सर्दियों में बछड़ों में होने वाली प्रमुख बीमारियां और उनका समाधान

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सर्दियों में बछड़ों में होने वाली प्रमुख बीमारियां और उनका समाधान

एक पशुपालक के लिए नवजात पशु (बछडा़) उसके बच्चे की तरह होता है। इसलिए नवजात पशु की सही तरह से देखभाल करना अति आवश्यक हैं| पशुपालक कुछ महत्वपूर्ण बीमारियों का ध्यान रखें तो उसका नवजात पशु एकदम स्वस्थ रहता हैं|
नवजात पशु (बछडा़ं) में मुख्यतः तीन बीमारिया° पाई जाती हैं जिनका समय रहते उपचार ना किया जाए तो नवजात पशु की मृत्यु भी हो सकती हैं। पशुपालक कुछ सावधानिया° रखते हुए अपने पशुओं को इन बीमारियों के प्रभाव से बचाकर रख सकते हैं।

निम्नलिखित बीमारियां –
1. बछड़ों का न्यूमोनिया
2. बछड़ों का उजला-पीला दस्त
3. नाभि रोग

1. बछडों का न्यूमोनिया रोग:
बछड़ों में न्यूमोनिया नामक बीमारी वाॅयरल तथा बैक्टीरिया° द्वारा उत्पन्न होती है। बछड़ों में वाॅयरल तथा बैक्टीरियल न्यूमोनिया 2-5 माह की उम्र में ज्यादा होता है, लेकिन जन्म के बाद पहले सप्ताह से लेकर कभी-कभी 8-12 माह की उम्र के बछड़ों में भी यह रोग हो जाता है। बछड़ों में न्यूमोनिया° सर्दी के मौसम में अधिक हातेा हैं, क्याेिंक पशपुालक के घर पर बछड़ों को सर्दी एवं ठंडी हवाओं से बचने के लिए पर्याप्त ब्यबस्था नहीं होती हैं।

रोग का कारण:
बछडा़ें में न्यूमोनिया नामक रोग वाॅयरस, बैक्टीरिया, मइक्रोप्लाज्मा आदि की वजह स होता हैं। न्यमूाेिनया रोगी बछड़ों के सीधे संपर्क में आने एवं हवा द्वारा भी रोगी बछड़ों से स्वस्थ बछड़ों में यह रोग संक्रमण द्वारा फैल जाता हैं।

रोग के लक्षण –
● न्यूमोनिया रोग से ग्रस्त बछडे़ के शरीर का तापमान सामान्य से अधिक; (105-107 डिग्री) हो जाता हैं।
● वजन दर एवं नाड़ी दर भी बढ़ जाती है।
● प्रभावित बछड़े की वजन दर बढऩे के साथ ही पशु द्वारा सा°स लेते समय कर्कश ध्वनि आती हैं।
● प्रभावित बछड़े के नाक से हल्का गाढा़ मवाद मिला हुआ स्त्राव आता हैं।
● न्यूमोनिया ग्रस्त बछडे़ सा°स लेने में तकलीफ होने के कारण मु°ह खोलकर सा°स लेते हैं।
● यदि बछडे़ को न्यूमोनिया वाॅयरस के द्वारा होता है तो बछडे़ को रुक-रुक कर खा°सी भी हो सकती है।
● एकाएक तेज न्यूमोनिया मे बछडे़ की कुछ ही घंटो में मृत्यु हो जाती है जबकि हल्के न्यूमोनिया में 4-7 दिन के उपचार के बाद पशु ठीक हो जाता हैं।

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बछड़ों में न्यूमोनिया रोग की रोकथाम एवं उपचार –

● पशुपालक पशुशाला को साफ-सुथरा रखें तथा बछडा़ें को समूह में ना रखें। सर्दी का मौसम होने पर बछड़ों को ऐसी जगह पर रखे जहा° सर्दी व ठंडी हवाओं का प्रकोप कम हो।
● पशुपालक बछडे़ के जन्म के बाद में कुछ माह तक बछडे़ के खानपान तथा रख-रखाव का विशेष ध्यान रखें।
● बछड़ों में न्यूमोनिया° रोग होने पर इसके लिए कोई विशेष वैक्सीन (टीका) उपलब्ध नहीं है।
● वाॅयरसजनित न्यूमोनिया° रोग में एंटीबाॅयोटिक्स (प्रतिजैविक) दवाईयों का कोई विशेष प्रभाव नहीं होता है, लेकिन बैक्टीरियल न्यूमोनिया° में प्रभावित बछड़ों को एंटीबाॅयोटिक्स (प्रतिजैविक) दवाईया° देनी चाहिए।
● बछड़ों को पेट के कीड़े मारने की दवाईया° (कृमिनाशक) भी देनी चाहिए।
● इंजेक्शन टेट्रासाइक्लिन एवं क्लोरएमफेनिकोल देने चाहिए।
● न्यूमोनिया रोग का उपचार कम से कम पा°च दिन तक तो करना ही चाहिए।

2. बछड़ों का उजला-पीला दस्त रोग:
नवजात बछड़ों में उजला-पीला दस्त रागे एक महत्वपूर्ण रोग है। बछड़ों में यह बीमारी ई. कोलाई नामक बैक्टीरिया के संक्रमण के कारण होती है। इस बीमारी में बछड़ा शरीर से काफी कमजोर हो जाता है। इस रोग में बछड़ों को तेज पतले, उजले-पीले दस्त होते हैं। शरीर में पानी की कमी हो जाती हैं तथा बछडा़ काफी कमजोर हो जाता हैं। समय पर ईलाज न करवाने पर ज्यादातर बछड़े मातै के शिकार हो जाते हैं। सामान्यतः यह रोग 1 से 15 दिन की उम्र के बछड़ों में अधिक होता है। गाय के बछड़ों में यह बीमारी जन्म के कुछ सप्ताह में ही हो सकती है।

ई. कोलाई नामक बैक्टीरिया वातावरण में हर जगह पाए जात हैं। जा सेप्टिसीमिया व दस्त के लिए जिम्मदेार होते हैं। यह रोग स्वस्थ पशुओं में प्रभावित पशुओं के गोबर से दुषित आहार व पानी के उपयोग से फलैता हैं। ई. कोलाई बैक्टीरिया आहारनाल में पहुंचकर टाॅक्सिन; जहरद्ध उत्पन्न करते है।

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रोग के लक्षण :
● रोगग्रस्त पशु की म्यूकस मेम्ब्रेन (श्लेष्मा झिल्ली) सफेद-पीली पड़ जाती हैं।
● बछडा दूध पीना बिल्कुल बंद कर देता है।
● नवजात पशु काफी सुस्त हो जाता हैं व शरीर का तापमान व नाडी़ दर बढ़ जाती हैं।
● नवजात पशु में कंपकंपाहट व आ°खों का घुम जाना।
● पतले-चिकने तथा सफेद-पीले दस्त आते हैं।
● बछडों को बार-बार दस्त लगने से पेट दर्द, कमर का मुड जाना आदि लक्षण दिखाई देते हैं।
● रोगग्रस्त बछडों का समय रहते ईलाज ना करवाने पर 3-5 दिन में ही मृत्यु हो जाती है।

रोग की रोकथाम व उपचार:
● पशुशाला को साफ-सुथरा रखना चाहिए।
● नवजात बछडों को खीस पिलाने से उनकी रागे-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है इसलिए बछड़ों को 50 मिली./किग्राशरीर भार के हिसाब से जन्म के बाद पा°च दिन तक खीस जरूर पिलाना चाहिए।
● पशपुालक पशुघर में बछड़ों को एक साथ समूह में न रखें
● इस बीमारी के उपचार के लिए एंटीबायोटिक्स ;प्रतिजैविकद्ध दवाईयों का उपयोग करने से पूर्व गोबर की जांच करवाएं।
● एंटीबायोटिक्स (प्रतिजैविक) दवाइया° जैसे- स्ट्रेप्टोमायसिन टेट्रासायकलिन,
नाइट्रोफयुराजोन इत्यादि।

3. बछड़ों में नाभि रोग:
नवजात बछड़ों में सफाई की कमी से नाभि में मवाद पड़ जाती है। नाभि चिपचिपी नजर आती है साथ ही उसमें सुजन व दर्द होने लगता है। बछड़ा सुस्त पड़ जाता है एवं मा° का दुध नहीं पीता है। इसकी रोकथाम के लिए नाभि को पीपी.; लाल दवाद्ध से साफ करके टिंक्चर आयोडिन तब तक लगानी चाहिए जब तक कि नाभि सूख न जाए°।

रोग के कारण:
● नाभि रागे र्कइ पक्रार के बैक्टीरिया के कारण हातेा हैं। जसैे:- स्ट्रेप्टोकोकस, स्टेफाइलोकोकस, ई. कोलाई, साल्मोनेल्लोसिस आदि।
● जो नवजात गर्भकाल के पूरे समय बाद पदैा होते हैं उनमे यह रोग कम होता हैं जबकि गर्भकाल से पूर्व जन्म लेने वाले बछड़ों में यह रोग ज्यादा होता है।
● गर्भनाल को गंदे चाकु से काटना, एंटीसेप्टिक का उपयोग ना करना, अन्य पशु व स्वयं बछडे के द्वारा नाल को चसू लेने की वजह से भी संक्रमण हो जाती हैं।

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रोग के लक्षण:

● प्रभावित पशु की नाभि में संक्रमण के कारण सूजन आने से नाल आकार में बड़ी हो जाती है।
● कभी-कभी बछड़े-बछड़ियों में इस अवस्था में अम्बलिकल हर्निया की समस्या सामने आती हैं।
● कुछ बिशेष बैक्टीरिया पौरो के जोड़ों में सूजन पैदा करते हैं, जिससे कभी-कभी जॉइंट कैप्सूल फट जाता हैं।
● यदि प्रभावित पशु का समय पर ईलाज ना करवाया जाए° तो जोड़ों में फाइब्रोसिस तक हो जाता है।
● अगर संÿमण सिर्फ अंबलिकस में हो तथा पशु का समय पर ईलाज करवाया जाएं तो पशु को बचाया जा सकता है, लेकिन यदि समस्या जोड़ों में हो एवं मवाद भी हो जाएं तो समस्या गंभीर हो जाती है। इसलिए जितना जल्दी हो सके रोगी पशु का ईलाज करवाना चाहिए।
● समय रहते रोगी पशु का उपचार नही करवाने पर पशु शरीर में टाॅक्सिमिया व सेप्टिसीमिया के कारण मृत्यु हो जाती है।

उपचार:

● पशु का परीक्षण अच्छी तरह से करना चाहिए कि अंबलिकस में संक्रमण हैं या अंबलिकल हर्निया।
● अबंलिकल हनिर्या होने की स्थिति में अबंलिकस एब्ससे को ओपन नहीं करना चाहिए बल्कि इस स्थिती में हर्निया का उपचार करना चाहिए।
● हर्निया नहीं होने की स्थिती में अंबलिकस एब्सेस को नाल के नीचे से क्रिस-क्राॅस चीरा लगाकर मवाद को बाहर निकालें। इसके बाद लाल दवा के हल्के घोल से धोकर टिंक्चर आयोडिन लगाना चाहिए।
● जोड़ों में दर्द होने पर एंटीबायोटिक्स (प्रतिजैविक) दबाइयों का उपयोग करें।

रोकथाम:
● जहा° नवजात पशु को रखा जाता हैं, वहा° की अच्छे से साफ-सफाई करनी चाहिए।
● अबंलिकस नाल को काटने समय साफ व संक्रमणरहित चाकू का उपयोग करेंव उसके बाद टिंक्चर आयोडीन लगाए°।
इस तरह हम कुछ छोटी-छोटी लेकिन महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखते हुए व साबधानियॉ रखकर नवजात पशु को बीमारियों से बचा सकते हैं।

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