प्राणीरूजा रोग: स्वस्थ भविष्य के लिए आवश्यक है जागरूकता

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ZOONOSES

प्राणीरूजा रोग: स्वस्थ भविष्य के लिए आवश्यक है जागरूकता

 

के.एल. दहिया1 एवं आभा

1पशु चिकित्सक, पशुपालन एवं डेयरी विभाग, हरियाणाविद्यार्थी2दरहुड आयुर्वेद चिकित्सा महाविद्यालयरूड़की – उतराखण्ड

सार

प्राणीरूजा रोग ऐसे रोग और संक्रमण जो कशेरूकी पशुओं (पालतू एवं वन्य जीवों) और मनुष्यों के बीच संचरित होते हैं और समय-समय पर मनुष्यों बहुत बड़े पैमाने पर संक्रमण और मृत्यु का कारक बनते हैं। प्रतिवर्ष विश्वभर में 6 जुलाई को लुई पाश्चर के रेबीज रोग को नियंत्रित करने के लिए प्रथम टीकाकरण के कार्य को याद करने और अब प्राणीरूजा रोगों के प्रति सामान्य जन को जागरूक करने के लिए विश्व प्राणीरूजा रोग दिवस मनाया जाता है। इन प्राणीरूजा रोगों को नियंत्रित करने के लिए आमजन में जागरूकता की अहम् भूमिका सिद्ध हो सकती है।

https://www.pashudhanpraharee.com/zoonotic-diseases-why-it-is-important-for-us-to-know/

परिचय

आदिकाल से ही मानव का पशुओं के साथ घनिष्ठ संबंध रहा है। वह एक-दूसरे के पूरक व परिपूरक रहे हैं। प्रारंभ में मानव उनका शिकार भोजन के लिए करता था और उनके चमड़े को वस्त्र की तरह उपयोग करता था लेकिन समय बीतने के साथ-साथ मानव ने उनको भोजन और वस्त्र के अतिरिक्त साथी, परिवहन, और शक्ति के रूप में उपयोग करने के लिए पालतू बनाया। आज के इस आधुनिक यान्त्रिक युग में भी मानव पशुओं का उपयोग दैनिक जीवन की बहुत सी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पशुओं पर ही निर्भर है।

जैसा कि आदिकाल से ही मानव और पशुओं का चोली-दामन का साथ रहा है, तो ऐसी परिस्थिति में कुछ रोग भी उनमें एक जैसे रहे हैं। उदाहरण के रूप में रेबीज, तपेदिक रोग, ब्रुसेलोसिस, साल्मोनेलोसिस, टीनीऐसिस ऐसे रोग हैं जो मानव और पशुओं, दोनों में ही पाये जाते हैं। ये रोग पशुओं से मनुष्यों और मनुष्यों से पशुओं में फैलते आये हैं। ऐसे रोगों को जूनोटिक अर्थात प्राणीरूजा रोग कहा जाता है। जूनोसिस शब्द व्युत्पत्ति संबंधी रूप से सटीक और जैविक रूप से योग्य विचार है और आमतौर यह माना जाता है कि यह उपयोगी शब्द है क्योंकि यह मानव चिकित्सा और पशु चिकित्सा पेशेवरों के लिए पालतू एवं जंगली पशुओं दोनों से होने वाली बीमारियों की महामारी ज्ञान का पता लगाने के लिए सामान्य आधार बनता है और उनके लिए रोग नियंत्रण तकनीक तैयार करता है (WHO 1967)।

जूनोटिक शब्द का उपयोग सर्वप्रथम रूडोल्फ विर्चोव ने 1880 में किया था। जूनोसिस शब्द का उद्भव ग्रीक भाषा के ‘जून’ (Zoon) अर्थात पशु और नोसेज (Noses) अर्थात रोग, शब्दों से हुआ है, जूनोसिस का अर्थ ऐसे रोग जो पशुओं से मनुष्यों में फैलते हैं। प्रारंभ में ऐसे रोगों को ‘एंथ्रोपोजूनोसिस’ कहा जाता था और जो रोग मनुष्यों से पशुओं में फैलते थे, उनको ‘जूएंथ्रोपोजूनोसिस’ (रिवर्स जूनोसिस) कहा जाता था। लेकिन विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के आधार पर इन सभी रोगों को अब एक ही श्रेणी अर्थात जूनोसिस (प्राणीरूजा) श्रेणी में रखा गया है (Hubálek 2003)। खाद्य और कृषि संगठन एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन की 1959 की संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार ‘ऐसे रोग और संक्रमण जो कशेरूकी पशुओं (पालतू एवं वन्य जीवों) और मनुष्यों के बीच संचरित होते हैं’ को प्राणीरूजा रोग कहा जाता है (WHO 1967)।

प्राणीरूजा रोगों का वर्गीकरण

खाद्य और कृषि संगठन एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन के संयुक्त विशेषज्ञ समूह द्वारा अपनाए गए वर्गीकरण के अनुसार प्राणीरूजा रोगों को उनके कारक, संचरण चक्र और संग्राहक मेजबान के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है।

  1. कारक आधार पर वर्गीकरणः कोई रोग भी किसी न किसी रोगाणु के कारण से होता है, जिनमें निम्नलिखित रोगाणु मुख्य कारक हैं:
    • जीवाणु: जीवाणुओं से होने वाले रोग इस प्रकार हैं – एंथ्रेक्स (वूल सॉर्टर डिजिज), लेप्टोस्पायरोसिस, ब्रुसेलोसिस, कैम्पिलोबैक्टीरियोसिस, साल्मोनेलोसिस, टेटनस, प्लेग, टुलारेमिया, क्लोस्ट्रीडियल डिजीज, बोटुलिज़्म, ट्यूबरकुलोसिस, लिस्टरियोसिस, एरीसिपेलोथ्रिक्स संक्रमण।
    • विषाणु: विषाणुओं से होने वाले रोग इस प्रकार हैं – रेबीज, इन्फ्लुएंजा, जापानी एन्सेफलाइटिस, क्यासानूर फॉरेस्ट डिजिज, लस्सा बुखार, चेचक, पीत ज्वर, डेंगू, कोविड-19 इत्यादि।
    • रिकेट्टसियल एवं क्लैमायडियल: रिकेट्टसियल एवं क्लैमायडियल से होने वाले रोग इस प्रकार हैं: सिटेकोसिस/ओर्निथोसिस, क्यू फीवर, इंडियन टिक फीवर एवं म्यूरिन टायफस इत्यादि।
    • फफूंद: फफूंदजनित रोग इस प्रकार हैं – जैसे कि डरमेटोफाइटोसिस, क्रिप्टोकोकोसिस, हिस्टोप्लाज्मासिस, कैंडिडिआसिस, एस्पर्जिलोसिस, कोक्सीडायोडोमाइकोसिस इत्यादि।
    • परजीवी: परजीवीजनित रोग इस प्रकार हैं – प्रोटोजोआ (टॉक्सोप्लाज्मोसिस, बबेसियोसिस, लिस्मानियासिस, ट्रीपेनोसोमियासिस), पत्ता कृमि (यकृत कृमि, एम्फीस्टोमियासिस, सिस्टोसोमियासिस, पैरागोनिमियासिस, ओपिस्थोरचियासिस); फीता कृमि (सिस्टीसरकोसिस, हाइडेटिडोसिस, टिनियासिस, कॉइन्यूरोसिस, डिपिलिडिएसिस); गोल कृमि (ट्राइकीनेलोसिस, एनीसाकियासिस, फाइलेरियासिस, क्यूटेनियस लार्वा माइग्रेंस, थेलाजिया) इत्यादि।
  2. संचरण चक्र के आधार पर वर्गीकरणः इस श्रेणी में आमतौर प्राणीरूजा रोगों को उनके पारिस्थितिकी तंत्र के अनुसार चार श्रेणियों में विभाजित किया जाता है जिसमें वे प्रसारित होती हैं, जो इस प्रकार हैं (WHO 1967, Chomel 2009):
    • प्रत्यक्ष प्राणीरूजा रोग (ऑर्थोजूनोसिस) एक संक्रमित पशु से अतिसंवेदनशील कशेरुकी मेजबान में सीधे संपर्क द्वारा, संक्रमणी पदार्थ (फोमाइट) के संपर्क से, या एक यांत्रिक रोगवाहक (वेक्टर) द्वारा प्रेषित होते हैं। प्रत्यक्ष प्राणीरूजा रोग प्रकृति में एकल कशेरुकी प्रजातियों द्वारा बनाए रखे जा सकते हैं, जैसे कि रेबीज के लिए कुत्ते या लोमड़ी, ब्रुसेलोसिस के लिए छोटे-बड़े रोमंथी पशु या सूअर।
    • चक्रीक प्राणीरूजा रोग (साइक्लोजूनोसिस): कई रोगों को अपना चक्र पूरा करने के लिए एक से अधिक कशेरूक प्रजातियों की आवश्यकता होती है, और उनको विकास चक्र पूरा करने के लिए किसी भी अकशेरूकी मेजबान की आवश्यकता नहीं होती है। उदाहरण के तौर पर मानवीय टिनियासिस या पेंटोस्टोमिड का संक्रमण। तुलनात्मक रूप में अधिकांश चक्रीक प्राणीजन्य रोग फीता कृमि होते हैं।
    • स्थिति परिवर्तन प्राणीरूजा रोग (मेटाजूनोसिस/फेरोजूनोसिस): इस प्रकार के प्राणीरूजा संक्रमणों के लिए रोगाणु अपने संक्रामक चक्र को पूरा करने के लिए कशेरूकी और अकशेरूकी दोनों प्रकार के जीवों की आवश्यकता होती है। संक्रामक रोगाणु अकशेरूकी जीवों में गुणात्मक (प्रचारक या साइक्लोप्रोपेगेटिव ट्रांसमिशन) या केवल साधारण रूप से (विकासात्मक संचरण) ही विकसित होते हैं। ऐसे रोगाणुओं के लिए किसी भी कशेरूकी जीव में संचरण से पहले अकशेरूकी मेजबान जीव में में हमेशा ही एक बाहरी ऊष्मायन अवधि होती है। अर्बोवायरस संक्रमण, प्लेग, लाइम बोरेलिओसिस या रिकेट्सियल संक्रमण, इस प्रकार के प्राणीरूजा रोगों के मुख्य उदाहरण हैं।
    • मृतोपजीवी प्राणीरूजा रोग (सैप्रोजूनोसिस): ऐसे संक्रामक रोगों के लिए कशेरूकी मेजबान और किसी भी निर्जीव विकास स्थल या संग्राहक दोनों ही आवश्यक होते हैं। जैसे कि आहार, मिट्टी और पौधों सहित जैव पदार्थ इत्यादि को विकासात्मक संग्राहक को गैर-पशु माना जाता है। प्राणीरूजा रोगों के इस समूह में प्रत्यक्ष संक्रमण आमतौर बहुत ही दुर्लभ या अनुस्थित होता है। हिस्टोप्लाज्मोसिस, एरीसिपेलोथ्रिक्स संक्रमण और लिस्टरियोसिस संक्रामक रोग इस प्रकार के प्राणीरूजा रोगों के मुख्य उदाहरण हैं।
  3. संग्राहक मेजबान के संदर्भ में आधारित वर्गीकरण
    • मानवीय प्राणीरूजा रोग (एंथ्रोपोजूनोसिस): ये घरेलू और जंगली पशुओं के रोग हैं जो मनुष्य से स्वतंत्र प्रकृति में होते हैं। यह उन संक्रमणों को संदर्भित करता है जो मुख्य रूप से पशुओं को प्रभावित करते हैं लेकिन स्वाभाविक रूप से मनुष्यों को प्रेषित किए जा सकते हैं। व्यावसायिक संपर्क या भोजन के माध्यम से मनुष्य असामान्य परिस्थितियों में पशुओं में पाये जाने वाले रोगों जैसे कि ब्रुसेलोसिस, लेप्टोस्पायरोसिस, टुलारिमिया, रिफ्ट वैली फीवर, हाइडेटिडोसिस, रेबीज, इबोला से संक्रमित हो जाता है।
    • वन्य-मानवीय प्राणीरूजा रोग (जूएंथ्रोपोनोसिस): ये ऐसी बीमारियां हैं जो आमतौर पर मानव से अन्य कशेरुकी पशुओं को संचरित होती हैं। इसके मुख्य उदाहरण तपेदिक रोग (मानव प्रकार), अमीबियासिस हैं।
    • उभयचरी प्राणीरूजा रोग (एम्फिक्सेनोसिस): इस श्रेणी में ऐसे संक्रामक रोग आते हैं जिनमें रोगाणु मनुष्य से पशुओं और पशुओं से मनुष्य में जा सकते हैं। इसके मुख्य उदाहरण स्ट्रेप्टोकोक्कोसिस, गैर-मेजबान विशिष्ट साल्मोनेलोसिस, स्टैफाइलोकोक्कोसिस इत्यादि हैं।

प्राणीरूजा रोगों के प्रकार

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और अंतर्राष्ट्रीय पशुधन अनुसंधान संस्थान ने 6 जून 2020 को विश्व प्राणीरूजा रोग दिवस के मौके पर एक संयुक्त रिपोर्ट जारी की है, जिसमें प्राणीरूजा रोगों को तीन श्रेणियों में बांटा है, जो इस प्रकार हैं (UNEP & ILRI 2020):

  1. उभरते प्राणीरूजा रोग: ये वे रोग हैं जो मानव आबादी में नए दिखाई देते हैं या पहले मौजूद थे लेकिन अब घटना या भौगोलिक सीमा में तेजी से बढ़ रहे हैं। सौभाग्य से, ये रोग अक्सर अत्यधिक घातक नहीं होते हैं और अधिकांशतः व्यापक रूप से नहीं फैलते हैं। लेकिन कुछ उभरती हुई बीमारियों का बहुत बड़ा असर होता है। इबोला, एचआईवी/एड्स और कोविड-19 उभरते हुए प्राणीरूजा रोगों के प्रसिद्ध उदाहरण हैं जो विशेष रूप से मानव स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक हैं। गिनी, लाइबेरिया और सिएरा लियोन में 2013-2016 के इबोला प्रकोप के कारण 11323 मौतें हुईं, 2.8 बिलियन अमरीकी डालर का नुकसान हुआ। इसी तरह अमेरिका में 2015-16 में जीका वायरस के प्रकोप के कारण जीका वायरस से संक्रमित गर्भवती महिलाओं के 7 बच्चों में से 1 बच्चे को न्यूरोलॉजिकल समस्याएं हुई और जीका वायरस से जुड़े माइक्रोसेफली रोग के प्रति मामले में 912,000 अमरीकी डालर का जीवन-काल खर्च होता है।
  2. महामारी प्राणीरूजा रोग: आमतौर पर ये रोग रुक-रुक कर होते हैं और अधिकतर मूल रूप से घरेलू उद्भव के होते हैं। एंथ्रेक्स, लीशमैनियासिस और रिफ्ट वैली बुखार इसके उदाहरण हैं। महामारी प्राणीरूजा रोग आमतौर पर जलवायु परिवर्तनशीलता, बाढ़ और अन्य चरम प्रतिकूल मौसम, और अकाल जैसी घटनाओं से उत्पन्न होते हैं। महामारी प्राणीरूजा रोगों का समग्र स्वास्थ्य बोझ उपेक्षित प्राणीरूजा रोगों की तुलना में बहुत कम है, लेकिन क्योंकि महामारी प्राणीरूजा रोग खाद्य उत्पादन और अन्य प्रणालियों के लिए ‘विघन’ का कारण बनते हैं, वे प्रभावित साधनहीन गरीब समुदायों के समुत्थानशक्ति को काफी कम कर सकते हैं। 2014-16 अल नीनो पूर्वी भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर का गर्म होना था जिसके परिणामस्वरूप दक्षिण अमेरिका के तट और अंतर्राष्ट्रीय तिथि रेखा के बीच असामान्य रूप से गर्म पानी विकसित हो रहा था। इस घटनाक्रम के दौरान मॉरिटानिया में रिफ्ट वैली बुखार के प्रकोप को प्रेरित किया। इसी प्रकार 2016 में साइबेरियाई यमल प्रायद्वीप में स्थायी तुषार (पर्माफ्रोस्ट) के पिघलने ने एंथ्रेक्स के प्रकोप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भूविज्ञान में स्थायीतुषार या पर्माफ्रोस्ट ऐसी धरती को कहते हैं जिसमें मिट्टी लगातार कम-से-कम दो वर्षों तक पानी जमने के तापमान (यानि शुन्य सेंटीग्रेड) से कम तापमान पर रही हो। इस प्रकार की धरती में मौजूद पानी अक्सर मिट्टी के साथ मिलकर उसे इतनी सख्ती से जमा देता है कि मिट्टी भी सीमेंट या पत्थर जैसी कठोर हो जाती है। स्थायीतुषार वाले स्थान अधिकतर पृथ्वी के ध्रुवों के पास ही होते हैं (जैसे कि साइबेरिया, ग्रीनलैंड व अलास्का), हालांकि कुछ ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों (जैसे कि तिब्बत व लद्दाख) में भी जहाँ-तहाँ स्थायीतुषार मिलता है। स्थायीतुषार में खुदाई करना पत्थर तोड़ने की तरह होता है और इसके लिए अक्सर भारी औजारों की जरुरत होती है।

  1. उपेक्षित प्राणीरूजा रोग: ऐसे रोग ज्यादातर मूल रूप से घरेलू होते हैं, और कुछ आबादी में अधिक या कम स्तर तक लगातार मौजूद होते हैं। ये बीमारियां ज्यादातर गरीब आबादी को प्रभावित करती हैं और आमतौर पर अंतरराष्ट्रीय, मानक-सेटिंग और अनुसंधान समुदायों के साथ-साथ राष्ट्रीय सरकारों द्वारा उपेक्षित की जाती हैं। यह संभावना है कि इन बीमारियों की पहचान और निगरानी में कमी उनकी पहचान को कम कर देती हैं और इसीलिए शोधकर्ताओं और नीति निर्माताओं द्वारा इनको प्राथमिकता दी जाती है। सूकर फीत्ता कृमि के कारण विश्वभर में 50 मिलियन लोग प्रभावित होते हैं जिन में से लगभग 80 प्रतिशत लोग विकासशील देशों में रहते हैं और इससे भारत में 150 मिलियन अमेरिकी डॉलर की प्रतिवर्ष आर्थिक हानि होती है।

व्यवसायिक प्राणीरूजा रोग

ऐसे संक्रमण जो जानवरों से मनुष्यों में उनके व्यवसाय की प्रकृति से संचरित होते हैं, उन्हें व्यावसायिक प्राणीरूजा रोग के रूप में वर्णित किया जाता है। व्यावसायिक संबंध के साथ पहले मान्य प्राणीरूजा रोग स्पष्ट त्वचा के घावों और छोटी ऊष्मायन अवधि वाले थे, जैसे कि दाद संक्रमण। व्यावसायिक प्राणीरूजा रोगों की अवधारणा को जन्म देने वाली दो बीमारियां एंथ्रेक्स और ग्लैंडर्स हैं (Battelli 2008)। कुछ महत्वपूर्ण व्यावसायिक प्राणीरूजा रोग इस प्रकार हैं:

  1. कृषि संबंधी: कृषि कार्यों से जुड़े लोग जैसे कि किसान, कृषि श्रमिक, पशु चिकित्सक, पशुधन निरीक्षक, पशुधन के ट्रांसपोर्टर जो घर पर या कार्यस्थल पर जानवरों के निकट संपर्क में होते हैं, कृषि संबंधी प्राणीरूजा रोगों की श्रेणी में आते हैं। उदाहरण – रक्तस्रावी बुखार, जापानी एन्सेफलाइटिस, क्यासानूर फॉरेस्ट डिजिज, रेबीज, एंथ्रेक्स, ब्रुसेलोसिस, ग्लेंडर्स, लेप्टोस्पायरोसिस, साल्मोनेलोसिस, तपेदिक इत्यादि।
  2. पशु उत्पाद निर्माण: इस श्रेणी में कसाई, वध करने वाले, मांस निरीक्षक, बूचड़खाने कर्मी, कोल्ड स्टोरेज और खाद्य प्रसंस्करण संयंत्रों में काम करने वाले व्यक्ति आते हैं। उदाहरण – लूपिंग इल, न्यूकैसल रोग, रिफ्ट वैली फीवर, एंथ्रेक्स, टुलारिमिया, ब्रुसेलोसिस, साल्मोनेलोसिस, टेटनस, तपेदिक, सीटैकोसिस/ऑर्निथोसिस, क्यू-फीवर इत्यादि।
  3. वनवासी और मैदानी: वन्यजीव कार्यकर्ता, वनवासी, शिकारी, जंगली पशु पकड़ने वाले, मछुआरे, प्रकृतिवादी, पारिस्थितिक शोधकर्ता, सर्वेक्षणकर्ता, संसाधन खोजकर्ता और विकासकर्ता, परियोजना निर्माण कार्यकर्ता, कैंपर और पर्यटक इत्यादि व्यक्ति अपने व्यावसायिक या मनोरंजक गतिविधियों के दौरान प्राणीरूजा रोगों के संपर्क में आते हैं। उदाहरण – रेबीज, क्यासानूर फॉरेस्ट डिजिज, रक्तस्रावी बुखार, जापानी एन्सेफलाइटिस, ब्रुसेलोसिस, पाश्चरेलोसिस, प्लेग, यर्सिनीओसिस इत्यादि।
  4. मनोरंजक: इस समूह में शहरी वातावरण में पालतू जानवरों या जंगली जानवरों के संपर्क में आने वाले व्यक्ति जैसे पालतू पशुओं के व्यापारी, पालतू पशुओं के मालिक, उनके परिवार, आगंतुक और पशु चिकित्सक शामिल हैं। उदाहरण – रेबीज, कैम्पिलोबैक्टीरियोसिस, ग्लैंडर्स, लेप्टोस्पायरोसिस, पास्टुरेलोसिस, सीटैकोसिस और टोक्सोप्लाज्मोसिस।
  5. प्रयोगशाला: इस श्रेणी में पशु या मानव रोगों के निदान से संबंधित रोगियों की देखभाल करने वाले और प्रयोगशाला में काम करने वाले कर्मचारी, नर्स और अन्य स्वास्थ्य कर्मी (जैसे नैदानिक ​​नमूनों को संसाधित करना) जानवरों का शव परीक्षण करने वाले, पशुओं में अनुसंधानकर्ता, जैविक निर्माण और उत्पाद सुरक्षा परीक्षण करने वाले इत्यादि लोग शामिल हैं। उदाहरण – रक्तस्रावी बुखार, जापानी एन्सेफलाइटिस, रिफ्ट वैली फीवर, एंथ्रेक्स, ब्रुसेलोसिस, तपेदिक, ग्लैंडर्स, साल्मोनेलोसिस इत्यादि।
  6. महामारी विज्ञान: महामारी विज्ञान क्षेत्र की जांच के दौरान बीमार जानवरों या लोगों या अत्यधिक दूषित परिवेश के संपर्क में पेशेवर सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, पशु चिकित्सक, अन्य स्वास्थ्य पेशेवर और पैरामेडिकल कर्मी शामिल हैं। उदाहरण – जापानी इंसेफेलाइटिस, प्लेग, पीत ज्वर, रेबीज, साल्मोनेलोसिस इत्यादि।
  7. आपातकालीन: इस समूह में शरणार्थी, आपदा पीड़ित और प्रमुख तीर्थ यात्राओं में भाग लेने वाले व्यक्ति होते हैं। उदाहरण – रेबीज, प्लेग, लेप्टोस्पायरोसिस, पिस्सू जनित टाइफस इत्यादि।
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जनसांख्यिकी के आधार पर वर्गीकरण

व्यवसाय और जनसांख्यिकी के आधार पर, व्यावसायिक प्राणीरूजा रोगों को शहरी या ग्रामीण प्राणीरूजा रोगों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  1. शहरी प्राणीरूजा रोग: ऐसे संक्रमण जो आमतौर पर शहरी क्षेत्रों में प्रचलित होते हैं और जानवरों से मनुष्यों में फैलते हैं। उदाहरणार्थ – रेबीज, बूचड़खाने के संक्रमण, एंथ्रेक्स, लेप्टोस्पायरोसिस, तपेदिक।
  2. ग्रामीण प्राणीरूजा रोग: ऐसे संक्रमण जो आमतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित हैं और जानवरों से मनुष्यों में फैलते हैं। उदाहरणार्थ – ब्रुसेलोसिस, सिस्टोसोमियासिस, रेबीज, कृमि संक्रमण।

प्राणीरूजा रोगों के विभिन्न प्रकार के संचरण चक्र

प्राणीरूजा रोग एक या एक से अधिक पारिस्थितिकी तंत्रों में विकसित और घटित होते रहते हैं। अतः प्राणीरूजा रोगों को उनके पारिस्थितिक तंत्र में विकसित होने के आधार पर निम्नलिखित तीन श्रेणियों में बांटा गया है:

  1. वनीय (सिल्वेटिक) चक्र: ऐसे रोग प्राकृतिक रूप से जंगली पशुओं में विकसित और फैलते हैं लेकिन जंगल में जाने वाले शिकारी, वन रक्षकों और जंगलों में चरने जाने वाले पशुओं को हो जाते हैं। इसके मुख्य उदाहरण क्यासानूर फॉरेस्ट डिजिज और मंकी पॉक्स हैं।
  2. समकालिक (सिनएंथ्रोपिक) चक्र: ऐसे रोग जो पालतू पशुओं में समकालिक जानवरों जैसे कि कृंतक, पक्षी और छिपकली इत्यादि के माध्यम से घटित और विकसित होते हैं। मनुष्य अक्सर समकालिक चक्र में फैलने वाले प्राणीरूजा रोगों के संपर्क में आकर संक्रमित होते हैं। इसके मुख्य उदाहरण प्लेग और टुलारिमिया रोग हैं।
  3. मानवीय चक्र: ऐसे रोग आमतौर पर मनुष्यों में एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संचरित होते हैं जो अन्य प्रजाति के पशुओं में भी जा सकते हैं। मानव तपेदिक रोग इसका उदाहरण है।

प्राणीरूजा रोगों से पीढ़ित होने की संभावना किसको

वैसे तो प्राणीरूजा रोग किसी भी उम्र में किसी भी व्यक्ति को हो सकते हैं परन्तु निम्नलिखित व्यक्तियों में अधिक होने की संभावना रहती है:

  1. नवजात शिशु एवं बच्चे: रोग प्रतिरोधक क्षमता पूर्ण रूप से विकसित नहीं होने एवं कुछ खराब आदतें जैसे मुँह में हाथ लेना, किसी भी वस्तु (मल-मूत्र, मिट्टी) को हाथ से छूने की प्रवृति, गंदगी के बारे में जानकारी ना होना इत्यादि के कारण पशुजन्य रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
  2. गर्भवती महिलायें:- गर्भकाल के समय शरीर अधिक तनाव में रहता है एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी हो जाती है।
  3. बुजुर्ग व्यक्ति: उम्र के साथ-साथ शारीरिक रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाती है और पशु जन्य रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
  4. रोगग्रस्त व्यक्ति: ऐसे व्यक्ति जिनका कैंसर का इलाज चल रहा है या एड्स से ग्रसित हैं उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है और प्राणीरूजा रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
  5. पेशेवर व्यक्ति: पशु चिकित्सक/पशुपालक/किसान/ चिड़िया घर में पशुओं की देख-रेख करने वाले / वन्य जीव प्राणियों के संपर्क में रहने वाले, पशु वधशाला में काम करने वालों को प्राणीरूजा रोग होने की संभावना अधिक रहती है।

बढ़ती आबादी, बढ़ता शहरीकरण जंगलों की अंधाधुध कटाई, परिवर्तित जीवनशैली (रहन-सहन, खान-पान), अधिक व्यस्तता, अधिकांश जनसंख्या का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आना-जाना, तापमान में अप्रत्याशित कमी/वृद्धि, प्राकृतिक आपदाएं (बाढ़-सुखा, भूकम्प इत्यादि) प्राणीरूजा रोगों के प्रमुख कारक हैं।

प्राणीरूजा रोग फैलने के माध्यम

रोगाणु विभिन्न माध्यमों से पशु अथवा मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर प्राणीरूजा रोग फैलाते हैं जैसे कि:

  1. सीधा संपर्क: जब कीटाणु शरीर पर खुले घाव, खरोंच, आँखों के द्वारा या त्वचा के सीधे संपर्क में आकर शरीर के अन्दर प्रवेश करता है। कभी-कभी रोगग्रस्त पशु के काटने पर भी उससे रोगाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।
  2. अप्रत्यक्ष संपर्क: उन क्षेत्रों के संपर्क में आना जहां पशु रहते हैं और घूमते हैं, या वस्तुओं या सतहों जो कीटाणुओं से दूषित हो गए हैं। उदाहरणों में एक्वेरियम टैंक का पानी, पालतू पशुओं के आवास, मुर्गीयों के बाड़े, पौधे और मिट्टी के साथ-साथ पालतू पशुओं का आहार और पानी के बर्तन शामिल हैं।
  3. संवाहक (वैक्टर): जब रोगग्रस्त पशु का खून चूसकर मच्छर, मक्खी, पिस्सू चिचड़ियाँ इत्यादि संवाहक स्वस्थ व्यक्ति को काटते हैं तब रोगाणु शरीर में प्रवेश करते हैं जिससे बीमारी शुरू हो सकती है।
  4. खाद्यजनित: हर वर्ष 6 में से 1 व्यक्ति दूषित भोजन खाने से बीमार हो जाता है। कुछ असुरक्षित खाना या पीना, जैसे कि कच्चा दूध, अधपका मांस या अंडे, या कच्चे फल और सब्जियां जो संक्रमित पशुओं के मल से दूषित हों। दूषित भोजन पालतू पशुओं सहित लोगों और पशुओं में बीमारी का कारण बन सकता है।
  5. जलजनित: किसी संक्रमित पशु के मल से दूषित पानी पीना या उसके संपर्क में आना।
  6. मुख के द्वारा: जब दूषित भोजन या पानी आहार नली द्वारा मनुष्य के शरीर में प्रवेश करता है। पशु जन्य खाद्य पदार्थ जैसे दूध, माँस, अंडा सही ढंग से पका हुआ ना हो या साग, सब्जी, फल स्वच्छ पानी से ठीक से धोया हुआ न हो तब प्राणीरूजा रोग होने की संभावना हो सकती है।
  7. वायु माध्यम से: जब किसी रोगग्रस्त पशु के द्वारा कीटाणु वायु में आते हैं और स्वस्थ मनुष्य के साँस लेने के क्रम में शरीर में प्रवेश कर जाते हैं तब प्राणीरूजा रोग होने की संभावना बढ़ जाती हैं। रोगग्रस्त पशुओं के मल-मूत्र, खांसी करने, गर्भपात होने पर उसके द्रव्य, जोड़, योनि स्राव से वातावरण और मिट्टी दूषित हो जाते हैं और उसी वातावरण में या दूषित मिट्टी, धूल कण के रूप में, साँस लेने के समय शरीर में प्रवेश करते हैं।
  8. धूलकण (फोमाइट्स): कपड़ा, जूता, ब्रश, बरतन, रस्सी, सुई, चश्मा, इत्यादि के द्वारा भी कीटाणु एक जगह से दूसरे स्थान पर फैलते हैं एवं इनके संपर्क में आने से स्वस्थ व्यक्ति भी बीमार हो सकता है।

प्राणीरूजा रोगों के संचरण के तरीके

  • संग्राहक मेजबान (उदाहरण के लिए चमगादढ़ों से खजूर के रस को संग्रह करने वाले बर्तनों में निपाह वायरस का संचरण)
  • संग्राहक मेजबानों की कसाई/शव परीक्षण के समय मनुष्यों में फैलना जैसे कि इबोलावायरस के मामले में।
  • रिफ्ट वैली फीवर वायरस, क्रीमियन-कांगो हेमोरेजिक फीवर ओर्थोनैरोवायरस (सीसीएचएफवी) जैसे संक्रमित घरेलू पशुओं का वध करना
  • पशुओं के साथ निकट संपर्क जैसे कि क्यू फीवर
  • अंतःस्थ मेजबानों के माध्यम से जैसे कि निपाह और हेंड्रा वायरस क्रमशः सूअर और घोड़ों के माध्यम से उदाहरण के तौर पर सुअर-से-सुअर और सुअर-से-मानव (निपाह)
  • कीट वाहकों के माध्यम से (जैसा कि रिफ्ट वैली फीवर वायरस, डेंगू फीवर और वेस्ट नाइल वायरस के मामले में होता है)

प्राणीरूजा रोग कब मानव रोग के लिए विस्फोटक बनते हैं?

ऐतिहासिक रूप से, पशुओं से नए मानव रोगों का उद्भव प्रमुख सामाजिक परिवर्तन से जुड़ा रहा है। उदाहरण के लिए, शिकारी-एकत्रीकरण से कृषि समाज में नवपाषाण काल ​​के संक्रमण के दौरान, मनुष्य कम जीवन जीते थे, कम और खराब गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थों का सेवन करते थे, आकार में छोटे थे और अपने शिकारी पूर्वजों की तुलना में बीमार रहते थे। कृषि के आगमन के साथ, जनसंख्या में नाटकीय वृद्धि और लोगों के अपने अपशिष्ट निवास स्थान के नजदीक भूमि पर डालने या दबाने से मानव रोगों में वृद्धि हुई; पशुओं को पालतू बनाने से पशुओं के रोगजनकों ने विभिन्न प्रजातियों के जानवरों सहित लोगों में प्रवेश किया, जहां वे डिप्थीरिया, इन्फ्लूएंजा, खसरा और चेचक जैसी बीमारियों का संभावित कारण बन गए (Kock et al. 2012, IOM 2012)। इसके बाद मुख्य सामाजिक तनावों और उथल-पुथल से जुड़ी मुख्य महामारियों या बीमारियों को प्राणीरूजा रोगों से जोड़ा गया जो मूल रूप से पशुओं से मनुष्यों में फैल गई थीं, लेकिन जो बाद में मुख्य रूप से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संचारित हुई। अतित में यदि ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो जब-जब भी मनुष्य ने प्रकृति से छेड़छाड़ की तब-तब विभिन्न प्रकार के संक्रामक रोगों ने मानव जाति में विस्फोटक रूप से तबाही मचाई है। इनमें कुछ रोग इस प्रकार हैं:

  • चौदहवीं शताब्दी के मध्य में जूनोटिक बुबोनिक प्लेग (बैक्टीरिया यर्सिनिया पेस्टिस के कारण होने वाली ब्लैक डेथ) ने यूरेशिया और उत्तरी अफ्रीका में लाखों लोगों को मार डाला, जिससे यूरोप की एक तिहाई आबादी का सफाया हो गया।
  • सोलहवीं शताब्दी में यूरोपीय लोगों के आगमन के तुरंत बाद अमेरिका में यूरोपीय रोगों की महामारी 95 प्रतिशत तक स्वदेशी आबादी की मृत्यु के लिए जिम्मेदार थी और उनकी प्राचीन सभ्यताओं के विनाश में तेजी आई (Nunn & Qian 2010)। यह माना जाता है कि समशीतोष्ण क्षेत्र के अधिकांश संक्रामक रोग नई दुनिया की तुलना में पुरानी दुनिया में उभरे, क्योंकि पुरानी दुनिया में पैतृक रोगजनकों को आश्रय देने में सक्षम जानवरों की विविध प्रजातियां पालतू थीं (IOM 2012)।
  • उन्नीसवीं सदी में तपेदिक रोग का प्रकोप, पश्चिमी यूरोप में औद्योगीकरण और अत्यधिक भीड़ से जुड़ा हुआ था, जिसमें चार में से एक व्यक्ति की मौत हो गई थी। वर्तमान स्थिति के विपरीत, जहां अधिकांश बीमारी गैर-प्राणीरूजा तपेदिक रोग के कारण होती है, उन्नीसवीं शताब्दी के प्रकोप का एक बड़ा हिस्सा प्राणीरूजा तपेदिक रोग के कारण माना जाता है (Doran et al. 2009)।
  • अफ्रीका में उपनिवेशिक शासन के विस्तार ने प्राणीरूजा स्लीपिंग सिकनेस के फैलने की सुविधा प्रदान की जिसने बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में युगांडा में आबादी का एक तिहाई और कांगो नदी बेसिन में रहने वाले लोगों के पांचवें हिस्से को मार डाला (Headrick 2014)।
  • 1918 की स्पेनिश फ्लू महामारी ने 1918 से 1921 के दौरान लगभग 4 करोड़ लोगों को मृत्यु का ग्रास बनाया था जिनमें से लगभग दो करोड़ लोग भारतीय थे।
  • 2020 में सामने आयी विश्वव्यापी कोविड-19 महामारी का प्रकोप अभी भी 2021 में जारी है, जिससे विश्वभर के सभी राष्ट्रों की अर्थ-व्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव डाला है।

वर्ष 1900 से लेकर 2021 तक विश्व की आबादी में लगभग पांच गुणा वृद्धि हुई है। इसी अनुरूप में मनुष्य को आहार प्रदान करने वाले घरेलू पशुओं और मनुष्यों के आसपास के पर्यावरण में रहने वाले परिधीय-घरेलू वन्यजीव (कृंतक इत्यादि) की संख्या भी बढ़ी है। सामान्य तौर पर, इन विस्फोटित मानव, पशुधन और परिधीय-घरेलू वन्यजीवों की आबादी ने वन्यजीव आबादी के स्थानिक आकार को कम कर दिया है, जिसके फलस्वरूप मनुष्यों, पशुओं और वन्यजीवों के बीच विरोधाभासी रूप से विश्वभर में संपर्क बढ़ा है। हालांकि, अभी भी हमारी सोच अपूर्ण है फिर भी उभरती हुई बीमारियों के पक्ष में कारकों के बारे में हमारी समझ बढ़ रही है।

प्राणीरूजा रोग के उद्भव के प्रमुख मानवजनित चालक

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और अंतर्राष्ट्रीय पशुधन अनुसंधान संस्थान की 2020 में प्रस्तुत संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार विश्वभर में सात प्रकार के मानवजनित चालक प्राणीरूजा रोगों के प्रमुख कारक हैं। इनमें से कई चालक अब एक ही स्थान पर आ रहे हैं, जिससे उनका प्रभाव बढ़ रहा है।

  1. पशु प्रोटीन की बढ़ती मांगः समय परिवर्तन के साथ-साथ बढ़ती आबादी के साथ पशुजनित आहार में वृद्धि देखी गई है। हालांकि, दालों से मिलने वाली आहारीय प्रोटीन की मांग में कोई खास वृद्धि नहीं हुई है लेकिन 1960 के दशक से 2020 तक पशुजनित प्रोटीन की मांग लगभग दोगुणी अर्थात 21 प्रतिशत और मछली की खपत भी 5 प्रतिशत से 15 प्रतिशत हो चुकी है। इस मांग को पूरा करने के लिए पिछले 50 वर्षों में मांस, दूध और अण्डा उत्पादन में क्रमशः 260, 90 और 340 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जिसकी भविष्य में और अधिक बढ़ने की उम्मीद है (UNEP & ILRI 2020)। इस बढ़ती पशुजनित प्रोटीन की खपत के चलते मानव-पशुधन-वन्यजीवों में टकराव होने से प्राणीरूजा रोग फैलने की संभावना भी बढ़ी हैं।
  2. गैर-टिकाऊ कृषि गहनताः पशु आधारित खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांग पशु उत्पादन की गहनता और औद्योगीकरण को बढ़ावा देती है। कृषि की गहनता, और विशेष रूप से पशुपालन के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में आनुवंशिक रूप से समान पशु होते हैं। इन्हें अक्सर उच्च उत्पादन के लिए पाला जाता है; हाल ही में, उन्हें रोग प्रतिरोधक क्षमता के लिए भी पाला जाने लगा है। नतीजतन, घरेलू पशुओं को एक-दूसरे के करीब और आमतौर पर आदर्श परिस्थितियों से कम में रखा जा रहा है। ऐसी आनुवंशिक रूप से समरूप मेजबान पशु आनुवंशिक रूप से विविध पशुओं की तुलना में संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं, क्योंकि विविध पशुधन में कुछ ऐसे पशुओं को शामिल करने की अधिक संभावना होती है जो बीमारी का बेहतर प्रतिरोध करते हैं। उदाहरण के तौर पर, सूअर फार्मों पर पशुओं के बीच शारीरिक दूरी की कमी के कारण स्वाइन फ्लू के संचरण को बढ़ाया है (Schmidt 2009)। इसी प्रकार मुर्गीपालन एवं डेयरी पालन ने भी पशुओं के बीच की दूरी में कमी की है। इस बढ़ती पशुधन गहनता और पशुओं की घटती शारीरिक दूरी ने पशुओं की बीमारियों को भी बढ़ाया है और इन रोगों को नियंत्रित करने के लिए रोगाणुरोधी औषधियों का उपयोग भी बढ़ा है। 1940 के बाद से, बांधों और सिंचाई परियोजनाओं और फैक्ट्रियों जैसे गहन कृषि उपाय 50 प्रतिशत से भी अधिक प्राणीरूजा रोगों को मनुष्यों में होने वाले संक्रमणों के साथ जोड़ कर देखा गया है (Rohr et al. 2019)। इसके अतिरिक्त, लगभग एक-तिहाई फसलीय भूमि का उपयोग पशुओं के चारे के लिए किया जाता है। कुछ राष्ट्रों में, इससे वनों की कटाई जारी है (Nepstad et al. 2014)। इन सभी कारणों से मनुष्यों में भी प्राणीरूजा रोगों का खतरा लगातार बढ़ रहा है।
  3. वन्यजीवों का बढ़ता उपयोग और शोषणः वन्यजीवों का उपयोग और व्यापार करने के कई तरीके हैं। इनमें से प्रोटीन, सूक्ष्म पोषक तत्वों और धन के स्रोत के रूप में जंगली जानवरों (जंगली मांस, जिसे कभी-कभी ‘बुशमीट’ कहा जाता है) को मारना; प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में वन्यजीवों का मनोरंजक शिकार और उपभोग; वन्यजीवों का इस विश्वास में सेवन करना कि जंगली मांस ताजा, प्राकृतिक, पारंपरिक और सुरक्षित होता है; मनोरंजक उपयोग (पालतू जानवर, चिड़ियाघर) और अनुसंधान और चिकित्सा परीक्षण के लिए जीवित जानवरों में व्यापार तथा सजावटी, औषधीय और अन्य व्यावसायिक उत्पादों के लिए वन्यजीवों के अंगों का उपयोग करना इत्यादि शामिल हैं। सामान्य तौर पर, जीवित और मृत पशुओं के उपयोग और व्यापार से आपूर्ति श्रृंखला में पशुओं और लोगों के बीच घनिष्ठ संपर्क बढ़ता है, जिससे प्राणीरूजा रोगों के उभरने का खतरा बढ़ जाता है। माना जाता है कि बुशमीट प्रक्रिया के कारण सिमियन इम्युनोडेफिशिएंसी वायरस फैले और एचआईवी-1 और -2 का उदय हुआ (Hahn et al. 2000)। मनुष्यों में इबोला रक्तस्रावी बुखार वायरस के प्रकोप को बार-बार संक्रमित गोरिल्ला जैसे बड़े वानरों से निपटने से जोड़ा गया है (Leroy et al. 2004)। 2003 में, अफ्रीका से गैम्बियन बड़े चूहों के आयात के माध्यम से संयुक्त राज्य अमेरिका में मंकीपॉक्स का उदय हुआ (Sejvar et al. 2004)।
  4. भूमि उपयोग परिवर्तन से प्राकृतिक संसाधनों का गैर-टिकाऊ उपयोगः त्वरित शहरीकरण से जुड़े लोगों, जानवरों, भोजन और व्यापार की अधिक आवाजाही अक्सर प्राणीरूजा रोगों सहित संक्रामक रोगों के उद्भव के लिए अनुकूल आधार प्रदान करती है। उदाहरण के लिए, सिंचाई प्रणाली कुछ वेक्टर-जनित जूनोसिस को फैलने के लिए प्रोत्साहित करती है; वनों की कटाई और पारिस्थितिकी तंत्र और वन्यजीव आवासों का विखंडन मानव-पशु-वन्यजीव पारिस्थितिकी तंत्र इंटरफेस में संपर्कों को प्रोत्साहित करते हैं (Allan et al. 2003); और बढ़ी हुई मानव बस्तियों और बाड़ लगाने से पालतू और जंगली जानवरों दोनों के झुंड और प्रवासी आवागमनों में बाधा आती है। भारत में क्यासानूर वन क्षेत्रों में मानव द्वारा भूपरिदृश्य में हस्तक्षेप के कारण बंदरों में होने वाला मंकी फीवर मानवों में क्यासानूर फॉरेस्ट डिजिज का कारण है (Purse et al. 2020)।
  5. यात्रा और परिवहनः सुलभ यातायात होने के साथ विश्वभर बहुत से बदलाव आये हैं। मानव यात्रा और व्यापार के बढ़ते योग, जिसमें पशुओं और पशु उत्पादों की बढ़ती हैंडलिंग, परिवहन और (कानूनी और अवैध) व्यापार शामिल हैं, से प्राणीरूजा रोगों के उभरने और फैलने का खतरा तो बढ़ ही जाता है लेकिन उनकी ऊष्मायन अवधि (एक रोगजनक के संपर्क और बीमारी के पहले नैदानिक ​​संकेत के बीच की अवधि) भी कम होती है। इसका कोविड-19 महामारी में कम ऊष्मायन अवधि (1 से 23 दिन) उदाहरण है।
  6. खाद्य आपूर्ति श्रृंखलाओं में परिवर्तनः बढ़ती आबादी की खाद्य आपूर्ति को पूरा करने के लिए पशु आधारित प्रोटीन आहार की मांग बढ़ रही है जिसके फलस्वरूप वन्यजीव आहार की नई मार्किट और अपर्याप्त विनियमित कृषि गहनता बढ़ने से रोग संचरण के लिए अतिरिक्त अवसर पैदा हो रहे हैं। सार्स, मर्स और कोविड-19 महामारी इसके उदाहरण हैं। यह हमेशा नहीं माना जा सकता है कि खाद्य मूल्य श्रृंखलाओं के आधुनिकीकरण से जोखिम कम होगा। इसके अतिरिक्त, खासतौर से कम आमदनी वाले राष्ट्रों में, लोग पहले की तुलना में अधिक पशु आधारित खाद्य पदार्थों का सेवन कर रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप लोग प्राणीरूजा रोगजनकों सहित अन्य रोगजनकों के संभावित संपर्क में रहने लगे हैं (Grace 2015, Hoffmann et al. 2019)।
  7. जलवायु परिवर्तनः जलवायु परिवर्तन संक्रमणों के उभरने का एक प्रमुख कारक है। जीवित रहने, प्रजनन, बहुतायत और रोगजनकों, रोगवाहकों और मेजबानों का वितरण जलवायु परिवर्तन से प्रभावित जलवायु मापदंडों से प्रभावित हो सकता है। जलवायु परिवर्तन कीट-संक्रमित चागास रोग, बालू मक्खी (सैंड-फ्लाई) से संचरित लीशमैनियासिस, और अन्य रोगवाहक-जनित और प्राणीरूजा रोगों की घटनाओं को बढ़ा या घटा सकता है (Wells & Clark 2019)। 2010 में अफ्रीका में, रिफ्ट वैली फीवर का प्रकोप, एक मच्छर जनित प्राणीरूजा रोग, औसत से अधिक मौसमी वर्षा के साथ हुआ लेकिन इसके अन्य प्रकोप कम अवधि की भारी वर्षा के साथ भी हुए हैं (IOM 2012)। इस प्रकार यदि कहा जाए तो बहुत से प्राणीरूजा रोग मौसम के प्रभाव से जुड़े होते हैं।
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प्राणीरूजा रोगों का प्रबंधन एवं रोकथाम

विश्वभर में व्यापत प्राणीरूजा रोगों को फैलने से रोकने के लिए व्यक्तिगत/पशु विशेष, फार्म/सामुदायिक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त उपाय किये जा सकते हैं।

  1. व्यक्तिगत/पशु विशेष: पशुओं को संक्रमित होने से बचाने के लिए सबसे पहले यह जानना चाहिए कि बीमारियाँ कैसे फैलती हैं (Leeflang et al. 2008):
  • संपर्क द्वारा
  • पशुओं द्वारा दूषित सामग्री (बिछावन, चारे की खुरलियां, मानव वस्त्र) के संपर्क में आने से
  • हवा के माध्यम से
  • मादा से जब कोई बच्चा पैदा होता है
  • आहार और पानी के माध्यम से
  • कीटों के माध्यम से
  • गर्भाधान के माध्यम से

पशुपालकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि स्वस्थ पशुओं को बीमार पशुओं से दूर रखें। स्वस्थ और बीमार पशुओं के लिए अलग-अलग तौलिये, कंबल, काठी, खुरलियां और अन्य उपकरण रखना महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, चर्मरोग चमड़ी का रोग हैं जो बहुत आसानी से तब फैलते हैं जब संक्रमित पशुओं के लिए इस्तेमाल की जाने वाली काठी या रस्सी का उपयोग स्वस्थ पशुओं के लिए भी किया जाता है। पशुओं को रोगवाहक कीटों से बचाने के लिए पशुशाला में कीटों को भगाने वाली दवाओं का उपयोग करना चाहिए। कृत्रिम गर्भाधान का उपयोग करने से प्राकृतिक संभोग से फैलने वाली बीमारियों को रोका जा सकता है। पशुओं को संक्रमण से बचाने के लिए कुछ व्यावहारिक परामर्श इस प्रकार है:

  • पशुओं को स्वच्छ आहार और पानी दें; पानी पीने के जल कुण्ड और चारे की खुरलियां इतनी ऊँचाई पर होनी चाहिए कि उनमें गोबर और मूत्र न गिरें।
  • पशुओं के बाड़े से गोबर साफ करते रहना चाहिए।
  • बाड़े में पशुओं की भीड़ नहीं करनी चाहिए।
  • पशुओं को संक्रामक बीमारियों से बचाने के लिए नजदीकी पशु चिकित्सक की सलाहानुसार टीकाकरण करवाना चाहिए।
  • मृत पशुओं के शरीर संपर्क के बारे में सतर्क रहें; मृत पशुओं को सुविधानुसार भूमि में दबाएं या जलाएं।
  • पशुओं को साफ और सूखी जगह पर रखें। बाड़े में अवांछनीय वस्तुओं को न रखें।
  • पशुओं का बाड़ा हवादार होना चाहिए।
  • स्वस्थ पशुओं को ऐसे पशुओं के साथ न रखें जो स्वस्थ नहीं हैं। यदि आप एक नया पशु खरीदते हैं और आप सुनिश्चित नहीं हैं कि यह स्वस्थ है या नहीं, तो इसे कुछ सप्ताह के लिए अन्य पशुओं से अलग रखें और बीमारी के लिए पशु की जांच करें।
  • अन्य पशुपालकों और रोग नियंत्रण कार्यक्रमों के साथ मिलकर काम करें।
  1. फार्म/सामुदायिक: प्राणीरूजा रोगों की रोकथाम में पहला कदम पशुओं को संक्रमित होने से बचाना है। अधिकांश प्राणीरूजा रोग पशुओं में कोई स्पष्ट लक्षण नहीं पैदा करते हैं। आमतौर पर केवल ऐसे लक्षण देखे जाते हैं जो किसी अन्य बीमारी के लक्षणों के समान ही दिखते हैं। कई बार संक्रमण थोड़ा कम होता है, बहुत अच्छी तरह से नहीं बढ़ता है, और पशु थोड़ा कमजोर लग सकता है। इस मामले में यह एक और बीमारी हो सकती है न कि प्राणीरूजा रोग, बल्कि यह वास्तव में एक प्राणीरूजा रोग भी हो सकता है! इसलिए जब कोई पशु बीमार हो तो सावधान रहना आवश्यक है। ध्यान रखें कि कोई भी रोग एक प्राणीरूजा रोग हो सकता है। पशुओं से मनुष्यों में संक्रमण को रोकने की उनकी क्षमता काफी हद तक सांस्कृतिक आदतों और ज्ञान पर निर्भर करती है। लेकिन सामान्य तौर पर यह कहा जा सकता है कि रोकथाम में स्वच्छता एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। स्वच्छता ही वह सब कुछ है जो आपको स्वस्थ रखती है। आपके घर में स्वच्छता का अच्छा अभ्यास निम्नलिखित पर लागू होता है (Leeflang et al. 2008):
  • खाद्य स्वच्छता (भोजन पकाना, खाद्य अपशिष्ट का सुरक्षित निपटान)
  • व्यक्तिगत स्वच्छता (हाथ धोने सहित)
  • सामान्य स्वच्छता (फर्श की सफाई, कपड़े धोने आदि)
  • घरेलू स्वास्थ्य देखभाल (उदाहरण के लिए, जख्मों की देखभाल करना)
  • अपशिष्ट जल और वर्षा जल का नियंत्रण
  • घरेलू पशुओं और पालतू जानवरों की देखभाल
  • कीटों का नियंत्रण

जहां स्वच्छ जल उपलब्ध है, वहां व्यक्तिगत स्वच्छता प्राप्त करने के लिए शौचालय जाने के बाद अपने हाथ धोना, शौचालय को साफ और ढककर रखना, आहार खाने से पहले अपने हाथ धोना और सब्जियों व फलों को खाने से पहले धोना चाहिए। यह सब कई प्रकार के संक्रमणों को रोकने में मदद करेगा। कीटों के नियंत्रण का अर्थ है उन बचे हुए अखाद्य टुकड़ों की सफाई करना जो मक्खियों को आकर्षित कर सकते हैं और कीट विकर्षक और मच्छरदानी का उपयोग भी किया जा सकता है। मक्खियों और मच्छरों के खिलाफ व्यक्तिगत सुरक्षा में पूरी लंबाई के पतलून/पायजामा और लंबी भुजा वाले कपड़े पहनना शामिल हैं।

जिन स्थानों पर स्वच्छ जल की उपलब्धता कम है और स्वच्छता मानक कम हैं, वहां पर पानी पीने से पहले उसे उबाल लें। संभव हो तो शौचालय का निर्माण कर उसका उपयोग करें। यदि शौचालय नहीं बना सकते हैं, तो घर के पास शौच न करें और सुनिश्चित करें कि आप अपने मल को दबा दें। बिना हाथ धोए अपनी उँगलियाँ मुँह में न डालें।

उपरोक्त स्वच्छता उपाय न केवल प्राणीरूजा बल्कि सामान्य रूप से संक्रमण के जोखिम को कम करते हैं। पशुओं के संबंध में, निम्नलिखित अतिरिक्त उपाय किए जाने चाहिए (Leeflang et al. 2008):

  • सुनिश्चित करें कि पशु इंसानों का मल नहीं खाते हैं।
  • पालतू पशुओं को सबसे अच्छा आहार खिलाया जाए और उन्हें रसोई के बाहर रखा जाए।
  • यदि कोई पशु बीमार हो जाता है, तो नजदीकी पशु चिकित्सक से संपर्क करें।
  • पशुओं के आहार को मनुष्य के भोजन से अलग रखें।

जोखिम वाले परिवार के सदस्यों जैसे कि छोटे बच्चे, बूढ़े, गर्भवती महिलाएं और वे सदस्य जो पहले ही बीमार या कमजोर हैं, का विशेष ध्यान रखा जाए। इसका अर्थ यह है कि ऐसे परिवार के सदस्यों को अच्छी तरह से न पका हुआ भोजन खासतौर से मांस या अण्डे नहीं देने चाहिए। उन्हें बिना उबला पानी, कच्चा या कच्चे दूध से तैयार पनीर नहीं खाना चाहिए।

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यदि आप पशुओं या पशु उत्पादों के साथ काम करते हैं, तो कुछ अतिरिक्त उपाय भी किए जाने चाहिए (Leeflang et al. 2008):

  • सुनिश्चित करें कि आप उन खतरों को जानते हैं जो आपके व्यवसाय पर लागू होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि आप एक चर्मशोधक हैं, तो सुनिश्चित करें कि आप चर्मशोधन और खाल को संभालने से होने वाले जोखिमों को जानते हैं।
  • सुरक्षात्मक कपड़े जैसे कि डांगरी, रबर के जूते, दस्ताने इत्यादि पहनें, ताकि आपकी त्वचा पशुओं या पशु उत्पादों के सीधे संपर्क में न आए।
  • सुनिश्चित करें कि यह सुरक्षात्मक कपड़े आपके द्वारा घर पर पहने जाने वाले कपड़ों से अलग हैं। घर पर कार्य स्थल पर पहने जाने वाले कपड़े न पहनें, यदि ऐसा किया जाता है तो कार्यस्थल से रोगाणु घर आ सकते हैं।
  • गंदे होने पर अपने सुरक्षात्मक कपड़ों को धो लें। इसे कार्यस्थल पर ही करें या इसे किसी पेशेवर लॉन्ड्री से करने दें।
  • उन क्षेत्रों में खाना-पीना न करें जहां पशु, पशु अपशिष्ट या पशु उत्पाद मौजूद हैं।
  • जितनी जल्दी हो सके सभी संदिग्ध बीमार पशुओं की सूचना नजदीकी पशु चिकित्सालय को दें, ताकि सुरक्षात्मक कदम उठाए जा सकें।
  • यदि आप अपने लिए चिकित्सा सहायता चाहते हैं, तो हमेशा डॉक्टर को बताना न भूलें कि आप पशुओं या पशु उत्पादों के साथ काम करते हैं।
  • काम करते समय अपने हाथों से अपने चेहरे और मुंह को छूने से बचें।
  • घर जाने से पहले अपने हाथ धो लें और हो सके नहा लें।
  • सुनिश्चित करें कि आपात स्थिति में प्राथमिक चिकित्सा किट उपलब्ध है।
  • काम पूरा करने के बाद उपयोग किये जाने वाले उपकरणों को कीटाणुरहित करें।
  • जितना हो सके आगंतुकों को बाहर रखें या सुनिश्चित करें कि वे सुरक्षात्मक कपड़े और जूते भी पहने हैं।

कृपया ध्यान रखें कि इनमें से कोई भी उपाय इस बात की गारंटी नहीं देता कि आप अब कभी बीमार नहीं होंगे! लेकिन ये उपाय किसी भी संक्रामक बीमारी से संक्रमित होने की संभावना को अवश्य कम करते हैं।

  1. अंतरराष्ट्रीय: संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और अंतर्राष्ट्रीय पशुधन अनुसंधान संस्थान (2020) के अनुसार भविष्य में प्राणीरूजा रोगों से निपटने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए (UNEP and ILRI 2020):
  2. प्राणीरूजा रोगों के प्रकोपों ​​को नियंत्रित करने और रोकने के लिए मानव, पशु और पर्यावरण स्वास्थ्य में समन्वित अंतःविषय प्रतिक्रियाओं (इंटरडीसीप्लीनरी रिस्पॉन्स) की आवश्यकता होती है जिसे ‘एक स्वास्थ्य’ दृष्टिकोण से पूरा किया जा सकता है। अतः एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण के पर्यावरण आयामों को सुदृढ़ बनाना चाहिए।
  3. प्राणीरूजा रोगों के उद्भव के मानवजनित चालकों को पता लगाकर उनको नियंत्रित करना चाहिए।
  4. अतीत में आये प्राणीरूजा रोगों के प्रबंधन का ट्रैक रिकॉर्ड रखना चाहिए जिससे मौजूदा संक्रमणों का प्रबंधन भी समय पर हो सके।
  5. भविष्य के संक्रामक खतरों से निपटने के लिए पिछले प्राणीरूजा रोगों के प्रबंधन से सबक लेना चाहिए।
  6. पिछले प्राणीरूजा रोगों से उभरने के मानवजनित चालकों को पता लगाकर भविष्य के खतरों को नियंत्रित किया सकता है।
  7. समय-समय पर नवाचारों और नई तकनीकों का लाभ उठाना चाहिए।
  8. प्राणीरूजा रोगों की रोकथाम और नियंत्रण के लिए जनता और नीतिगत मांगों का जवाब देना
  9. खाद्य प्रणालियों को बदलना और फिर से नियंत्रित करना
  10. वन्य संसाधनों का टिकाऊ उपयोग और बहुपक्षीय पर्यावरण समझौते
  11. मानव-पशुधन इंटरफेस में हस्तक्षेप
  12. साक्ष्य-सूचित नीति बनाना
  13. जोखिम कम करने की रणनीतियों के लिए व्यापक समर्थन का निर्माण करने के लिए समाज के सभी स्तरों पर प्राणीरूजा रोगों और उभरते रोगों के जोखिमों और रोकथाम के बारे में जागरूकता और ज्ञान बढ़ाना।
  14. कृषि और वन्यजीवों के स्थायी सह-अस्तित्व को बढ़ाने वाले परिदृश्यों और समुद्री परिदृश्यों के एकीकृत प्रबंधन के समर्थन को बढ़ावा देना चाहिए, जिसमें खाद्य उत्पादन के कृषि-पारिस्थितिक तरीकों में निवेश शामिल हैं जो प्राणीरूजा रोग संचरण के जोखिम को कम करते हुए अपशिष्ट और प्रदूषण को कम करते हैं।

विश्व प्राणीरूजा रोग दिवस

बहुत से लोगों को पशुओं के साथ रहना अच्छा लगता है। कुछ लोग तो उन्हें खासतौर से कुत्ते-बिल्ली को अपने बिस्तर पर सुलाने के साथ-साथ उनके साथ खाना भी खाते हैं। लेकिन लोग इस बात से अनजान हैं की यदि पशुओं की उचित देखभाल नहीं की गई और उचित दूरी नहीं बनाई जाये तो कई तरह के संक्रमण भी हो सकते हैं जो हवा, पानी, भोजन, किसी भी तरह का संपर्क होने से फैल सकते हैं। पशुओं के खून, लार और ऊत्तकों, बाह्य परजीवीयों के माध्यम से कई बीमारियां मनुष्यों में पहुंचती हैं।

वास्तव में, मनुष्यों में हर 3 में से 2 संक्रामक रोग पशुओं से उत्पन्न होते हैं। विश्व में लगभग 150 प्राणीरूजा रोग मौजूद हैं, और, जैसा कि पिछले कुछ वर्षों में खोजा गया है, 1415 ज्ञात मानव रोगजनकों में से लगभग 60 प्रतिशत जानवरों से उत्पन्न होते हैं (NVL 2019) जबकि 75% नए, उभरते और फिर से उभरने वाली बीमारियां प्राणीरूजा हैं (Viljoen 2020) जिन्हें अब, एक स्वास्थ्य दृष्टिकोण में शामिल कर लिया गया है। विश्वभर में, यह अनुमान लगाया गया है कि लगभग 260 करोड़ लोग प्राणीरूजा रोगों से पीड़ित होते हैं और लगभग 27 लाख लोग प्रतिवर्ष इन रोगों से मर जाते हैं (Viljoen 2020)। अतः प्राणीरूजा रोगों के संदर्भ में जागरूकता ही एकमात्र ऐसा साधन है जिससे संक्रमणों को नियंत्रित किया जा सकता है। इसी उद्देश्य के साथ प्रतिवर्ष 6 जुलाई को विश्व प्राणीरूजा दिवस मनाया जाता है। इस दिन लोगों को पशुओं से होने वाले रोगों के बारे में जागरूक किया जाता है। विश्व प्राणीरूजा रोग दिवस फ्रांसीसी जीवविज्ञानी लुई पाश्चर के काम की याद में मनाया जाता है। 6 जुलाई 1885 को पाश्चर ने रेबीज रोग के खिलाफ एक बच्चे जोसेफ मिस्टर को पहला टीका सफलतापूर्वक लगाया था।

सारांश

मानव के साथ पशुओं के संबंधों से इंकार नहीं किया जा सकता है और यह कभी भी समाप्त नहीं हो सकता है। वर्तमान इलेक्ट्रॉनिक युग में भी पशु प्रजातियों को दूध, मांस, परिवहन, फर और खाद प्राप्त करने के लिए पाला जाता है। जानवरों को खेलों के लिए पालतू बनाया जाता है, अपराधों का पता लगाया जाता है, असामाजिक तत्वों पर नजर रखी जाती है, जीवन रक्षक दवाओं का प्रयोग किया जाता है, मानव और पशु टीकों का परीक्षण किया जाता है, पशुधन और घरों की रखवाली और रोचक उद्देश्य के लिए पाला जाता है। भारत में दूध, मांस, फर और अन्य उप-उत्पादों से सकल घरेलू उत्पाद में पशु उत्पादों का योगदान लगभग 4-5 प्रतिशत है।

भले ही लोग संक्रमित हो रहे हों, फिर भी भविष्य के लिए आशा है और अब हम संक्रमण का सटीक निदान करने के लिए उपकरण विकसित कर रहे हैं। रक्तोद निदान (सेरोडायग्नोसिस) में काफी सुधार हुआ है। संबंधित रोगाणुओं के लिए विशिष्ट प्रतिजनों (एंटीजन) को शुद्ध किया जा रहा है और एलिसा परीक्षण व्यापक रूप से उपयोग में लाये जा रहे हैं।

पिछले दशकों के दौरान, मनुष्य को आघात पहुँचाने वाले प्राणीरूजा रोगों की कई नई प्रजातियाँ सामने आयी हैं। अब प्रश्न उठता है कि प्रकृति में अभी भी नए रोगाणु कैसे हो सकते हैं। हमारे पर्यावरण में बड़े बदलाव हो रहे हैं जो हमारी पारिस्थितिकी को खतरे में डाल रहे हैं। ये परिवर्तन हमारे वन्यजीवों सहित मानव के लिए तबाही मचाएंगे और इस प्रकार इन जानवरों में रोगाणुओं के जीवन को भी बदल देंगे। क्या ये रोगाणु उस मनुष्य के अनुकूल होंगे जो पूर्व पशु आवासों की ओर जा रहा है? अतः अभी भी समय है कि भविष्य के सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, चिकित्सकों, पशु चिकित्सकों और पर्यावरणविदों को नए प्राणीरूजा रोगों के संभावित उद्भव के लिए सतर्क नजर रखनी चाहिए।

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