डॉ संजय कुमार मिश्र
पशु चिकित्सा अधिकारी ,चौमुंहा, मथुरा
अपने देश भारत में बकरी और भेड़ पालन गरीब मजदूर पशुपालकों की आजीविका का एक मुख्य साधन है। बकरियों को गरीब की छोटी गाय भी कहा जाता है। संक्रामक बीमारियों में पीपीआर महामारी का प्रकोप तथा इनसे अत्यधिक मृत्यु दर पशुपालकों की प्रमुख समस्या है।
उपनाम: कांटा ,मुख सोथ निमोनिया,आंत्रशोथ कांप्लेक्स ,बकरी प्लेग, पीपीआर।
यह बीमारी एक तीव्र मारबिली विषाणु से होती है। इस विषाणु का संक्रमण रोग ग्रस्त भेड़ बकरी से स्वस्थ पशुओं में तेजी से फैलता है। लघु रोमनथी पशुओं मे यह मुख्यतःभेडों व बकरियों का रोग है। सभी आयु वर्ग और दोनों ही लिंगों के पशु इस रोग से प्रभावित होते हैं। छोटे बच्चे इस रोग के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं अतः उन में मृत्यु दर भी अधिक होती है। रोगी पशु से स्वस्थ पशु के बीच मुख्यतः संपर्क द्वारा विषाणु संचारित होते हैं। रोग उत्पन्न करने में पशुओं के चारे दाने ,भोजन के बर्तन अथवा एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाने हेतु प्रयुक्त वाहनों द्वारा अप्रत्यक्ष संपर्क की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। अधिकांश संक्रमण श्लेम बूंदों को श्वास द्वारा अंदर ले जाने से होते हैं।
रोग के लक्षण:
इस बीमारी से ग्रसित भेड़ बकरियों को तेज बुखार 103 से 105 डिग्री फॉरेनहाइट आता है। मुंह के अंदर एवम्
जीभ में छाले और निमोनिया के लक्षण पाये जाते हैं । बुखार कम होने पर तेज दस्त के लक्षण उत्पन्न होते हैं। पशुओं में अधिक दस्त होने से शरीर में पानी की कमी से चमड़ी चिपकी सी लगती है। रोग ग्रस्त बकरी या भेड़ चारा दाना खाना कम या बंद कर देती है। नाक से पहले पानी जैसा पतला एवं बाद में गाढा स्राव आता है और पशु मरने लगते हैं। संक्रमण के पश्चात रोगियों की आंखों, नासिका और मुख के श्रावों तथा मल में भी अधिक मात्रा में पीपीआर विषाणु उत्सर्जित होते हैं। जिन पशुपालकों के पास बकरी एवं भेड़ दोनों साथ रहते हैं बकरियों में इनके लक्षण अधिक भयानक रूप में दिखते हैं। यदि बकरी अथवा भेड़ में उपरोक्त लक्षण दिखें तो पशुपालक को समझ लेना चाहिए की महामारी का प्रकोप हो सकता है। इस स्थिति में अन्य स्वस्थ बकरियों एवं भेड़ो को इस बीमारी से बचाने एवं रोकथाम के कारगर उपाय करने चाहिए। रोग के आरंभ होने के 6 से 10 दिनों में पशु की मृत्यु हो जाती है। कुछ भेड़ों में बीमारी लंबे समय तक रहती है। ऐसी भेड़ों को लाक्षणिक उपचार से बचाया जा सकता है। उपचार न मिलने पर भेड़ें छीड़ होकर मर जाती हैं।
विकृतियां:
मुंह, जीभ , मसूड़ों व तालु पर छाले। चौथे पेट में रक्ताधिक सूजन। अॉत में भी सूजन, विशेषकर बड़ी आंतों में जेब्रा चिन्ह। सांस नली में शोथ, न्यूमोनिया लसिका ग्रंथियों एवं प्लीहा में सूजन ।
निदान: रोग के इतिहास लक्षण एवं विकृतियों से संभावित निदान। एलिसा परीक्षण द्वारा विषाणु एवं विषाणु के प्रति पिंड अर्थात एंटीबॉडी का पता लगाकर। विषाणु के पृथक्करण व पहचान कर। आणविक विधियां जैसे आरटी पीसीआर।
बचाव एवं रोकथाम:
बीमार पशुओं को स्वस्थ पशुओं से तुरंत अलग कर दें। बाजार से खरीदे गए बकरी भेड़ आदि की देखभाल कम से कम 3 हफ्ते तक अलग रखकर करें एवं इन्हें मुख्य झुंड में न मिलाएं। टीकाकरण इस बीमारी से बचाव एवं रोकथाम का सबसे कारगर उपाय है।
एक बार के टीकाकरण से बकरी या भेड़ को कम से कम 3 साल तक इस बीमारी से छुटकारा मिल जाता है। यह टीका बकरी या भेड़ के मेमनों में लगभग 4 से 6 माह की उम्र में लगवाना चाहिए।
प्रकोप के समय ध्यान रखने योग्य बातें:
अपने नजदीकी पशु चिकित्सा अधिकारी से संपर्क करें। पीपीआर से मरे पशुओं को, जमीन में गहरे गड्ढे में गाड़ दें। पशुशाला के कर्मचारी स्नान के बाद ही स्वस्थ भेड़ या बकरियों के संपर्क में आएं। बीमार भेड़/ बकरियों को बाजार में बेचने के लिये ना ले जाएं। बीमार भेड़ /बकरियों को दूसरे स्वस्थ पशुओं से दूर रखें। बीमार पशुओं को चरने के लिए ना भेजें। बीमार पशुओं को दाना चारा देने वाले पशुपालक स्वस्थ बकरियों एवं भेडो़ की देखरेख ना करें। पशु चिकित्सक की सहायता से रक्त के नमूने तथा मृत पशु से फेफड़ा, लसिका ग्रंथियां, तिल्ली एवं आंत के नमूने बर्फ पर और 10% फॉर्मलीन में रखकर नैदानिक पुष्टिकरण हेतु प्रयोगशाला में भेजें।
संदर्भ:
१.प्रीवेंटिव वेटरनरी मेडिसिन , लेखक डॉ अमलेनदू चक्रवर्ती।
२. निदेशक चौधरी चरण सिंह राष्ट्रीय पशु स्वास्थ्य संस्थान बागपत उत्तर प्रदेश।