डॉ. योगेश आर्य
(संदर्भ- विश्व जूनोसिस दिवस World zoonoses day – 6 July 2019)
शनिवार 6 जुलाई को विश्व जूनोसिस दिवस हैं। ये दिवस मनाने के पीछे उद्देश्य आमजन को जूनोटिक रोगों के प्रति जागरूक करना हैं। मोटे तौर पर समझा जाये तो जूनोटिक रोग वो संक्रामक रोग होते हैं जो कशेरुक जानवरों से मनुष्यों और मनुष्यों से जानवरों में फैलते हैं। जब ये रोग मनुष्यों से जानवरों में फैलते है तो इसे रिवर्स जूनोसिस कहा जाता हैं। ज़ूनोटिक रोग बैक्टीरिया, वायरस, फफूँद अथवा परजीवी किसी भी रोगकारक से हो सकते हैं। भारत मे होने वाले ज़ूनोटिक रोगों में रेबीज, ब्रूसेलोसिस, स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, ईबोला, निपाह, ग्लैंडर्स, साल्मोनेलोसिस, लेप्टोस्पाइरोसिस एवम जापानीज इन्सेफेलाइटिस इत्यादि शामिल हैं। ये लिस्ट काफी लम्बी हैं, विश्व भर में लगभग 150 जूनोटिक रोग उपस्थित हैं। कुछ ज़ूनोटिक रोग तो सीधे ही सम्पर्क में आने से फैलते हैं जबकि कुछ वेक्टर जैसे कुत्ता, बिल्ली, चमगादड़, घोंघा, चिचड़, मछली, सुवर, मुर्गी और घोड़ा इत्यादि के द्वारा फैलाये जाते हैं। हमारी आधी-अधूरी तैयारियों के कारण भविष्य में ज़ूनोटिक रोगों के रूप में एक बड़ा खतरा मंडरा रहा हैं। ज़ूनोटिक रोगों से बचाव में वेटरनरी डॉक्टर मुख्य रोल अदा करता हैं। पालतू और जंगली दोनों प्रकार के जानवरों में लक्षणों को पहचान कर तुरंत प्रभावी उपाय किये जाने में वेटरनरी डॉक्टर अहम कड़ी हैं। कुछ ज़ूनोटिक रोगों को तो टीकाकरण करके रोका जा सकता हैं बाकी की समय पर पहचान करके बचाव हेतु प्रभावी कदम उठाए जा सकते हैं। निश्चित तौर पर रोगों की पहचान में वेटरनरी पैथोलोजिस्ट मददगार होते हैं। रेबीज और ब्रूसेलोसिस जैसे रोगों से बचाव के लिए तो टीकाकरण एक उपयुक्त माध्यम हैं ही। अबकी बार विश्व पशुचिकित्सा दिवस पर भी थीम ‘टीकाकरण का महत्व’ ही रखी गयी थी। ज़ूनोटिक रोगों से बचाव की तैयारियों पर अगर जाएं तो ‘आग लगने पर कुवां खोदने’ जैसी हालत हैं। वेटरनरी प्रोफेशन बजट और सुविधाओ के नाम पर इस वक़्त दयनीय हालात में हैं। इस बार केंद्र सरकार ने पशुपालन के लिए अलग से मंत्रालय और विभाग बनाया हैं जिससे जरूर उम्मीद जगी हैं। साथ ही आईसीएआर की तर्ज पर वेटरनरी रिसर्च कॉउंसिल भी बनेगी। ऐसा होने पर निश्चित तौर पर वेटरनरी प्रोफेशन अधिक दक्षता से ज़ूनोटिक रोगों से लड़ाई में शामिल हो पायेगा। ऐसा होने में वक़्त लगेगा पर अभी पशुचिकित्सा सेवाओ मे काफी सुधार की दरकार हैं| इनकी आवश्यकता हर जगह है फिर चाहे वो ज़ूनोटिक रोगों से बचाव हो, शुद्ध और अधिक दूध उत्पादन हो या फिर गुणवत्तापूर्ण मांस और अंडा उत्पादन| अब ज़ूनोटिक रोगों से इतर थोड़ी चर्चा पशुचिकित्सा व्यवस्थाओं और पशुपालन के हालातों पर भी कर लेते हैं। अगर राजस्थान की बात करें तो राज्य का 5.77 करोड़ पशुधन एक सम्पदा की तरह हैं| राज्य के कुल “सकल घरेलु उत्पाद” में पशुधन सम्पदा का 10 % योगदान है| देश के कुल दुग्ध उत्पादन में राजस्थान का दूसरा स्थान है| अन्य पशु उत्पादों की बात करे तो राज्य का देश में ऊन उत्पादन में पहला और मांस उत्पादन में बारहवां स्थान है| सरकार पशुपालन व्यवस्थाओ को सुदृढ़ बनाकर किसानो की आर्थिक स्थिति को मजबूत कर सकती हैं| परंतु चिंताजनक बात हैं कि हर बार पशुगणना में पशुधन कि संख्या कम ही होती जा रही हैं| वर्तमान में राज्य की पशुचिकित्सा व्यवस्थाओ की हालत भी अच्छी नही है| राष्ट्रीय कृषि आयोग के अनुसार प्रति 5 हजार पशुओ पर एक वेटरनरी डॉक्टर होना चाहिए, इस गणना के हिसाब से राज्य में लगभग 12 हजार वेटरनरी डॉक्टर्स होने चाहिए, जबकी हकीक़त ये है कि 60 फीसदी पद रिक्त चल रहे हैं| तमाम पशुचिकित्सा व्यवस्थाये नीम-हकीमों के हवाले हैं, हॉर्मोन के अनाधिकृत उपयोग से पशुओं में बाँझपन बढ़ रहा हैं| अनधिकृत उपयोग के कारण एंटीबायोटिक्स अप्रभावी होती जा रही हैं जो कि पूरी खाद्य श्रुंखला के लिए खतरे की घंटी है| ऐसे में वेटरनरी डॉक्टर्स के ऊपर अधिक जिम्मेदारी होती हैं कि वो तय मानकों के अनुसार ही पशु उत्पादों की उपलब्धता को सुनिश्चित करें| कृषि एवं पशुपालन राज्य का विषय होता है, अतः राज्य सरकार को पशुचिकित्सा तकनिकी शिक्षा को और अधिक मजबूत बनाना चाहिए| वेटरनरी में उच्च शिक्षा और रिसर्च को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए| वेटरनरी शिक्षा में रिसर्च को बढ़ावा दिया जाना अधिक आवश्यक हैं क्योंकि देशी पशु नस्ल की संख्या लगातार कम होती जा रही हैं| देशी नस्लों के पशु राजस्थान के वातावरण के प्रति अधिक अनुकूलित होते हैं, बीमार भी कम पड़ते है और अकाल के समय बेरी-पाला और खेजड़ी की पत्तियों पर भी गुजारा कर लेते है| देशी गायें ए2 प्रकार का दुग्ध देती हैं, जो की सुपाच्य और पोष्टिक होता है| राजस्थान सरकार ने गोपालन विभाग की स्थापना तो कर दी परंतु वो अभी तक कागजों से बाहर निकल कर यथार्थ रूप नही ले पाया हैं और पशुपालन विभाग पर ही आश्रित है| सरकार द्वारा देशी नस्लों के संरक्षण और संवर्धन के प्रयास किये जाने चाहिए| उन्नत नस्लों के पशुओं के पालन पर जोर दिया जाना चाहिए| गायों में चयन और उन्नयन पध्दतियों से दुग्ध उत्पादन में आशातीत वृद्धि होना निश्चित हैं| पशुपालन व्यवसाय में बढती लागत तथा दुग्ध उत्पादन में बढोतरी नहीं होने से छोटे किसानो का पशुपालन के प्रति रुझान घट सकता है| इसलिए युवा पशुपालको को अत्याधुनिक वैज्ञानिक तकनीको, नवीन अनुसंधानों के प्रयोग से अधिक दुध उत्पादन हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए| पशुचिकित्सा सेवाओं, और लाभकारी योजनाओ का व्यापक प्रचार प्रसार भी आवश्यक हैं| अभी भी ग्रामीण इलाकों में पशुओं और पशुपालको के लिए कल्याणकारी योजनाओ के प्रति उतनी जागृति दिखाई नही देती हैं| पशुपालकों को अभी भी समय पर कृमिनाशन, टीकाकरण करवाने के फायदे नही पता हैं| पशुपालन विभाग जब भी टीकाकरण अभियान चलाता हैं तो उसे अपेक्षित सहयोग नही मिल पता हैं| पशुपालकों को अभी भी कृत्रिम गर्भाधान के लाभ और अवर्गीकृत नस्लों के नकारा नर पशुओं के बधियाकरण करवाने के लिए जागृत करने की जरूरत हैं| दूर दराज के इलाकों मे पशुओ का इलाज सिर्फ झाड-फूँक से ड़ाव लगाकर किया जा रहा हैं| इन व्यवस्थाओ मे परिवर्तन करने के लिए तकनीकी रूप से दक्ष और अधिक पशुचिकित्सा विशेषज्ञों की दरकार हैं| अतः सरकार पशुचिकित्सा सेवाओं पर अधिक ध्यान केन्द्रित करें| डेयरी स्थापित करने के लिए पशुपालकों को सस्ती दरों पर ऋण उपलब्ध करवाए| पशुओं के बीमा करवाने की प्रीमियम दरें कम करें| देशी नस्लों के पालन को प्रोत्साहित करे| उत्तम नस्ल के नर पशु ग्राम पंचायत स्तर पर उपलब्ध करवाए ताकि नस्ल सुधार किया जा सके| गौशालाओं की हालत सुधारें| और सबसे बड़ी बात ये कि पशुचिकित्सा प्रोफेसनल्स कि भर्ती करे ताकि ना केवल पशुधन को अकाल मृत्यु से बचाया जा सके बल्कि पशुधन उत्पादन मे वृद्धि हो सके| जूनोटिक रोगों से बचाव में वेटरनरी डॉक्टर्स के रोल का ताजा उदाहरण राजस्थान में ग्लेंडर्स के केस मिलने पर सामने आया। पशुपालन विभाग ने तत्परता दिखाते हुए स्क्रीनिंग में संदेहास्पद पाए मामलों के सैम्पल प्रयोगशाला में भेजें, रिपोर्ट पॉजिटिव आने पर घोड़ो- खच्चरों का यूथेनेशिया दिया गया। पशुमेलों में घोड़ो के इकट्ठा होने से रोकने के लिए घोड़े लाने पर रोक लगा दी गयी। पालतू पशुओं की बात तो हो गयी परंतु जंगली जानवरों पर तो सर्वाधिक संकट है। घटते वनों से जंगली जानवरों के रहने और खाने-पीने की समस्या खड़ी हो गयी हैं। फिर दूसरा पहलू ये कि उनकी चिकित्सा व्यवस्थाएं भी ज्यादा अच्छी नही हैं। उनसे होने वाले ज़ूनोटिक रोगों से भी काफी बार जूझना पड़ता है। इस बीच बड़ा बिंदु ये भी हैं कि ज़ूनोटिक रोगों से बचाव हेतु वेटरनरी और मेडिकल दोनों प्रोफेशन में बेहतर तालमेल बहुत जरूरी हैं, प्रशासनिक स्तर पर इसके लिए प्रयास किये जाने चाहिए। ज़ूनोटिक रोगों से लड़ाई की सभी योजनाओं और प्रयासो में वेटरनरी डॉक्टर्स को शामिल किया जाना चाहिए।