पशुपालकों की आमदनी बढ़ाने के लिए कृत्रिम गर्भाधान में मादा लिंग वर्गीकृत वीर्य की उपयोगिता
के.एल. दहिया पशु चिकित्सक, पशुपालन एवं डेयरी विभाग, कुरूक्षेत्र, हरियाणा।
सार
गर्भाधान, चाहे वह प्राकृतिक हो या कृत्रिम, जीव-जंतुओं के बीच प्रजनन की विशेषता है। डेयरी पशुओं की लाभप्रदता आनुवंशिक रूप से उच्च उत्पादक मादाओं के उत्पादन पर निर्भर करती है। कृत्रिम गर्भाधान उच्च आनुवंशिक क्षमता वाले पशु प्रदान करने वाली चल रही तकनीकों का परिणाम है। लिंग वर्गीकृत वीर्य तकनीक पशुधन में गर्भाधान की कला में अचूक पहलुओं को प्रदान करती है। विश्वभर में, डेयरी क्षेत्र में वरदान साबित होने वाले पशुओं में लिंग वर्गीकृत वीर्य का उपयोग हो रहा है। आज हम न केवल आम आदमी की आय बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं बल्कि परित्यक्त पशुओं खासकर से नरों की बढ़ती परित्यक्त संख्या को भी नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं। बेशक, लिंग वर्गीकृत वीर्य तकनीक विदेशी मूल की है, लेकिन आयात करने के साथ-साथ भारत ने अपने मूल्यवान पशुधन के लिए मादा लिंग वर्गीकृत वीर्य उत्पादन की शुरुआत कर दी है। हालांकि, हम लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग में शुरुआती दौर में हैं, लेकिन केवल यही एक ऐसी आधुनिक तकनीक है जो भारतीय डेयरी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए आशातीत है। इससे न केवल लाभहीन नर पशुओं की बढ़ती संख्या को नियंत्रित किया जा सकता है, बल्कि पर्याप्त मात्रा में दुधारू पशुओं की संख्या बढ़ने से दुग्ध आपूर्ति और स्वरोजगार के अवसर बढ़ने के साथ-साथ पशुपालकों की आमदनी बढ़ाने में भी सकारात्मक भूमिका निभाने में सक्षम है।
सूचक शब्द: गर्भाधान, गौवंश, परित्यक्त पशु, लिंग वर्गीकृत वीर्य, दुधारू पशु, आमदनी।
भूमिका
पशुओं में गर्भाधान प्राकृतिक एवं कृत्रिम, दो प्रकार से किया जाता है। प्राकृतिक तौर पर सांड का वीर्य, मादा पशु के साथ समागम के माध्यम से योनि में विसर्जित होता है जबकि कृत्रिम विधि में किसी भी अच्छे सांड से वीर्य लेकर उसको विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से संचित किया जाता है। यह संचित किया हुआ वीर्य, मद में आई मादा के गर्भाशय में डालकर उसका गर्भाधान किया जाता है। पशुधन के विकास में कृत्रिम गर्भाधान को सबसे अधिक महत्वपूर्ण तकनीक के रूप में स्वीकार किया गया है और विश्व में इस तकनीक का सफलतापूर्वक व्यापक उपयोग किया जा रहा है। कृत्रिम गर्भाधान का उद्देश्य नस्ल सुधारीकरण, बीमारियों का नियंत्रण, गर्भधारण की क्षमता को बढ़ाना और नस्ल सुधारीकरण के खर्च को कम करना है।
डेयरी उद्योग के लिए मादा का महत्व सबसे अधिक होता है। पारंपरिक तौर पर प्राकृतिक या कृत्रिम गर्भाधान से मादा एवं नर पैदा होने की दर लगभग 50 – 50 प्रतिशत होती है। मौजूदा परिस्थितियों में बढ़ते औद्योगीकरण और नर पशुओं का खेती में कम उपयोग होने के कारण इनकी समस्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। इन समस्याओं पर लिंग आधारित वीर्य से काबू पाया जा सकता है। मादा लिंग वर्गीकृत वीर्य से मादा और नरों की जन्म दर क्रमशः 90 एवं 10 प्रतिशत होती है। प्रथमतः कृत्रिम गर्भाधान के लिए लिंग वर्गीकृत वीर्य केवल हॉलस्टीन फ्रीजियन जैसी विदेशी नस्लों का उपलब्ध होता था लेकिन अब यह हरियाना, साहीवाल, थारपाकर, कांकरेज, गंगातीरी, रेड सिंधी इत्यादि स्वदेशी गौवंश और मुर्राह, मेहसाना, जाफराबादी इत्यादि भैंसों के लिए भी उपलब्ध हो चुका है। इस वीर्य के व्यापक उपयोग से भविष्य में दुग्ध उत्पादन में आशानुरूप वृद्धि एवं पशुपालकों की आमदनी में बढ़ोतरी होने की प्रबल संभावना है।
लिंग वर्गीकृत वीर्य का इतिहास
यदि हम इतिहास के पन्नों को टटोलकर देखें तो कृत्रिम गर्भाधान का इतिहास 600 वर्ष से अधिक पुराना है। कृत्रिम गर्भाधान का पहला ज्ञात प्रयोग अरब देशों में घोड़ों के प्रजनन में उल्लेखित है। 14वीं शताब्दी (1322) में प्रकाशित एक अरबी पुस्तक के अनुसार, डारफुर के एक प्रमुख सरदार ने दुश्मन की एक घोड़ी जो रात के समय में एक प्रसिद्ध घोड़े के साथ बंधी थी, की योनि में कपास की एक गेंद डाल दी। 24 घंटे के बाद, वह जल्दी-जल्दी अपने घर चला गया और कपास की उस गेंद को अपनी घोड़ी की योनि में रख दिया। घोड़ी गर्भवती हुई और उसने एक बच्चे़ को जन्म दिया (Herman & Ragsdale 1946)। 20वीं शताब्दी के अंत तक पशुओं में लिंग वर्गीकृत वीर्य के सफल उपयोग सिद्ध हो चुके हैं जिसने बहुत जल्दी ही 21वीं शताब्दी के दूसरे दसक तक भारत में ही लाखों मादा बछड़ियों को पैदा कर कीर्तीमान स्थापित किया है। भारत सहित विश्व में लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग की ऐतिहासिक यात्रा इस प्रकार है:
- 1982 में पहली बार पिंकेल और सहयोगियों ने वोल (चुहे की एक प्रजाति) में एक्स और वाई गुणसूत्र वाले शुक्राणुओं को प्रवाह छँटाई उपकरण की सहायता से अलग-अलग करने का कार्य किया लेकिन अलग किये गये शुक्राणु जीवक्षम नहीं थे (Pinkel et al. 1982)।
- 1985 में एक्स और वाई शुक्राणुओं की पहचान करने के लिए जॉनसन एवं पिंकले ने कॉल्ट्र एपिक वी ओरर्थोगोनल लेजर आधारित फ्लो साइटोमीटर के साथ प्रतिदीप्ति संसूचक जोड़कर उपकरण बनाया (Johnson and Pinkel 1986)। इस फ्लो साइटोमेट्रिक तकनीक की सहायता से जॉनसन एवं क्लार्क (1988) ने सांड, सुअर और मेंढ़ा इत्यादि पालतु पशुओं के शुक्राणुओं को पहली बार हम्सटर कृंतक के अण्डे में डालकर समर्थक केन्द्रक (प्रोनूक्लियस) बनाने में सफलता प्राप्त की।
- हालांकि, उपरोक्त अध्ययनों में, शुक्राणुओं को विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजारने पर उनके डीएनए की व्यवहारिता को नुकसान पहुंचता था लेकिन 1989 में जॉनसन एवं सहयोगियों ने खरगोश में मादा लिंग वर्गीकृत वीर्य का उपयोग कर 94 प्रतिशत मादा संतान ली जबकि नर शुक्राणुओं से 81 प्रतिशत नर उत्पन्न किये (Johnson et al. 1989)।
- 1991 में जॉनसन द्वारा सुअर में एक्स और वाई शुक्राणुओं को अलग करके व्यस्क सुअरी के डिंबवहिनी में शल्यक गर्भाधान से बच्चे पैदा होना वर्णित किया गया (Johnson 1991)।
- लिंग वर्गीकृत वीर्य से कृत्रिम गर्भाधान की सहायता से प्रथम मादा बछड़ी का जन्म सिडेल एवं सहयोगियों द्वारा 1997 में वर्णित किया गया था (Seidel et al. 1997)। यद्यपि इस तकनीक का उपयोग कई प्रजातियों के लिए किया गया है, लेकिन गर्भधारण की अधिकता गायों में ही थी, लगभग सभी लिंग वर्गीकृत वीर्य के परिणाम आशानुरूप थे जिनको बाद में हिमीकृत वीर्य के रूप में उपयोग किया जाने लगा। 2007 तक लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग से सैंकड़ों मादा बछड़ियां पैदा की जा चुकी थी (Seidel 2007)।
- 1998 में एक्स-वाई शोधकर्ताओं द्वारा विकसित अत्याधुनिक सेल-सॉर्टिंग तकनीक ने गर्भाधान से पहले लिंग वर्गीकृत वीर्य का उपयोग के लिए, “काल मी मैडम”, नामक घोड़ी ने वैश्विकस्तर पर ध्यान आकर्षित किया। “काल मी मैडम” नामक घोड़ी ने अगस्त 1, 1999 को गस नामक नर बच्चे ने जन्म लिया (Cabi 2003)।
लिंग वर्गीकृत वीर्य तैयार करने की तकनीक
नर के वीर्य में एक्स और वाई, दो प्रकार के शुक्राणु स्खलित होते हैं जबकि मादा में केवल एक्स अंडाणु ही होता है। यदि नर का एक्स शुक्राणु मादा के एक्स अंडाणु को निषेचित करता है तो मादा संतान की उत्पत्ति होती है जबकि नर के वाई शुक्राणु से निषेचित अंडाणु से नर संतान की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार, समागम करने से पहले चयन करने के लिए एक व्यवहारिक प्रक्रिया के माध्यम से वाई शुक्राणुओं को अलग या निश्क्रिय किया जाता है जिसमें वांछित मादा संतान की प्राप्ति के लिए कृत्रिम गर्भाधान कार्यक्रमों में उपयोग किया जा सकता है। पशुपालकों की इच्छानुरूप पशु की संतान प्राप्ति हेतु कृत्रिम गर्भाधान में उपयोग किये जाने वाले वीर्य को सेक्सड सॉर्टेड सीमन अर्थात लिंग वर्गीकृत वीर्य कहा जाता है। लिंग वर्गीकरण करने के लिए दो प्रकार की तकनीकें हैं:
- हाई वोल्टेज करंट एवं तीव्र गति वाली पुरानी तकनीक: शुरूआती दौर अर्थात पुरानी तकनीक में पेटेंटेड नोजल, हाई वोल्टेज करंट और तीव्र गति का उपयोग किया जाता था जिसमें एक्स और वाई गुणसूत्रों अर्थात वाई को अलग कर दिया जाता था। इस तकनीक में उपयोग की जाने वाली नोजल से वीर्य को उच्च दबाव पर गुजारा जाता है जिसकी गति 75 किलोमीटर प्रति घण्टा होती है। यह शुक्राणुओं के लिए बहुत ही कष्टदायक प्रक्रिया है। यह विधित है कि वीर्य में मौजूद शुक्राणु बहुत ही नाजुक होते हैं जो इस तकनीक में अत्याधिक करंट और गति के साथ गुजरने के बाद ही अलग-अलग होते हैं। इस तकनीक में हाई वोल्टेज करंट दोनों प्रकार के गुणसूत्रों को लगता था और वाई गुणसूत्र अलग हो जाते थे। करंट लगने और तीव्र गति से एक्स शुक्राणुओं पर भी कुप्रभाव पड़ता था जिस कारण उनकी निषेचन क्षमता भी प्रभावित होती थी अर्थात गर्भधारण क्षमता कम रहती थी।
- लेजर बीम और प्रतिदीप्त रंजक तकनीक: सांड से प्राप्त किये गये वीर्य में एक्स, वाई और मृत (एक्स एवं वाई) अर्थात तीन तरह के शुक्राणु मौजूद होते हैं। आनुवंशिकी विज्ञान के अनुसार वीर्य में मौजूद वाई गुणसूत्र वाले शुक्राणुओं की तुलना में एक्स गुणसूत्र वाले शुक्राणुओं में 3.8 (5–4.0) प्रतिशत ज्यादा डीएनए होता है (van Munster et al. 1999)। आधुनिक दौर में एक्स और वाई शुक्राणुओं को अलग करने के लिए लेजर बीम और प्रतिदीप्त रंजक का उपयोग किया जाता है। प्रतिदीप्त रंजक को एकत्रित किये वीर्य में मिलाया जाता है। यह रंजक शुक्राणुओं के डीएनए में मिल जाती है। जिन शुक्राणुओं में ज्यादा डीएनए होगा तो इस रंजक का अधिक भाग अवशोषित किया जाता है यदि कम होगा तो उन शुक्राणुओं द्वारा कम रंजक ही अवशोषित होता है जबकि मृत शुक्राणु इस रंजक से अवशोषित नहीं हो पाते हैं। इस रंजक के शुक्राणुओं द्वारा अवशोषित करने के बाद उनमें एक चमक आ जाती है। जैसा कि एक्स शुक्राणुओं में सबसे अधिक रंजक होता है तो वह सबसे अधिक, वाई शुक्राणुओं में कम रंजक होता है तो वह कम चमकते हैं जबकि मृत शुक्राणुओं में रंजक नहीं होने के कारण उनमें चमक भी नहीं होती है। रंजक युक्त वीर्य को लेजर बीम से गुजारा जाता है जो कम और न चमकने वाले शुक्राणुओं पर कार्य करता है अर्थात उनको वीर्य में निश्क्रिय कर देता है, उनको अलग नहीं करता है बल्कि वह भी संसाधित वीर्य में ही मौजूद होते हैं। इस आधुनिक प्रक्रिया में यह महत्तवपूर्ण है कि एक्स शुक्राणुओं में ज्यादा डीएनए होने के कारण उन पर यह लेजर कार्य करता ही नहीं है। आधुनिक तकनीक में माइक्रो फलूडिक्स, माइक्रो ऑपटिक्स, लेजर और प्रतिदिप्त रंजक का उपयोग किया जाता है जिसमें पुरानी पेटेंटेड नोजल नहीं है, उच्च दबाव नहीं है, तीव्र गति नहीं है; इसमें शुक्राणु केवल प्राकृतिक गुरुत्वाकर्षण बल से ही नीचे की ओर गिरते हैं। अतः आधुनिक तकनीक शुक्राणुओं के प्रति नम्र है और इसी कारण इस तकनीक से संसाधित वीर्य के परिणाम भी अच्छे हैं। इसका अर्थ यह है कि आधुनिक तकनीक के उपयोग से एक्स अर्थात मादा शुक्राणुओं की अण्डाणु को निषेचित करने की क्षमता में कमी नहीं आती है और गर्भ धारण क्षमता में भी कोई कमी नहीं आती है। आज यही तकनीक सबसे अधिक प्रचलन की ओर बढ़ रही है।
इस संसाधित वीर्य को मादा लिंग वर्गीकृत वीर्य कहते हैं जिसके कृत्रिम गर्भाधान करने के लिए उपयोग से लगभग 90 प्रतिशत मादा संतान की ही उत्पत्ति होती है। यहां इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि पारंपरिक रूप से कृत्रिम गर्भाधान में उपयोग किये जाने वाले वीर्य के लिए केवल उच्च दुग्धोत्पादन वाली मादाओं के उच्च गुणवत्ता के सांडों का ही उपयोग किया जाता है जबकि लिंग वर्गीकृत वीर्य के संचयन के लिए श्रेष्ठत्तम गुणों वाले सांडों का ही चयन किया जाता है अर्थात इसके उपयोग से सबसे अच्छी गुणों (दूध देने) वाली मादा संतान ही पैदा होती है।
भारत में लिंग वर्गीकृत वीर्य की आवश्यकता
विश्वभर में गाय के दूध को माँ के दूध के सदृश्य उपयोग किया जाने वाला पूरक आहार माना है। किसी भी नवजात बच्चे के जन्म के बाद उसे भरपूर मात्रा में अपनी सगी माँ का दूध उपलब्ध न होने की परिस्थिति में गाय का दूध पिलाया जाता है। भारतवर्ष में तो गाय को सदैव ही माता के रूप में देखा गया है। एक ओर जहाँ गायों के सरंक्षण के लिए भारत के कई राज्यों में गौवंश को लेकर कड़े कानून बनाये गये हैं लेकिन दूसरी तरफ नर गौवंश की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। 20वीं पशुधन गणना के अनुसार भारत में 536.76 मिलीयन पशु हैं जिनमें से 95.78 और 4.22 प्रतिशत पशु क्रमशः ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में पाले जाते हैं। भारत विदेशीमूल की एवं संकर नस्ल की 51.36 मिलीयन जबकि 142.11 मिलीयन देशी गौवंश है और 5.022 मिलीयन परित्यक्त गौवंश है (GOI 2020)। घटती कृषि जोत और औद्योगीकरण के कारण बैलों को उपयोगिता कम हो गयी है, जिससे अब बैल भी अनुयोगी हो गये हैं। अत्याधिक संख्या में मौजूद नर और और अनुत्पादक गौवंश उपलब्ध चारे का बड़ा हिस्सा खा जाते हैं जिससे उत्पादक गौवंश के लिए चारे की उपलब्धता भी प्रभावित होती है।
डेयरी व्यवसाय के लिए दूध ही एकमात्र ऐसा उत्पाद है जिसे बेचकर पशुपालक प्रतिदिन धन अर्जित करता है। अतः दुग्धोत्पादन के लिए वह केवल बछड़ियों का ही पालन-पोषण (चित्र 1) सही ढंग से करता है और बछड़ों को बड़े होने पर वह घर से बाहर कहीं दूर असहाय निराश्रित रूप में छोड़ देता है। भूखे बछड़े, किसानों के खेत-खलिहानों में फसल को नुकसान पहुंचाते हैं तो किसान उनको मार-पीट कर भगा देते हैं और वे सड़क, गांव, कस्बे या शहर में आ जाते हैं (चित्र 2) जिनके कारण सड़क और आबादी वाले क्षेत्रों में जानलेवा दुर्घटनाएं होती हैं। इन घटनाओं से बचने के लिए केवल एकमात्र तरीका ही लिंग वर्गीकृत वीर्य से गर्भाधान है जिसका प्रचलन अब धीरे-धीरे बढ़ भी रहा है।
इन सब तथ्यों के आंकलन से यह बात साफ हो जाती है कि भारत में लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग की अपार संभावनाएं हैं जिससे भारत में न केवल बेसहारा गौवंश की संख्या नियंत्रित होगी बल्कि प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता बढ़ेगी और इसके साथ ही पशुपालन व्यवसाय में रोजगार की संभावना और अधिक बढ़ेगी। सरकार और पशुपालन विभाग भी इसी दृष्टिकोण से गौवंश में नरों की बढ़ती संख्या को लिंग वर्गीकरण तकनीक से नियंत्रित करने की योजनाओं को अमल में लाने की ओर भरसक प्रयासरत है।
भारत में लिंग वर्गीकृत वीर्य का उत्पादन
भारत में लिंग वर्गीकृत वीर्य की अपार संभावनाओं को देखते हुए अब इस प्रकार के वीर्य का निर्माण भारत में शुरू किया जा चुका है। भारत में लिंग वर्गीकृत वीर्य का निर्माण महाराष्ट्र और गुजरात में दो-दो जगह, उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश एक-एक जगह तैयार किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त दो अन्य स्थानों पर भी इसकी तैयारी चल रही है जिनकी दिसंबर 2020 के अंत तक कार्य पूरा होने की संभावना है। अभी तक भारत में लगभग 20 लाख स्ट्रा प्रति वर्ष तैयार करने की क्षमता है जिसकी तकनीकी सुधार होने के साथ-साथ बढ़ने की प्रबल संभावना है।
भारत में, 2016 तक लिंग वर्गीकृत वीर्य आयात किया जाता था लेकिन 2017 में, जब पहली बार यह तकनीक भारत में आयी, तब से विदेशीमूल की गायों सहित भारतीय गौवंश जैसे कि साहीवाल, हरियाणा, थारपाकर, कांकरेज, गंगातीरी, रेड सिंधी, क्रॉसब्रेड और मुर्राह, मेहसाना, जाफराबादी इत्यादि भैंसों का लिंग वर्गीकृत वीर्य विश्व में पहली बार भारत में तैयार और उपयोग किया गया जिसके आशानुरूप परिणाम भी आये हैं। उत्तर प्रदेश में स्थित वर्गीकरण प्रयोगशाला भारत में एक ऐसा वीर्यकोष स्थापित है जहाँ पर केवल भारतीय गौवंश जिनमें मुख्यतयः साहीवाल, हरियाणा, थारपारकर, गिर और गंगातीरी आदि नस्लों का वीर्य ही वर्गीकृत किया जाता है। इस आधुनिक तकनीक से वर्गीकरण की कीमत में 20 से 30 प्रतिशत का लाभ हुआ है। इसके साथ ही सरकार भी लिंग वर्गीकृत वीर्य को सब्सिडी पर उपलब्ध करवा रही है। अतः भारत में आधुनिक तकनीक के आने से पशुपालकों को बहुत कम दाम पर ही यह उपलब्ध हो रहा है जिसके बहुत अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं (चित्र 3)।
लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग के लाभ
- इस वीर्य से कृत्रिम गर्भाधान करने से 90 प्रतिशत मादा संतानों की प्राप्ति होती है।
- तेजी से मादा पशुओं की संख्या में वृद्धि होती है।
- अनुपयोगी नरों की संख्या में कमी होने से बहिष्कृत अर्थात पशुपालकों द्वारा घर से बाहर छोड़े गये नरों की संख्या में भी कमी होगी।
- कम दाम पर सरल तरीके से मादा संतान पैदा होती है।
- इस वीर्य के उपयोग से पशुधन में तेजी से आनुवंशिक उन्नयन होता है।
- पशुपालक को अधिक दूध मिलता है।
- पशुपालक की आमदनी में वृद्धि होती है।
लिंग वर्गीकृत वीर्य का आर्थिक पहलू एवं कुछ चौंकाने वाले शोधपत्र
संचित वीर्य को लिंग वर्गीकृत करने के लिए विशेष प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है जिस कारण उसमें मौजूद वाई शुक्राणु निष्क्रिय हो जाते हैं लेकिन साथ ही एक्स अर्थात मादा शुक्राणुओं की निषेचन शक्ति पर कुप्रभाव होने से गर्भधारण क्षमता में कमी हो जाती है। पारंपारिक रूप में उपयोग किये जाने वाले हिमीकृत वीर्य की तुलना में लिंग वर्गीकृत वीर्य मंहगा होता है। इन दोनों आर्थिक पहलुओं के कारण पशुपालक इसके उपयोग से हिचकिचाते हैं।
हालांकि अधिकतर शोधपत्र लिंग वर्गीकृत वीर्य का लगभग 25 – 30 प्रतिशत गर्भधारण दर बताते हैं लेकिन ओसर बछड़ियों (हिफर्ज) एवं दुधारू गायों में क्रमशः 70 – 80 एवं 50 – 60 प्रतिशत गर्भधारण दर पायी गई है (Seidel 2003)। इसी प्रकार भैंसों पर हुये एक शोध में भी 50 प्रतिशत गर्भ धारण दर पायी गई है (Lu et al. 2015)। आमतौर पर दुधारू गायों में प्रसव के बाद गर्भाशय के बड़े आकार, कृत्रिम गर्भाधान में उपयोग किये जाने वाले वीर्य की कम मात्रा और अशक्त मद के लक्षणों के कारण गर्भधारण दर कम होती है (Yoshida & Nakao 2005)। इसलिए, गर्भधारण दर बढ़ाने के लिए, एक ही मदकाल में एक से अधिक बार गर्भाधान और मात्रा की आवश्यकता होती है (Peppio et al. 2009)।
बेशक, पारंपरिक वीर्य की तुलना में लिंग वर्गीकृत वीर्य की गर्भधारण क्षमता कम और मूल्य अधिक होता है लेकिन गाय-भैंस में लिंग वर्गीकृत वीर्य के साथ कृत्रिम गर्भाधान करने से उच्च गुणवत्ता एवं अधिक दुग्ध उत्पादन करने वाली संतान का जन्म होता है।
लिंग वर्गीकृत वीर्य का उपयोग करने में कुछ महत्वपूर्ण बातें
आर्थिक पहलुओं और कम गर्भधारण क्षमता को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित बातों पर ध्यान पर विशेष ध्यान देना चाहिएः
- लिंग वर्गीकृत वीर्य का उपयोग स्वस्थ एवं प्रजाति के अनुरूप दुग्ध उत्पादन करने वाला होना चाहिए।
- गर्भाधान के समय पशु की प्रजाति के अनुसार आयु एवं शारीरिक भार पर ध्यान देना चाहिए। यदि पशु का उसकी आयु के अनुसार शारीरिक भार नहीं है तो ऐसे पशु का गर्भाधान नहीं कराना चाहिए।
- कृत्रिम गर्भाधान की जाने वाली मादा के जननांग पूर्ण रूप से विकसित एवं स्वस्थ होने चाहिए।
- गायों की तुलना में ओसर बछड़ियों में गर्भधारण दर अधिक होती है लेकिन उनकी प्रथम मदकाल में उनका गर्भाधान करवाने से परहेज करना चाहिए और उनके दूसरी बार के मदकाल में ही कृत्रिम गर्भाधान करवाना चाहिए।
- ऐसी मादाओं का मदचक्र नियमित होना चाहिए।
- कृत्रिम गर्भाधान की जाने वाली गायों और ओसर बछड़ियों को हरे चारे के अतिरिक्त संतुलित आहार एक महीना पहले शुरू कर देना चाहिए। उनको 50 ग्राम खनिज तत्व मिश्रण भी एक महीना पहले खिलाना शुरू कर देना चाहिए।
- उनको कृमिनाशक दवाई गर्भाधान से एक महीना पहले ही दे देनी चाहिए।
- मद में आई गाय को मदकाल की मध्य अवस्था से अंतिम अवस्था में ही कृत्रिम करवाना चाहिए।
उपरोक्त बातों के अतिरिक्त कृत्रिम गर्भाधान करने वाले पशु स्वास्थ्य कर्मियों को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिएः
- कृत्रिम गर्भाधान करने से पहले गाय के जननांगों का परिक्षण करें ताकि उनमें कोई समस्या होने की स्थिति में ऐसी गायों का गर्भाधान नहीं करना चाहिए।
- वर्गीकृत वीर्य का उपयोग केवल कुशल एवं अनुभवी कृत्रिम गर्भाधान पशु स्वास्थ्य कर्मी द्वारा ही किया जाना चाहिए।
- वर्गीकृत वीर्य की थॉइंग एवं उपयोग में विशेष सावधानी बरती जानी चाहिए।
- वर्गीकृत वीर्य के स्ट्राज को तरल नाइट्रोजन पात्र में सही ढंग से चिन्हित करके रखा जाना चाहिए।
- कृत्रिम गर्भाधान करते समय व्यक्तिगत एवं पशु के बाह्य जननांगों की स्वच्छता का भी विशेष ध्यान देना चाहिए।
लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग की सीमाएं
- कृत्रिम गर्भाधान के लिए परंपरागत रूप से उपयोग किये जाने वाले एक सीमन स्ट्ा में 2 करोड़ से 5 करोड़ शुक्राणु होते हैं जबकि लिंग वर्गीकृत सीमन स्ट्रा में यह संख्या बहुत कम अर्थात लगभग 20 लाख ही होती है। इसलिए लिंग वर्गीकृत वीर्य से गर्भधारण दर प्रभावित हो सकती है। लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग से उचित गर्भधारण दर लेने के लिए पशुपालकों को अपने पशु को तैयार करना होता है और पशु स्वास्थ्य कर्मी उचित पहलुओं का ध्यान अवश्य रखें।
- लिंग वर्गीकरण के लिए उपयोग की जाने वाली तकनीक एवं उपकरण बहुत मंहगे हैं जिस कारण इसको स्थापित करने में बहुत खर्च होता है।
- परंपरागत रूप से उपयोग किये जाने वाले एक सीमन स्ट्रा की कीमत बहुत कम अर्थात 20 से 30 रूपये है जबकि लिंग वर्गीकृत एक स्ट्रा की कीमत बहुत अधिक अर्थात 1000 रूपये से भी अधिक है जिसे सरकार मात्र 100 – 300 रूपये में ही पशुपालकों को रियायती दर पर उपलब्ध करा रही है।
- हालांकि, पशुपालकों को लिंग वर्गीकृत वीर्य के महत्व के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है फिर भी जिनको पता है वह भी उच्च लागत होने के कारण अनिच्छुक प्रतीत होते हैं।
लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग में बाधाएं
- उपकरणों की उच्च लागत: लिंग वर्गीकरण में उपयोग किये जाने वाले उपकरण तो मंहगे हैं ही लेकिन साथ में प्रति स्ट्रा उत्पादन के लिए भी अलग से भुगतान करना पड़ता है। अतः लिंग वर्गीकृत वीर्य की प्रारंभिक कीमत बहुत अधिक है।
- वर्गीकरण प्रौद्योगिकी की व्यावसायिक उपलब्धता: इस प्रौद्योगिकी में ओरिएंटिंग नोजल का पेटेंट है और संबंधित कंपनी इसे नहीं बेचती है जो अभी तक इसके व्यावसायीकरण में बाधा है। अतः यह प्रौद्योगिकी पूरी तरह से व्यवसायिक रूप से उपलब्ध नहीं है।
- कम वर्गीकरण गति और दक्षता: शुक्राणुओं को अलग करने वाली मशीन की छंटनी करने की गति लगभग एक-एक लाख एक्स एवं वाई शुक्राणु प्रति सेकंड है (Johnson 2000) और यदि इसे 24 घंटे अधिकतम एक्स शुक्राणुओं को अलग करने के लिए चलाया जाता है तो 86400 लाख शुक्राणु मिलते हैं। अब, यदि एक स्ट्रा में 2 लाख शुक्राणु लिये जाते हैं तो 24 घण्टे में केवल 4320 मादा लिंग वर्गीकृत स्ट्राज ही मिलते हैं। यदि हिमीकृत वीर्य का उत्पादन किया जाता है तो यह संख्या केवल 2160 ही होगी।
- कम गर्भाधान दर: कृत्रिम गर्भाधान के लिए उपयोग किये जाने वाले परंपरागत वीर्य की तुलना में लिंग वर्गीकृत वीर्य की 10 – 20 प्रतिशम कम गर्भधारण दर है।
- भारतीय परिस्थितियों में मानकीकरण की आवश्यकता: लिंग वर्गीकृत वीर्य की पेटेंट तकनीक है जिसे मुख्य रूप से पश्चिमी देशों में उपेयाग किया जाता है और इसका उपयोग भी विदेशों की मांग को पूरा करने के लिए विदेशी गायों में ही इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि, इस तकनीक की सहायता से ब्राजील में भारतीय मूल की गिर नस्ल के लिए भी उपयोग किया जाता है जिसे भारत में कुछ राज्यों ने अपनाया भी है फिर भी भारतीय उष्णकटिबंधीय स्थिति के अंतर्गत इसके उपयोग को अभी भी सत्यापित किया जाना है क्योंकि गौवंश के आनुवंशिक सुधार के लिए प्रौद्योगिकी को अपनाने के प्रभाव को अभी तक वर्णित नहीं किया गया है।
- उत्कृष्ट सांडों की कमी: उत्कृष्ट सांडों की कमी आनुवांशिक रूप से बेहतर सांडों में वीर्य वर्गीकरण के विकल्पों को सीमित करती है।
- कुशल कर्मियों की कमी: कृत्रिम गर्भाधान के लिए कुशल तकनीशियनों की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, उष्णकटिबंधीय विकासशील राष्ट्रों के लिए ऐसी योजना विकसित करना, जहाँ पर 2–4 पशु प्रति परिवार, अव्यवस्थित गर्भाधान और वंशावली और प्रदर्शन रिकॉर्डिंग की अनुपस्थिति से विवशतापूर्ण है।
भारत में लिंग वर्गीकृत वीर्य की संभावनाएं
- दूध की बढ़ती मांग: भारत में बढ़ती आबादी की दूध मांग को पूरा करने के लिए उच्च दुग्धोत्पादन वाली मादा गायों एवं भैंसों की आवश्यकता है। लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग से मादा पशुओं की संख्या में बढ़ोतरी होने के साथ-साथ दुग्धोत्पादन बढ़ने से इस मांग को पूरा किया जा सकता है।
- अच्छी उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता के सांडों का उत्पादन: भारत में अच्छी उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता के सांडों की कमी है जिसे नर लिंग वर्गीकृत शुक्राणुओं से पूरा किया जा सकता है। इस समय भारत में अच्छी गुणवत्ता के सांडों के उत्पादन के लिए उच्च गुणवत्ता की मादाओं की आवश्यकता है जिसे इस तकनीक के माध्यम से पूरा किया जा सकता है।
- संतान परीक्षण: किसी भी सांड के परीक्षण के लिए उसके द्वारा पैदा की गई अधिक से अधिक मादा संतानों की आवश्यकता होती है। अतः मादा लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग से कम समयावधि में सांड के परीक्षण की सटीकता बढ़ेगी और भविष्य में उच्च गृणवत्ता की मादा गायों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ अच्छे सांडों की संख्या में भी बढ़ोतरी होगी।
- अनुत्पादक सांडों की संख्या का नियंत्रण: परंपरागत तकनीक से मादा एवं नर संतान लगभग बराबर अनुपात में जन्म लेते हैं। मादा संतानों का उपयोग तो दुग्धोत्पादन में किया जाता है लेकिन अधिक संख्या में नर संतान अनुपयोगी एवं अनुत्पादक होती हैं। मादा लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग से नर संतानोत्पत्ति नियंत्रित की जा सकती है।
- मादा गायों की प्रतिस्थापन एवं विस्तार: आमतौर पर किसी भी परिवार या फार्म पर बूढ़ी या कम दूध देने वाले पशुओं को बेचकर अच्छे दूधारू पशुओं को खरीदता है। इसे प्रतिस्थापन कहा जाता है। इसके लिए उसे बड़ी धनराशि खर्च करनी पड़ती है। लेकिन मादा लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग की सहायता से प्रतिस्थापन दर को बिना किसी अतिरिक्त खर्च के आसानी से बढ़ाया जा सकता है। इसके साथ ही अच्छे दुधारू पशुओं की संख्या बढ़ने से किसी भी फार्म का विस्तार भी आसानी से हो जाता है।
- बीमारियों की रोकथाम: आमतौर स्वस्थ दुधारू पशुओं की ही क्रय-विक्रय होता है लेकिन किसी भी स्वस्थ पशु का अंदरूनी स्वास्थ्य के बारे में अनभिज्ञता होने के कारण जब भी पशुपालक कोई भी दुधारू गाय/भैंस खरीद कर लाता है तो जाने-अंजाने में उसके साथ बीमारी भी साथ आ जाती है। यदि पशुपालक के घर द्वार पर ही मादा संतान का जन्म होने से बाहर से दुधारू पशु खरीदने की आवश्यकता नहीं होगी। पशुपालक को अपने पशुओं के अंदरूनी स्वास्थ्य के बारे में पता होता है अर्थात उसके घर में ही मादा बछड़ी/कटड़ी का जन्म होने पर, बाहर से आने वाली बीमारियों की संभावना भी नहीं रहेगी।
- कठिनप्रसव की कम संभावना: प्राकृतिक रूप से बछड़े/कटड़े का सिर और कंधा, बछड़ी/कटड़ी की तुलना में थोड़े बड़े होते हैं अर्थात बछड़ा/कटड़ा पैदा होने पर कठिन प्रसव की संभावना ज्यादा होती है। जैसा कि विधित है कि कठिन प्रसव के दौरान पशुपालकों को आर्थिक नुकसान होने के साथ-साथ ब्याने वाली गाय/भैंस में प्रसवोपरांत कई समस्याएं जैसे कि जेर अटकना, बच्चेदानी में मवाद होना, समय पर गर्भ धारण न करना, भी देखने को मिलती हैं जिनका पशुपालक को दीर्घकालिक आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है जो उसके लाभ को प्रत्यक्षरूप में प्रभावित करती हैं। लेकिन मादा लिंग वर्गीकृत वीर्य के उपयोग से 90 प्रतिशत बछड़ियां/कटड़ियां ही पैदा होती हैं जिनके सिर और कंधे प्राकृतिक तौर पर बछड़े/कटड़े से छोटे होते हैं; अतः ब्याने वाली गायों/भैंसों में कठिन प्रसव की संभावना कम होने के साथ-साथ पशुपालकों को आर्थिक नुकसान की संभावना में भी कम होगी।
सारांश
बेशक, लिंग वर्गीकृत वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या बहुत कम है और इसकी कीमत भी बहुत अधिक है लेकिन वीर्य में मौजूद मादा शुक्राणुओं को नुकसान पहुंचाये बिना उच्च छंटाई दर और सटीकता के साथ तकनीकों एवं उपकरणों का विकास इस तकनीक की प्रगति को और तेज करेगा जिससे इनकी कीमत में भी कमी होने की संभावना बढ़ने के साथ-साथ गर्भ धारण दर में भी बढ़ोतरी होगी। वह समय भी दूर नहीं जब पशुपालक इसकी महत्ता को समझेंगे और उनके घर-आंगन में बछिया ही बछिया होगी जो अच्छा दुग्धोत्पादन कर उसके घर को चमकायेगी। भारत में तैयार हो रहे लिंग वर्गीकृत वीर्य के अच्छे परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं जिसके उदाहरण साफतौर पर उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम अर्थात पूरे भारतवर्ष में दिखायी दे रहे हैं। अत: मादा लिंग वर्गीकृत वीर्य का उपयोग डेयरी जगत में एक नई क्रान्ति है, जो नये कीर्तिमान स्थापित करने की ओर लगातार अग्रसर है। मादा डेयरी पशुओं की संख्या बढ़ने के साथ ही भारत में दुग्धोत्पदान बढ़ेगा जिससे डेयरी व्यवसाय में रोजगार के अवसर भी सृजित होने के साथ-साथ पशुपालकों की आमदनी में भी बढ़ोतरी होगी।
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