गौ आधारित अर्थव्यवस्था मे गोबर/गौ मूत्र प्रबंधन तथा महत्व

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गौ आधारित अर्थव्यवस्था मे गोबर/गौ मूत्र प्रबंधन तथा महत्व
Compiled & shared by-DR RAJESH KUMAR SINGH ,JAMSHEDPUR, JHARKHAND,INDIA 9431309542,rajeshsinghvet@gmail.com
कुशल गोबर प्रबन्धन
हिन्दू धर्म में ऐसी मान्यता है कि गाय के रीढ़ में सूर्य केतु नाड़ी होती है जो सूर्य के गुणों को धारण करती है। यही कारण है कि गौमूत्र गोबर दूध, दही, घी मंी औषधीय गुण होते हैं। यह नाड़ी सर्वरोगनाशक, सर्वविषनाशक है, सूर्य के संपर्क में आने पर यह नाड़ी स्वर्ण उत्पादन करती है, जो गाय के मूत्र, दूध एवं गोबर में मिलता है, दूध पीने से मनुष्य के शारीर में चला जाता तथा गोबर के माध्यम से खेतो में चला जाता है।
पंचगव्य का निर्माण देसी गाय के दूध, दही, घी, मूत्र एवं गोबर से किया जाता है जो की कई बीमारियों में लाभदायक है।
पंचगव्य की कैंसर में उपयोगिता के लिए पेटेंट लिया जा चूका है, गाय के मूत्र के कई प्रभावों के लिए ६ पेटेंट अभी तक लिए जा चुके है।
गाय का गोबर मानव जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी है। भारत के ग्रामीण आंचल में गाय के गोबर के बहुत से उपयोग किये जाते हैं। लोग महंगे उत्पाद न खरीदकर गाय के गोबर से काम चला लेते हैं। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था का संतुलन बनकर चलता रहता है। भारत में आज भी दो प्रकार की अर्थव्यवस्था काम कर रही है-एक है शहरी अर्थव्यवस्था और दूसरी है ग्रामीण अर्थव्यवस्था। सरकारी स्तर पर कभी भी यह जांचने परखने का प्रयास नही किया गया कि भारत के सुदूर देहात की अर्थव्यवस्था आज भी सुचारू रूप से क्यों चल रही हैयदि यह जांचा परखा जाए तो उस सुचारू व्यवस्था के पीछे आपको गाय खड़ी मिलेगी। मनुष्य के शरीर के किसी अंग पर सूजन आ जाने पर लोग गाय के गोबर का लेप कर लेते हैं। जो लोग गाय के गोबर को केवल मल ही मानते या समझते हैं वे भूल करते हैं। गाय का गोबर मल नहीं है यह मलशोधक है दुर्गन्धनाशक है एंव उत्तम वृद्धिकारक तथा मृदा उर्वरता पोषक है। यह त्वचा रोग खाज, खुजली, श्वासरोग, शोधक, क्षारक, वीर्यवर्धक, पोषक, रसयुक्त, कान्तिप्रद और लेपन के लिए स्निग्ध तथा मल आदि को दूर करने वाला होता है। गोबर को अन्य नाम भी है गोविन्दगोशकृत, गोपुरीषम्, गोविष्ठा, गोमल आदि। गोबर मे नाईट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, आयरन, जिंक, मैग्निज, ताम्बा, बोरोन, मोलीब्डनम्, बोरेक्स, कोबाल्ट-सलफेट, चूना, गंधक,सोडियम आदि मिलते है। गाय के गोबर में पूतिरोधी एन्टिडियोएक्टिव एवं एन्टिथर्मल गुण होता है गाय के गोबर में लगभग १६ प्रकार के उपयोगी खनिज तत्व पाये जाते है ।
गाय के पंचगव्य के सेवन से शरीर, मनबुद्घि और अंत:करण के विकारों का शमन होता है। जिससे शरीर की शक्ति बढ़ती है तेज बल और आयुष्य की प्राप्ति होती है। गाय के गोबर से घर में लेपन करने से बहुत से कीटाणु-विषाणु नष्ट हो जाते हैं। इसलिए हमारे गांव-देहात में गोबर के लेपन की परंपरा आज भी चल रही है। जबकि शहरों में लोग कितने ही कीड़़े मकोड़ों (कॉक्रोच आदि) को मारने के लिए घर में रासायनिक कीटाणु नाशकों का प्रयोग करते हैं। जो कि महंगा तो पड़ता ही है साथ ही यह स्वास्थ्य के लिए घातक भी हैं। गाय के लेपन से आणविक विकीरण एवं वायु प्रदूषण से भी रक्षा होती है। जिस समय जापान में हिरोशिमा और नागासाकी पर बम वर्षा की गयी थी तो उस समय जापान ने गाय के गोबर के लेपन का महत्व समझा था। उसके पश्चात वहां पर लोग अपने ओढऩे की चादर को गोबर के घोल को छानकर उसके पानी में भिगोने के पश्चात सुखाकर तब ओढ़ते हैं। जिससे उनके स्वास्थ्य की रक्षा होती है तथा उसकी रोग निरोधक क्षमता भी बढ़ती है।आण्विक विकिरण का प्रतिकार करने में गोबर से पुती दीवारें पूर्ण सक्षम है गांवों में आज भी एक परंपरा देखने को मिलती है कि यदि बच्चा घर के आंगन में शौच कर देता है तो महिलाएं उस शौच पर राख डाल देती हैं। यह राख गाय के उपलों से जलने से बनी होती है तो ही उत्तम होती है।
महिलाएं बच्चे के शौच पर या परंपरागत शौचालयों में राख का ही प्रयोग क्यों करती हैं? उस पर मिट्टी भी तो डाल सकती है । इसका कारण यही है कि हमारे ऋषि पूर्वजों को प्राचीन काल से ही यह ज्ञान रहा है कि गाय के गोबर की राख से ही मल की दुर्गंध समाप्त होती है। मिट्टी से दुर्गंध समाप्त नही हो सकती। हम यह भी देखते हैं कि मल के ऊपर यदि राख डाल दी जाए तो यह मल भी शीघ्र ही खाद बन जाता है। गाय के गोबर की राख से ही हमारे देहात में लोग अपने दांत साफ करते हैं जबकि महिलाएं राख से घर के बर्तनों को साफ करती हैं। जिसके सार्वजनिक प्रयोग से पूरे देश का करोड़ों रूपया बच सकता है, जो कि बर्तनों को साफ करने के लिए विशेष साबुन, सर्फ आदि पर व्यय किया जाता है। इस प्रकार के साबुन व सर्फ से महिलाओं के हाथों में चर्मरोग होने या उनकी त्वचा के कमजोर होने की संभावना बनी रहती है। गांवों में फल-सब्जी के खेतों पर छोटे-छोटे पौधों व बेलों पर यदि कीड़ा लग जाए तो लोग उन पर गाय के गोबर की राख का छिडक़ाव करते हैं। जिसका स्थान आजकल कीटनाशक लेते जा रहे हैं। परंतु इन कीटनाशकों के प्रयोग से फल व सब्जियां की विषैली होती जा रही हैं, और मनुष्य शरीर पर घातक प्रभाव डाल रही है। जबकि राख डालने से किसी फल या सब्जी के विषैला बनने की संभावना लगभग शून्य ही रहती है। ग्रामीण आंचल में लोग इसलिए स्वस्थ मिलते हैं कि वे शुद्घ फल व सब्जी का प्रयोग करते हैं। 1904 ई. में भारत की उन्नत कृषि पद्धति का अध्ययन करने के लिए ब्रिटेन से आये कृषि वैज्ञानिक सर एलबर्ट ने बड़ी सूक्ष्मता से अपने विषय का अनुसंधानात्मक अध्ययन किया और अपने निष्कर्षों को ‘एन एग्रीकल्चरल टेस्टामेंट’ में लिखा। उनके लेख के अनुसार पूसा (बिहार) के आसपास के गांवों में उपजने वाली फसलें सभी प्रकार के कीटों से गजब की मुक्त थीं। किसानों की अपनी परंपरागत कृषि पद्घति में कीटनाशक जैसी चीजों के लिए कोई स्थान ही नही था।
पुराने जमाने में और आज भी गाँव की औरतें पर्व-त्योहारों या शुभ अवसरों पर गाय के गोबर से समूचे घर-आंगन की लिपाई-पुताई करती हैं और गोबर की पूजा भी की जाती है। ऐसा माना जाता है कि गोबर में श्रीगणेश का वास है और यह शुभ होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी गोबर को ‘एण्टीसेप्टिक’ माना गया है। हानिकारक बैक्टीरिया को मारने के अलावा गोबर में मिट्टी के चिपकने का गुण है। जलावन और जैविक खाद के रूप में तो यह जगत प्रसिद्ध है। इतना ही नहीं, गोबर से बिजली, ईन्धन प्रकाश, त्वचा रक्षक साबुन, शुद्ध धूपबत्ती तथा शीत-ताप अवरोधक प्लास्टर का उत्पादन भी सम्भव हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार यदि केवल 75 प्रतिशत गोबर भारत में इकट्ठा हो तो 195 लाख मेगावाट बिजली प्रतिवर्ष निर्माण हो सकेगा एवं 236 लाख टन खाद बन सकेगी।
लेकिन आधुनिक कृषि और पशुपालन के दौर में जबकि जनसंख्या घनत्व तेजी से बढ़ रहा है और स्थान की कमी होती जा रही है, यही गोबर मानव स्वास्थ्य और स्वच्छ पर्यावरण के लिए खतरा बन सकता है। यद्यपि मनुष्य में गोबर या अन्य उत्सर्जित पदार्थों से रोग फैलने के उदाहरण कम हैं लेकिन खतरा तो है ही। गाय के गोबर में औसत जीवाणु घनत्व 0.23-1.30×10 प्रतिग्राम और औसत योगदान 5.40×10 प्रति पशु प्रतिदिन है जो अन्य पशुओं की तुलना में सौभाग्यवश काफी कम है। लेकिन मोटे-मोटे यही आँकड़े पेयजल शुद्धता और शहरी कचरों की हद तय करने के लिए भी उपयोग में लाए जाते हैं। भारत के गोबर और इसके ‘ग्रीन हाउस’ प्रभाव पर तो विदेशों में भी चर्चाएँ हो चुकी हैं। जबकि सघन पशुपालन और खटालों के सड़े गोबर का सम्भवतः प्रथम हानिकारक प्रभाव मध्य-पश्चिमी देशों में ही प्रकाश में आया था जब नदियों की मछलियाँ मरने लगी थीं। वहाँ खटालों के सड़े गोबर और अन्य उत्सर्जनों के चलते नदी जल में ऑक्सीजन की कमी, अमोनिया में वृद्धि, जल का रंग काला होना और तीव्र दुर्गन्ध आदि लक्षण पाए गए थे।
अतः किसानों के पास गोबर के कुशल प्रबन्धन के लिए मुख्यतः तीन विकल्प हैं। (1) प्रदूषित तरल पदार्थों (गोबर-कचरा) का नियन्त्रित प्रवाह, (2) खटाल के अन्दर ही गोबर-कचरा का सन्धारण और (3) आबादी से दूर सुनसान जगहों पर बड़े-बड़े गड्ढों (लैगून) का निर्माण कर गोबर आदि का भण्डारण।
गोबर या प्रदूषित तरल पदार्थों (स्लर्री) का नियन्त्रित प्रवाह करने की तीन विधियाँ हैं : (क) डाइवर्सन विधि के द्वारा नालियों का निर्माण कर किसी खास स्थान पर उक्त तरल पदार्थों को इकट्ठा करना। इसमें खुली नालियों का निर्माण, गोबर प्रवाह की मात्रा एवं नालियों की चौड़ाई के अनुपात में ढलान की गणना, छप्पर या छत से गिरने वाले पानी की निकासी हेतु जलमार्ग या परनाले का निर्माण, नीचे की ओर नल या टोंटी का निर्माण (डाउन स्पाउट्स) करने के पश्चात बाहर की ओर भूमिगत नालियों की संरचना करना शामिल है। (ख) अनुपयोगी चारा-दाना, कचरा या गोबर में मिले अन्य ठोस अंशों के नियन्त्रण एवं अवधारण (सेटलिंग) के लिए अवधारण टंकी, अवधारण बेसिन और अवधारण नाली (सेटलिंग चैनल) का निर्माण करते हैं, ताकि भूमिगत नालियों से स्लर्री-गोबर के गुजरते समय समस्या न पैदा हो। (ग) छोटे पशुपालकों के द्वारा गोबर-कचरा आदि तरल पदार्थों को सीधे भूमि पर प्रवाहित करने की स्थिति में सावधानी बरतने की जरूरत है। आसपास के लोगों का दिक्कत नहीं हो, इसके लिए अवधारण (सेटलिंग), निथारन (फिल्ट्रेशन) का उपाय करते हैं। जलयुक्त पतला घोल (डाइल्यूशन) हो और घास के मैदान या अनुपयोगी भूमि में अवशोषण का उपाय हो। कुछ खास चीजें जैसे घास छानने का उपकरण (ग्रास फिल्टर्स), चक्करदार या सर्पाकार जलमार्ग और निथारन चबूतरों (इनफिल्ट्रेशन टेर्रेसेज) का निर्माण भी जरूरी है। ओवरलैण्ड प्रवाह विधि कम खर्चीली और आसान होने के कारण पशुपालकों के बीच अधिक लोकप्रिय है। लेकिन यह निम्न निथारन क्षमता या संतृप्त मृदा वाले क्षेत्रों के लिए कदापि उपयोगी नहीं है और ऐसे उपाय आबादी से काफी दूरी पर ही किए जा सकते हैं।
गोबर प्रबन्धन के द्वितीय विकल्प के रूप में आजकल खटालों के अन्दर ही एनारोबिन टंकी का निर्माण बहुत प्रचलित है। एक आदर्शभूत टंकी की गहराई 8 से 10 फुट और लम्बाई-चौड़ाई पशुओं की संख्या यानी गोबर की मात्रा और डिस्पोजल के अन्तरालों पर निर्भर करती है। इसके निर्माण में लोहे की छड़, कंक्रीट या स्टील का प्रयोग किया जाता है। गोबर प्लाण्ट के लिए यही विधि उपयुक्त है।
गोबर से सड़ने के कारण अत्यधिक मात्रा में दुर्गन्ध निकलती है। यद्यपि किसी भी दुर्गन्ध और बीमारी के बीच कोई सीधा सम्बन्ध प्रमाणित नहीं हुआ है फिर भी इसके कारण मनुष्य में मिचली, वमन, सिरदर्द, कफ, चिड़चिड़ापन, अवसाद इत्यादि लक्षण दृष्टिगोचर हो सकते हैं। अतः मुख्यतः तीन उपायों के सहारे किसान भाई समाज का कोपभाजन होने से बच सकते हैं। (1) चूना (लाइम) का छिड़काव : यह गोबर से निकलने वाले हाइड्रोजन सल्फाइड गैस का पीएच. 9.5 से भी अधिक बढ़ाकर इसे हवा में जाने से रोक देता है। (2) गोबर पर पाराफार्मल्डिहाइड डाल देने से वातावरण में फैलने वाला अमोनिया गैस एक तरल पदार्थ हेक्सामिथिलीन टेट्राएमीन परमैग्नेट (1 प्रतिशत) की 9 कि.ग्रा. मात्रा प्रति एकड़ या 25 कि.ग्रा. प्रति टन गोबर पर डाल देने से गोबर की दुर्गन्ध पूरी तरह समाप्त हो सकती है। पशु उत्सर्जन का कुशल प्रबन्धन किसानों के लिए बहुमूल्य सम्पत्ति बन सकता है, जबकि इसका कुप्रबन्धन मनुष्य, समाज और पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकता है।
गोबर की खाद का महत्व
चीन युग से ही “खाद” का पौधों, फसल उत्पादन में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। खाद” का पौधों फसल उत्पादन में महत्वपूर्ण स्थान है। खाद शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के खाद्य शब्द से हुई है।
खाद की परिभाषा
जल के अतिरिक्त वे सब पदार्थ जो मिट्टी में मिलाए जाने पर उसकी उर्वरता में सुधार करते हैं खाद कहलाते हैं।
खाद देने के उद्देश्य
1. संतुलित पोषक तत्व उपलब्ध करना-पौधों को अधिक से अधिक एवं संतुलित मात्रा में सभी आवश्यक तत्वों की उपलब्धि कराना।
2. फसलों से अधिक लाभ प्राप्त करना- भूमि में बार-बार फसलोत्पादन से मिट्टी व गमलों में उपस्थिति मिट्टी के पोषक तत्व, पौधों व फसलों के रूप में काट दिये जाते हैं।
अतः धीरे-धीरे गमलों व भूमि में अधिक उपज देने वाली फसलों की जातियाँ उगाने से मुख्य तत्व नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश गमलों व मिट्टी में मिलाएं जाते हैं।
1. भौतिक दशा में सुधार- खाद मिट्टी की भौतिक दशा में सुधार करके भूमि में पोषक तत्वों की उपलब्धि बढ़ाकर उसकी शक्ति में वृद्धि करती है।
गोबर खाद की रचना रासायनिक रचना एवं संघटन
पशुओं के ताजे गोबर की रासायनिक रचना जानने के लिए, गोबर को ठोस व द्रव को दो भागो में बांटते हैं। बहार के दृष्टिकोण से ठोस भाग 75% तक पाया जाता है। सारा फास्फोरस ठोस भाग में ही होता है तथा नत्रजन व् पोटाश, ठोस द्रव भाग में आधे-आधे पाए जाते हैं।
गोबर खाद की रचना अस्थिर होती है। किन्तु इसमें आवश्यक तत्वों का मिश्रण निम्न प्रकार है।
नाइट्रोजन 0.5 से 0.6 %
फास्फोरस 0.25 से 0.३%
पोटाश 0.5 से 1.0%
गोबर की खाद में उपस्थित 50% नाइट्रोजन, 20% फास्फोरस व पोटेशियम पौधों को शीघ्र प्राप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त गोबर की खाद में सभी तत्व जैसे कैल्शियम, मैग्नीशियम, गंधक, लोहा, मैंगनीज, तांबा व जस्ता आदि तत्व सूक्ष्म मात्रा में पाए जाते हैं।
गोबर की खाद का गमलों व भूमि पर लाभ दायक प्रभाव
मिट्टी में भौतिक सुधार
• मिट्टी में वायु संचार बढ़ता है।
• मिट्टी में जलधारण व् जल सोखने की क्षमता बढ़ती है।
• मिट्टी में टाप का स्तर सुधरता है।
• पौधों की जड़ों का विकास अच्छा होता है।
• मिट्टी के कण एक-दुसरे से चिपकते हैं। मिट्टी का कटाव कम होता है।
• भारी चिकनी मिट्टी तथा हल्की रेतीली मिट्टी की संरचना का सुधार होता है।
मिट्टी के रासायनिक गुणों का प्रभाव
• पौधों को पोषक तत्व अधिक मात्रा में मिलते हैं।
• मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ती है।
• मिट्टी की क्षार विनिमय क्षमता बढ़ जाती है।
• मिट्टी में पाये जाने वाले अनुपलब्ध पोषण तत्व, उपलब्ध पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ती है।
• पोटेशियम व फास्फोरस सुपाच्य सरल यौगिकों में आ जाते हैं।
• पौधों की कैल्शियम, मैग्नीशियम, मैगनीज व सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता बढ़ती है।
• कार्बनिक पदार्थ के विच्छेदन से कार्बनडाई ऑक्साइड मिलती है। अनेक घुलनशील कार्बोनेट व बाईकार्बोनेट बनाती है।
मिट्टी के जैविक गुणों पर प्रभाव
• मिट्टी में लाभदायक जीवाणुओं की संख्या बढ़ती है।
• लाभदायक जीवाणुओं की क्रियाशीलता भी बढ़ती है।
• अनेक जीवाणु मिट्टी से पोषक तत्व लेकर पौधों को प्रदान करते हैं।
• जीवाणुओं द्वारा वातावरण की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण अधिक होता है।
• जीवाणु द्वारा वातावरण की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण अधिक होता है।
• जीवाणु जटिल नाइट्रोजन को अमोनिया नाईट्रेट आयन्स में बदलते है। नाइट्रोजन का यही रूप पौधों द्वारा ग्रहण किया जाता है।
गोबर खाद प्रयोग करने की विधि
गोबर की खाद को गमलों व खेत में किस विधि से डालें, यह काई बातों जैसे खाद की मात्रा, खाद की प्रकृति, मिट्टी की किस्म व फसल के प्रकार पर निर्भर करता है।
गोबर की खाद डालने का समय
गोबर की सड़ी हुई खाद को ही सदैव फसल बोने अथवा गमलों एवं पौधों को लगाने के लिए ही प्रयोग करें। फसलों में बुआई से पूर्व खेत की तैयारी के समय व गमलों को मिट्टी भरते समय अच्छी तरह मिट्टी में मिलाकर पौधे रोपने से एक सप्ताह पूर्व भरें।
भारी चिकनी मिट्टी में ताजा गोबर की खाद बुआई से काफी समय पूर्व प्रयोग करना अच्छा होता है क्योंकि विच्छेदित खाद से मिट्टी में वायु संचार बढ़ जाता है। जलधारण क्षमता भी सुधरती है। हल्की रेतीली मिट्टी एवं पर्वतीय मिट्टी मंे वर्षाकाल के समय में छोड़कर करें।
गोबर खाद की मात्रा
गोबर की खाद खेत में मोटी परत की अपेक्षा पतली डालना सदैव अच्छा रहता है। लंबे समय की फसल में समय-समय पर खाद की थोड़ी मात्रा देना, एक बार अधिक खाद देने की अपेक्षा अधिक लाभप्रद होता है। सभी फसलों में 20-25 टन प्रति हेक्टेयर एक-एक में 10 टन, गोबर की खाद खेत में दी जाती है। सब्जियों के खेत में 50-100 टन प्रति हेक्टेयर व गमलों में साईज व मिट्टी के अनुसार 200 से 600 ग्राम बड़े गमलों में 1 किग्रा, से 1.5 किग्रा. तक प्रति गमला साल में 2-3 बार डालें।
गोबर धन (GOBAR Dhan) योजना
• भारत में प्रतिवर्ष बड़ी मात्रा में कार्बनिक अपशिष्ट उत्पन्न होता है। यहां प्रतिवर्ष लगभग 60 हजार टन अपशिष्ट पशुओं से तथा लगभग 600 मिलियन टन अपशिष्ट फसलों से उत्पन्न होता है। इनमें से अधिकांश का निष्पादन जलाकर अथवा इन्हें कहीं खाली पड़ी भूमि पर अथवा किसी जलाशय में फेंक कर किया जाता है। अपशिष्टों के इस अवैज्ञानिक निष्पादन से अनेक स्वास्थ्य एवं पर्यावरणीय दुष्प्रभाव उत्पन्न होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के एक आकलन के अनुसार, भारत में प्रतिवर्ष लगभग 5 लाख लोग अस्वच्छ ईंधन के कारण काल का ग्रास बन जाते हैं।
कार्बनिक अपशिष्टों का यदि उचित प्रयोग किया जाए तो ये संसाधनों के रूप में भी प्रयुक्त किए जा सकते हैं। इनका ईंधन, उर्वरक तथा अन्य ऊर्जा गतिविधियों में उपयोग किया जा सकता है। कार्बनिक अपशिष्टों के इन्हीं संभावनाओं के दोहन हेतु वित्त मंत्री द्वारा बजट भाषण, 2018-19 में गोबर धन योजना की घोषणा की गई थी।
• 30 अप्रैल, 2018 को पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री सुश्री उमा भारती द्वारा हरियाणा के करनाल स्थित राष्ट्रीय डेयरी शोध संस्थान (NDRI) से गोबर धन (GOBAR Dhan) योजना का शुभारंभ किया गया।
• गोबर धन (Galvanizing Organic Bio-Agro Resources Dhan) योजना स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के तहत क्रियान्वित की जाएगी।
• इस योजना के तहत वर्ष 2018-19 में कुल 700 बायोगैस इकाईयां स्थापित की जाएंगी।
• योजना के तहत प्रत्येक जिले में कम-से-कम एक बायोगैस इकाई लगाने का प्रस्ताव है।
उद्देश्य
• गोबर धन योजना बहुआयामी उद्देश्य रखती है। इसके उद्देश्यों को 6 प्रमुख बिंदुओं में रखा जा सकता है-
(i) गांवों को बायो ऊर्जा उपलब्ध कराकर उन्हें स्वच्छ ऊर्जा में आत्मनिर्भर बनाना।
(ii) स्वच्छ एवं सस्ती ऊर्जा उपलब्धता के द्वारा ग्रामीण परिवारों का सशक्तीकरण करना।
(iii) बायोगैस संयंत्रों के निर्माण, प्रबंधन आदि कार्यों के माध्यम से गांवों में रोजगार के नए अवसरों का सृजन करना।
(iv) कृषि हेतु कार्बनिक उर्वरक प्रदान कर कृषि की धारणीयता एवं उत्पादकता में वृद्धि करना।
(v) कार्बनिक अपशिष्टों के उचित प्रबंधन द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता को प्रोत्साहित करना।
(vi) स्वच्छ परिवेश तथा स्वच्छ ईंधन के प्रयोग के माध्यम से अनेक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का समाधान करना।
• प्रमुख तथ्य
• गोबर धन योजना स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के ओडीएफ प्लस (खुले में शौच से मुक्ति से आगे) रणनीति का प्रमुख भाग है।
• इसके तहत प्रदान की जाने वाली वित्तीय सहायता केंद्र एवं राज्य के मध्य 60:40 के अनुपात में होगी।
• इस पर तकनीकी सहायता देने हेतु पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय तकनीकी सलाहकारी समिति (NTAC) का गठन किया जाएगा।
• लाभ
• योजना से गांवों में स्वच्छता बढ़ेगी जिससे पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या का समाधान होगा तथा अनेक बीमारियों जैसे मलेरिया, कॉलरा आदि रोगों के प्रभाव में कमी आएगी।
• रसोई तक स्वच्छ ईंधन की उपलब्धता से महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार के साथ-साथ महिलाओं का सशक्तीकरण भी होगा क्योंकि अब वे ईंधन इकट्ठा करने के समय को उत्पादक गतिविधियों में लगा सकेंगी।
• गोबर धन योजना बड़ी मात्रा में रोजगार के अवसरों का सृजन करेगी जिससे लोगों की आय में संवर्धन भी होगा।
• कृषि की दृष्टि से भी यह योजना काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे जहां एक ओर किसानों को महंगे रासायनिक खादों के विकल्प में सस्ती कार्बनिक खादें मिलेंगी वहीं दूसरी ओर कृषि की उत्पादकता तथा धारणीयता दोनों में सुधार होगा। इसका समग्र प्रभाव किसानों एवं कृषि आश्रित अन्य वर्गों की आय में वृद्धि के रूप में दिखेगा।
बायोगैस-———-
आम तौर पर इस पशुधन अपशिष्ट का उपयोग खाना पकाने के ईंधन (कंडा, उपले) के रूप में ग्रामीण परिवारों द्वारा किया जाता है, लेकिन अभी भी पशुधन अपशिष्ट को ग्रामीणों द्वारा पूर्ण रूप से उपयोग में नहीं लिया जा रहा है जिसकी वजह से अपशिष्ट का एक बहुत बड़ा हिस्सा व्यर्थ हो जाता है। जो कि बायोगैस संयंत्र द्वारा प्रभावी रूप से उपयोग में लाया जा सकता है। बायोगैस संयंत्र एक ऐसा संयंत्र है जो पशुधन अपशिष्ट का कुशलतापूर्वक प्रबंधन करता है ओर साथ ही साथ ग्रामीण भारत के लिए ऊर्जा का उत्पादन करता है। भारत सरकार गाँवों में बायोगैस प्लांट लगाने के लिए भारी अनुदान देती है।
गोबर गैस संयंत्र के लेने के लिए ग्रामीण के पास पांच से अधिक मवेशी होने चाहिए या 50 किलो गोबर की व्यवस्था होनी चाहिए। इसके अलावा 13 फीट की डोम सहित कुल 25 फीट की जगह होनी चाहिए जिसमें गोबर गैस संयंत्र बनाने के साथ-साथ खाद भी रखने की व्यवस्था हो सके।
हालांकि जानवरों के गोबर को बायो गैस प्लांट के लिए मुख्य कच्चा पदार्थ माना जाता है, लेकिन इसके अलावा पशुओं का मल, मुर्गियों की बीट और कृषि जन्य कचरे का भी इस्तेमाल किया जाता है। एक वर्ष में लगभग 10 टन जैविक खाद बायोगैस संयंत्र में गोबर गैस की पाचन क्रिया के बाद 25 प्रतिशत ठोस पदार्थ रूपान्तरण गैस के रूप में होता है और 75 प्रतिशत ठोस पदार्थ का रूपान्तरण खाद के रूप में होता हैं। जिसे बायोगैस स्लरी कहा जाता है। दो घनमीटर के बायोगैस संयंत्र में 50 किलोग्राम प्रतिदिन के हिसाब से 18.25 टन गोबर एक वर्ष में डाला जाता है। उस गोबर में 80 प्रतिशत नमी युक्त करीब 10 टन बायोगैस स्लेरी जैविक खाद प्राप्त होती है। ये खेती के लिये अति उत्तम खाद होती है। इसमें 1.5 से 2 प्रतिशत नाइट्रोजन, एक प्रतिशत फास्फोरस एवं एक प्रतिशत पोटाश होती हैं।
बायोगैस उत्पादन के फ़ायदा-——————-
इससे प्रदूषण नहीं होता है यानी यह पर्यावरण प्रिय है। बायोगैस उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे पदार्थ गांवों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इनसे सिर्फ बायोगैस का उत्पादन ही नहीं होता, बल्कि फसलों की उपज बढ़ाने के लिए समृद्ध खाद भी मिलता है। गाँवों के छोटे घरों में जहां लकड़ी और गोबर के गोयठे का जलावन के रूप में इस्तेमाल करने से धुएं की समस्या होती है, वहीं बायोगैस से ऐसी कोई समस्या नहीं होती।यह प्रदूषण को भी नियंत्रित रखता है, क्योंकि इसमें गोबर खुले में पड़े नहीं रहते, जिससे कीटाणु और मच्छर नहीं पनप पाते। बायोगैस के कारण लकड़ी की बचत होती है, जिससे पेड़ काटने की जरूरत नहीं पड़ती। इस प्रकार वृक्ष बचाए जा सकते हैं।
गोबर से केचुआ खाद का निर्माण
केंचुआ खाद (वर्मी कंपोस्ट) क्या है?
वैज्ञानिक तरीके से नियंत्रित दशाओं में केंचुओं के पालन वर्मी कल्चर कहलाता है| केंचुओं से विकसित पदार्थ को वर्मी कास्ट कहते हैं तथा अपघटनशील व्यर्थ कार्बनिक पदार्थों जैसे- भूसा, सूखी घास, पुआल, सब्जियों आदि को खिलाकर केंचुओं से प्राप्त विकसित पदार्थ वर्मी कंपोस्ट कहलाता है
वर्मीकम्पोस्ट बनाने की विधियाँ——–
सामान्य विधि (General method)
वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए इस विधि में क्षेत्र का आकार (area) आवश्यकतानुसार रखा जाता है किन्तु मध्यम वर्ग के किसानों के लिए 100 वर्गमीटर क्षेत्र पर्याप्त रहता है। अच्छी गुणवत्ता की केंचुआ खाद बनाने के लिए सीमेन्ट तथा इटों से पक्की क्यारियां (Vermi-beds) बनाई जाती हैं। प्रत्येक क्यारी की लम्बाई 3 मीटर, चौड़ाई 1 मीटर एवं ऊँचाई 30 से 50 सेमी0 रखते हैं। 100 वर्गमीटर क्षेत्र में इस प्रकार की लगभग 90 क्यारियां बनाइ र् जा सकती है। क्यारियों को तेज धूप व वर्षा से बचाने और केंचुओं के तीव्र प्रजनन के लिए अंधेरा रखने हेतु छप्पर और चारों ओर टटि्‌टयों से हरे नेट से ढकना अत्यन्त आवश्यक है।
क्यारियों को भरने के लिए पेड़-पौधों की पत्तियाँ घास,सब्जी व फलों के छिलके, गोबर आदि अपघटनशील कार्बनिक पदार्थों का चुनाव करते हैं। इन पदार्थों को क्यारियों में भरने से पहले ढ़रे बनाकर 15 से 20 दिन तक सड़ने के लिए रखा जाना आवश्यक है। सड़ने के लिए रखे गये कार्बनिक पदार्थों के मिश्रण में पानी छिड़क कर ढेऱ को छोड़ दिया जाता है। 15 से 20 दिन बाद कचरा अधगले रूप (Partially decomposed ) में आ जाता है। ऐसा कचरा केंचुओं के लिए बहुत ही अच्छा भोजन माना गया है। अधगले कचरे को क्यारियों में 50 से.मी. ऊँचाई तक भर दिया जाता है। कचरा भरने के 3-4 दिन बाद पत्तियों की क्यारी में केंचुऐं छोड़ दिए जाते हैं और पानी छिड़क कर प्रत्येक क्यारी को गीली बोरियो से ढक देते है। एक टन कचरे से 0.6 से 0.7 टन केंचुआ खाद प्राप्त हो जाती है।
चक्रीय चार हौद विधि (Four-pit method)
इस विधि में चुने गये स्थान पर 12’x12’x2.5’(लम्बाई x चौड़ाई x ऊँचाई) का गड्‌ढा बनाया जाता है। इस गड्‌ढे को ईंट की दीवारों से 4 बराबर भागों में बांट दिया जाता है। इस प्रकार कुल 4 क्यारियां बन जाती हैं। प्रत्येक क्यारी का आकार लगभग 5.5’ x 5.5’ x 2.5’ होता है। बीच की विभाजक दीवार मजबूती के लिए दो ईंटों (9 इंच) की बनाई जाती है। विभाजक दीवारों में समान दूरी पर हवा व केंचुओं के आने जाने के लिए छिद्र छोड़ जाते हैं। इस प्रकार की क्यारियों की संख्या आवश्यकतानुसार रखी जा सकती है।
इस विधि में प्रत्येक क्यारी को एक के बाद एक भरते हैं अर्थात पहले एक महीने तक पहला गड्‌ढा भरते हैं पूरा गड्‌ढा भर जाने के बाद पानी छिड़क कर काले पॉलीथिन से ढक देते हैं ताकि कचरे के विघटन की प्रक्रिया आरम्भ हो जाये। इसके बाद दूसरे गड्‌ढे में कचरा भरना आरम्भ कर देते हैं। दूसरे माह जब दूसरा गड्‌ढा भर जाता है तब ढक देते हैं और कचरा तीसरे गड्‌ढे में भरना आरम्भ कर देते हैं। इस समय तक पहले गड्‌ढे का कचरा अधगले रूप में आ जाता है। एक दो दिन बाद जब पहले गड्‌ढे में गर्मी (heat) कम हो जाती है तब उसमें लगभग 5 किग्रा0 (5000) केंचुए छोड़ देते हैं। इसके बाद गड्‌ढे को सूखी घास अथवा बोरियों से ढक देते हैं। कचरे में गीलापन बनाये रखने के लिए आवश्यकतानुसार पानी छिड़कते रहते है। इस प्रकार 3 माह बाद जब तीसरा गड्‌ढा कचरे से भर जाता है तब इसे भी पानी से भिगो कर ढक देते हैं और चौथे को गड्‌ढे में कचरा भरना आरम्भ कर देते हैं। धीरे-धीरे जब दूसरे गड्‌ढे की गर्मी कम हो जाती है तब उसमें पहले गड्‌ढे से केंचुए विभाजक दीवार में बने छिद्रों से अपने आप प्रवेश कर जाते हैं और उसमें भी केंचुआ खाद बनना आरम्भ हो जाती है। इस प्रकार चार माह में एक के बाद एक चारों गड्‌ढे भर जाते हैं। इस समय तक पहले गड्‌ढे में जिसे भरे हुए तीन माह हो चुके हैं केंचुआ खाद (वर्मीकम्पोस्ट) बनकर तैयार हो जाती है। इस गड्‌ढे के सारे केंचुए दूसरे एवं तीसरे गड्‌ढे में धीरे-धीरे बीच की दीवारों में बने छिद्रों द्वारा प्रवेश कर जाते हैं। अब पहले गड्‌ढे से खाद निकालने की प्रक्रिया आरम्भ की जा सकती है। खाद निकालने के बाद उसमें पुन: कचरा भरना आरम्भ कर देते हैं। इस विधि में एक वर्ष में प्रत्यके गड्‌ढे में एक बार में लगभग 10 कुन्तल कचरा भरा जाता है जिससे एक बार में 7 कुन्तल खाद (70 प्रतिशत) बनकर तैयार होती है। इस प्रकार एक वर्ष में चार गड्‌ढों से तीन चक्रों में कुल 84 कुन्तल खाद (4x3x7) प्राप्त होती है। इसके अलावा एक वर्ष में एक गड्‌ढे से 25 किग्रा0 और 4 गड्‌ढों से कुल 100 किग्रा0 केंचुए भी प्राप्त होते हैं।
केंचुआ खाद बनाने की चरणबद्ध विधि
केंचुआ खाद बनाने हेतु चरणबद्ध निम्न प्रक्रिया अपनाते हैं।
चरण-1
कार्बनिक अवशिष्ट/ कचरे में से पत्थर,काँच,प्लास्टिक, सिरेमिक तथा धातुओं को अलग करके कार्बनिक कचरे के बड़े ढ़ेलों को तोड़कर ढेर बनाया जाता है।
चरण–2
मोटे कार्बनिक अवशिष्टों जैसे पत्तियों का कूड़ा, पौधों के तने, गन्ने की भूसी/खोयी को 2-4 इन्च आकार के छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा जाता है। इससे खाद बनने में कम समय लगता है।
चरण–3
कचरे में से दुर्गन्ध हटाने तथा अवाँछित जीवों को खत्म करने के लिए कचरे को एक फुट मोटी सतह के रुप में फुलाकर धूप में सुखाया जाता है।
चरण–4
अवशिष्ट को गाय के गोबर में मिलाकर एक माह तक सड़ाने हेतु गड्डों में डाल दिया जाता है। उचित नमी बनाने हेतु रोज पानी का छिड़काव किया जाता है।
चरण–5
केंचुआ खाद बनाने के लिए सर्वप्रथम फर्श पर बालू की 1 इन्च मोटी पर्त बिछाकर उसके ऊपर 3-4 इन्च मोटाई में फसल का अवशिष्ट/मोटे पदार्थों की पर्त बिछाते हैं। पुन: इसके ऊपर चरण-4 से प्राप्त पदार्थों की 18 इन्च मोटी पर्त इस प्रकार बिछाते हैं कि इसकी चौड़ाई 40-45 इन्च बन जाती है। बेड की लम्बाई को छप्पर में उपलब्ध जगह के आधार पर रखते हैं। इस प्रकार 10 फिट लम्बाई की बेड में लगभग 500 कि.ग्रा. कार्बनिक अवशिष्ट समाहित हो जाता है। बेड को अर्धवृत्त प्रकार का रखते हैं जिससे केंचुए को घूमने के लिए पर्याप्त स्थान तथा बेड में हवा का प्रबंधन संभव हो सके। इस 17 प्रकार बेड बनाने के बाद उचित नमी बनाये रखने के लिए पानी का छिड़काव करते रहते है तत्पश्चात इसे 2-3 दिनों के लिए छोड़ देते हैं।
चरण–6
जब बेड के सभी भागों में तापमान सामान्य हो जाये तब इसमें लगभग 5000 केंचुए / 500 0ग्रा0 अवशिष्ट की दर से केंचुआ तथा कोकून का मिश्रण बेड की एक तरफ से इस प्रकार डालते हैं कि यह लम्बाई में एक तरफ से पूरे बेड तक पहुँच जाये।
चरण–7
सम्पूर्ण बेड को बारीक / कटे हुए अवशिष्ट की 3-4 इन्च मोटी पर्त से ढकते हैं, अनुकूल परिस्थितयों में केंचुए पूरे बेड पर अपने आप फलै जाते हैं। ज्यादातर केंचुए बेड में 2-3 इन्च गहराई पर रहकर कार्बनिक पदार्थों का भक्षण कर उत्सर्जन करते रहते हैं।
चरण–8
अनुकूल आर्द्रता, तापक्रम तथा हवामय परिस्थितयोंमें 25-30 दिनों के उपरान्त बडै की ऊपरी सतह पर 3-4 इन्च मोटी केंचुआ खाद एकत्र हो जाती हैं। इसे अलग करने के लिए बेड की बाहरी आवरण सतह को एक तरफ से हटाते हैं। ऐसा करने पर जब केंचुए बेड में गहराई में चले जाते हैं तब केंचुआ खाद को बडे से आसानी से अलग कर तत्पश्चात बेड को पुनः पूर्व की भाँति महीन कचरे से ढक कर पर्याप्त आर्द्रता बनाये रखने हेतु पानी का छिड़काव कर देते हैं।
चरण–9
लगभग 5-7 दिनों में केंचुआ खाद की 4-6 इन्च मोटी एक और पर्त तैयार हो जाती है। इसे भी पूर्व में चरण-8 की भाँति अलग कर लेते हैं तथा बेड में फिर पर्याप्त आर्द्रता बनाये रखने हेतु पानी का छिड़काव किया जाता है।
चरण–10
तदोपरान्त हर 5-7 दिनोंके अन्तराल में अनुकूल परिस्थतियों में पुन: केंचुआ खाद की 4-6 इन्च मोटी पर्त बनती है जिसे पूर्व में चरण-9 की भाँति अलग कर लिया जाता है। इस प्रकार 40-45 दिनोंमें लगभग 80-85 प्रतिशत केंचुआ खाद एकत्र कर ली जाती है।
चरण–11
अन्त में कुछ केचुआ खाद केंचुओं तथा केचुए के अण्डों (कोकूनद) सहित एक छोटे से ढेर के रुप में बच जाती है। इसे दूसरे चक्र में केचुए के संरोप के रुप में प्रयुक्त कर लेते हैं। इस प्रकार लगातार केंचुआखाद उत्पादन के लिए इस प्रि क्रया को दोहराते रहते हैं।
चरण–12
एकत्र की गयी केंचुआ खाद से केंचुए के अण्डों अव्यस्क केंचुओं तथा केंचुए द्वारा नहीं खाये गये पदार्थों को 3-4 से.मी. आकार की छलनी से छान कर अलग कर लेते हैं।
चरण–13
अतिरिक्त नमी हटाने के लिए छनी हुई केचुआ खाद को पक्के फर्श पर फैला देते हैं। तथा जब नमी लगभग 30-40 प्रतिशत तक रह जाती है तो इसे एकत्र कर लेते हैं।
चरण–14
केंचुआ खाद को प्लास्टिक/एच0 डी0 पी0 ई0 थैले में सील करके पैक किया जाता है ताकि इसमें नमी कम न हो।
वर्मीकम्पोस्ट बनाते समय ध्यान रखने योग्य बातें————–
कम समय में अच्छी गुणवत्ता वाली वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए निम्न बातोंपर विशेष ध्यान देना अति आवश्यक है ।
1. वर्मी बेडों में केंचुआ छोड़ने से पूर्व कच्चे माल (गोबर व आवश्यक कचराद्) का आंशिक विच्छेदन (Partial decomposition) जिसमें 15 से 20 दिन का समय लगता है करना अति आवश्यक है।
2. आंशिक विच्छेदन की पहचान के लिए ढेऱ में गहराई तक हाथ डालने पर गर्मीं महसूस नहीं होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में कचरे की नमीं की अवस्था में पलटाई करने से आंशिक विच्छेदन हो जाता है।
3. वर्मी बेडों में भरे गये कचरे में कम्पोस्ट तैयार होने तक 30 से 40 प्रतिशतनमी बनाये रखें। कचरें में नमीं कम या अधिक होने पर केंचुए ठीक तरह से कार्य नही करतें।
4. वर्मीवेडों में कचरे का तापमान 20 से 27 डिग्री सेल्सियस रहना अत्यन्त आवश्यक है। वर्मीबेडों पर तेज धूप न पड़ने दें। तेज धूप पड़ने से कचरे का तापमान अधिक हो जाता है परिणामस्वरूप केंचुए तली में चले जाते हैं अथवा अक्रियाशील रह कर अन्ततः मर जाते हैं।
5. वर्मीबेड में ताजे गोबर का उपयोग कदापि न करें। ताजे गोबर में गर्मी (Heat) अधिक होने के कारण केंचुए मर जाते हैं अतः उपयोग से पहले ताजे गोबर को 4व 5 दिन तक ठण्डा अवश्य होने दें।
6. केंचुआखाद तैयार करने हेतु कार्बि नक कचरे में गोबर की मात्रा कम से कम 20 प्रतिशत अवश्य होनी चाहिए।
7. कांग्रेस घास को फूल आने से पूर्व गाय के गोबर में मिला कर कार्बनिकपदार्थ के रूप में आंशिक विच्छेदन कर प्रयोग करने से अच्छी केंचुआ खाद प्राप्त होती है।
8. कचरे का पी. एच. उदासीन (7.0 के आसपास) रहने पर केंचुए तेजी से कार्य करते हैं अतः वर्मीकम्पोस्टिंग के दौरान कचरे का पी. एच. उदासीन बनाये रखे। इसके लिए कचरा भरते समय उसमें राख (ash) अवश्य मिलाएं।
9. केंचुआ खाद बनाने के दौरान किसी भी तरह के कीटनाशकों का उपयोग न करें।
10. खाद की पलटाई या तैयार कम्पोस्ट को एकत्र करते समय खुरपी या फावडे़ का प्रयोग कदापि न करें।
वर्मी कंपोस्ट के लाभ————
• केंचुवे खाद के प्रयोग से सिंचाई में बचत होती है|
• लगातार रासायनिक खादों के प्रयोग से कम होती जा रही मृदा की उपजाऊ शक्ति को वर्मी कंपोस्ट का प्रयोग कर बढ़ाया जा सकता है| वर्मी कंपोस्ट के प्रयोग से फल सब्जियों व अनाज की गुणवत्ता में सुधार आता है जिससे किसान को उपज का बेहतर मूल्य मिलता है|
• केंचुवे खाद में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवाणु हारमोंस व हर्मिक एसिड्स मृदा का पी.एच. को सन्तुलित करते हैं|
• वर्मी कंपोस्ट मृदा में सूक्ष्म जीवाणुओं को सक्रिय कर पौधों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले पोषक तत्त्व पौधों को उपलब्ध करवाता है| जससे फसल उत्पादन में वृद्धि होती हैं|
• उपभोक्ताओं को पौष्टिक भोजन की प्राप्ति होती है|
• ग्रामीण क्षेत्रों में वर्मी कंपोस्ट के उत्पादन से रोजगार की संभावनाएं उपलब्ध हो सकेगी|
• वर्मी कंपोस्ट के प्रयोग से रासायनिक खाद की मांग में कमी आयेगी जो राष्ट्र के अर्थ तंत्र को सुदृढ़ बनाने में सहायक होगी|
• वर्मी कंपोस्ट के उपयोग से हानिकारक रासायनिक खादों व कीटनाशक दवाओं पर नि: संदेश अंकुश लग सकेगा जिससे प्रदूषण में भी कमी आयेगी|
• 90-100 दिन में अच्छी गुणवत्ता वाली खाद तैयार हो जाती है|
गोबर व गोमूत्र का आर्थिक महत्त्व-
वेद, पुराणों में गाय-
लक्ष्मीश्च गोमय नित्यं पवित्रा सर्वमड्ग
गोमयालेपनं तस्मात् कर्तव्यं पाण्डुनन्दन।।
गाय के गोबर में परम पवित्र सर्वमंगलमयी श्री लक्ष्मी जी नित्यनिवास करती है, इसिलिए गोबर से लेपन करना चाहिए । गोबर गणेश की प्रथम पुजा होती है और वह शुभ होता है । मांगलिक अवसरों पर गाय के गोबर का प्रयोग सर्वविदित है। जलावन एंव जैविक खाद आदि के रूप में गाय के गोबर की श्रेष्ठता जगत प्रसिद्ध है । गोमय गाय के गोबर रस को कहते है ।यह कसैला एंव कड़वा होता है तथा कफजन्य रोगों में प्रभावशाली है । गोबर में बारीक सुती कपड़े को गोबर को दबाकर छोड दे थोड़ी देर बाद इस कपड़े को निचोड़कर गोमय प्राप्त कर सकते है ।इससे अनेक त्वचा रोगों में स्नान करते है ,मुहासे दूर करके चेहरे की कान्ति बनाये रखता है ,गोमय के साथ गेरू तथा मूलतानी मिट्टी व नीम के पत्तों को मिलाकर नहाने का साबुन बनाया जाते है यह चेहरे की झुरियाँ दूर करता है ।
अग्रंमग्रं चरंतीना, औषधिना रसवने।
गोमयालेपनं तस्मात् कर्तव्यं पाण्डुनन्दन।।
यन्मे रोगांश्चशोकांश्च, पांप में हर गोमय।
वन में अनेक औषधि के रस का भक्षण करने वाली गाय, उसका पवित्र और शरीर शोधन करने वाला गोबर। तुम मेरे रोग और मानसिक शोक और ताप का नाश करो।
गाय को भारत में ‘माता’ का स्थान प्राप्त है। भारत के कई प्राचीन ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर पढ़ने को मिलता है कि ‘गोबर में लक्ष्मीजी का वास होता है’। यह कथन मात्र ‘शास्त्र’ वचन नहीं है यह एक वैज्ञानिक सत्य है।
इस यथार्थ के महत्त्व को समझते हुए भारतीय वैज्ञानिकों ने 1953-54 में विकसित प्रथम बायोगैस संयन्त्र का नामकरण ‘ग्राम लक्ष्मी’ रखा था, जिसे अन्तरराष्ट्रीय ख्याति भी मिली थी।
वास्तविकता यह है कि भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के रचनाकार स्वयं में महान दूरदर्शी वैज्ञानिक थे। अपने ज्ञान के आधार पर उन्होंने सामान्य व साधारण नियम-कानून एक धार्मिक क्रिया के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत किये ताकि मानव समाज पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनके वैज्ञानिक ज्ञान व अनुभवों का लाभ उठते हुए प्राकृतिक पर्यावरण को बिना हानि पहुँचाए एक स्वस्थ जीवन बिता सके।
भारत में आज भी गोबर को शुद्ध मानते हुए धार्मिक अनुष्ठानों व पूजा-अर्चना के समय उसका उपयोग किया जाता है जैसे पूजास्थल लीपने, दीप स्थापन, पंचामृत बनाने आदि के लिये। इसके अलावा सभी भारतीय ग्रामीण घरों को नियमित रूप में गोबर से लीपने की प्रथा आज भी सर्वत्र विद्यमान है।
कुछ दशक पूर्व तक प्रायः सभी भारतीय घरों में ‘गोमूत्र’ सम्भाल कर रखने की परम्परा थी जिसका उपयोग औषधीय गुणों से युक्त होने के कारण शुद्धिकरण (अर्थात रोगाणुनाशी क्षमता) के लिये किया जाता था- रजस्वला स्त्री की छूत से बचने के लिये, जो निरोधा (क्वारनटीन) नियम का पालन करते हुए घर के एक विशिष्ट भाग में उस दौरान अलग रहती थीं; नवजात शिशु की माता को पिलाने के लिये आदि।
आधुनिक बनने व दिखने की दौड़ में इन परम्पराओं के पीछे छिपे वैज्ञानिक पक्ष से अनभिज्ञ होने के फलस्वरूप इन्हें अंधविश्वास की संज्ञा प्राप्त हो चुकी है, जिसे निर्मूल करना आर्थिक विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक है।
भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में गोबर व गोमूत्र सर्वत्र सहजता से मिलने वाला पदार्थ है। इन दोनों को समुचित व्यवहारिक उपयोग में लाने की कई सरल व प्राचीन ग्रामीण प्रौद्योगिकियाँ भारत में उपलब्ध हैं जिनके माध्यम से कृषि संवर्धन व स्वास्थ्य संरक्षण क्षेत्र में भरपूर लाभ उठाने के साथ-साथ गैस व बिजली जैसे अधिक तापक्षमता युक्त आधुनिक ईंधनों का उत्पादन कर स्थानीय ऊर्जा माँग के एक बड़े भाग की पूर्ति की जा सकती है।
पिछले कुछ वर्षों में भारत में कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने गोबर व गोमूत्र आधारित कृषि व रोग उपचारक पद्धतियों को अपनाकर सभी का ध्यान इनके अधिकाधिक उपयोग की ओर आकृष्ट किया है। इनमें से कुछ संस्थाएँ हैं श्राफ फाउंडेशन, कच्छ; अखिल भारतीय कृषि गौ सेवा संघ, गौपुरी, वर्धा एवं दीनदयाल शोध संस्थान चित्रकूट।
सूक्ष्मदर्शक यंत्र से देखने पर ज्ञात होता है कि गाय के एक ग्राम गोबर में 100 करोड़ से लेकर 1000 करोड़ विविध क्षमतायुक्त सूक्ष्म जीवाणु विद्यमान होते हैं। वास्तविक परीक्षणों से यह देखने में आता है कि कैसा भी गंदा/विषाक्त कचरा क्यों न हो, गोबर में समाये सूक्ष्म जीवाणु उसे ठीक कर देते हैं।
एक टन कचरे में 10 किलोग्राम गोबर मिलाने पर ये सूक्ष्म जीवाणु सक्रिय होकर कुछ ही दिनों में सजीव खेती के लिये उत्तम खाद तैयार कर देते हैं।
मुम्बई में आयोजित (1997) भारतीय जनता पार्टी के सम्मेलन स्थल पर ‘श्राफ फाउंडेशन’ ने मानव मल-मूत्र सफाई का कार्य किया था। यह कार्य पर्यावरण समकक्ष विधि से करने के लिये उन्होंने मल के साथ गोबर और राक फास्फेट मिलाया जिसके फलस्वरूप 15 मिनटों में दुर्गंध समाप्त होने के अलावा मच्छर व मक्खी की समस्या से छुटकारा भी मिला।
फिर 15 दिनों के भीतर सम्पूर्ण मल-मूत्र एक अमूल्य खाद में परिवर्तित हो गया जिसे अब ‘सोन खाद’ के नाम से जाना जाता है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग है परती भूमि सुधार। इस महत्त्व को समझते हुए श्राफ फाउंडेशन ने दुर्गंध रहित पखाने व सूखे संडासों की डिजाइन विकसित की है और इसके प्रचार के लिये कच्छ के कई ग्रामों में इनका निर्माण भी किया है।
श्राफ फाउंडेशन, अखिल भारतीय कृषि गौ सेवा संघ और कई अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा किये गए वास्तविक परीक्षणों से स्पष्ट है कि एक गाय अथवा बैल एक हेक्टेयर भूमि-सुधार के लिये पर्याप्त हैं।
इस प्रकार भारत में 14.2 करोड़ कृषि भूमि के लिये गाय/बैलों की संख्या की दृष्टि से भारत एक समृद्ध देश है (1992 की गणना में 28.87 करोड़)। इसलिये गोबर-गोमूत्र आधारित कृषि प्रचार भारत में लाभदायक सिद्ध होगा।
परीक्षणों से ज्ञात होने लगा है कि जिस कृषिभूमि को गोबर व गोमूत्र प्राप्त होता है, उसमें समाये सूक्ष्म जीवाणु अपनी सक्रियता से फसल को नुकसान पहुँचाने वाले अन्य जीवाणुओं पर अंकुश लगा देते हैं।
उदाहरण के लिये कपास की खेती में इस प्रयोग से यह देखने में आया है कि रासायनिक खाद के विपरीत गोबर-गोमूत्र खाद उपयोग करने पर हानिकारक कीटाणुओं की रोकथाम के साथ-साथ फसल उत्पादन में गुणात्मक वृद्धि होती है- अर्थात अधिक लंबे, मजबूत व सुंदर कपास के रेशे इस कृषि विधि को अपना कर प्राप्त किये जा सकते हैं और फसल उत्पादन भी बढ़ता है।
यद्यपि गोबर व गोमूत्र से खाद और कीटनाशक निर्माण की कई विधियाँ उपलब्ध हैं, कुछ सरल विधियाँ इस प्रकार हैं-
1. एक माटी के मटके में 15 किलोग्राम गोबर, 15 लीटर गोमूत्र और 15 लीटर पानी तथा एक किलोग्राम गुड़ डालकर मटके का मुख सील कर दें। 10 दिनों के पश्चात इस खाद में 5 गुना पानी मिलाकर खेत में नालियों के माध्यम से एक एकड़ भूमि में छोड़ दें। इस खाद का चार बार उपयोग करने पर रासायनिक खाद की आवश्यकता नहीं रहेगी। प्रथम उपचार बुआई पूर्व, तत्पश्चात बुआई के 10 दिन बाद और फिर 15-20 दिनों के अन्तर पर दो बार करना आवश्यक है।
2. एक भारतीय गाय से औसतन 10 कि.ग्रा. गोबर और 17 लीटर गोमूत्र प्रतिदिन प्राप्त होता है। इन्हें शहरी कचरे व मिट्टी के साथ घोलकर एक 3×2×1 मीटर गड्ढे में 75 से 100 दिन दबाकर रखने पर ‘नेडेप’ कम्पोस्ट खाद प्राप्त होती है।
3. गोमूत्र में 10 गुना पानी मिलाकर उसका छिड़काव प्रति सप्ताह फसलों पर करने से सभी फसलें स्वस्थ व हानिकारक कीटाणुओं से सुरक्षित रहती हैं।
4. फसल उगने के पश्चात जब अच्छी तरह बढ़ने लगती (पत्ते व टहनियाँ निकलने पर) है, तब एक लीटर गोमूत्र में 20 लीटर पानी मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। फिर पौध विकसित होने पर फूल निकलने के पूर्व एक लीटर गोमूत्र में 15 लीटर पानी मिलाकर छिड़काव और इस प्रकार तीन बार किये छिड़काव से पेड़-पौधों का अच्छा विकास होता है, कई बीमारियों पर रोक लगती है और पेड़-पौधों को आवश्यकतानुसार पौष्टिक द्रव्य/खनिज प्राप्त होते हैं। इसका प्रयोग गेहूँ सीताफल, प्याज, बैंगन पत्तावर्गीय साग-सब्जियों, केला, आम आदि में करने पर अच्छे परिणाम मिले हैं। गोमूत्र के दो छिड़कावों के बीच या साथ में नीम पत्ती का अर्क या पूरी रात भीगी नीम-खली के पानी को छानकर, बीस गुना पानी के साथ मिलाकर छिड़काव करने से बीमारियों की रोकथाम की जा सकती है।
5. बीज बोने के पहले उनका गोमूत्र से शोधन करना लाभकारी होता है।
रासायनिक गुण एवं उपचार क्षमता
इसमें कार्बोलिक एसिड होता है जो कीटाणुनाशक है। इस गुण की जानकारी के फलस्वरूप ही भारतीय मनीषियों ने गोमूत्र का शुद्धिकरण के लिये उपयोग करने की सामान्य प्रथा भारत में स्थापित की जो आज भी भारतीय जन-मानस में गहराई से पैठी है।
वैज्ञानिक जाँच करने पर ज्ञात होता है कि गोमूत्र में नाइट्रोजन, फास्फेट, यूरिक एसिड, सोडियम, पोटेशियम और यूरिया होता है। फिर जिन दिनों गाय दूध देती है, उसके मूत्र में लैक्टोस रहता है जो हृदय और मस्तिष्क विकारों को दूर करने में उपयोगी होता है।
गोमूत्र सेवन के लिये जो गाय चुनी जाए वह निरोगी व जवान होनी चाहिए। जंगल क्षेत्र व चट्टानीय इलाकों में प्राकृतिक वनस्पतियाँ चरने वाली गाय का मूत्र सेवन के लिये सर्वोत्तम होता है।
लेकिन भारत में गोमूत्र के चमत्कारिक वैज्ञानिक गुणों का ज्ञान कुछ सीमित-सा है। इस क्षेत्र में कार्यरत भारतीय विशेषज्ञों का मानना है कि पेट के रोगों के लिये गोमूत्र रामबाण है।
वर्तमान में 30 भारतीय गौशालाओं में गोमूत्र के आधार पर 100 से अधिक रोगों (कब्ज, एसिडिटी, डायबिटीज, ल्यूकोडर्मा, गले का कैंसर, चर्म रोग, पीलिया, प्रसव पीड़ा, दांत दर्द, आँख की कमजोरी आदि) के इलाज की दवाए बन रही हैं। इनमें से कई गौशालाएँ तो अपना पूरा खर्च केवल गोमूत्र-आधारित औषधियों के निर्माण से निकाल रही हैं।
एक सुलभ व सस्ता विकल्प होने के कारण हम गोमूत्र को दवा मानने को तैयार नहीं हैं। इस भावना को प्रचार के माध्यम से निर्मूलकर इसके सर्वसाधारण उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
मुम्बई के प्रसिद्ध एक्सेल उद्योग समूह के मालिक व श्राफ फाउंडेशन के अध्यक्ष श्री कांतिसेन श्राफ को सही मायने में एक वैज्ञानिक उद्योगपति कहा जा सकता है। उन्होंने अपने जन्म क्षेत्र ‘कच्छ’ को ग्राम विकास के लिये चुना।
इस विकास कार्यक्रम के लिये उन्होंने एक बंजर भूमि के टुकड़े को मांडवी जिले में एक आदर्श रूप में 20 वर्ष पूर्व चुना, जिसका उद्देश्य था सूखाग्रस्त जमीन को उपजाऊ बनाना। कार्य का श्रीगणेश उन्होंने गौ-पालन से किया जिसने 3 साल में ही अपना चमत्कार दिखाना आरम्भ कर दिया।
गोबर व गोमूत्र के संयोग से वह बंजर भूमि उर्वर बनने लगी और गौशाला पशु खाद में स्वावलंबी हो गई। इसके पश्चात उन्होंने स्थानीय उपलब्ध बायोमास (पागल बबूल के बीज, बाजरे के डंठल, भूसे आदि) को गोबर व गोमूत्र के साथ मिलाकर कार्बनिक खाद निर्माण कार्यक्रम आरम्भ किया।
इस खाद के प्रयोग से जैविक कृषि उत्पादों का उत्पादन बढ़ा व रसायनिक उर्वरकों की आवश्यकता समाप्त हो गई। साथ ही उन्होंने भूजल भंडारों के पुनर्निर्माण व उनकी क्षमता वृद्धि के लिये परम्परागत भारतीय तरीकों के साथ-साथ इसराइल में विकसित आधुनिक जल-सम्भर कौशल तकनीक को वास्तविक रूप में अंजाम दिया।
फलस्वरूप वहाँ का भूजल-स्तर 100 मीटर से उठकर 15.20 मीटर गहराई पर आ गया। इसका एक अन्य लाभ यह हुआ कि भूजल स्तर ऊँचा उठने से खारा पानी स्वतः मीठे पानी के नीचे रह गया।
इस योजना को कच्छ में बड़े पैमाने पर लागू किया गया। कच्छ में 900 गाँव हैं और उनमें से 300 गाँवों में इस प्रकार के जलसंग्रहण कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं और अब इसने आन्दोलन का रूप ले लिया है।
इस संसार में जीवित रहने व विकास के लिये भोजन द्वारा ऊर्जा प्राप्त करना सभी जीवन स्वरूपों की नियति है। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ खाद्य पदार्थों की माँग लगातार बढ़ रही है और कृषि उत्पादन बढ़ाने के प्रयास में रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग बढ़ रहा है जिसके फलस्वरूप खाद्य शृंखला (भूमि, अनाज, फल-फूल, अंडे, दूध, पानी सभी) में अवांछनीय एवं हानिकारक खनिज समाने लगे हैं।
यह तथ्य अब प्रमाणित हो चुका है कि रासायनिक खाद/पेस्टीसाइड्स के लगातार उपयोग से मिट्टी में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध खनिज लवणों की कमी होने लगती है। उदाहरण के लिये नाइट्रोजन खाद के उपयोग से भूमि में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पोटेशियम की कमी होने लगती है।
इस कमी को दूर करने के लिये जब पोटाश प्रयोग में लाते हैं तो फसल में एस्कोरलिक एसिड (विटामिन सी) और कैरोटीन की कमी हो जाती है। नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश उर्वरक से सिंचित भूमि में उगाये गए गेहूँ व मकई में प्रोटीन की मात्रा 20 से 25 प्रतिशत कम होती है। इन माइक्रो अवयवों की कमी के चलते पेड़-पौधों की रोग प्रतिरोध क्षमता काफी घट जाती है। फिर ये खाद्य पदार्थ स्वास्थ्यवर्धक भी नहीं रह पाते।
रासायनिक दवाओं व खाद के कारण एक अन्य गम्भीर समस्या उभरने लगी है, वह है भूजल का प्रदूषण। गौरतलब है कि इसके उपचार के लिये अभी तक कोई विधि विकसित नहीं हुई है, जिसके माध्यम से भूमिगत जल में समाये रासायनिक जहर से मुक्ति प्राप्त कर मीठा जल उपलब्ध हो सके। याद रहे, अब पृथ्वी में पेयजल की आपूर्ति का एकमात्र सहारा भूमिगत जल ही बचा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट (1998) के अनुसार पेस्टीसाइड विष के कारण विश्व भर में 20,000 मौतें प्रतिवर्ष होती हैं और विकासशील देशों के लगभग 2.5 करोड़ कृषि श्रमिक इनके विष से प्रभावित होते हैं डी.डी.टी., क्लोरडेन, हेप्टाक्लर आदि जैसे आर्गेनिक्लोरीन पेस्टीसाइड्स व अन्य विशिष्ट रासायनिक तत्वों के कारण जीव-जन्तुओं (मानव भी शामिल) में प्रजनक असामान्यताएँ प्रकट होने लगी हैं और कैंसर जैसी बीमारियों में वृद्धि होने लगी हैं।
जैसे-जैसे इस विषय पर अधिक जानकारी प्राप्त हो रही है, कई देशों में रोग वृद्धि करने वाले पेस्टीसाइड्स का उपयोग नियन्त्रित-स्तर पर रखने व सम्पूर्ण निषेध के कानून बनाये जाने लगे हैं और इनके विकल्प के रूप में प्राकृतिक कृषि संवर्धन स्रोतों के उपयोग को बढ़ावा दिया जाने लगा है।
कार्बनिक खाद व प्राकृतिक कीटनाशकों (नीम, तुलसी, गुलदावरी, गेंदा आदि) का महत्त्व समझ आने पर ‘केमिकल फ्री फूड’ उत्पादन व उपभोग की ओर सबका ध्यान आकृष्ट होने लगा है व इनका बाजार मूल्य ज्यादा होने पर भी इनकी माँग बढ़ती जा रही है।
लेकिन गोबर-गोमूत्र पर आधारित प्राचीन भारतीय कृषि पद्धतियों को विश्व-स्तर की मान्यता दिलाने के लिये भारतीय वैज्ञानिकों को इस विषय पर वैज्ञानिक शोध द्वारा उन्हें आधुनिक मापदंडों के अनुरूप परखी हुई विधि के रूप में प्रस्तुत करना होगा अन्यथा नीम, हल्दी, बासमती चावल आदि के समान विदेशी कम्पनियाँ इनका भी पेटेंट प्राप्त कर लाभ उठाने का प्रयास कर सकती हैं।
भारतीय गौशालाओं में कार्यरत विशेषज्ञों के अनुसार स्वदेशी नस्लों (भारतीय मूल) की गाय के गोबर व मूत्र में जो औषधीय गुण होते हैं, वे विदेशी तथा संकर नस्ल की गायों के गोबर व गोमूत्र में नहीं होते। इसके पीछे यह तथ्य हो सकता है कि विदेशी व संकर गायें बहुत अधिक दूध देने वाली होती हैं और उन्हें दाना भी अधिक दिया जाता है।
अधिक दाना खाने के कारण उनके गोबर व मूत्र में ऐसे औषधीय गुण नहीं होते जैसे कि भारतीय देशी गाय के गोबर व गोमूत्र में होते हैं क्योंकि अधिकतर भारतीय देशी गायें मैदानों व जंगलों में चरती हैं, जहाँ उन्हें कई जड़ी-बूटियाँ खाने को मिलती हैं इसलिये उनके गोबर व मूत्र में अधिक औषधीय गुण समाये होते हैं।
इस तथ्य की पुष्टि के लिये कई अन्य विशेषज्ञों से चर्चा करने पर लेखक को ज्ञात हुआ कि भारतीय व विदेशी मूल की गायों के गोबर व गोमूत्र के रासायनिक गुणों में इस असामान्यता को आधुनिक वैज्ञानिक मापदंडों के अनुरूप विश्लेषण कर प्रस्तुत करने की दिशा में कोई व्यवस्थित प्रयास भारत में नहीं किये गए हैं।
भारतीय बैलों के कंधों में कूबड़ होना व विदेशी बैलों का कूबड़ रहित होना, एक ऐसा भौतिक अन्तर है, जो स्पष्ट दिखाई देता है। भारतीय बैलों में कूबड़ विद्यमान होने के कारण ही उनका सहज उपयोग कृषि के लिये हल चलाने व बैलगाड़ियों को खींचने में सम्भव हो सका है। इसी प्रकार का एक भिन्न अन्तर, केरल के वैकोम क्षेत्र में पाई जाने वाली लुप्तप्राय भारतीय प्रजाति ‘वेचूर’ गाय के दूध में दिखाई पड़ता है।
दुनिया की सबसे छोटी गाय में इसकी गिनती की जाती है। 67 सेन्टीमीटर ऊँची व मोटाई 124 सेन्टीमीटर। वेचुर गाय की विशेषता है कि उनके खाने का खर्च कम और दूध की मात्रा अधिक होने के साथ-साथ उसका दूध अधिक चर्बी-युक्त होना-6.02 से 7.86 प्रतिशत। इसके विपरीत यूरोप की सर्वाधिक दूध देने वाली गौ-प्रजाति के दूध में चर्बी की मात्रा 3.5 से 4.5 प्रतिशत ही होती है। इसके अलावा वेचुर गाय के दूध में दवा के गुण भी पाये गए हैं।
र्यावरण विशेषज्ञ वंदना शिवा के अनुसार वेचुर गाय के उल्लिखित गुणों का लाभ उठाने के लिये रोइलीन-इंस्टीट्यूट (क्लोनिंग द्वारा विश्व में प्रथम मेड़ ‘डाली’ के निर्माता) ने इस भारतीय गौ-प्रजाति का पेटेन्ट प्राप्त करने के प्रयास आरम्भ कर दिये हैं।
यद्यपि इस गाय पर जेनेटिक शोध कार्य त्रिचुर के पास मन्नूथी स्थित केरल विद्यापीठ में किया जा रहा है लेकिन भारतीय शोध के परिणामों की जानकारी विदेशों में चोर रास्ते पहुँच जाने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।
वेचूर गाय के जनुक का उपयोग कर विदेशी कम्पनी अन्तरराष्ट्रीय बाजार में करोड़ों डाॅलर कमाने का स्वप्न देख रही है, जिसमें अन्तरराष्ट्रीय व्यापार नियमों के अन्तर्गत भौगोलिक उपलब्धता के अनुसार भारत का एकमात्र अधिकार होना चाहिए। अब यह अधिकार स्थापित करना भारतीय वैज्ञानिकों के हाथ में है।
स्वदेशी व विदेशी गोधन के उल्लिखित गुणों की चर्चा से यह समझ आता है कि दोनों नस्लों के जेनेटिक प्रोफाइल/जनुकों में अन्तर अवश्य है, जिसके कारण उनके उपोत्पादों (गोबर, मूत्र, दूध) के गुणों में भी अन्तर दिखाई पड़ता है।
इन गुणों के आधार पर भारतीय गोधन का पलड़ा भारी प्रतीत होता है। लेकिन इसकी स्पष्ट वैज्ञानिक व्याख्या भारतीय वैज्ञानिकों को प्रस्तुत करनी होगी ताकि गोबर व गोमूत्र-आधारित कृषि और औषध की प्राचीन भारतीय पद्धतियों को अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हो।
इस क्षेत्र में वर्चस्व स्थापित कर लेने पर भारत को कई आर्थिक लाभ स्वतः प्राप्त होने लगेंगे। कृषि उत्पादन बढ़ने के साथ-साथ बायोमास प्रजनन में वृद्धि होगी, जो एक अक्षय ऊर्जा स्रोत है व जिसके माध्यम से अधिक ताप क्षमता की ईंधन (गैस व बिजली) उत्पादन तकनीकों के विकास व उपयोग में भारत एक अग्रणी देश बन चुका है।
गोबर व गोमूत्र आधारित कृषि तकनीक का बड़े पैमाने पर उपयोग करने से स्वास्थ्यवर्धक कृषि उत्पादन बढ़ेगा व कई रोगों के फैलने को रोका जा सकेगा और भूजल भी प्रदूषित नहीं होगा। रासायनिक खाद/कीटनाशकों की आवश्यकता न होने पर उनके लिये कल-कारखानों के निर्माण व रख-रखाव खर्च की बचत होगी, उदाहरण के लिये 1 टन यूरिया निर्माण के लिये 5 टन कोयला दहन करना पड़ता है।
इस प्रकार की बचत का उपयोग अन्य विकास कार्यक्रमों में करना सम्भव होगा। फिर गोमूत्र आधारित सस्ती दवाईयाँ उपयोग करने पर महंगी एलोपैथी दवाओं से छुटकारा मिलेगा जिनके सेवन से कई बार दूसरे विकार उभरने लगते हैं।
अब समय आ गया है कि हम गोबर व गोमूत्र के महत्त्व को गम्भीरता से समझने का प्रयास कर, उसको अधिक-से-अधिक उपयोग में लाएँ। भारतीय वैज्ञानिकों को इस ओर ध्यान देना चाहिए क्योंकि ये ही प्राचीन मान्यता प्राप्त प्राकृतिक स्रोत भारत को एक बार फिर से सोने की चिड़ियाँ बना सकते हैं।
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