोकिंग के 2 महीने के बाद, स्टॉक का 20% निकालना चाहिए ताकि प्रति माह वृद्धि का मूल्यांकन करने के साथ ही दैनिक आपूर्ति के लिए फ़ीड की सही मात्रा की गणना की जा सके। बाद में, इस अभ्यास को हर महीने तब तक दोहराया जाना चाहिए जब तक की मछली कृत्रिम फ़ीड रोक नहीं दे। मछली अनुसंधान फार्म एचपीकेवी, पालमपुर में उत्पन्न अनुसंधान डेटा के आधार पर यह देखा गया है कि मौजूदा जलवायु परिस्थितियों के अंतर्गत मछलियाँ उत्पादक 8 महीनों के दौरान (यानी मार्च के मध्य से नवंबर के मध्य तक) वृद्धि हासिल करती हैं। सर्दियों के चार महीनों (नवंबर के मध्य से मार्च के मध्य) के दौरान कोई विकास नहीं होता है। इस तरह अनुपूरक फ़ीड है आठ उत्पादक महीनों के दौरान दी जानी चाहिए। उपर्युक्त मॉडल के उच्च उत्पादन क्षमता के रूप में परिणाम 5 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष के रूप में पाए गए हैं।
पैदावार निकालना
पैदावार सुविधाजनक रूप से ड्रैग नेटिंग या कास्ट नेटिंग (छोटे तालाबों के लिए उपयोगी) या तालाब का पानी खाली करके निकाली जा सकती है। पैदावार निकालने के एक दिन पहले पूरक फीडिंग बन्द कर दी जाती है। बाजार की मांग के अनुसार मछलियां सुबह ठंडे वातावरण में निकाली जाती हैं। इस क्षेत्र के लिए, मछली निकालने का सबसे अच्छा समय दिसंबर और जनवरी है जो मछली पालन के लिए गैर उत्पादन महीने हैं। स्टॉकिंग का बेहतर समय मार्च का मध्य या अप्रैल का पहला सप्ताह है। इस तरह सर्दियों के चार गैर-उत्पादक महीनों का उपयोग नवीकरण, गाद निकालने और तालाबों की तैयारी के लिए किया जा सकता है।
मछली पालन के लिए कैलेंडर
जनवरी :
- टैंकों का निर्माण
- तालाबों/ टैंकों का नवीकरण जिसमें पुराने टैंकों की गाद निकालना और मरम्मत शामिल है।
फ़रवरी : तालाबों की तैयारी
- चूना डालना :सामान्य दर पानी के क्षेत्र के अनुसार 250 किलोग्राम/ हेक्टेयर या 25 ग्राम /वर्ग मीटर।
- खाद डालना :चूना डालने के एक सप्ताह के बाद 20 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खाद डालना चाहिए। आरम्भ में कुल मात्रा का आधा और बाद में आधा बराबर मासिक किस्तों में। उदाहरण के लिए 1 हेक्टेयर क्षेत्र (10000 वर्ग मीटर) के लिए खाद की कुल आवश्यकता 2000 किलो है यानी 1000 किलो शुरुआत में डालना चाहिए और बाकी बाद में मार्च से अक्तूबर तक 145 किलो प्रति माह की दर से।
- खाद डालने के बाद तालब को पानी से भर दें और 12-15 दिनों के लिए छोड़ दें।
- पुराने तालाबों के मामले में अवांछित मछली, पुराना मछली और हानिकारक कीटों को या तो स्वयं निकालकर या पानी को विषाक्तता बनाकर नष्ट करना चाहिए।
मार्च से नवंबर :
तालाबों में स्टॉकिंग करना
- स्टॉकिंग खाद डालने के 15 दिनों के बाद की जानी चाहिए जब पानी का रंग हरा हो, जो कि पानी में प्राकृतिक भोजन की उपस्थिति का संकेत है। स्टॉकिंग के लिए बादल वाले दिन या दिन का गर्म समय टाल देना चाहिए।
- स्टॉक की जाने वाली प्रजातियां हैं कॉमन कार्प, ग्रास कार्प और सिल्वर कार्प।
- प्रजातियों का अनुपात – कॉमन कार्प 3: ग्रास कार्प 2 : सिल्वर कार्प 1।
- स्टॉकिंग की दर – 15000 फिंगरलिंग्स/हेक्टेयर। उदाहरण के लिए 1 हेक्टेयर टैंक को 1500 फिंगरलिंग्स से 750 कॉमन कार्प : 500 ग्रास कार्प : 250 सिल्वर कार्प के अनुपात में स्टॉक किया जाना चाहिए।
- स्टॉकिंग 15 मार्च तक कर देनी चाहिए।
फीडिंग :
पहले महीने के दौरान अर्थात 15 अप्रैल तक, मछली के कुल बीज स्टॉक बायोमास के 3% की दर से, स्टॉकिंग के दो दिन बाद फीडिंग शुरु की जानी चाहिए। बाद में फीडिंग की दर 2% तक कम की जानी चाहिए। ग्रास कार्प को खिलाने के लिए कटी हुई रसीली घास की आपूर्ति भी की जानी चाहिए। फीडिंग रोज़ाना तीन बार की जानी चाहिए।
दिसम्बर :
पैदावार निकालना
टेबल मछली की पैदावार निकालने का काम मांग के अनुसार 15 नवम्बर से शुरु किया जा सकता है। एक समय में पूरी पैदावार निकालने की कोई जरूरत नहीं है, अच्छी कीमत पाने के लिए इसे सर्दी के तीन महीनों तक मांग के अनुसार बढ़ाया जा सकता है।
एक्वाकल्चनर के जरिये गंदे पानी की सफाई
हाल के वर्षों में देश में बढ़ती जनसंख्याल के साथ औद्योगिक कचरे और ठोस व्यहर्थ पदार्थों से अलग गंदे पानी की मात्रा भी उसके प्रबंधन की क्षमता से कहीं अधिक बढ़ी है। प्राकृतिक जल स्रोतों तक उन्हेंप पहुँचाने के लिए घरेलू सीवर के जरिए तेज प्रयास किए जा रहे हैं।
जैव परिशोधन की अवधारणा
- जैव परिशोधन में जैव-रासायनिक प्रतिक्रिया के लिए जीवाणु की प्राकृतिक गतिविधि का क्रमबद्ध इस्तेमाल शामिल है जिसके परिणामस्वरूप जैविक पदार्थ कार्बन डायऑक्साइड, पानी, नाइट्रोजन और सल्फेट में बदल जाता है।
- घरेलू नाली से बहने वाले पानी के परिशोधन के लिए बड़े पैमाने पर अपनाई जाने वाली प्रक्रिया में एक्टेवेटेड स्लज और ट्रिकलिंग फिल्टर विधि, ऑक्सीडेशन/अपशिष्ट स्थिरीकरण तालाब, एरेटेड लगून और एनेरोबिक परिशोधन विधि के विभिन्न संस्करण शामिल हैं।
- इसमें एक नई तकनीक अपफ्लो एनारोबिक स्लज ब्लैंकेट (यूएएसबी) है। कृषि, बागवानी और एक्वाकल्चर के जरिए नाली के पानी के पुनर्चक्रण का पारंपरिक तरीका मूलत: जैविक प्रक्रिया है जो कि कुछ देशों में प्रचलित है। कोलकाता के की भेरियों में नाली से मछली को खिलाने की परंपरा विश्व प्रसिद्ध है। इन प्रक्रियाओं में पूरा जोर नाली के पानी से पोषक तत्त्वों को निकालने पर होता है।
- इन प्रक्रियाओं से सीखने और नाली के पानी के परिशोधन के विभिन्न तरीकों में नए डाटाबेस से प्राप्त संकेतों के बाद घरेलू कचरे के परिशोधन के लिए मानक विधि के तौर पर एक्वाकल्चर विधि की सिफारिश की जाती है।
एक्वाकल्चर के माध्यम से गंदे पानी के परिशोधन में सीवेज इनटेक प्रणाली, डकवीड कल्चर कॉम्प्लेक्स, सीवेज फेड फिश पॉन्ड, डीप्यूरेशन पॉन्ड और आउटलेट प्रणाली शामिल हैं।
डकवीड कल्चर कॉम्पलेक्स में कई डकवीड तालाब होते हैं जहाँ जलीय मैक्रोफाइट जैसे स्पिरोडेला, वोल्फिया और लेमना पैदा किए जाते हैं। गंदे पानी को आगत प्रणाली के जरिये डकवीड कल्चर प्रणाली में पंप किया जाता है जहाँ इसे दो दिनों तक रखा जाता है, उसके बाद मछलियों के तालाबों में छोड़ा जाता है।
1 एमएलडी पानी के परिशोधन के लिए जो मॉडल तैयार किया गया है, उसमें 18 डकवीड तालाब होते हैं जिनका आकार 25 मीटर X 8 मीटर X 1 मीटर होता है जिन्हें तीन कतारों में बनाया जाता है, जिसके अनुसार पानी इन तीनों में से होता हुआ मछलियों के तालाब में प्रवाहित होता है।
इस प्रणाली में 50 मीटर X 20 मीटर X 2 मीटर आकार के दो मछलियों के तालाब होते हैं तथा 40 मीटर X 20 मीटर X 2 मीटर आकार के दो डीप्यूरेशन तालाब होते हैं। इसमें ठोस सामग्री को निकालने के बाद जो पानी बचता है, वह आता है।
आठ एमएलडी कचरे के परिशोधन के लिए भुवनेश्वर शहर के दो स्थानों पर बनाया गया परिशोधन तंत्र इस तरह से बना है कि वह बड़ी मात्रा में गंदे पानी को साफ कर सके।
प्रभावी परिशोधन के लिए बीओडी का स्तर 100-150 एमजी प्रति लीटर है, इसलिए एक एनेरोबिक इकाई लगाना जरूरी है जहाँ जैविक भार और बीओडी का स्तर काफी ज्यादा हो।
डकवीड कल्चर इकाई भारी धातुओं और अन्य रासायनिक अपशिष्ट को निकालने में मदद करती है, नहीं तो वे मछली के माध्यम से मनुष्य के भोजन चक्र का हिस्सा बन जाएंगे। ये पोषक तत्त्वों को पंप करने में भी सहायक होते हैं और अपनी प्रकाश संश्लेषक पक्रिया के द्वारा ऑक्सीजन भी उपलब्ध कराते हैं। पाँच दिनों के भीतर 100 एमजी प्रति लीटर गंदे पानी को बीओडी के पाँचवें स्तर से साफ किया जा सकता है, जिसमें अंत में बीओडी का स्तर 15-20 एमजी प्रति लीटर पर ले आया जाता है।
सीवेज फेड प्रणालियों में उच्च उत्पादकता और धारण क्षमता का लाभ उठाते हुए मछलियों वाले तालाब में 3-4 टन कार्प प्रति हेक्टेयर का उत्पादन स्तर हासिल किया जा सकता है। इस प्रणाली में एक जैव परिशोधन तंत्र होता है जिसमें डकवीड और मछली के मामले में संसाधन बहाली की उच्च क्षमता होती है। इसकी प्रमुख सीमा यह होती है कि सर्दियों में परिशोधन की क्षमता कम हो जाती है। यह स्थिति उष्ण कटिबंधीय जलवायु वाले स्थानों के लिए भी होती है। 1 एमएलडी कचरे के परिशोधन के लिए एक हेक्टेयर जमीन की जरूरत पड़ती है जो कामकाजी लागत को निकाल देता है और गंदे पानी के परिशोधन तथा ताजा पानी में उसके प्रवाह का आदर्श तरीका है।
एमएलडी परिशोधन क्षमता पर खर्च
क्रम संख्या | सामग्री | राशि ( लाख में ) |
I. | व्यय | |
क. | स्थायी पूँजी | |
1. | बत्तख के लिए चारे के तालाब का निर्माण (0.4 हेक्टेयर) | 3.00 |
2. | मछली के तालाब का निर्माण (0.2 हेक्टेयर) | 1.20 |
3. | अशुद्धिकरण तालाब का निर्माण (0.1 हेक्टेयर) | 0.60 |
4. | पाइप लाइन, गेट, प्रदूषक तत्वों का प्रवाह आदि | 5.00 |
5. | पम्प और अन्य इंस्टॉलेशन, तालाब की लाइनिंग आदि | 5.00 |
6. | जल विश्लेषण उपकरण | 1.00 |
कुल | 15.80 | |
ख. | परिचालन लागत | |
1. | मजदूर (प्रति महीना 2 लोगों के लिए 2000 रुपये) | 0.48 |
2. | बिजली और ईंधन | 0.24 |
3. | मछली के सीड पर लागत | 0.02 |
4. | विविध व्यय | 0.10 |
कुल योग | 0.84 | |
II. | आय | |
1. | 1000 किलोग्राम मछली की बिक्री 30 किलो के हिसाब से | 0.30 |
परिचालन लागत की वापसी की दर | 35% |
कार्प फ्राई और फिंगरलिंग्स का व्यावसायिक उत्पादन
जलीय कृषि कार्य की सफलता के लिए प्रमुख चीजों में एक है सही समय पर जरूरी प्रजाति के बीज अर्थात् मछलियों के अंडों की आवश्यक मात्रा में उपलब्धता। पिछले कई सालों में सफलतापूर्वक मछलियों के पालन के बाद भी आवश्यक आकार के बीजों का मिलना मुश्किल होता है। नर्सरी में 72 से 96 घंटे की आयु वाले मछलियों के बच्चे होते हैं जिन्होंने अभी-अभी खाना शुरू किया होता है और 15 से 20 दिनों तक वे लगातार खाते हैं और इस दौरान वे 25 से 30 मिली मीटर तक बढ़ जाते हैं। इन्हें अगले दो-तीन महीने के लिए दूसरे तालाब में 100 मिली मीटर के आकार तक बढ़ने के लिए डाल दिया जाता है।
नर्सरी तालाब का प्रबंधन
0.2 से 0.10 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले 1.0 से 1.5 मीटर की गहराई वाले तालाबों को नर्सरी के लिए प्राथमिकता दी जाती है जबकि 0.5 हेक्टेयर वाले क्षेत्रों को व्यावसायिक उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। निकासी और निकासी का रास्ता न होने वाले तालाबों और सीमेंट की टंकियों को फ्राई के नर्सरी पालन में इस्तेमाल किया जाता है। नर्सरी में फ्राई को बढ़ाने में शामिल विभिन्न चरणों को नीचे दिया जा रहा है-
प्री-स्टॉकिंग तालाब की तैयारी
जलीय पादपों की सफाई- मछली के तालाब में पौधों का उगना सही नहीं होता क्योंकि वे सभी पोषक तत्वों को तालाब में से खींच लेते हैं जो मछलियों/कीड़ों को भोजन प्रदान करते हैं और मछलियों की आवाजाही में बाधा उत्पन्न करते हैं। इसलिए पानी में मौजूद पौधों को हटाना तालाब की तैयारी का पहला काम होता है। सामान्यतौर पर, नर्सरी में और तालाब में मानवीय तरीका ही इसके लिए अपनाया जाता है क्योंकि मछलियाँ छोटी होती हैं। बड़े तालाबों में अवांछित पौधे हटाने के लिए मशीन, रसायन और जैविक तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है।
सिमेंटेड नर्सरी टैंक का एक दृश्य
पौधों और जंगली मछलियों का उन्मूलन- विभिन्न जानवरों जैसे साँप, कछुए, मेढ़क, पक्षी, उदबिलाव आदि समेत जंगली पौधों और जंगली मछलियों की तालाब में मौजूदगी नई मछलियों के जीवन के साथ-साथ उनके सामने, जगह और ऑक्सीजन की समस्या भी उत्पन्न करती है। तालाब को सुखाना या उसमें उपयुक्त कीटनाशक डालना पहले से मौजूद पौधों और जीवों को हटाने का सबसे सही तरीका है। महुआ ऑयल केक को प्रति हेक्टेयर 2500 किलो के हिसाब से डालने की सलाह दी जाती है। ऑयल केक कीटनाशक की भांति काम करने के अलावा जैविक खाद का भी कार्य करता है और प्राकृतिक उत्पादन में बढ़ोतरी करता है। प्रति हेक्टेयर या मीटर में 350 किलो की मात्रा में व्यावसायिक ब्लीचिंग पाउडर (30 फीसदी क्लोरीन) को पानी में मिलाकर इस्तेमाल करना मछलियों को मारने में कारगर होता है। ब्लीचिंग पाउडर के इस्तेमाल से 18 से 24 घंटे पहले यूरिया का मिश्रण 100 किलो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करने से ब्लीचिंग पाउडर की मात्रा आधी की जा सकती है।
तालाब का उर्वरीकरण
प्लवक जीव मछलियों का प्राथमिक भोजन होता है जो कि तालाबों में उर्वरकों के माध्यम से पैदा किया जाता है। अवांछनीय पेड़-पौधों और जंगली मछलियों को हटाने से बाद सबसे पहले तालाब का इस्तेमाल अंडा उत्पादन के लिए होता है। लाइमिंग के बाद तालाब में जैव खाद जैसे गाय का गोबर, मुर्गे की अपशिष्ट या अजैविक खाद या दोनों ही को, एक के इस्तेमाल के बाद डाला जाता है। मूँगफली के तेल का केक 750 किलोग्राम, गाय का गोबर 200 किलोग्राम और सिंगल सुपर-फॉस्फेट 50 किलोग्राम का मिश्रण एक हेक्टेयर में डालना वांछनीय प्लवक जीवों के उत्पादन में प्रभावी होता है। ऊपर दिये गए मिश्रण के आधे को पानी में मिलाकर गाढ़ा पेस्ट बना लें और भंडारण से 2-3 पहले इसे नर्सरी में छिड़क दें। बाकी के मिश्रण को तालाब में प्लवक के स्तर के आधार पर 2-3 बार डाला जा सकता है।
कार्प फ्राई
जलीय कीटों का नियंत्रण- जलीय कीट और उनके लार्वा, बढ़ती छोटी मछलियों के साथ खाने को लेकर खींचातानी करते हैं जो बड़े स्तर पर नर्सरी में अंडों के फूटने का कारण बनते हैं। सोप-ऑयल का मिश्रण (सस्ता खाद्य तेल 56 किलो प्रति हेक्टेयर के साथ एक-तिहाई किसी भी सस्ती सोप को मिलाकर) जलीय कीटों को मारने का एक सामान्य और प्रभावी तरीका है। इमल्शन के विकल्प के तौर पर 100 से 200 लीटर मिट्टी तेल (केरोसिन) या 75 लीटर डीजल या डिटर्जेंट पाउडर 2-3 किलो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल किया जा सकता है।
स्टॉकिंग
अंडों के फूटने के तीन दिन बाद उनमें से निकले बच्चों को दूसरी नर्सरी में भेज दिया जाता है। इसे सुबह के समय किया जाना चाहिए ताकि उन्हें नए वातावरण में खुद को ढालने के लिए दिन का समय मिल सके। नर्सरी में 3 से 5 मिलियन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से स्पॉन रखने की सलाह दी जाती है। हालांकि, सीमेंट से बनी टंकियों में 10 से 20 मिलियन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से भी उन्हें रखा जा सकता है। नर्सरी में सामान्यत: कार्प के मोनोकल्चर की सलाह दी जाती है।
पोस्ट-स्टॉकिंग तालाब का प्रबंधन
जैसा कि पहले कहा गया है कि 15 दिन की संस्करण अवधि के दौरान उर्वरीकरण के चरण को 2 से 3 भागों में बाँटा जा सकता है। शुरू के पांच दिनों तक 1:1 के अनुपात में अच्छी तरह पीसा हुआ मूँगफली का ऑयल केक और चावल के आटे का पूरक आहार पहले पाँच दिनों तक 6 किलो प्रति मिलियन और बाद के दिनों के लिए 12 किलो प्रति मिलियन के हिसाब से दो समान किस्तों में उपलब्ध कराया जाता है। पालन के वैज्ञानिक तरीके को अपनाने से 15 से 20 दिनों के पालन के दौरान फ्राई 20 से 25 मिली मीटर के हो जाते हैं और 40 से 60 फीसदी जीवित रहते हैं। चूंकि, नर्सरी में पालन का समय 15 दिन का सीमित होता है, इसलिए वही नर्सरी बहु-क्रॉपिंग के लिए भी इस्तेमाल की जा सकती है। सामान्य तालाबों के मामले में 2 से 3 क्रॉप और सीमेंट से बनी टंकियों में 4 से 5 क्रॉप रखे जा सकते हैं।
फ्राई- फिंगरलिंग्स पालन के लिए तालाब प्रबंधन
फ्राई से फिंगरलिंग्स तक विकास की अवधि में पालन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तालाब का आकार नर्सरी की तुलना में 0.2 हेक्टेयर क्षेत्र होना चाहिए। विभिन्न चरण निम्न के अनुसार शामिल हैं-
प्री-स्टॉकिंग तालाब का प्रबंधन
प्री-स्टॉकिंग तालाब के प्रबंधन की तैयारी जैसे अवांछनीय पौधों की सफाई और पहले से मौजूद अवांछनीय चीजों और जंगली मछली का उन्मूलन नर्सरी के तालाब के प्रबंधन के जैसे ही हैं। पालन करने वाले तालाब में कीड़ों को नियंत्रित करना जरूरी नहीं है। तालाब में जैव खाद और अजैविक खाद डाली जा सकती है, मात्रा मछलियों के लिए इस्तेमाल किए गए जहर पर निर्भर करती है। यदि महुआ ऑयल केक का इस्तेमाल मछलियों के लिए जहर के तौर पर किया गया है, तो गाय के गोबर के मिश्रण को प्रति हेक्टेयर 5 टन के हिसाब से इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन अन्य जहर के साथ उसका कोई खाद मूल्य नहीं होता। गाय का गोबर सामान्यतौर पर 10 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल किया जाता है। यद्यपि स्टॉकिंग से पहले करीब एक-तिहाई डोज बसल डोज की तरह इस्तेमाल होती है और बाकी 15 दिन के हिसाब से। यूरिया और सिंगल सुपर फॉस्फेट क्रमश: 200 किलोग्राम और 300 किलोग्राम प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 15 दिनों में अजैविक खाद की तरह इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है।
कार्प फिंगरलिंग्स
फ्राई की स्टॉकिंग
स्टॉकिंग को तय करने की दर तालाब की उत्पादन क्षमता पर निर्भर करती है और उसी हिसाब से प्रबंधन के तरीकों को अपनाया जाना चाहिए। पालने के तालाब में फ्राई की स्टॉकिंग की सामान्य मात्रा प्रति हेक्टेयर 0.1 से 0.3 मिलियन होती है। यद्यपि नर्सरी वाला चरण मोनोकल्चर के लिए सीमित होता है, पालन करने वाले चरण में विभिन्न कार्प प्रजातियों का पॉलीकल्चर किया जाता है यानी इन सबको एक साथ पाला जाता है।
प्री-स्टॉकिंग तालाब का प्रबंधन
फिंगरलिंग्स पालन के लिए भोजन की दर 5 से 10 फीसदी होनी चाहिए। यद्यपि अधिकतर मामलों में पूरक भोजन मूँगफली ऑयल केक और चावल की भूसी का 1:1 में मिश्रण होता है। भोजन में एक गैर-पारंपरिक घटक भी मिलाया जा सकता है। जब ग्रास कार्प को संग्रहित किया जाता है, तो उन्हें बत्तखों के खाने लायक वॉल्फिया, लेम्ना, स्पाइरोडेला उपलब्ध कराये जाते हैं। पानी का स्तर 1.5 मीटर गहरा होना चाहिए जबकि अन्य चीजें पहले दिए गए सुझावों के हिसाब से इस्तेमाल किए जाने चाहिए। पालन का वैज्ञानिक तरीका अपनाए जाने से फिंगरलिंग्स को 80 से 100 मिली मीटर/8 से 10 ग्राम का हो जाता है और पालन किए जाने वाले तालाब की परिस्थितियों के तहत 70 से 90 फीसदी जीवित रहती हैं।
फ्राई पालन की आर्थिकी
क्रम संख्या | सामग्री | राशि
(रुपये में) |
I. | व्यय | |
क. | परिवर्तनीय लागत | |
1. | तालाब को पट्टे पर लेने का मूल्य | 5,000 |
2. | ब्लीचिंग पाउडर (10 पीपीएम क्लोराइड)/अन्य रसायन | 2,500 |
3. | खाद और उर्वरक | 8,000 |
4. | स्पॉन (प्रति मिलियन 5000 रुपये के हिसाब से 5 मिलियन) | 25,000 |
5. | पूरक भोजन (10 रुपये प्रति किलो के हिसाब से 750 किलो) | 7,500 |
6. | प्रबंधन और फसल के लिए मजदूर (100 व्यक्ति- 50 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से) | 5,000 |
7. | विविध व्यय | 5,000 |
कुल योग | 58,000 | |
ख. | कुल लागत | |
1. | परिर्वतनीय लागत | 58,000 |
2. | एक महीने के लिए 15 फीसदी प्रतिवर्ष के हिसाब से परिवर्तनीय लागत पर ब्याज | 0.725 |
कुल | 58,725
» 59.000 |
|
II. | शुद्ध आय | |
फ्राई से बिक्री (प्रति लाख 7000 रुपये के हिसाब से 15 लाख फ्राई) | 1,05,000 | |
III. | शुद्ध आय (कुल आय- कुल लागत) | 46,000 |
एक मानसून सत्र में कम से कम दो फसलें उगाई जा सकती हैं (जून से अगस्त)। इसलिए एक हेक्टेयर जल क्षेत्र में शुद्ध आय 92,000 रुपये होगी।
फिंगरलिंग पालन की आर्थिकी
क्रम संख्या | सामग्री | राशि
(रुपये में) |
I. | व्यय | |
क. | परिवर्तनीय लागत | |
1. | तालाब को पट्टे पर लेने का मूल्य | 10,000 |
2. | ब्लीचिंग पाउडर (10 पीपीएम क्लोराइड)/अन्य टॉक्सीकेंट्स | 2,500 |
3. | खाद और उर्वरक | 3,500 |
4. | फ्राई (प्रति फ्राई 7000 रुपये के हिसाब से 3 लाख फ्राई) | 21,000 |
5. | पूरक भोजन (प्रति टन 7000 रुपये के हिसाब से 5 टन) | 35,000 |
6. | प्रबंधन और फसल के लिए मजदूरी (100 व्यक्ति- 50 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से) | 5,000 |
7. | विविध व्यय | 3,000 |
कुल योग | 80,000 | |
B. | कुल लागत | |
1. | परिवर्तनीय लागत | 80,000 |
2. | तीन महीने के लिए 15 फीसदी प्रतिवर्ष के हिसाब से परिवर्तनीय लागत पर ब्याज | 3,000 |
कुल योग | 83,000 | |
II. | कुल आय | |
2.1 लाख फिंगरलिंग्स की बिक्री से 500 प्रति 1000 की दर पर | 1,05,000 | |
III. | शुद्ध आय (कुल आय-कुल लागत) | 22,000 |
मत्स्य पालन तकनीक
- उर्वरकों का प्रयोग
- मत्स्य बीज संचय
- पूरक आहार दिया जाना
- मछलियों की वृद्धि व स्वास्थ्य का निरीक्षण
- मछलियों की निकासी
परिचय
जनसंख्या मे निरन्तर वृद्धि के परिणाम स्वरूप रोजी-रोटी की समस्या के समाधान के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि आज के विकासशील युग में ऐसी योजनाओं का क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाय जिनके माध्यम से खाद्य पदार्थों के उत्पादन के साथ-साथ भूमिहीनों, निर्धनों, बेरोजगारों, मछुआरों आदि के लिये रोजगार के साधनों का सृजन भी हो सके। उत्तर प्रदेश एक अन्तस्र्थलीय प्रदेश है जहां मत्स्य पालन और मत्स्य उत्पादन की दृष्टि से सुदूरवर्ती ग्रामीण अंचलों में तालाबों व पोखरों के रूप में तमाम मूल्यवान जल सम्पदा उपलब्ध है। मछली पालन का व्यवसाय निःसंदेह उत्तम भोजन और आय का उत्तम साधन समझा जाने लगा है। तथा इस आशय की जानकारी परम आवश्यक है कि मछली का उच्चतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए कौन-कौन सी व्यवस्थायें अपनायी जायें?
तालाब का चयन
मत्स्य पालन हेतु 0.2 से 2.00 हेक्टर तक के ऐसे तालाबों का चुनाव किया जाना चाहिए जिनमें कम से कम वर्ष में 8-9 माह अथवा वर्ष भर पानी बना रहे। तालाबों को सदाबहार रखने के लिए जल की पूर्ति का साधन अवश्य उपलब्ध होना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर जल की आपूर्ति की जा सके। तालाब में वर्ष भर 1-2 मीटर पानी अवश्य रहे। तालाब उसी प्रकार के चुने जायें जिनमें मत्स्य पालन आर्थिक दृष्टि से लाभकारी हो और उनकी प्रबन्ध व्यवस्था सुगमता से संभव हो सके। यह भी ध्यान देने की बात है कि तालाब बाढ़ से प्रभावित न होते हो और उन तक आसानी से पहुंचा भी जा सके।
तालाब का सुधार
अधिकांश तालाबों में बंधों का कटा-फटा या ऊँचा-नीचा होना, पानी आने जाने के रास्तों का न होना अथवा दूर के क्षेत्रों से अधिक पानी आने की सम्भावनाओं का बना रहना आदि कमियां स्वाभाविक रूप से पायी जाती हैं जिन्हें सुधारोपरान्त दूर किया जा सकता है। तालाब को समतल बनाने के लिए यदि कहीं पर टीले हों तो उनकी मिटटी निकाल कर बंधों पर डाल देनी चाहिए। कम गहराई वाले स्थान से मिटटी निकाल कर गहराई एक सामान की जा सकती है। बंधे बाढ़ स्तर से ऊँचे रखने चाहिए। पानी के निकास तथा पानी आने के मार्ग में उपयुक्त जाली की व्यवस्था हो ताकि अवांछनीय मछलियां तालाब में न आ सकें और पाली जाने वाली मछलियां बाहर न जा सकें। तालाबों का सुधार कार्य मई-जून तक अवश्य करा लेना चाहिए जिससे मत्स्य पालन समय से प्रारम्भ किया जा सके।
तालाब की प्रबन्ध व्यवस्था
अवांछनीय जलीय पौधों का उन्मूलन
पानी की सतह पर स्वतंत्र रूप से तैरने वाले जलीय पौधे उदाहरणार्थ जल कुम्भी, लेमना, पिस्टिया, अजोला आदि अथवा जड़ जमाकर सतह पर तैरने वाले पौध जैसे कमल इत्यादि अथवा जल में डूबे रहने वाले जड़दार पौध जैसे हाइड्रिला, नाजाज इत्यादि का तालाब में आवश्यकता से अधिक होना मछली की अच्छी उपज के लिए हानिकारक है। यह पौधे पानी का एक बहुत बड़ा भाग घेरे रहते हैं जिससे मछली के घूमने-फिरने में असुविधा होती है। साथ ही सूर्य की किरणों का जल में प्रवेश भी बाधित होता है जिससे मछली का प्राकृतिक भोजन उत्पन्न होना रूक जाता है और अन्ततोगत्वा मछली की वृद्धि प्रभावित होती है। जलीय पौधों का बाहुल्य जाल चलाने में भी बाधक होता है।
जलीय पौधों को श्रमिक लगाकर उखाड़कर फेंका जा सकता है। रसायनों का प्रयोग गांव के तालाबों में करना उचित नहीं होता क्योंकि उनका विषैलापन पानी में काफी दिनों तक बना रहता है। अतः अच्छा यही है कि अनावश्यक पौधों का उन्मूलन मानव शक्ति से ही किया जाय।
अवांछनीय मछलियों की सफाई
ऐसे तालाब जिनमें मत्स्य पालन नहीं हो रहा है और पानी पहले से मौजूद है में पढ़िन बैंगन, सौल, गिरई, सिंधी, मांगुर आदि अवांछनीय मछलियां स्वाभाविक रूप से पायी जाती हैं। जिनकी सफाई आवश्यक है। अवांछनीय मछलियों की सफाई बार-बार जाल चलवा कर अथवा 25 क्विंटल/हेक्टेयर/मीटर पानी की गहराई के हिसाब से महुए की खली के प्रयोग स्वरूप की जा सकती है। यदि महुआ की खली का प्रयोग किया जाता है तो 6-8 घंटों में सारी मछली ऊपर आकर मर जायेंगी जिसे उपभोग हेतु बेचा जा सकता है। महुए की खली के विष का प्रभाव 15-20 दिन तक पानी में बना रहता है। तत्पश्चात् यह उर्वरक का कार्य करती हैं और पानी की उत्पादकता बढ़ाती हैं।
जल-मृदा परीक्षण
मछली की उच्चतम पैदावार के लिये तालाब की मिट्टी-पानी का उपयुक्त होना आवश्यक है। मत्स्य पालकों को चाहिये कि वे अपने तालाब की मिटटी-पानी का परीक्षण मत्स्य विभाग की प्रयोगशालाओं द्वारा करा कर निर्धारित मात्रा में कार्बनिक व रसायनिक उर्वरकों के उपयोग हेतु संस्तुतियां प्राप्त कर वैज्ञानिक मत्स्य पालन अपनाएं।
जलीय उत्पादकता हेतु चूने का प्रयोग
चूना जल की क्षारीयता में वृद्धि करता है। अम्लीयता व क्षारीयता को संतुलित करता है। साथ ही यह मछलियों को विभिन्न परजीवियों के प्रभाव से मुक्त रखता है। बुझे हुए चूने का प्रयोग 250 कि.ग्रा./हेक्टर की दर से मत्स्य बीज संचय से लगभग 1 माह पूर्व अथवा गोबर की खाद डालने के 15 दिन पूर्व किया जाना चाहिये।
उर्वरकों का प्रयोग
तालाब में गोबर की खाद तथा रसायनिक खादों का प्रयोग भी किया जाता है। सामान्यतः एक हेक्टेयर के तालाब में 10 टन प्रति वर्ष गोबर की खाद प्रयोग की जानी चाहिये। इस सम्पूर्ण मात्रा को 10 समान मासिक किश्तों में विभक्त करते हुए तालाब में डालना चाहिये।
रसायनिक खादो का प्रयोग प्रत्येक माह गोबर की खाद के 15 दिन बाद करना चाहिए। तथा प्रयोग दर निम्नवत् है :
यूरिया | 200 किग्रा./हे./वर्ष |
सिंगल सुपर फास्फेट | 250 कि.ग्रा./हे./वर्ष |
म्यूरेट ऑफ पोटाश
|
40 कि.ग्रा./हे./वर्ष
|
कुल | 490 कि.ग्रा./हे./वर्ष |
मत्स्य बीज संचय
तालाब में 50 मि.मी. या अधिक लम्बाई की 5000 स्वस्थ अगुलिकायें प्रति हेक्टेयर की दर से संचित की जा सकती हैं। विभिन्न प्रजातियों हेतु संचय अनुपात निम्न हो सकते हैं –
मत्स्य प्रजातियां | 6 प्रजातियों का पालन
|
4 प्रजातियों का पालन | 3 प्रजातियों का पालन
|
कतला | 10 प्रतिशत
|
30 प्रतिशत | 40 प्रतिशत |
नैन | 30 प्रतिशत
|
25 प्रतिशत
|
30 प्रतिशत |
सिल्वर कार्प | 15 प्रतिशत
|
20 प्रतिशत | 30 प्रतिशत |
ग्रास कार्प
|
20 प्रतिशत | – | – |
कामन कार्प | 10 प्रतिशत | – | – |
रोहू
|
15 प्रतिशत
|
25 प्रतिशत
|
– |
पूरक आहार दिया जाना
पूरक आहार के रूप में आमतौर पर मूंगफली सरसों या तिल की खली एवं चावल के कना अथवा गेहूं के चोकर को बराबर मात्रा में मिश्रण स्वरूप मछलियों के भार का 1-2 प्रतिशत की दर से प्रतिदिन दिया जाना चाहिये। यदि ग्रास कार्प मछली का पालन किया जा रहा है। तो पानी की वनस्पतियों जैसे लेमना, हाइङ्लिा, नाजाज, सिरेटोफाइलम आदि तथा स्थलीय वनस्पतियों जैसे कैपियर बरसीम व मक्का के पत्ते इत्यादि जितना भी वह खा सकें, प्रतिदिन खिलाना चाहिए।
मछलियों की वृद्धि व स्वास्थ्य का निरीक्षण
प्रत्येक माह तालाब में जाल चलवा कर मछलियों की वृद्धि व स्वास्थ्य का निरीक्षण किया जाना चाहिये। यदि मछलियां परजीवियों से प्रभावित हों तो एक पी.पी.एम. पोटशियम परमैंगनेट या 1 प्रतिशत नमक के घोल में उन्हें डुबाकर पुनः तालाब में छोड़ देना चाहिये। यदि मछलियों पर लाल चकत्ते व घाव दिखायी दें तो मत्स्य पालको को चाहिये कि वे मत्स्य विभाग के जनपदीय कार्यालय में तुरन्त सम्पर्क करें तथा संस्तुतियां प्राप्त कर आवश्यक कार्यवाही करें।
मछलियों की निकासी
12 से 16 माह के बीच जब मछलियां 1-1.5 कि.ग्रा. की हो जाये तो उन्हें निकलवा कर बेच देना चाहिये।
स्त्रोत: कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग, भारत सरकार
ताजे पानी के मोती का उत्पादन
मोती उत्पादन क्या है?
मोती एक प्राकृतिक रत्न है जो सीप से पैदा होता है। भारत समेत हर जगह हालांकि मोतियों की माँग बढ़ती जा रही है, लेकिन दोहन और प्रदूषण से इनकी संख्या घटती जा रही है। अपनी घरेलू माँग को पूरा करने के लिए भारत अंतरराष्ट्रीय बाजार से हर साल मोतियों का बड़ी मात्रा में आयात करता है। सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वॉटर एक्वाकल्चर, भुवनेश्वर ने ताजा पानी के सीप से ताजा पानी का मोती बनाने की तकनीक विकसित कर ली है जो देशभर में बड़ी मात्रा में पाये जाते हैं।
तराशे हुए मोती
प्राकृतिक रूप से एक मोती का निर्माण तब होता है जब कोई बाहरी कण जैसे रेत, कीट आदि किसी सीप के भीतर प्रवेश कर जाते हैं और सीप उन्हें बाहर नहीं निकाल पाता, बजाय उसके ऊपर चमकदार परतें जमा होती जाती हैं। इसी आसान तरीके को मोती उत्पादन में इस्तेमाल किया जाता है।
मोती सीप की भीतरी सतह के समान होता है जिसे मोती की सतह का स्रोत कहा जाता है और यह कैल्शियम कार्बोनेट, जैपिक पदार्थों व पानी से बना होता है। बाजार में मिलने वाले मोती नकली, प्राकृतिक या फिर उपजाए हुए हो सकते हैं। नकली मोती, मोती नहीं होता बल्कि उसके जैसी एक करीबी चीज होती है जिसका आधार गोल होता है और बाहर मोती जैसी परत होती है। प्राकृतिक मोतियों का केंद्र बहुत सूक्ष्म होता है जबकि बाहरी सतह मोटी होती है। यह आकार में छोटा होता और इसकी आकृति बराबर नहीं होती। पैदा किया हुआ मोती भी प्राकृतिक मोती की ही तरह होता है, बस अंतर इतना होता है कि उसमें मानवीय प्रयास शामिल होता है जिसमें इच्छित आकार, आकृति और रंग का इस्तेमाल किया जाता है। भारत में आमतौर पर सीपों की तीन प्रजातियां पाई जाती हैं- लैमेलिडेन्स मार्जिनालिस, एल.कोरियानस और पैरेसिया कोरुगाटा जिनसे अच्छी गुणवत्ता वाले मोती पैदा किए जा सकते हैं।
उत्पादन का तरीका
इसमें छह प्रमुख चरण होते हैं- सीपों को इकट्ठा करना, इस्तेमाल से पहले उन्हें अनुकूल बनाना, सर्जरी, देखभाल, तालाब में उपजाना और मोतियों का उत्पादन।
- सीपों को इकट्ठा करना: तालाब, नदी आदि से सीपों को इकट्ठा किया जाता है और पानी के बरतन या बाल्टियों में रखा जाता है। इसका आदर्श आकार 8 सेंटी मीटर से ज्यादा होता है।
- इस्तेमाल से पहले उन्हें अनुकूल बनाना: इन्हें इस्तेमाल से पहले दो-तीन दिनों तक पुराने पानी में रखा जाता है जिससे इसकी माँसपेशियाँ ढीली पड़ जाएं और सर्जरी में आसानी हो।
- सर्जरी: सर्जरी के स्थान के हिसाब से यह तीन तरह की होती है- सतह का केंद्र, सतह की कोशिका और प्रजनन अंगों की सर्जरी। इसमें इस्तेमाल में आनेवाली प्रमुख चीजों में बीड या न्यूक्लियाई होते हैं, जो सीप के खोल या अन्य कैल्शियम युक्त सामग्री से बनाए जाते हैं।
सतह के केंद्र की सर्जरी
इस प्रक्रिया में 4 से 6 मिली मीटर व्यास वाले डिजायनदार बीड जैसे गणेश, बुद्ध आदि के आकार वाले सीप के भीतर उसके दोनों खोलों को अलग कर डाला जाता है। इसमें सर्जिकल उपकरणों से सतह को अलग किया जाता है। कोशिश यह की जाती है कि डिजायन वाला हिस्सा सतह की ओर रहे। वहाँ रखने के बाद थोड़ी सी जगह छोड़कर सीप को बंद कर दिया जाता है।
सतह कोशिका की सर्जरी
यहाँ सीप को दो हिस्सों- दाता और प्राप्तकर्त्ता कौड़ी में बाँटा जाता है। इस प्रक्रिया के पहले कदम में उसके कलम (ढके कोशिका के छोटे-छोटे हिस्से) बनाने की तैयारी है। इसके लिए सीप के किनारों पर सतह की एक पट्टी बनाई जाती है जो दाता हिस्से की होती है। इसे 2/2 मिली मीटर के दो छोटे टुकड़ों में काटा जाता है जिसे प्राप्त करने वाले सीप के भीतर डिजायन डाले जाते हैं। यह दो किस्म का होता है- न्यूक्लीयस और बिना न्यूक्लीयस वाला। पहले में सिर्फ कटे हुए हिस्सों यानी ग्राफ्ट को डाला जाता है जबकि न्यूक्लीयस वाले में एक ग्राफ्ट हिस्सा और साथ ही दो मिली मीटर का एक छोटा न्यूक्लीयस भी डाला जाता है। इसमें ध्यान रखा जाता है कि कहीं ग्राफ्ट या न्यूक्लीयस बाहर न निकल आएँ।
प्रजनन अंगों की सर्जरी
इसमें भी कलम बनाने की उपर्युक्त प्रक्रिया अपनाई जाती है। सबसे पहले सीप के प्रजनन क्षेत्र के किनारे एक कट लगाया जाता है जिसके बाद एक कलम और 2-4 मिली मीटर का न्यूक्लीयस का इस तरह प्रवेश कराया जाता है कि न्यूक्लीयस और कलम दोनों आपस में जुड़े रह सकें। ध्यान रखा जाता है कि न्यूक्लीयस कलम के बाहरी हिस्से से स्पर्श करता रहे और सर्जरी के दौरान आँत को काटने की जरूरत न पड़े।
देखभाल
इन सीपों को नायलॉन बैग में 10 दिनों तक एंटी-बायोटिक और प्राकृतिक चारे पर रखा जाता है। रोजाना इनका निरीक्षण किया जाता है और मृत सीपों और न्यूक्लीयस बाहर कर देने वाले सीपों को हटा लिया जाता है।
तालाब में पालन
ताजा पानी में सीपों का पालन देखभाल के चरण के बाद इन सीपों को तालाबों में डाल दिया जाता है। इसके लिए इन्हें नायलॉन बैगों में रखकर (दो सीप प्रति बैग) बाँस या पीवीसी की पाइप से लटका दिया जाता है और तालाब में एक मीटर की गहराई पर छोड़ दिया जाता है। इनका पालन प्रति हेक्टेयर 20 हजार से 30 हजार सीप के मुताबिक किया जाता है। उत्पादकता बढ़ाने के लिए तालाबों में जैविक और अजैविक खाद डाली जाती है। समय-समय पर सीपों का निरीक्षण किया जाता है और मृत सीपों को अलग कर लिया जाता है। 12 से 18 माह की अवधि में इन बैगों को साफ करने की जरूरत पड़ती है।
मोती का उत्पादन
गोल मोतियों का संग्रहणपालन अवधि खत्म हो जाने के बाद सीपों को निकाल लिया जाता है। कोशिका या प्रजनन अंग से मोती निकाले जा सकते हैं, लेकिन यदि सतह वाला सर्जरी का तरीका अपनाया गया हो, तो सीपों को मारना पड़ता है। विभिन्न विधियों से प्राप्त मोती खोल से जुड़े होते हैं और आधे होते हैं; कोशिका वाली विधि में ये जुड़े नहीं होते और गोल होते हैं तथा आखिरी विधि से प्राप्त सीप काफी बड़े आकार के होते हैं।
ताजे पानी में मोती उत्पादन का खर्च
ध्यान रखने योग्य बातें-
- ये सभी अनुमान सीआईएफए में प्राप्त प्रायोगिक परिणामों पर आधारित हैं।
- डिजायनदार या किसी आकृति वाला मोती अब बहुत पुराना हो चुका है, हालांकि सीआईएफए में पैदा किए जाने वाले डिजायनदार मोतियों का पर्याप्त बाजार मूल्य है क्योंकि घरेलू बाजार में बड़े पैमाने पर चीन से अर्द्ध-प्रसंस्कृत मोती का आयात किया जाता है। इस गणना में परामर्श और विपणन जैसे खर्चे नहीं जोड़े जाते।
- कामकाजी विवरण
- क्षेत्र : 4 हेक्टेयर
- उत्पाद : डिजायनदार मोती
- भंडारण की क्षमता : 25 हजार सीप प्रति 4 हेक्टेयर
- पैदावार अवधि : डेढ़ साल
क्रम संख्या | सामग्री | राशि(लाख रुपये में) |
I. | व्यय | |
क . | स्थायी पूँजी | |
1. | परिचालन छप्पर (12 मीटर x 5 मीटर) | 1.00 |
2. | सीपों के टैंक (20 फेरो सीमेंट/एफआरपी टैंक 200 लीटर की क्षमता वाले प्रति डेढ़ हजार रुपये) | 0.30 |
3. | उत्पादन इकाई (पीवीसी पाइप और फ्लोट) | 1.50 |
4. | सर्जिकल सेट्स (प्रति सेट 5000 रुपये के हिसाब से 4 सेट) | 0.20 |
5. | सर्जिकल सुविधाओं के लिए फर्नीचर (4 सेट) | 0.10 |
कुल योग | 3.10 | |
ख . | परिचालन लागत | |
1. | तालाब को पट्टे पर लेने का मूल्य (डेढ़ साल के फसल के लिए) | 0.15 |
2. | सीप (25,000 प्रति 50 पैसे के हिसाब से) | 0.125 |
3. | डिजायनदार मोती का खाँचा (50,000 प्रति 4 रुपये के हिसाब से) | 2.00 |
4. | कुशल मजदूर (3 महीने के लिए तीन व्यक्ति 6000 प्रति व्यक्ति के हिसाब से) | 0.54 |
5. | मजदूर (डेढ़ साल के लिए प्रबंधन और देखभाल के लिए दो व्यक्ति प्रति व्यक्ति 3000 रुपये प्रति महीने के हिसाब से | 1.08 |
6. | उर्वरक, चूना और अन्य विविध लागत | 0.30 |
7. | मोतियों का फसलोपरांत प्रसंस्करण (प्रति मोती 5 रुपये के हिसाब से 9000 रुपये) | 0.45 |
कुल योग | 4.645 | |
ग. | कुल लागत | |
1. | कुल परिवर्तनीय लागत | 4.645 |
2. | परिवर्तनीय लागत पर छह महीने के लिए 15 फीसदी के हिसाब से ब्याज | 0.348 |
3. | स्थायी पूँजी पर गिरावट लागत (प्रतिवर्ष 10 फीसदी के हिसाब से डेढ़ वर्ष के लिए) | 0.465 |
4. | स्थायी पूँजी पर ब्याज (प्रतिवर्ष 15 फीसदी के हिसाब से डेढ़ वर्ष के लिए | 0.465 |
कुल योग | 5.923 | |
II. | कुल आय | |
1. | मोतियों की बिक्री पर रिटर्न (15,000 सीपों से निकले 30,000 मोती यह मानते हुए कि उनमें से 60 फीसदी बचे रहेंगे) | |
डिजायन मोती (ग्रेड ए) (कुल का 10 फीसदी) प्रति मोती 150 रुपये के हिसाब से 3000
|
4.50 | |
डिजायन मोती (ग्रेड बी) (कुल का 20 फीसदी) प्रति मोती 60 रुपये के हिसाब से 6000
|
3.60 | |
कुल रिटर्न | 8.10 | |
III. | शुद्ध आय (कुल आय- कुल लागत) | 2.177 |
स्रोत-
- सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेशवॉटर एक्वाकल्चर, भुवनेश्वर, उड़ीसा
कैसे बनते हैं मोती
- मोती का ऐतहासिक परिप्रेक्ष्य
- मोती की कीमत
- बहुुउपयोगिता
- संरचना और आकार
- खनिज संघटन
- मोती का उत्पादन
- वैश्विक स्तर पर मोती की खेती
- मोती की खेती-भारत के संदर्भ में
- मोती की खेती-विभिन्न चरण
- लोकप्रिय होती मोती की खेती
मोती का ऐतहासिक परिप्रेक्ष्य
रामायण काल में मोती का उपयोग काफी प्रचलित था। मोती की चर्चा बाइबल में भी की गई है। साढ़े तीन हजार वर्ष ईसा पूर्व अमरीका के मूल निवासी रेड इंडियन मोती को काफी महत्व देते थे। उनकी मान्यता थी कि मोती में जादुई शक्ति होती है। ईसा बाद छठी शताब्दी में प्रसिध्द भारतीय वैज्ञानिक वराह मिहिर ने बृहत्संहिता में मोतियों का विस्तृत विवरण दिया है। ईसा बाद पहली शताब्दी में प्रसिध्द यूरोपीय विद्वान प्लिनी ने बताया था कि उस काल के दौरान मूल्य के दृष्टिकोण से पहले स्थान पर हीरा था और दूसरे स्थान पर मोती। भारत में उत्तर प्रदेश के पिपरहवा नामक स्थान पर शाक्य मुनि के अवशेष मिले हैं जिनमें मोती भी शामिल हैं। ये अवशेष एक स्तूप में मिले हैं। अनुमान है कि ये अवशेष करीब 1500 वर्ष पुराने हैं।
मोती की कीमत
मोती अनेक रंग रूपों में मिलते हैं। इनकी कीमत भी इनके रूप-रंग तथा आकार पर आंकी जाती है। इनका मूल्य चंद रुपए से लेकर हजारों रुपए तक हो सकता है। प्राचीन अभिलेखों के अध्ययन से पता चलता है कि फारस की खाड़ी से प्राप्त एक मोती छ: हजार पाउंड में बेचा गया था। फिर इसी मोती को थोड़ा चमकाने के बाद 15000 पाउंड में बेचा गया। संसार में आज सबसे मूल्यवान मोती फारस की खाड़ी तथा मन्नार की खाड़ी में पाए जाते हैं। इन मोतियों को ओरियन्ट कहा जाता है।
बहुुउपयोगिता
मोतियों का उपयोग आभूषणों के अलावा औषधि-निर्माण में भी होता आया है। भारत के प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रंथों में मोती-भस्म का उपयोग कई प्रकार की औषधियों के निर्माण में किए जाने का उल्लेख मिलता है- कब्ज नाशक के रूप में तथा वमन कराने हेतु। इससे स्वाथ्यवर्ध्दक तथा उद्दीपक दवाओं का निर्माण किया जाता है। जापान में मोतियों के चूर्ण से कैल्शियम कार्बोनेट की गोलियां बनाई जाती हैं। जापानियों की मान्यता है कि इन गोलियों के सेवन से दांतों में छेद होने का डर नहीं रहता। साथ ही इससे पेट में गैस नहीं बनती तथा एलर्जी की शिकायत नहीं होती।
संरचना और आकार
मोती वस्तुत: मोलस्क जाति के एक प्राणी द्वारा क्रिस्टलीकरण की प्रक्रिया द्वारा बनता है। यह उसी पदार्थ से बनता है जिस पदार्थ से मोलस्क का कवच या आवरण बनता है। यह पदार्थ कैल्शियम कार्बोनेट व एक अन्य पदार्थ का मिश्रण है। इसे नैकर कहा जाता है। हर वह मोलस्क, जिसमें यह आवरण मौजूद हो, में मोती उत्पन्न करने की क्षमता होती है। नैकर स्राव करने वाली कोशिकाएं इसके आवरण या एपिथोलियम में उपस्थित रहती हैं। मोती अनेक आकृतियों में पाए जाते हैं। इनकी सबसे सुंदर एवं मूल्यवान आकृति गोल होती है। परन्तु सबसे सामान्य आकृति अनियमित या बेडौल होती है। आभूषणों में प्राय: गोल मोती का ही उपयोग किया जाता है। अन्य आकर्षक आकृतियों में शामिल है: बटन, नाशपाती, अंडाकार तथा बूंद की आकृति।
मोती का रंग उसके जनक पदार्थ तथा पर्यावरण पर निर्भर करता है। मोती अनेक रंगों में पाए जाते हैं। परन्तु आकर्षक रंगों में शामिल हैं- मखनिया, गुलाबी, उजला, काला तथा सुनहरा। बंगाल की खाड़ी में पाया जाने वाला मोती हल्का गुलाबी या हल्का लाल होता है। मोती छोटे-बड़े सभी आकार के मिलते हैं। अब तक जो सबसे छोटा मोती पाया गया है उसका वजन 1.62 मिलीग्राम (अर्थात 0.25 ग्रेन) था। इस प्रकार के छोटे मोती को बीज मोती कहा जाता है। बड़े आकार के मोती को बरोक कहा जाता है। हेनरी टाम्स होप के पास एक बरोक था जिसका वजन लगभग 1860 ग्राम था।
खनिज संघटन
खनिज संघटन के दृष्टिकोण से मोती अरैगोनाइट नामक खनिज का बना होता है। इस खनिज के रवे विषम अक्षीय क्रिस्टल होते हैं। अरैगोनाइट वस्तुत: कैल्शियम कार्बोनेट है। मोती के रासायनिक विश्लेषण से पता चला है कि इसमें 90-92 प्रतिशत कैल्शियन कार्बोनेट, 4-6 प्रतिशत कार्बनिक पदार्थ तथा 2-4 प्रतिशत पानी होता है। मोती अम्ल में घुलनशील होते हैं। तनु खनिज अम्लों के संपर्क में आने पर मोती खदबदाहट के साथ प्रतिक्रिया कर कार्बन डाईआक्साइड मुक्त करता है। यह एक कोमल रत्न है। किसी भी धातु या कठोर वस्तु से इस पर खरोंच पैदा हो जाती है। इसका विशिष्ट घनत्व 2.40 से 2.78 तक पाया गया है। उत्पत्ति के दृष्टिकोण से मोतियों की तीन श्रेणियां होती है: 1. प्राकृतिक मोती, 2. कृत्रिम या संवर्ध्दित मोती, तथा 3. नकली (आर्टिफिशल) मोती।
मोती का उत्पादन
प्राकृतिक मोती की उत्पत्ति प्राकृतिक ढंग से होती है। वराह मिहिर की बृहत्संहिता में बताया गया है कि प्राकृतिक मोती की उत्पत्ति सीप, सर्प के मस्तक, मछली, सुअर तथा हाथी एवं बांस से होती है। परंतु अधिकांश प्राचीन भारतीय विद्वानों ने मोती की उत्पत्ति सीप से ही बताई है। प्राचीन भारतीय विद्वानों का मत था कि जब स्वाति नक्षत्र के दौरान वर्षा की बूंदें सीप में पड़ती हैं तो मोती का निर्माण होता है। यह कथन आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा भी कुछ हद तक सही पाया गया है। आधुनिक वैज्ञानिकों का भी मत है कि मोती निर्माण हेतु शरद ऋतु सर्वाधिक अनुकूल है। इसी ऋतु में स्वाति नक्षत्र का आगमन होता है। इस ऋतु के दौरान जब वर्षा की बूंद या बालू का कण किसी सीप के अंदर घुस जाता है तो सीप उस बाहरी पदार्थ के प्रतिकाल हेतु नैकर का स्राव करती है। यह नैकर उस कण के ऊपर परत दर परत चढ़ता जाता है और मोती का रूप लेता है।
वैश्विक स्तर पर मोती की खेती
कृत्रिम मोती को संवर्धित (कल्चर्ड) मोती भी कहा जाता है। इस मोती के उत्पादन की प्रक्रिया को मोती की खेती का नाम दिया गया है। उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि मोती की खेती सर्वप्रथम चीन में शुरू की गई थी। ईसा बाद 13वीं शताब्दी में चीन के हू चाऊ नामक नगर के एक निवासी चिन यांग ने गौर किया कि मीठे पानी में रहने वाले सीपी में यदि कोई बाहरी कण प्रविष्ट करा दिया जाए तो मोती-निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इस जानकारी ने उन्हें मोती की खेती शुरू करने हेतु प्रेरित किया। इस विधि में सर्वप्रथम एक सीपी ली जाती है तथा उसमें कोई बाहरी कण प्रविष्ट करा दिया जाता है। फिर उस सीपी को वापस उसके स्थान पर रख दिया जाता है। उसके बाद उस सीपी में मोती निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
मोती की खेती-भारत के संदर्भ में
भारत में मन्नार की खाड़ी में मोती की खेती का काम सन् 1961 में शुरू किया गया था। इस दिशा में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के केन्द्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों का प्रयास काफी प्रशंसनीय रहा। इन वैज्ञानिकों द्वारा विकसित तकनीक से मत्स्य पालन हेतु बनाए गए तालाबों में भी मोती पैदा किया जा सकता है। हमारे देश में अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह एवं लक्षद्वीप के क्षेत्र मोती उत्पादन हेतु काफी अनुकूल पाए गए हैं।
मोती की खेती-विभिन्न चरण
मोती की खेती एक कठिन काम है। इसमें विशेष हुनर की आवश्यकता पड़ती है। सर्वप्रथम उच्च कोटि की सीप ली जाती है। ऐसी सीपों में शामिल है। समुद्री ऑयस्टर पिंकटाडा मैक्सिमा तथा पिकटाडा मारगराटिफेटा इत्यादि। समुद्री ऑयटर काफी बड़े होते हैं तथा इनसे बड़े आकार के मोती तैयार किए जाते है। पिकटाडा मैक्सिमा से तैयार किए गए मोती दो सेंटीमीटर तक व्यास के होते हैं। पिकटाडा मारगराटिफेटा से तैयार किए गए मोती काले रंग के होते हैं जो सबसे महंगे बिकते हैं।
मोती की खेती हेतु सीपी का चुनाव कर लेने के बाद प्रत्येक सीपी में छोटी सी शल्य क्रिया करनी पड़ती है। इस शल्य क्रिया के बाद सीपी के भीतर एक छोटा सा नाभिक तथा मैटल ऊतक रखा जाता है। इसके बाद सीप को इस प्रकार बन्द कर दिया जाता है कि उसकी सभी जैविक क्रियाएं पूर्ववत चलती रहें। मैटल ऊतक से निकलने वाला पदार्थ नाभिक के चारों ओर जमने लगता है तथा अन्त में मोती का रूप लेता है। कुछ दिनों के बाद सीप को चीर कर मोती निकाल लिया जाता है। मोती निकाल लेने के बाद सीप प्राय: बेकार हो जाता है तथा उसे फेंक दिया जाता है। मोती की खेती के लिए सबसे अनुकूल मौसम है शरद ऋतु या जाड़े की ऋतु। इस दृष्टिकोण से अक्टूबर से दिसंबर तक का समय आदर्श माना जाता है।
लोकप्रिय होती मोती की खेती
आजकल नकली मोती भी बनाए जाते हैं। नकली मोती सीप से नहीं बनाए जाते। ये मोती शीषे या आलाबास्टर (जिप्सम का अर्ध्दपारदर्शक एवं रेशेदार रूप) के मनकों के ऊपर मत्स्य शल्क के चूरे की परतें चढ़ाकर बनाए जाते हैं। कभी-कभी इन मनकों को मत्स्य शल्क के सत या लैकर में बार-बार तब तक डुबाया निकाला जाता है जब तक वे मोती के समान न दिखाई पड़ने लगे।प्राकृतिक मोती की प्राप्ति संसार के कई देशों में उनके समुद्री क्षेत्रों में होती है। इराक के पास फारस की खाड़ी में स्थित बसरा नामक स्थान उत्तम मोती का प्राप्ति-स्थान है। श्रीलंका के समुद्री क्षेत्रों में पाया जाने वाला मोती काटिल कहा जाता है। यह भी एक अच्छे दर्जे का मोती है। परन्तु यह बसरा से प्राप्त मोती की टक्कर का नहीं है। भारत के निकट बंगाल की खाड़ी में हल्के गुलाबी रंग का मोती मिलता है। अमरीका में मैक्सिको की खाड़ी से प्राप्त होने वाला मोती काली आभा वाला होता है। वेनेजुएला से प्राप्त होने वाला मोती सफेद होता है। आस्ट्रेलिया के समुद्री क्षेत्र से प्राप्त मोती भी सफेद तथा कठोर होता है। कैलिफोर्निया तथा कैरेबियन द्वीप समूह के समुद्री क्षेत्रों तथा लाल सागर में भी मोती प्राप्त होते हैं। चीन तथा जापान में मीठे जल वाले मोती भी मिलते है।
आज मोती का प्रमुख बाजार पेरिस है। बाहरीन, कुवैत या ओमान के समुद्री क्षेत्र में काफी अच्छे मोती पाए जाते हैं। संयुक्त राज्य अमरीका प्रति वर्ष लगभग एक करोड़ डॉलर मूल्य के मोती का आयात करता है।
स्त्रोत
ताजे पानी के मोती का उत्पादन
मोती उत्पादन क्या है?
मोती एक प्राकृतिक रत्न है जो सीप से पैदा होता है। भारत समेत हर जगह हालांकि मोतियों की माँग बढ़ती जा रही है, लेकिन दोहन और प्रदूषण से इनकी संख्या घटती जा रही है। अपनी घरेलू माँग को पूरा करने के लिए भारत अंतरराष्ट्रीय बाजार से हर साल मोतियों का बड़ी मात्रा में आयात करता है। सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वॉटर एक्वाकल्चर, भुवनेश्वर ने ताजा पानी के सीप से ताजा पानी का मोती बनाने की तकनीक विकसित कर ली है जो देशभर में बड़ी मात्रा में पाये जाते हैं।
तराशे हुए मोती
प्राकृतिक रूप से एक मोती का निर्माण तब होता है जब कोई बाहरी कण जैसे रेत, कीट आदि किसी सीप के भीतर प्रवेश कर जाते हैं और सीप उन्हें बाहर नहीं निकाल पाता, बजाय उसके ऊपर चमकदार परतें जमा होती जाती हैं। इसी आसान तरीके को मोती उत्पादन में इस्तेमाल किया जाता है।
मोती सीप की भीतरी सतह के समान होता है जिसे मोती की सतह का स्रोत कहा जाता है और यह कैल्शियम कार्बोनेट, जैपिक पदार्थों व पानी से बना होता है। बाजार में मिलने वाले मोती नकली, प्राकृतिक या फिर उपजाए हुए हो सकते हैं। नकली मोती, मोती नहीं होता बल्कि उसके जैसी एक करीबी चीज होती है जिसका आधार गोल होता है और बाहर मोती जैसी परत होती है। प्राकृतिक मोतियों का केंद्र बहुत सूक्ष्म होता है जबकि बाहरी सतह मोटी होती है। यह आकार में छोटा होता और इसकी आकृति बराबर नहीं होती। पैदा किया हुआ मोती भी प्राकृतिक मोती की ही तरह होता है, बस अंतर इतना होता है कि उसमें मानवीय प्रयास शामिल होता है जिसमें इच्छित आकार, आकृति और रंग का इस्तेमाल किया जाता है। भारत में आमतौर पर सीपों की तीन प्रजातियां पाई जाती हैं- लैमेलिडेन्स मार्जिनालिस, एल.कोरियानस और पैरेसिया कोरुगाटा जिनसे अच्छी गुणवत्ता वाले मोती पैदा किए जा सकते हैं।
उत्पादन का तरीका
इसमें छह प्रमुख चरण होते हैं- सीपों को इकट्ठा करना, इस्तेमाल से पहले उन्हें अनुकूल बनाना, सर्जरी, देखभाल, तालाब में उपजाना और मोतियों का उत्पादन।
- सीपों को इकट्ठा करना: तालाब, नदी आदि से सीपों को इकट्ठा किया जाता है और पानी के बरतन या बाल्टियों में रखा जाता है। इसका आदर्श आकार 8 सेंटी मीटर से ज्यादा होता है।
- इस्तेमाल से पहले उन्हें अनुकूल बनाना: इन्हें इस्तेमाल से पहले दो-तीन दिनों तक पुराने पानी में रखा जाता है जिससे इसकी माँसपेशियाँ ढीली पड़ जाएं और सर्जरी में आसानी हो।
- सर्जरी: सर्जरी के स्थान के हिसाब से यह तीन तरह की होती है- सतह का केंद्र, सतह की कोशिका और प्रजनन अंगों की सर्जरी। इसमें इस्तेमाल में आनेवाली प्रमुख चीजों में बीड या न्यूक्लियाई होते हैं, जो सीप के खोल या अन्य कैल्शियम युक्त सामग्री से बनाए जाते हैं।
सतह के केंद्र की सर्जरी
इस प्रक्रिया में 4 से 6 मिली मीटर व्यास वाले डिजायनदार बीड जैसे गणेश, बुद्ध आदि के आकार वाले सीप के भीतर उसके दोनों खोलों को अलग कर डाला जाता है। इसमें सर्जिकल उपकरणों से सतह को अलग किया जाता है। कोशिश यह की जाती है कि डिजायन वाला हिस्सा सतह की ओर रहे। वहाँ रखने के बाद थोड़ी सी जगह छोड़कर सीप को बंद कर दिया जाता है।
सतह कोशिका की सर्जरी
यहाँ सीप को दो हिस्सों- दाता और प्राप्तकर्त्ता कौड़ी में बाँटा जाता है। इस प्रक्रिया के पहले कदम में उसके कलम (ढके कोशिका के छोटे-छोटे हिस्से) बनाने की तैयारी है। इसके लिए सीप के किनारों पर सतह की एक पट्टी बनाई जाती है जो दाता हिस्से की होती है। इसे 2/2 मिली मीटर के दो छोटे टुकड़ों में काटा जाता है जिसे प्राप्त करने वाले सीप के भीतर डिजायन डाले जाते हैं। यह दो किस्म का होता है- न्यूक्लीयस और बिना न्यूक्लीयस वाला। पहले में सिर्फ कटे हुए हिस्सों यानी ग्राफ्ट को डाला जाता है जबकि न्यूक्लीयस वाले में एक ग्राफ्ट हिस्सा और साथ ही दो मिली मीटर का एक छोटा न्यूक्लीयस भी डाला जाता है। इसमें ध्यान रखा जाता है कि कहीं ग्राफ्ट या न्यूक्लीयस बाहर न निकल आएँ।
प्रजनन अंगों की सर्जरी
इसमें भी कलम बनाने की उपर्युक्त प्रक्रिया अपनाई जाती है। सबसे पहले सीप के प्रजनन क्षेत्र के किनारे एक कट लगाया जाता है जिसके बाद एक कलम और 2-4 मिली मीटर का न्यूक्लीयस का इस तरह प्रवेश कराया जाता है कि न्यूक्लीयस और कलम दोनों आपस में जुड़े रह सकें। ध्यान रखा जाता है कि न्यूक्लीयस कलम के बाहरी हिस्से से स्पर्श करता रहे और सर्जरी के दौरान आँत को काटने की जरूरत न पड़े।
देखभाल
इन सीपों को नायलॉन बैग में 10 दिनों तक एंटी-बायोटिक और प्राकृतिक चारे पर रखा जाता है। रोजाना इनका निरीक्षण किया जाता है और मृत सीपों और न्यूक्लीयस बाहर कर देने वाले सीपों को हटा लिया जाता है।
तालाब में पालन
ताजा पानी में सीपों का पालन देखभाल के चरण के बाद इन सीपों को तालाबों में डाल दिया जाता है। इसके लिए इन्हें नायलॉन बैगों में रखकर (दो सीप प्रति बैग) बाँस या पीवीसी की पाइप से लटका दिया जाता है और तालाब में एक मीटर की गहराई पर छोड़ दिया जाता है। इनका पालन प्रति हेक्टेयर 20 हजार से 30 हजार सीप के मुताबिक किया जाता है। उत्पादकता बढ़ाने के लिए तालाबों में जैविक और अजैविक खाद डाली जाती है। समय-समय पर सीपों का निरीक्षण किया जाता है और मृत सीपों को अलग कर लिया जाता है। 12 से 18 माह की अवधि में इन बैगों को साफ करने की जरूरत पड़ती है।
मोती का उत्पादन
गोल मोतियों का संग्रहणपालन अवधि खत्म हो जाने के बाद सीपों को निकाल लिया जाता है। कोशिका या प्रजनन अंग से मोती निकाले जा सकते हैं, लेकिन यदि सतह वाला सर्जरी का तरीका अपनाया गया हो, तो सीपों को मारना पड़ता है। विभिन्न विधियों से प्राप्त मोती खोल से जुड़े होते हैं और आधे होते हैं; कोशिका वाली विधि में ये जुड़े नहीं होते और गोल होते हैं तथा आखिरी विधि से प्राप्त सीप काफी बड़े आकार के होते हैं।
ताजे पानी में मोती उत्पादन का खर्च
ध्यान रखने योग्य बातें-
- ये सभी अनुमान सीआईएफए में प्राप्त प्रायोगिक परिणामों पर आधारित हैं।
- डिजायनदार या किसी आकृति वाला मोती अब बहुत पुराना हो चुका है, हालांकि सीआईएफए में पैदा किए जाने वाले डिजायनदार मोतियों का पर्याप्त बाजार मूल्य है क्योंकि घरेलू बाजार में बड़े पैमाने पर चीन से अर्द्ध-प्रसंस्कृत मोती का आयात किया जाता है। इस गणना में परामर्श और विपणन जैसे खर्चे नहीं जोड़े जाते।
- कामकाजी विवरण
- क्षेत्र : 4 हेक्टेयर
- उत्पाद : डिजायनदार मोती
- भंडारण की क्षमता : 25 हजार सीप प्रति 4 हेक्टेयर
- पैदावार अवधि : डेढ़ साल
क्रम संख्या | सामग्री | राशि(लाख रुपये में) |
I. | व्यय | |
क . | स्थायी पूँजी | |
1. | परिचालन छप्पर (12 मीटर x 5 मीटर) | 1.00 |
2. | सीपों के टैंक (20 फेरो सीमेंट/एफआरपी टैंक 200 लीटर की क्षमता वाले प्रति डेढ़ हजार रुपये) | 0.30 |
3. | उत्पादन इकाई (पीवीसी पाइप और फ्लोट) | 1.50 |
4. | सर्जिकल सेट्स (प्रति सेट 5000 रुपये के हिसाब से 4 सेट) | 0.20 |
5. | सर्जिकल सुविधाओं के लिए फर्नीचर (4 सेट) | 0.10 |
कुल योग | 3.10 | |
ख . | परिचालन लागत | |
1. | तालाब को पट्टे पर लेने का मूल्य (डेढ़ साल के फसल के लिए) | 0.15 |
2. | सीप (25,000 प्रति 50 पैसे के हिसाब से) | 0.125 |
3. | डिजायनदार मोती का खाँचा (50,000 प्रति 4 रुपये के हिसाब से) | 2.00 |
4. | कुशल मजदूर (3 महीने के लिए तीन व्यक्ति 6000 प्रति व्यक्ति के हिसाब से) | 0.54 |
5. | मजदूर (डेढ़ साल के लिए प्रबंधन और देखभाल के लिए दो व्यक्ति प्रति व्यक्ति 3000 रुपये प्रति महीने के हिसाब से | 1.08 |
6. | उर्वरक, चूना और अन्य विविध लागत | 0.30 |
7. | मोतियों का फसलोपरांत प्रसंस्करण (प्रति मोती 5 रुपये के हिसाब से 9000 रुपये) | 0.45 |
कुल योग | 4.645 | |
ग. | कुल लागत | |
1. | कुल परिवर्तनीय लागत | 4.645 |
2. | परिवर्तनीय लागत पर छह महीने के लिए 15 फीसदी के हिसाब से ब्याज | 0.348 |
3. | स्थायी पूँजी पर गिरावट लागत (प्रतिवर्ष 10 फीसदी के हिसाब से डेढ़ वर्ष के लिए) | 0.465 |
4. | स्थायी पूँजी पर ब्याज (प्रतिवर्ष 15 फीसदी के हिसाब से डेढ़ वर्ष के लिए | 0.465 |
कुल योग | 5.923 | |
II. | कुल आय | |
1. | मोतियों की बिक्री पर रिटर्न (15,000 सीपों से निकले 30,000 मोती यह मानते हुए कि उनमें से 60 फीसदी बचे रहेंगे) | |
डिजायन मोती (ग्रेड ए) (कुल का 10 फीसदी) प्रति मोती 150 रुपये के हिसाब से 3000
|
4.50 | |
डिजायन मोती (ग्रेड बी) (कुल का 20 फीसदी) प्रति मोती 60 रुपये के हिसाब से 6000
|
3.60 | |
कुल रिटर्न | 8.10 | |
III. | शुद्ध आय (कुल आय- कुल लागत) | 2.177 |
स्रोत-
- सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेशवॉटर एक्वाकल्चर, भुवनेश्वर, उड़ीसा
मछली पालन के सफल उदाहरण
भीमराज राय किसान मछली पालन में बनायी अलग पहचान
खेती अब घाटे का व्यवसाय नहीं रही़ इसमें नये प्रयोग की पूरी संभावना हैं इन संभावनाओं की बदौलत कई किसानों ने मिसाल कायम की हैं उन्होंने ज्यादा उत्पादन प्राप्त किया और दूसरे किसानों के प्रेरक बऩे ऐसे ही किसानों में हैं भोजपुर जिले के पीरो प्रखंड के देवचंदा गांव के भीमराज राय़ 55 वर्षीय भीमराज राय धरती से सोना उपजाने में लगे हैं|अपनी बीस एकड़ जमीन में धान, गेहूं, मक्का एवं दलहन, तिलहन की खेती के साथ बागवानी, पशुपालन और मछली पालन भी करते हैं| बैगन, गोभी, टमाटर, मटर तथा ब्रोकली के उत्पादन में उन्हें खास सफलता मिली हैं वह एक सजग किसान हैं केंद्र और राज्य सरकार के कृषि विभागों की योजनाओं की वह जानकारी नियमित रूप से प्राप्त करते हैं और फिर उनका लाभ लेने की अपनी योजना बनाते हैं| उनकी इस सजगता ने दूसरे किसानों को भी राह दिखायी हैं कृषि वैज्ञानिकों के मार्गदर्शन में उन्होंने पारंपरिक एवं आधुनिक विधि को अपनाया़ उन्होंने इस क्षेत्र में एक मुकाम हासिल की हैं|
भीमराज राय एक एकड़ जमीन में में तालाब बना कर मछली पालन कर रहे हैं|तालाब में लगभग छह फीट पानी बनाये रखने की उन्होंने व्यवस्था की है, ताकि मछली पालन के लिए आदर्श स्थिति बनी रह़े वह छह प्रकार की मछलियां पालते हैं|इनमें एक है पंकशिष़ इसे प्यासी के नाम से भी जाना जाता हैं इसका जीरा बंगाल से आता हैं इस मछली की कीमत स्थानीय बाजार में 150 रुपये प्रति किलो हैं उनके पास आठ का छोटा तालाब भी है, जिसमें मछली के बीज को प्रारंभिक अवस्था में डाल कर तीन माह बाद उन्हीं छोटी मछलियों को बड़े तालाब में डाल देते हैं|इसके अलावा राज्य सरकार के मत्स्य विभाग से छह एकड़ के तालाब को नौ हजार रुपये प्रति वर्ष की दर से लीज पर लेकर मछली पालन करा रहे हैं|जिससे इन्हें प्रति वर्ष लाखों की आय हो रही हैं अपने इस सभी व्यवसायों का ज्यादा लाभदायक बनाने के लिए समय-समय पर मत्स्य बीज (जीरा) पंत नगर एवं कोलकाता से ले आते हैं|उन्होंने ने कहा कि 22 एकड़ में धान व गेंहू की खेती कर 12-13 लाख रुपये की आमदनी हो जाती हैं मछली पालन से दो लाख की आमदनी होती हैं मिश्रित खेती कर साल में 15 लाख रुपये कमा लेते हैं
पशुपालन रू भीमराज राय पशुपालन को खेती का अहम हिस्सा मानते हैं|क्योंकि उनका मानना है कि पशुओं के गोबर की खाद का उपयोग कर लंबे समय तक खेत की उर्वरा शक्ति को बरकरार रखा जा सकता हैं इनके पास शाही नस्ल की दो गाय व दो मुर्रा भैंसे हैं|1983 से इनके यहां वायोगैस प्लांट लगा हुआ है जिसे इन्हीं पशुओं के गोबर से चलाया जाता हैं बायो गैस से इनके रसोई का सारा कार्य संपन्न होता हैं गैस के उपयोग के बाद प्लांट से निकलने वाला अपशिष्ट पदार्थ (गोबर) खाद के रूप में खेतों में डाला जाता हैं इसी के साथ इन्होंने एक छोटा वर्मी कंपोस्ट बनाने की यूनिट भी लगा रखी हैं जिसके खाद से लगभग दो एकड़ में जैविक खेती भी करते हैं|इन्होंने 1996 में करनाल (हरियाणा) से होलिस्टन फिजीशियन नस्ल की एक गाय खरीदी, जिससे अब तक दो दर्जन से भी अधिक गायें की बिक्री कर लाखों रुपये की आय अजिर्त कर चुके हैं|15 लीटर दूध देने वाली गाय की कीमत लगभग 35 हजार रुपये हैं अनुभव के आधार कर कहा कि यदि दूध आठ घंटे के अंतराल पर निकाला जाय तो एक गाय अथवा भैंस से एक लीटर दूध से अधिक प्राप्त किया जा सकता हैं गाय के दूध की कीमत 30 से 32 रुपये तथा भैंस के दूध की कीमत 35-40 रुपये की दर से मिल जाती हैं जो किसानों के लिए आय का एक अच्छा स्रोत हो सकता हैं
धान व गेहूं रू भीमराज राय अपनी बीस एकड़ की खेती से करीब अस्सी टन धान का उत्पादन करते हैं|अंतराष्ट्रीय बीज कंपनी बायर सीड्स एंड केमिकल से हाईब्रीड एराइज प्रभेद के धान का बीज लेकर करीब आठ एकड़ में खेती की थी जिसका उत्पादन चालीस क्विंटल प्रति एकड़ हुआ़ इसके अलावा सुगंधित पूसा बागमति की खेती कर विपरित मौसम होने के बाद भी पर्याप्त पैदावार प्राप्त की़ अभी वे प्रजनक बीज के रूप में नवीन पूजा, एमटीयू तथा केतकी जोहा आदि धान के विभिन्न प्रभेदों के बीज का उत्पादन कर अपने आसपास के किसानों की खेती को लाभकारी बनाने का सपना पूरा करने में लगे हुए हैं|इसके अलावा गेहूं उत्पादन में भी महारत हासिल हैं इनके खेतों में धान व गेहूं का उत्पादन प्रति एकड़ पंजाब से अधिक होता हैं उन्होंने कहा कि फसल कटाई के पंजाब से आये हुए हारवेस्टर चालकों ने भी कहा कि पंजाब में भी इतना उत्पादन नहीं होता हैं कई वर्षो से छह लाख का धान व दो लाख रुपये गेहूं बाजार में बेचा़ इसके अलावा दो लाख रुपये का धान बीज के रूप में कृषि विज्ञान केंद्र आरा को दिया़ राज्य के अनुशंसित किस्म एचडी 2733 व डब्ल्यू आर 544 गेहूं के आधार बीज की खेती कर कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा प्रमाणित बीज के रूप में किसानों को दे रहे हैं|देवचंदा गांव को केवीके आरा द्वारा बीज ग्राम घोषित भी किया गया था़ |
वैज्ञानिक सहयोग
वैज्ञानिक सहयोग रू समय-समय पर कृषि मेलों एवं प्रदर्शनियों में भाग लेने के साथ ही इन्हें कृषि तथा मत्स्य वैज्ञानिकों का सहयोग एवं मार्गदर्शन मिलता रहा हैं कृषि विज्ञान केंद्र आरा के प्रभारी डक्टर पीके दिवेदी कार्यक्रम समन्वयक शशि भूषण एवं निलेश का सहयोग सराहनीय रहा़ मत्स्य पालन का प्रशिक्षण आंध्र प्रदेश के काकीनाड़ा स्थित केद्रीय मात्स्यिकी शिक्षा संस्थान से प्राप्त किया हैं 1986 तथा 90 में प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए हैदराबाद गय़े पंत नगर प्रति वर्ष जाते हैं|वर्ष 2006 में पंत नगर में आयोजित कृषक ज्ञान प्रतियोगिता में पुरस्कृत किये गये थ़े पंत नगर के कृषि वैज्ञानिकों डॉक्टर मिश्र का सहयोग इन्हें इस ऊंचाई तक पहुंचाने में मदद्गार साबित हुआ़ ये आत्मा भोजपुर द्वारा प्रायोजित किसान विद्यालय से जुड़ कर स्थानीय किसानों को प्रशिक्षण भी दे रहे हैं|आसपास के गांवों के दर्जनों किसान इनसे जुड़ कर खेती के नये गुर सीख कर अपने अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने में सफल हो रहे हैं|रासायनिक खाद एवं कीटनाशी के रूप में एमीपके तथा यूरिया का संतुलित मात्र में उपयोगक़ कीटनाशी में वायो पेस्टीसाइड व कंफीडोर का उपयोग पर्यावरण को ध्यान में रख कर सकते हैं|सुपर किलर के बारे में इनका अनुभव है कि इसके प्रयोग से मित्र कीट भी मर जाते हैं, जिससे पर्यावरण असंतुलित होता है साथ ही इनका उपयोग एक बार करने से कुछ कीट ऐसे होते हैं जिन पर दूसरे कीटनाशी का उपयोग बे असर हो जाता हैं राय खुद जैविक खाद एवं कीटनाशी का उपयोग करते हैं|साथ ही अन्य किसानों को भी इसके प्रयोग की सलाह देते हैं| इनका मानना है कि कृषि वैज्ञानिकों की सलाह पर ही संतुलित मात्र में रासायनिक खाद व कीटनाशी का उपयोग करना चाहिये|
सम्मान व पुरस्कार
खेती के प्रति इनके समर्पण और उपलब्धियों को ध्यान में रख कर वर्ष 2007 में राज्य सरकार ने किसान भूषण से सम्मानित किया़ साथ ही किसानश्री का भी पुस्कार मिला़ इसके अलावा राष्ट्रपति के आमंत्रण पर राष्ट्रपति भवन में कृषि चर्चा करने का अवसर भी इन्हें मिला़ इनकी खेती में हो सहयोगी स्थायी रूप से इनके साथ कार्य करते हैं|ट्रैक्टर चालक को निश्चित राशि देने के अलावा एक बीघा जमीन की पूरी उपज तथा दूसरे सहयोगी को दो बीघा जमीन की पूरी उपज देते हैं|क्षनके घर की नींव से सटा हुआ एक विशाल पीपल का वृक्ष बाबा के समय का हैं इसकी वजह से इनका दालान नहीं बना़ जब इसे काटने की बारी आयी तो इनके पिता ने कहा कि पुराने पेड़ को कटोगे जो हमारे अशुभ नहीं बल्कि शुभ हैं परिणाम आज भी पीपल का वृक्ष अपनी हरियाली बिखेर रहा हैं उन्होंने अपने बगीचे में केला, अमरूद के अलावा बीजू, मालदाह, शुकुल तथा सफेदा आदि आम की कई किस्में लगाई हैं|ये अपने एक मात्र पुत्र को कृषि विशेषज्ञ बनाना चाहते हैं|इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपने बेटे को जबलपुर में एमएससी (कृषि) की पढ़ाई के लिए नामांकन कराया हैं उन्होंने कहा कि खेती के प्रति समर्पण हो वैज्ञानिक तरीके खेती की जाये तो यह पेशा कभी अलाभकारी नहीं हो सकता़|
मछली पालन करती महिलाएं
आधी आबादी हर वह काम कर सकती है जो पुरुष करते हैं| चाहे वह कोई भी क्षेत्र क्यों ना हो| यह भी सच है कि वजर्नाएं जब टूटती हैं तो इतिहास बनता है| मछली मारना और मत्स्यपालन जैसे कार्य को आमतौर पर पुरुषों ही करते हैं लेकिन अब इस काम में भी महिलाओं ने अपने कड़ी मेहनत के दम पर समाज के सामने एक मिसाल पेश किया है|
संस्था ने दिखाया रास्ता, महिलाओं ने चुनी मंजिल
मधुबनी जिले का अंधराठाढ़ी प्रखंड एक नजीर बन गया है| उनके लिए जो लीक से हट कर कुछ करने में यकीन रखते हैं| यहांसमाज के अंतिम पायदान से ताल्लुक रखने वाले वर्ग की महिलाएं अपनी मेहनत की इबारत लिख रही हैं| दरअसल इन महिलाओं ने मछलीपालन कर अपने घर परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के साथ जिंदगी जीने के तौर-तरीके को भी बदल दिया है| यह भी सच है कि इतनी बड़ी पहल करने में एक संस्था का अहम योगदान है, लेकिन मेहनत तो केवल इन महिलाओं का है| इनके हालात में सुधार लाने के लिए कार्यरत संस्था ‘सखी बिहार’ ने इन को बेहतरी का रास्ता दिखाया|
आसान नहीं था अब तक का सफर
इन महिलाओं ने कैसे अपनी सफलता की कहानी लिखी? संस्था की सचिव सुमन सिंह बताती हैं कि यह प्रोजेक्ट सन् 1990 में शुरू किया गया था| उससे पहले सन् 1984-85 में महिला सशक्तीकरण के लिए केंद्र सरकार प्रायोजित ‘द्वाकरा’ ने इनको स्वावलंबी करने के लिए काम शुरू किया था| पांच साल बाद जब ‘द्वाकरा’ द्वारा कराये जा रहे काम की तहकीकात की गयी तो कोई खास नतीजा सामने नहीं आया| इस बीच इन पांच सालों के दौरान ही इस क्षेत्र को प्रकृति के दो कहर भी ङोलने पड़े| साल 1987 का भूकंप और 1989 के बाढ़ में सब कुछ तबाह हो गया था|
तालाब से दिखा रास्ता
मिथिलांचल में तालाबों की भरमार है| इन तालाबों का सही उपयोग नहीं हो पाता था| मछली का उत्पादन तो होता था लेकिन बहुत सीमित| मछुआरे इसी के सहारे अपने परिवार का पेट पालते थे| चौखट के बाहर कदम रखने पर भी पाबंदी थी| यह मछुआरे जिनके तालाब में मत्स्यपालन करते थे, उनके ही घरों में ये औरतें घरेलू काम करती थी| कुल मिला कर हालत बहुत दयनीय थी| संस्था ने इन महिलाओं को ही जागरूक करने का निश्चय किया| उन्हें यह बताया गया कि वह मछलीपालन द्वारा घर-परिवार की हालत सुधार सकती हैं|
बदली सत्ता तो बदला जीवन
सन् 2005 में बिहार के राजनैतिक घटनाक्रम में बदलाव हुआ| यह इस क्षेत्र के लिए बदलाव वरदान साबित हुआ| नयी सरकार के तत्कालीन मत्स्यपालन मंत्री ने पुराने नियमों में संशोधन किया| इसमें हर वो बाधा दूर करने की कोशिश की गई जिससे इस जैसी योजनाओं को लागू करने में परेशानी आ रही थी| नियमों में लचीलापन होने से नयी ऊर्जा के साथ महिलाओं को समझाने की प्रक्रिया फिर शुरू हुई| साल 2006 में करीब 10 महिलाओं ने अपनी रुचि दिखाई| इनको काम के बारे में बताया गया| उन्होंने मत्स्यपालन शुरू कर दिया| इनकी मेहनत रंग लाने लगी साथ ही इनकी चर्चा भी होने लगी| इसका सुखद परिणाम दूसरे साल में देखने को मिला| इनकी संख्या 10 से बढ़ कर दो सौ हो गई| इस बीच अरसे से लटके कॉपरेटिव को भी सरकारी मान्यता मिल गई|
मिला साथ तो बन गया कारवां
अंधेराठाढ़ी प्रखंड के ठाढ़ी, पथार, उसरार, बटौला, महरैल, भगवतीपुर, कर्णपुर गांव समेत पूरे ब्लॉक की लगभग सात हजार महिलाएं रोहू, कतला, नैन, कमलकार, ग्रास जैसी कई किस्मों की मछलियों का उत्पादन कर रही हैं| सभी महिलाओं की उम्र 26 साल से 45 साल तक है| आमतौर पर महिलाओं को मछली बेचते देखा जा सकता है| पश्चिम बंगाल और कई दूसरे राज्यों में औरतें ऑर्नामेंटल मछलियों का उत्पादन एक्वेरियम को सजाने के लिए करती हैं| अंधराठाढ़ी के मछलीपालन में एक सबसे रोचक बात यह हैं कि संभवत: देश में पहली बार ऐसा मिथिलांचल में ही हो रहा है जहां महिलाएं तालाबों को पट्टे पर लेने, उसमें मछली का जीरा डालने, रख-रखाव करने और बिक्री का काम खुद करती हैं|
नाजुक कंधों पर टिके रहते हैं मजबूत इरादे
मछलीपालन का सारा काम महिलाएं खुद संभालती हैं| तालाबों को पट्टे पर लेकर सफाई करने के बाद मछलीपालन के योग्य बनाती हैं, फिर तालाब का पानी बदलती हैं| मधुबनी स्थित हैचरी से मछली का जीरा महिलाएं ही लाती हैं| इसमें ‘सखी बिहार’ मदद करता है| जीरा डालने के बाद समय पर दाना देना, गोबर डालने के साथ-साथ वक्त पर जाल डाल कर मछलियों की वृद्धि और तालाब के पानी की गुणवत्ता को जांचने का काम भी यही करती हैं| जाल भी यह खुद ही बनाती हैं| इन सभी प्रक्रियाओं में कम से कम छह महीने लगते हैं| इस दरम्यान एक मछली करीब एक किलो तक वजनी हो जाती है| इस तरह से एक तालाब से लगभग आठ से दस क्विंटल तक मछली का उत्पादन होता है| कुछ दिन पहले तक इन मछलियों की बिक्री जहां 40 से 50 रुपये प्रति किलो तक होती थी| मछलियों की उन्नत किस्में होने के कारण यह दो सौ रुपये प्रति किलो तक बिक रही हैं| बाजार में बड़े व्यापारियों को मछली बेचने काम भी यही संभालती हैं| इनकी मांग इतनी है कि बिहार में ही इनकी खपत हो जाती है|
कंगाली से खुशहाली तक
पानी से पैसा निकालने के इस काम से इनके जीवन में बदलाव आ गया है| कल तक यह महिलाएं जो भूमिहीन थी, जो किसी के घर काम कर के दो जून का खाना बमुश्किल जुटा पाती थी| आज उनके पास अपना मकान है| बैंकों में निजी खाते और मोबाइल फोन है| इन महिलाओं में शिक्षा के प्रति भी जागरूकता आयी है| अंगूठा छाप महिलाएं अब शिक्षित हो कर अपना भला-बुरा खुद समझने लगी हैं| घर के पुरुष सदस्य जो इनकी कार्यक्षमता पर ऊंगली उठाते थे, आज वही इनका साथ दे रहे हैं|
कई बाधाओं के बाद मिली मंजिल
सुमन कहती हैं कि इन महिलाओं की सफलता के पीछे बाधाओं की लंबी सूची है| हमने यह तो सोच लिया कि इन महिलाओं को जागरूक करेंगे लेकिन इस प्रयास को धरातल पर उतारने में कितनी दिक्कत होगी? उसे कैसे दूर करेंगे? यह नहीं सोचा था| सबसे पहले इनसे मिल कर मछलीपालन के बारे में बताया गया| उन्हे विश्वास दिलाया गया कि यह काम कर सकती हैं| गांव के लोगों भी कई तरह के सवाल करते थे| जैसे यह काम तो पुरुषों का है| महिला मत्स्यपालन कैसे करेंगी? परिवार के पुरुषों को भी विश्वास दिलाया गया| सरकार की मत्स्यपालन संबंधी नियम कानून भी राह में रोड़ा बन रहे थे| इसके अनुसार तालाब में वही मछलीपालन कर सकता था, जो उसका मालिक हो| एक परेशानी यह थी कि इन तालाबों पर गैर-मछुआरे और दबंगों का कब्जा था| वह किसी प्रकार से बात करने को तैयार नहीं होते थे| समझने, समझाने में ही नौ साल निकल गया| इन सब कोशिशों में साल 1991 से साल 2000 हो गया| इसी दौरान मत्स्यपालन के लिए कॉपरेटिव का गठन किया गया| सरकार से इसकी मान्यता लेने की कोशिश की गई लेकिन प्रक्रियाएं इतनी धीमे थी कि कब कैसे क्या होगा? कुछ पता ही नहीं चलता था|
उम्मीद नहीं थी कि मछलीपालन कर के हम इतना कुछ कर लेंगे| हमारी जिंदगी में हर चीज की कमी थी| मछलीपालन कर के हमने धीरे-धीरे जरूरत का सामान एकत्र कर लिया है| पहले हम भूमिहीन थे| जिनकी तालाब में हमारे पति मछली मारा करते थे| उनके यहां ही रहते थे| अब हमारा अपना मकान है|
उरिया देवी, उसरार
मेरे पति दूसरे प्रदेश में काम करते थे| इस काम को करने से हमारे जीवन में बदलाव आ गया है| मेरे जैसी कई औरते हैं जो मछलीपालन कर के अपने आर्थिक हालात को बदल रही हैं| अब मेरे घर से कोई दूसरे राज्य में नौकरी करने के लिए नहीं जाता है|
एक हेक्टेयर में मछलीपालन कर कमा रहे चार लाख
अभी राज्य में मछली का उत्पादन प्रतिवर्ष 64 लाख टन होता है| यह उत्पादन मानवीय आवश्यकता से कम है| इसी को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार मत्स्य शिक्षा संस्थान के सहयोग से यहां के किसानों को मछली व महाझींगा पालन के लिए प्रोत्साहित कर रही है| उन्हें प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है| इसके बाद यह आर्थिक दृष्टि से काफी लाभदायक है| नालंदा जिले के नूरसराय अनुमंडल निवासी किसान कवींद्र कुमार मौर्य ने सन 2000 में पांच डिसमिल में तालाब खोद कर मछलीपालन शुरू किया| अब एक हेक्टेयर में मत्स्यपालन कर रहे हैं| इससे प्रतिवर्ष लाखों रुपये कमा रहे हैं| साथ ही एक सफल मत्स्यपालक के साथ-साथ प्रगतिशील किसान के रूप में भी अपनी पहचान बनाने में सफल हुए हैं| एमएससी बॉटनी से करने के बाद खेती एवं मत्स्यपालन करने पर अब उन्हें कोई पछतावा नहीं है| राज्य में मुख्यमंत्री तीव्र बीज विस्तार योजना के तहत कवींद्र ने आंध्र प्रदेश, कोलकाता, भुवनेश्वर, पंतनगर तथा केंद्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान, वरसोवा (मुंबई) से मृदा एवं प्राणी जांच, मछली एवं महाझींगा का तथा आंध्रप्रदेश के काकीनाडा से भी मत्स्यपालन व बीज उत्पादन का प्रशिक्षण प्राप्त किया|
इसके अलावा सीतामढ़ी जिला स्थित सरकारी हेचरी से भी कुछ मत्स्य बीज उन्हें मिले| अपने व्यवसाय के बारे में ज्यादा-से-ज्यादा तकनीकी एवं व्यावहारिक जानकारी के लिए इन्हें हजारों रुपये खर्च करने पड़े| शुरू में तालाब निर्माण खुद कराया| फिर मत्स्य वैज्ञानिकों के संपर्क में आने पर जैसे-जैसे सरकारी योजनाओं की जानकरी हुई, वैसे-वैसे उन योजनाओं का लाभ उठाते हुए कुल लागत का 20 प्रतिशत तक सरकारी अनुदान प्राप्त किया|
ऐसे की शुरुआत
फुलवारीशरीफ, पटना की सरकारी हेचरी से 12000 हजार जीरा लेकर अपने तालाब में डाला, जिसकी कीमत तीन हजार रुपये थी| इस बार उन्हें थोड़ा ही लाभ हुआ| पर, धुन के पक्के कविंद्र ने कड़ी मेहनत से सफल होने के गुर सीखते रहे| दो-दो कट्ठे का तालाब बना कर मत्स्य बीज की नर्सरी तैयार की| सबसे पहले स्पांस नर्सरी में डालते हैं| उसके बाद रियरिंग में, फिर कुछ समय बाद फिंगर को निकाल कर बड़े तालाब में डाल दिया जाता है| इसके बाद ही मछलियों को बाजार में बिक्री के लिए तैयार किया जाता है| इनके तालाब में रोहू, कतला, नैनी, सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प व कॉमन कार्प के अलावा देशी मांगुर भी पाली जाती है| आज सात प्रकार की मछलियों का उत्पादन उनके तालाब में होता है| आज तीन से चार लाख की आय सालाना होती है|
वैज्ञानिकों व संस्थानों का सहयोग
वाटर स्पान टेस्ट में काकीनाडा के जी वेणुगोपाल, राज्य सरकार के मत्स्य विभाग के आरएन चौधरी, केंद्रीय मत्स्य संस्थान, वरसोवा (मुंबई) के वैज्ञानिक डॉ दिलीप कुमार तथा वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ एसएन ओझा का भी मार्गदर्शन समय-समय पर मिलता रहा है| इसी कारण राज्य के कई जिलों में मत्स्यपालन पर होनेवाले सेमिनार व प्रशिक्षण कार्यक्रमों में कविंद्र को भाग लेने का अवसर मिला, जहां किसानों को कुछ सिखाया और कुछ सीखा भी| आज कविंद्र अपनी पहचान मत्स्य उत्पादक के साथ-साथ प्रगतिशील किसान बनाने में सफल रहे हैं| एक हेक्टेयर क्षेत्रफल वाले तालाब की चारों ओर बांध बना है, उसके ऊपर अरहर की की खेती की है, जिससे प्रति वर्ष करीब 20 हजार रुपये की आमदनी होती है| तालाब के चारों ओर प्रयोग के तौर पर 300 सहजन लगाये हैं|
प्रामाणिक बीज उत्पादन
कृषि विज्ञान केंद्र, नूरसराय (नालंदा) पूसा कृषि विश्वविद्यालय, समस्तीपुर की एक शाखा है| वहां के वैज्ञानिकों का सहयोग उन्हें बराबर मिलता रहता है| मछली उत्पादन, हल्दी एवं सब्जी की खेती की आय से उनके बच्चे राज्य से बाहर रह कर उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं|
आज आसपास के गांवों के कई किसान इनकी देखरेख में खेती एवं मत्स्यपालन कर रहें हैं| इन सब के अलावा कवींद्र कुमार नुरसराय आत्मा एवं नालंदा जिला खादी ग्रामोद्योग के अध्यक्ष भी हैं| इसके साथ उन्हें जिला प्रशासन व विश्वविद्यालय की ओर से कइे पुरस्कार मिले| जिला में इतना सब एक साथ कर पाना किसी आम आदमी किसान के लिए संभव नहीं था| पर उन्होंने कहा कि यदि आपके अंदर कुछ करने की इच्छाशक्ति हो और उसे अपना एक मिशन मान कर करें तो कुछ भी मुश्किल नहीं है| क्योंकि जब आप कुछ नया करते हैं जिससे आपके आसपास लोगों को लगता है कि कार्य करने से पूरा समाज लाभान्वित हो रहा है तो लोग अपने एक कड़ी के रूप में जुड़ते जाते हैं, जो आप की सफलता का राज होता है|
लेखक: संदीप कुमार, वरिष्ठ पत्रकार|
जैविक झींगा पालन– एक कृषक का अनुभव
जैविक झींगा पालन– एक कृषक का अनुभव
झींगा के किसान, जोसेफ कोरा, अपने परिवारजन के साथ
केरल में स्थित कुट्टनाड, एक मानव-निर्मित शुष्क भूमि पारिस्थितिकी तंत्र, जिसमें पर्याप्त मात्रा में पानी एवं उपजाऊ ज़मीन है। यह क्षेत्र धान की पैदावार के लिए आदर्श माना जाता है। लेकिन, अब परिदृश्य बदल चुका है। ऊंची लागत, श्रमिकों की कमी एवं उत्पादों की उचित पारिश्रमिक न मिलना बड़ी चुनौतियां हैं जिनसे क्षेत्र के धान किसानों को जूझना पड़ता है।
जब किसान अधीरता से कम लागत वाले विकल्प की तलाश कर रहे थे, उसी समय जैविक धान की खेती करने वाले किसान श्री जोसेप कोरा ने अपने चार हेक्टेयर क्षेत्र में झींगा की खेती कर उससे लाभ कमाने वाले अग्रणी किसान बन कर उभरे।
बेहतरी के लिए बदलाव
द मेरीन प्रॉडक्ट्स एक्स्पोर्ट डेवलपमेंटल ऑथोरिटी (MPEDA) एवं अन्य विकासोन्मुख एजेंसियों ने उन्हें डिब्बाबन्द मसालेदार झींगे के साथ जैविक जल जीवों की पैदावार का सुझाव दिया एवं उन्होंने इसके लिए प्रयास करने का निश्चय किया। उनके चार हेक्टेयर क्षेत्र में लगभग 11 लाख डिब्बाबन्द मसालेदार झींगे के बीज बढ़ाए गए। बीजों की व्यवस्था करने, पोषण, सलाह एवं व्यक्तिगत दौरों के रूप मे अधिकारियों ने मदद की। लगभग 7 महीने बाद अपने 04 हेक्टेयर क्षेत्र से करीब 1,800 किलोग्राम डिब्बाबन्द मसालेदार झींगे पैदा किये, जिनमें प्रत्येक का वज़न लगभग 30 ग्राम था।
कृषि से मत्स्य पालन तक बहुमुखी लोकताक झील
परिचय
लोकताक झील उत्तर-पूर्वी भारत की सबसे बड़ी ताजे पानी की झील है। यह फूम्डीस (विघटन के विभिन्न चरणों में वनस्पति, मिट्टी और कार्बनिक पदार्थों के द्रव्यमान) के लिए प्रसिद्ध है। कीबुल लामजाओ दुनिया में केवल एक चल राष्ट्रीय उद्यान है। यह मणिपुर भारत में मोइरांग के पास स्थित 40 कि.मी. (15 वर्ग मील) के एक क्षेत्र को शामिल करता है। यह झील के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। लोकताक झील को मार्च 1990 में अंतर्राष्ट्रीय महत्व के जलीय क्षेत्रों की सूची के लिए नामित किया गया था और जून 1993 में उन साइटों के मॉन्ट्रो रिकॉर्ड्स में अंकित किया गया था, जिनका पारिस्थितिक चरित्र मानवीय हस्तक्षेप के कारण बदल जाएगा। झील के विभिन्न आवास समुदायों में जनवरी 2000 और दिसंबर 2002 के बीच किए गए वैज्ञानिक सर्वेक्षण के दौरान निवास स्थान की विविधता के साथ एक समृद्ध जैव विविधता दर्ज की गई है। झील की समृद्ध जैविक विविधता में 233 प्रजातियां जलीय मैक्रोफाइट्स के उद्भव, डुबकीदार, निःशुल्क-फ्लोटिंग और रूटिंग फ्लोटिंग लीफ पाई जाती हैं।
लोकताक झील को मणिपुर की जीवन रेखा माना जाता है। राज्य के लोगों के सामाजिक, आर्थिक, कृषि, मछली पालन और सांस्कृतिक जीवन का यह एक अभिन्न अंग है। यह बाढ़ नियंत्रण में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। फ्लोटिंग द्वीप समूह दुनिया भर की झीलों और आर्द्रभूमि क्षेत्रों में एक सामान्य प्रक्रिया है। इसे टुसॉक्स, फ्लोटन, फ्लोरेंट या सुड के नाम से जाना जाता है। यह पौधों की जड़ों और कार्बनिक पदार्थों से मिलती-जुलती चटाई वाले देशी या विदेशी पौधों से बनता है। अस्थायी द्वीपों की परिभाषा में छोटे (0.01 हैक्टर से भी कम) फ्री-फ्लोटिंग द्वीपसमूह और व्यापक, स्थिर, वनस्पतियुक्त मैट शामिल हैं, जो सैकड़ों हैक्टर पानी को शामिल कर सकते हैं। कीबुल लामजाओ नेशनल पार्क, झील के उत्तर-पूर्वी कोने में दुनिया में एकमात्र अस्थायी वन्यजीव अभ्यारण्य है। यह अस्थायी अभ्यारण्य एक बहुत ही दुर्लभ और अत्यंत सुरुचिपूर्ण हिरण का घर है, जिसे मृग हिरण या संगई के नाम से जाना जाता है। इसके सींग पीछे से आगे बढ़ते हैं और एक सतत, सुंदर वक्र में पीछे की ओर मुड़ते हैं। 1951 में संगई आधिकारिक रूप से विलुप्त हो गया था। लेकिन पशु प्रेमियों के आश्चर्य और राहत की बात यह है कि लोकताक झील में अभी भी फूम्डी में इसके रहने की सूचना है। पूर्व में यह मणिपुर के राजाओं की सुरक्षा में था। मनुष्य के लिए फूम्डी पर चलना मुश्किल है, यह पैरों के नीचे हिलता है और चलता रहता है। संगई को फूम्डी पर चलने में समस्या नहीं है। उनके पंजे और सींग, उन्हें फूम्डी के माध्यम से बिना डूबे रेज और घास पर झुकाव के साथ चलने के लिए सक्षम बनाते हैं। दुर्भाग्य से प्रत्येक वर्ष गुजरने वाले फूम्डी पतले और पतले होते जा रहे हैं, इसलिए संगई को स्वतंत्र रूप से चलने में मुश्किल होती है। फूडी के पतला होने के कारणों में से एक मुख्य कारण है कि ईथाई में बांध बना दिया गया है। यह लोकताक झील से जल निकासी को रोकने के लिए और जल
स्तर को बनाए रखने और बिजली पैदा करने के लिए है। इस बैराज का निर्माण होने से पहले, शुष्क मौसम के दौरान, जब झील की गहराई कम हो गई, फूम्डी पर बढ़ने वाले रीड और अन्य वनस्पतियों की जड़े झील के नीचे मिट्टी तक पहुंच सकती थीं और उनकी मोटाई को बनाए रखने के लिए पोषण कर सकती थीं।
सामाजिक-आर्थिक महत्व
यह झील मछली की महत्वपूर्ण प्रजातियों और खाद्य जलीय पौधों का सबसे बड़ा स्रोत होने की वजह से आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण है। इनमें ट्रैपा नटैन बिस्पिनोसा, युरील फेरोक्स, जिजियाना लतिफोलिया, अल्पाइनिया अल्लुगस, नम्पपेला अल्बा शामिल हैं, जबकि पौधों की तरह काग्मीट्स कार्की, इरिएनथस छत और लीर्सिया हेक्जेंडा के लिए उपयोग किया जाता है। सैक्युओलीपीस मायोसुरॉयड्स को चारे के रूप में उपयोग किया जाता है। फूडीज का गठन करने वाली पौधों की प्रजातियों का उपयोग चारा, भोजन और ईंधन, झोपड़ी निर्माण, बाड़ लगाने और औषधीय उद्देश्य के रूप में किया जाता है। विशेष रूप से पशु चिकित्सा, दवाएं और हस्तशिल्प में इनका प्रयोग बहुतायत से होता है। झील 24,000 और खेतों, पनबिजली शहर के निवासियों और जीविकोपार्जन करते हैं। मत्स्य पालकों के पीने के पानी के लिए व सिंचाई के लिए महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन है। झील में मछली पकड़ने को एकत्रीकरण की पुरानी पद्धति के माध्यम से पूरा किया जाता है और मानवनिर्मित अस्थायी टीपों द्वारा कैप्चर किया जाता है। मछुआरों के समुदाय को नामीमेसी कहा जाता है, जो फूम्डीज पर बनाये गये फॉमसग नामक फ्लोटिंग झोपड़ियों में रहते हैं। फूडीज प्रवासी, पेलैजिक और निवासी मछलियों के बड़े मंडल का समर्थन करता है, जो इन अस्थायी द्वीपों को संभावित प्रजनन आधार के रूप में उपयोग करते हैं। इस झील का मनोरंजक महत्व है। यह अपने सौंदर्य के कारण प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। मणिपुर की लोकताक झील, पूर्वोत्तर में सबसे बड़ी ताजे पानी की झील है। यह फ्लोटिंग प्राथमिक विद्यालय का पहला घर बन गई है। यह एक गैर-सरकारी संगठन पीपुल्स रिसोर्स डेवलपमेंट एसोसिएशन (पीआरडीए) के समर्थन से सभी लोकताक झील मछुआरे संघ द्वारा की गई एक पहल के तहत खोला गया। इसका प्रमुख उद्देश्य बीच में शिक्षा छोड़ने वालों को शिक्षा प्रदान करना है, जो अपघटन के विभिन्न चरणों में फूम्डीस या फ्लोटिंग बायोमास के वनस्पति, मिट्टी और कार्बनिक पदार्थों के हालिया निकासी के कारण बेघर हो गए थे।
पारिस्थितिक कृषि एवं मछली पालन
लोकताक झील के उत्तर में फूडीज की मोटी परत पानी की गुणवत्ता को कायम रखती है। एन.पी.के. जैसे महत्वपूर्ण पोषक तत्वों के लिए सिंक और कार्बन मुख्य रूप से कार्य करता है। फ्लोटिंग आइलैंड सबसे अधिक उत्पादक पारिस्थितिक तंत्र हैं, क्योंकि इससे लोगों को रहने का स्रोत मिलता है। यह झील कई पक्षियों, मछलियों , उभयचरों और संगई की भी प्रजनन स्थल है। यह झील राज्य की स्थानीय जलवायु को नियंत्रित करती है। इसके अलावा यह भूजल को रिचार्ज करती है। तूफान के पानी को बरकरार रखती है और पानी की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए प्रदूषक का कम करती है। लोकताक झील अपनी जैव विविधता और निवास स्थान की विविधता के लिए जानी जाती है। यह अत्यधिक उत्पादक जलीय पारिस्थितिकी तंत्र है। इसी झील में प्रचुर मात्रा में मछलियों का उत्पादन होता है, जो कि मणिपुर के लोगों का प्रमुख भोजन स्रोत है। लोकताक झील से ही मणिपुर राज्य के पांच जिलों के कृषक फसलों की सुविधापूर्वक सिचांई करते हैं एवं प्रचुर मात्रा में धान एवं सब्जियों का उत्पादन करके जीविकोपार्जन करते हैं।
लेखन: ओ.एन. तिवारी, इंद्रामा देवी, डॉली वाटल धर, के. अन्नपूर्णा और ऋचा टंडन
स्त्रोत: पशुपालन, डेयरी और मत्स्यपालन विभाग, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय