थनैला रोग में एथनोवेटरीनरी मेडिसिन का मितव्ययी एवं प्रभावी अनुप्रयोग

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थनैला रोग में एथनोवेटरीनरी मेडिसिन का मितव्ययी एवं प्रभावी अनुप्रयोग

USE OF ETHNOVETERINARY MEDICINE AS COST EFFECTIVE & RESULT ORIENTED IN THE TREATMENT OF DAIRY CATTLE  MASTITIS

के.एल. दहिया

पशु चिकित्सक, पशुपालन एवं डेयरी विभाग, हरियाणा

सार

थनैला रोग दुधारू पशुओं में पाया जाने वाला ऐसा रोग है जिसमें दुग्ध ग्रन्थि में सूजन और दुग्ध उत्पादन कम होने जाने से पशुपालकों को अप्रत्याशित आर्थिक हानि होती है। उपचार के बाद भी दुधारू पशु से वांछित दुग्ध उत्पादन लेना चुनौतिपूर्ण होता है। इसके साथ ही थनैला रोग से ग्रसित पशु का दूध प्रतिजैविक दवाओं के उपयोग के कारण पीने योग्य नहीं होता है और शेष दूध को भी मानव आहार श्रृंखला से बाहर करना पड़ता है और इससे भी पशु पालकों को अतिरिक्त आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। आर्थिक हानि एवं बढ़ते प्रतिजैविक प्रतिरोध को देखते हुए एथनोवेटरीनरी मेडिसिन का उपयोग भी बढ़ रहा है। घर, कृषि और गैर कृषि योग्य भूमि में उपलब्ध सामग्री – हल्दी, घृतकुमारी, चूना, नींबू, अदरक, लहसुन, हाड़जोड़ और कढ़ीपत्ता का उपयोग दुधारू पशुओं में थनैला रोग के उपचार में मितव्ययी एवं प्रभावी एथनोवेटरीनरी मेडिसिन के रूप में किया जा सकता है।

https://www.pashudhanpraharee.com/various-indigenous-knowledge-ik-ethno-veterinary-medicine-evm-for-healthcare-practices-used-in-organic-livestock-farming-in-india/

 

प्रमुख शब्द दुधारू पशु, थनैला रोग, आर्थिक हानि, प्रतिजैविक प्रतिरोध, एथनोवेटरीनरी मेडिसिन।

 

 

भूमिका

आदिकाल से ही मनुष्यों और जीव-जंतुओं में संक्रामक रोग रहे हैं जिनका विभिन्न प्रकार की चिकित्सा पद्दतियों जैसे कि लोक/परंपरागत चिकित्सा (एथनोमेडिसिन), संहिताबद्ध शास्त्रीय (आयुर्वेद, सिद्धा, यूनानी और तिब्बती) चिकित्सा, संबद्ध प्रणालियाँ (योग और प्राकृतिक चिकित्सा) और पश्चिमी मूल की प्रणालियाँ (होम्योपैथी, पश्चिमी बायोमेडिसिन अर्थात एलोपैथी) के माध्यम से उपचार किया जाता रहा है। इन चिकित्सा पद्दतियों में लोक चिकित्सा अर्थात एथनोमेडिसिन जिसे आमतौर पर परंपरागत चिकित्सा कहा जाता है, आदिकाल से प्रचलित है। इस चिकित्सा को जीवित रखने में परंपरागत चिकित्सकों की अहम् भूमिका रही है। पशुओं में अपनायी गई एथनोमेडिसिन को एथनोवेटरीनरी मेडिसिन अर्थात परंपरागत पशु चिकित्सा कहते हैं।

मैक्कोर्रके के अनुसार एथनोवेटरीनरी मेडिसिन स्थानीय पशुपालकों द्वारा विकसित परंपरागत ज्ञान, कौशल, विधियों और प्रथाओं को उनके पशुओं की देखभाल को शामिल करती है (McCorkle 1986) और पशु चिकित्सा महाविद्यालयों/विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले एलोपैथिक पशु चिकित्सा के सन्मुख है। दोनों ही गतिशील और परिवर्तनशील हैं। जहां एक ओर एलोपैथिक चिकित्सा को व्यापक स्तर पर महाविद्यालयों/विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है तो वहीं दूसरी ओर एथनोवेटरीनरी मेडिसिन शैक्षणिक संस्थानों के बजाय घर, खेतों और खलिहानों में पशुपालकों द्वारा विकसित की जाती हैं। यह कम व्यवस्थित है, कम औपचारिक है और आमतौर पर इसे लिखने के बजाय मौखिक रूप से एक पीढ़ी-से-दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित किया जाता है। वर्तमान में, कई बहुत से चिकित्सक और शैक्षणिक संस्थान एथनोवेटरीनरी मेडिसिन अभ्यास और अनुसंधान में लगे हुए हैं और पाए गए प्रभावी नुस्खों को मान्य कर रहे हैं। दोनों प्रणालियों, एथनोवेटरीनरी और एलोपैथिक प्रणालियों की अपनी सीमाएं और ताकत हैं और इसलिए, पूरक आधार पर उनका उपयोग करना विवेकपूर्ण होगा।

थनैला रोग दुग्ध ग्रन्थि का रोग है जिसमें दुग्ध ग्रन्थियों में सूजन जाती हैं। यह रोग दुधारू पशुओं में व्यापक स्तर पर पायी जाने वाली समस्या है। थनैला रोग के कई कारणों में से जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न थनैला रोग बहुत महत्त्वपूर्ण है। हालांकि कवक, खमीर व वायरस जनित थनैला रोग भी होता है लेकिन जीवाणु जनित थनैला रोग बहुतायत में नुकसान पहुँचाता हैं। जब थन, रोग जनकों के संपर्क में आते हैं तो रोग जनक दुग्ध वाहिनी में प्रवेश कर जाते हैं जिससे थनैला रोग उत्पन्न होता है। इसके कारण पशु पालकों को अत्यधिक आर्थिक नुकसान होता है। आमतौर पर दुधारू पशुओं में थनैला रोग होने की स्थिति में पशुपालक इसके उपचार में देरी कर देते हैं जिस कारण उनको अप्रत्याशित हानि भी उठानी पड़ती है। इसी के साथ प्रतिजैविक औषधियों के अविवेकपूर्ण एवं अत्यधिक उपयोग के कारण प्रतिजैविक प्रतिरोध भी बढ़ रहा है और प्रतिजैविक औषधियां बेअसर होने से गंभीर समस्या भी बढ़ रही है। इन सब समस्याओं को ध्यान में रखते हुए पशु चिकित्सक की देखरेख में घर या आसपास मौजूद घृतकुमारी, हल्दी, चूना, नींबू के उपयोग से कम किया जा सकता है।

आर्थिक हानि

थनैला रोग से ग्रसित दुधारू पशु का इलाज पशुपालकों को अत्यधिक मंहगा पड़ता है। इलाज के बाद भी रोगी पशु से वांछित दुग्ध उत्पादन नहीं लिया जा सकता है। इसके साथ ही थनैला रोग से ग्रसित पशु का दूध प्रतिजैविक दवाओं के उपयोग के कारण पीने योग्य नहीं होता है और इस संक्रमित दूध को फेंकना पड़ता है जिस कारण पशुपालक को अतिरिक्त धन हानि भी उठानी पड़ती है। एक अनुमान के अनुसार भारत में, पिछले पांच दशकों (1960-2010) में थनैला रोग के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान में लगभग 115 गुना वृद्धि हुई है और थनैला रोग के कारण प्रतिवर्ष 7165.51 करोड़ रुपये की हानि होती है (Bansal & Gupta 2009, NDRI 2012)।

लक्षण

दूधारू पशुओं में थनैला रोग की पाँच अवस्थाएं देखने को मिलती हैं, जो उनके लक्षणों सहित इस प्रकार हैं:

  1. अतितीव्र थनैला रोग (परएक्यूट): इसकी शुरूआत बहुत अचानक होती है जिसमें दुग्ध ग्रंथि में अत्यधिक सूजन आ जाती है और दूध पानी जैसा हो जाता है। इसके कारण दूध अचानक कम या खत्म हो जाता है। दुग्ध ग्रंथि में सूजन, रोग जनकों के कारण, उसके ऊत्तकों व जीवाणुओं के द्वारा उत्पन्न एंजाइम, आंतरिक व बाह्य विषाक्त पदार्थों व श्वेत रक्त कणिकाओं के कारण उत्पन्न होती है। इससे बुखार, चारा न खाना, उदासी, रूमेन की गतिशीलता में कमी, निर्जलीकरण व कभी-कभी पशु की मृत्यु भी हो जाती है। इसमें प्रारंभिक लक्षण दूध व लेवटी में दिखायी देते हैं।
  2. तीव्र थनैला रोग (एक्यूट): इस रोग की शुरूआत भी तीव्र होती है जिसमें दुग्ध ग्रंथि की सूजन मध्यम से बहुत ज्यादा होती है, दूध में कमी, पानी जैसा दूध या दूध में छिछड़े (क्लॉट्स)। इसके लक्षण भी अतितीव्र थनैला रोग जैसे ही लेकिन कम तीव्र होते हैं।
  3. कम तीव्र थनैला रोग (सबएक्यूट): इसमें सूजन कम होती है व दुग्ध ग्रंथि में कोई खास अंतर नहीं मिलता। आमतौर पर दूध में छिछड़े ​‌‌‌दिखायी देते हैं व दूध के रंग में बदलाव आ जाता है। आमतौर पर इसमें अन्य शारीरिक लक्षण ‌‌‌दिखायी नहीं देते हैं।
  4. चिरकालिक थनैला रोग (क्रोनिक): चिरकालिक थनैला रोग अस्पष्ट रोग के रूप में कई महीने तक रह सकता है जो कभी-कभी नैदानिक रूप में ​‌‌‌दिखाई दे जाता है व इलाज के बाद ठीक हो जाता है व फिर कुछ ​‌‌‌दिनों बाद फिर नैदानिक रूप में हो जाता है। इस प्रकार यह रोग महिनोंभर चलता रहता है।
  5. अस्पष्ट थनैला रोग (सब क्लीनिकल): अस्पष्ट थनैला रोग बहुत ज्यादा देखने को मिलता है। यह अवस्था नैदानिक थनैला रोग की तुलना में 15 से 40 गुणा ज्यादा मिलती है। इसमें दुग्ध ग्रंथि व दूध में ज्यादा अंतर ‌‌‌दिखायी नहीं देता है। इसमें दुग्ध उत्पादन व दुग्ध गुणवत्ता कम हो जाती है।

थनैला रोग का प्रभाव केवल दुग्ध ग्रंथि तक ही सीमित नहीं होता है बल्कि यह प्रभावित पशुओं की प्रजनन क्षमता को भी प्रभावित करता है। थनैला रोग के दौरान जीवाणुओं द्वारा उत्पादित विषाक्त तत्व प्रभावित पशु के शरीर में प्रोस्टाग्लैंडीन के उत्पादन को उत्तेजित करके उनमें गर्भाधान और प्रारंभिक भूण के अस्तित्व को प्रभावित करते हैं, जो बाद में कॉर्पस ल्यूटियम के प्रतिपगमन (रिग्रेशन) का कारण बनता है, इस प्रकार, संभावित रूप से एक स्थापित गर्भावस्था के नुकसान का कारण भी बनता है (NDRI 2012)।

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थनैला का प्रचलित उपचार एवं प्रतिजैविक प्रतिरोध

रोगी खासतौर पर थनैला रोग से ग्रसित पशुओं में प्रतिजैविक औषधियों का उपयोग किया जाता है और ये औषधियां देने के बाद उनके दूध को मानवीय उपयोग में नहीं लाने की सलाह दी जाती है लेकिन अधिकतर पशुपालकों द्वारा ऐसा नहीं जाता है और दूध का उपयोग वह स्वयं न कर सार्वजनिक वितरण प्रणाली हेतू विक्रय कर देता है जो अंततः मानवीय उपभोग में आ जाता है। प्रतिजैविक औषधियों के अंधानुप्रयोग, दुरूपयोग एवं अतिप्रयोग से यह समस्या दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है और इस कारण संक्रामक रोगाणुओं में प्रतिजैविक प्रतिरोध (एंटीबायोटिक्स रेजिस्टेंस) भी बढ़ रहा है। प्रतिजैविक प्रतिरोध तब होता है, जब रोगाणु स्वयं को उत्परिवर्तित रूप में बदल लेते हैं और वे प्रतिजैविक औषधी के प्रतिरोधी बन जाते हैं। जो औषधियां प्रभावी रूप से पहले काम करती थीं लेकिन वे अब कम काम करती हैं या बेकार हो चुकी हैं।

प्रतिजैविक औषधियों का निरंतर अतिप्रयोग बढ़ रहा है। खाद्य पशु उत्पादों (दूध एवं चिकन माँस) में प्रतिजैविक औषधियों के अवशेषों की मौजूदगी व्यापक स्तर पर प्रतिजैविक औषधियों के अतिप्रयोग की ओर संकेत देती है (Kakkar & Rogawski 2013, Brower et al. 2017)। यूरोपीय रोग निवारण और नियंत्रण केंद्र, यूरोपीय खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण और यूरोपीय औषधी एजेंसी की 2017 में प्रकाशित सयुंक्त रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2014 में, प्रतिजैविक औषधियों की औसत खपत मनुष्यों एवं पशुओं में क्रमशः 124 और 152 मि.ग्रा. प्रति कि.ग्रा. अनुमानित है (ECDC/EFSA/EMA 2017)। 2017 में पशु चिकित्सा में प्रतिजैविक औषधियों की वैश्विक खपत 93,309 टन थी, जिसका 2030 तक 11.5 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 1,04,079 टन होने का अनुमान है (Tiseo et al. 2020)। इसी के साथ प्रतिजैविक औषधी प्रतिरोध बढ़ने की संभावना से भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।

विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 27 लाख बच्चे जन्म के पहले महीने में ही मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं जिन में से  4,21,000 बच्चे रोगाणुओं के संक्रमण के कारण ही दम तोड़ देते हैं (Liu et al. 2015)। भारत में लगभग 10 लाख बच्चे जन्म के पहले माह में ही प्रतिवर्ष अकाल ही मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं जिन में से 1,90,000 बच्चे केवल रोगाणुओं के संक्रमण के कारण ही दम तोड़ देते हैं और इनमें से 58,319 बच्चे प्रतिजैविक दवाओं के प्रतिरोध के कारण प्रतिवर्ष मर जाते हैं (CDDEP)। इसका सीधा सा अर्थ है कि भारत में लगभग 30 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु केवल प्रतिजैविक दवाओं के बेअसर होने से ही होती हैं। विश्व में मातृत्व प्राप्त महिलाओं में प्रतिवर्ष होने वाली कुल मौतों में से लगभग 11 प्रतिशत मौतें केवल रोगाणु संक्रमण के कारण ही होती हैं (Bonet et al. 2018)। यदि कहा जाए कि बढ़ता संक्रमण एवं प्रतिजैविक प्रतिरोध भविष्य के लिए एक मण्डराने वाला घातक खतरा है, इसमें कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए।

प्रतिजैविक औषधियों का अतिप्रयोग और दुरुपयोग प्रतिजैविक प्रतिरोधी जीवाणुओं के विकास को बढ़ावा देता है। जब भी किसी व्यक्ति या पशु को प्रतिजैविक औषधियां दी जाती हैं, संवेदनशील जीवाणु तो मारे जाते हैं, लेकिन प्रतिरोधी जीवाणु गुणात्मक रूप से बढ़ते रहते हैं। इस तरह से प्रतिजैविक औषधियों के बार-बार उपयोग से औषधी प्रतिरोधी जीवाणुओं की संख्या बढ़ सकती है। अतः भविष्य में उपयोग हेतू बचाए रखने के लिए इन कारगर प्रतिजैविक औषधियों का उपयोग विवेकपूर्वक किया जाना चाहिए।

थनैला के जोखिम कारक एवं उनका निवारण

  • किसी पशु आवास पर थनैला रोग को समाप्त तो नहीं किया जा सकता है लेकिन इसके द्वारा होने वाले नुकसान को अच्छे प्रबंधन द्वारा कम अवश्य किया जा सकता है। थनैला रोग के उत्पन्न होने में प्रबंधन संबंधी जोखिम कारकों की मुख्य भूमिका होती है। पक्के फर्श की तुलना में कच्चे फर्श पर बांधे जाने वाले वाले दुधारू पशुओं में थनैला होने का खतरा सबसे अधिक होता है। यदि पशु आवास की साफ-सफाई अच्छी नहीं है तो भी थनैला रोग होने की अत्यधिक संभावना रहती है। इसके अलावा, पशु का दूध दुहने वाले व्यक्ति के स्वास्थ्य की स्थिति, प्राणीरूजा रोगों, गंदे कपड़े पहनकर, गंदे हाथों से दुग्धोहन करने से थनैला रोग होने की प्रबल संभावना रहती है। अत: प्रसवकालिन मादाओं, पशु आवास और व्यक्तिगत स्वच्छता की ओर विशेष ध्यान रखना चाहिए।
  • दुग्धोहन के संबंध में पूर्ण हस्त विधि अन्य तरीकों की तुलना में बेहतर है, जबकि अंगुठे एवं दो-तीन अंगुलियों की सहायता से या थनों के ऊपर अंगुठा मोड़कर थनों को दबाकर दुग्धोहन करने से थनों के ऊतकों को अधिक नुकसान पहुंचता है, जिससे थनैला रोग होने का खतरा अधिक रहता है। अत: थनैला रोग की संभावना को कम करने के लिए पूर्ण हस्त विधि से दुग्धोहन करना चाहिए।
  • आमतौर पर दुधारू मादाओं का दुग्धोहन से पहले पसमाव के लिए उनके बच्चों को उनके साथ दूध पीने के लिए छोड़ा जाता है और दुग्धोहन करने के बाद उनको पुनः दूध पीने के लिए गाय/भैंस के थनों को चूसने के लिए छोड़ दिया जाता है। लेकिन शोधों से यह भी पता चलता है कि थनों को मुँह में डालने से थनैला रोग बढ़ने की संभावना ज्यादा रहती है। इसके अतिरिक्त, दुग्धोहन के बाद लेवटी में दूध कम रह जाता है जिससे बच्चा थनों को मुँह में दबाकर खींचता है और लेवटी में जोर से सिर मारता रहता है जिससे थनों एवं लेवटी के ऊत्तकों को हानि पहुंचती है। ऐसी प्रक्रिया के दौरान थन के माध्यम से लेवटी में प्रविष्ठ किये जीवाणु थनैला रोग के कारक बनते हैं (Rathod et al. 2017)। अत: दुग्धोहन के बाद बच्चे को दूध पीने के लिए नहीं छोड़ा जाना चाहिए और यदि ऐसा किया भी जाता है तो उसे अधिक समय तक नहीं छोड़ना चाहिए।
  • आमतौर पर दुग्धोहन के बाद मादाएं बैठने की कोशिश करती हैं। ऐसा पाया गया है कि दुग्धोहन के बाद लगभग 40 मिनट तक थनों के छिद्र खुले रहते हैं जिन में से रोगाणु आसानी से दुग्ध ग्रंथि में प्रवेश कर संक्रमण पैदा करते हैं जिससे थनैला रोग की संभावना भी बढ़ जाती है। अतः उनको दुग्धोहन के बाद तुरंत बैठने से रोकने के लिए आहार दिया जाना चाहिए।

थनैला रोग का परंपरागत उपचार

आमतौर पर यह पाया गया है कि अधिकतर पशुपालक दुधारू पशुओं में थनैला रोग होने की स्थिति में बहुत देरी से और रोग के गंभीर होने की स्थिति में ही पशुचिकित्सक के पास आते हैं। इस दौरान पशुपालक अपने तरीके से ही इलाज करते हैं या नीम-हकीमों के चक्कर में रहकर रोग को गंभीर एवं कई बार असाध्य बना लेते हैं। अतः पशुपालकों को सलाह दी जाती है कि वह अपने रोगी पशु का इलाज केवल प्रमाणीकृत पशुचिकित्सक से ही करवाएं और उसी की देखरेख में ही अपने पशुओं का इलाज करवाएं। ऐसे कई कारगर घरेलु उपचार हैं जिनको यदि पशुचिकित्सक की देखरेख अपनाया जाता है तो समय और धन, दोनों की हानि से बचा जा सकता है। इस पद्धति को परंपरागत अर्थात एथनोवेटरीनरी चिकित्सा कहा जाता है जिसका उपयोग सदियों होता आ रहा है जो वर्तमान में भी बखूबी कार्य कर रही है। पशु चिकित्सक की देखरेख में परंपरागत पद्धति के अंतर्गत थनैला रोग का घरेलु उपचार इस प्रकार किया जा सकता है:

  1. ठण्डा पानी: कई बार देखने में आता है कि थनैला रोग की अतितीव्र अथवा तीव्रावस्था में दुधारू पशु की दुग्ध ग्रंथि में अचानक सूजन आ जाती है और गंभीर रूप धारण कर लेती है। कई बार ऐसे दुधारू पशुओं का थन भी फट जाता है व स्थिती गंभीर हो जाती है और थन टूट कर लेवटी से अलग भी हो जाता है। लेकिन यदि योग्य पशु चिकित्सक की देखरेख में ऐसे पशुओं का इलाज करवाने के साथ-साथ ठण्डे पानी का उपयोग प्रभावित दुग्ध ग्रंथि पर छिड़काव करके किया जाए तो उसको अत्यधिक आराम मिलता है और पशु जल्दी ठीक होता है। इसके लिए प्रभावित दुधारू पशु की दुग्ध ग्रंथि पर लगातार आधा घण्टा से एक घण्टा तक ठण्डे पानी का छिड़काव दिन में कम-से-कम तीन-चार बार करना चाहिए। प्रभावित दुग्ध ग्रंथि पर ठण्डा पानी लगाने से तात्पर्य यह है कि उसमें रक्त प्रवाह को कम करके ठीक उसी प्रकार सिकुड़न पैदा करने से है जैसे कि पानी में धान की रोपाई करते समय हाथ-पाँव की अंगुलियों की त्वचा सिकुड़ सी जाती हैं। ऐसा करने से प्रभावित दुग्ध ग्रंथि जल्दी ठीक हो जाती है और पशुपालक का दवाओं पर होने वाला खर्च भी कम हो सकता है और साथ ही थन टूट कर अलग होने की संभावना भी कम हो जाती है।
  2. दुग्धोहन की आवृत्ति में वृद्धि: अधिकतर मामलों में, थनैला रोग दुग्ध ग्रंथि का एक स्थानीयकृत (लोकेलाइज्ड) संक्रमण है। इसलिए इसके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए। थनैला रोग की प्रारंभिक अवस्था में दुग्धोहन की आवृत्ति में वृद्धि कर देनी चाहिए अर्थात दिन में 4-5 बार लेवटी से दूध निकालना चाहिए। ऐसा करने से लगभग 50 प्रतिशत मामले स्वतः ठीक हो सकते हैं। यहां पर यह बात अवश्य ध्यान रखें कि नजदीकी पशु चिकित्सक की सहायता लेना कभी नहीं भूलना चाहिए।
  3. दुग्ध ग्रंथि पर लेप लगाना: थनैला रोग से ग्रसित दुग्ध ग्रंथि पर लेप लगाने के लिए बाजार में भी कई तरह की औषधियां उपलब्ध हैं। लेकिन, पशुपालक घर या आसपास उपलब्ध निम्नलिखित द्रव्यों का उपयोग भी पशु चिकित्सक की देखरेख में सकते हैं।
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सामग्री: 1. घृतकुमारी (एलो वेरा) के पत्ते: 250 ग्राम, 2. हल्दी पाउडर: 50 ग्राम, 3. चूना पाउडर: 15 ग्राम, 4. नींबू: दो फल, 5. कढ़ीपत्ता: दो मुट्ठी, गुड़: आवश्यकतानुसार (50-100 ग्राम)।

तैयार करने की विधि : सबसे पहले घृतकुमारी के पत्तों के किनारों से कांटे अलग कर दें और इसके बाद इसके छोटे-छोटे टुकड़े करके मिक्सी या खरल में डालकर पीस लें। अब इसमें हल्दी की गांठ से तैयार पाउडर मिला लें; घर में मौजूद हल्दी पाउडर भी मिलाया जा सकता है। अब इसमें चूना डालकर अच्छी तरह मिलाकर पेस्ट बना कर भण्डारित कर लें। ध्यान रहे कि इस पेस्ट का रंग ईंट की तरह लाल होना चाहिए। कम गहरा लाल रंग या पीला रंग मिलावटी हल्दी के कारण होता है।

उपयोग विधि : सबसे पहले थनों एवं लेवटी को स्वच्छ पानी से अच्छी तरह धोकर साफ कर लें। तैयार पेस्ट में से मुट्ठीभर (दसवां भाग) लेकर 150 से 200 मि.ली. पानी मिलाकर पतला कर लें। अब इसको लेवटी एवं थनों के ऊपर लगाएं। ऐसा दिन में 8-10 बार, 5 दिन तक या ठीक होने तक करें। लेवटी और थनों पर हर बार लेप लगाने से पहले दुग्ध ग्रंथि को स्वच्छ पानी से अवश्य धोयें और हर बार दूध अवश्य निकालें। प्रतिदिन शाम के समय आखिरी लेप करते समय पानी के बजाय इसमें सरसों का तेल मिलायें। पशु को दो-दो नींबू दो-दो भागों में काटकर, थोड़ा नमक लगाकर भी प्रतिदिन सुबह-शाम खिलाएं (Nair et al. 2017)।

दूध में खून आने पर उपरोक्त विधि के अतिरिक्त, दो मुट्ठी कढ़ीपत्ता को पीसकर गुड़ के साथ मिलाकर दिन में दो बार, ठीक होने तक भी खिलाएं। यदि थनैला रोग ज्यादा दिनों से है और दुग्ध ग्रंथि में सख्तपन हो तो घृतकुमारी, हल्दी एवं चूना के साथ हाडजोड़ (सिसस क्वाड्रेंगुलेरिस) के 2 फल भी मिला लें व 21 दिनों तक इस औषधी को लेवटी पर लगाएं।

औषधीय निर्देश: उपरोक्त पेस्ट प्रतिदिन ताजी तैयार करें। मलहम लगाने से पहले लेवटी को उबले हुए पानी को ठण्डा होने के बाद लेवटी एवं थनों को अवश्य साफ करें। दुग्ध ग्रंथि पर लेप लगाने से पहले हर बार दूध अवश्य निकालें।

  1. बारम्बार होने वाला थनैला रोग: ऐसा भी पाया गया है कि उपचार के बाद ठीक हुआ थनैला कुछ दिनों बाद दोबारा हो जाता है। ऐसी स्थिति को बारम्बार होने वाला थनैला (रिकरंट मैस्टाइटिस) कहते हैं। इस स्थिति से बचने के लिए थनैला रोग से ग्रसित पशुओं को 10 से 20 ग्राम लहसुन प्रतिदिन , सुबह-शाम, 7 से 10 दिन तक दिया जा सकता है।
  2. विशेष ध्यानार्षण: थनैला रोग के बारे में एक बात अवश्य ध्यान रखें कि समय पर उपचार न होने की स्थिति में पशु की दुग्ध ग्रंथि का प्रभावित भाग स्थायी रूप से लाइलाज भी हो सकता है। अतः किसी भी प्रकार का उपचार समय पर नजदीकी पशु चिकित्सक की देखरेख में ही किया जाना चाहिए। पशु चिकित्सक ही प्रभावित पशु की रोगावस्था का आंकलन कर सकता है और उसी अनुरूप वह पीड़ित पशु का उपचार करता है।

परंपरागत चिकित्सा में उपयुक्त विधियों और औषधियों की क्रियाएं

दुग्ध ग्रंथि के प्रभावित भाग में ठंडा पानी या बर्फ लगाना रक्त वाहिकाओं को संकुचित करता है जिससे उस भाग में रक्त का प्रवाह कम होता है, उदाहरण के लिए, चोट पर बर्फ लगाने से सूजन को कम करने में मदद मिलती है। उस भाग में दर्द, शोथ (सूजन) और शोफ (इडिमा) में भी आराम मिलता है।

दिन में 3-4 बार दूध निकालने से दुग्ध ग्रंथि में मौजूद संक्रामक रोगाणु की संख्या कम होने से उपचार में सहायता मिलती है।

घृतकुमारी का औषधीय उपयोग सभ्यता जितना ही पुराना है और पूरे इतिहास में इसका उपयोग लोकप्रिय लोक औषधी के रूप में किया जाता रहा है। वर्तमान में पौधे का व्यापक रूप से त्वचा देखभाल, सौंदर्य प्रसाधन और न्यूट्रास्यूटिकल्स के रूप में किया जाता है। इसकी रोगाणुरोधी गतिविधि में एंथ्राक्विनोन (एलोइन और इमोडिन), फ्लेवोनोइड्स, टैनिन, सैपोनिन, पी-कौमारिक एसिड, एस्कॉर्बिक एसिड, पायरोकेटेकोल और सिनेमिक एसिड के कारण होती है। घृतकुमारी की शोथरोधी गतिविधि ब्रैडीकाइनेज एंजाइम के कारण बताई गई है जो संवहनी पारगम्यता (वास्कुलर परमिएबिलिटी), न्यूट्रोफिल स्थानांतरगमन (माग्रेशन), ल्यूकोसाइट आसंजन (एडहेजन) और शोफ (इडिमा) को कम करती है। यह ट्यूमर नेक्रोसिस फैक्टर (टीएनएफ) अल्फा के उत्पादन को कम करने के लिए भी प्रभावी पाया गया है, प्रोटाग्लैंडीन एफ2अल्फा और थाइमोसिन बीटा 4 को रोकता है (Nair et al. 2017)।

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हल्दी के स्थिर तेलों में अल्कलॉइड, टैनिन, फेनोलिक्स, टरपेनोइड्स, फाइटोस्टेरॉल, सैपोनिन, फ्लेवोनोइड्स, ग्लाइकोसाइड्स, फैटी एसिड जैसे पामिटोलिक एसिड और अल्फा- टरमेरॉन भी सूक्ष्मजीवों की विस्तृत श्रृंखला के खिलाफ रोगाणुरोधी गतिविधि रखते हैं। करक्यूमिन, हल्दी का सक्रिय घटक सक्रिय बी कोशिकाओं (लिम्फोसाइट्स) के न्यूक्लीयर ट्रांक्रीप्शन फैक्टर-कप्पा बी (एनएफ-केबी) को रोकता है, जो बदले में ट्यूमर नेक्रोसिस फैक्टर (टीएनएफ) अल्फा, सुपरऑक्साइड्ज, साइक्लोऑक्सीजिनेज (कॉक्स)-2, इंड्यूसिबल नाइट्रिक ऑक्साइड सिंथेज (आईएनओएस) और नाइट्रिक ऑक्साइड (एनओ) को कम करता है। यह लाइपोऑक्सीजीनेज (एलओएक्स) मार्ग (पाथवे) को रोकता है और ल्यूकोट्रिएन के गठन को कम करता है। हल्दी में मौजूद घटक शोथरोधी कार्य करते हैं (Nair et al. 2017)।

चूना (कैल्शियम हाइड्रॉक्साइड) शोथरोधी कार्य के लिए जाना जाता है और शोफ (इडिमा) के गठन को कम करता है (Nair et al. 2017)।

ट्यूमर नेक्रोसिस फैक्टर (टीएनएफ) अल्फा और ट्रांसफोर्मिंग ग्रोथ फैक्टर लेवटी में शोथ और फाइब्रोसिस उत्पन्न करते हैं। इन्हीं फैक्टर्ज को हाड़जोड़ कम करने में सहायक होता है (Jaya et al. 2010) जो दुग्ध ग्रंथि में उत्पन्न फाइब्रोसिस को कम करते हैं।

कढ़ीपत्ता दुग्ध ग्रंथि की दुग्ध कोशिकाओं पर रक्त बहने को रोकने की क्रिया करता है और नींबू में मौजूद विटामिन सी इस क्रिया और अधिक सहायक होता है (Umadevi & Umakanthan 2010)।

लहसुन में रोगाणुरोधी तत्व मौजूद होते हैं। लहसुन के सक्रिय तत्वों में से एलिसिन में विभिन्न प्रकार के रोगाणुरोधी प्रभाव होते हैं। एलिसिन अपने शुद्ध रूप में एस्चेरिचिया कोलाई के बहुऔषधी-प्रतिरोधी एंटरोटॉक्सिकोजेनिक उपभेदों सहित ग्राम-नेगेटिव और ग्राम-पॉजिटिव बैक्टीरिया की एक विस्तृत सीमा के विरूध जीवाणुरोधी गतिविधि पायी जाती है। यह फंगसरोधी, विशेष रूप से कैंडिडा एल्बीकैंस के विरूध; कृमिघ्न, जिसमें कुछ आंतों के प्रोटोजोआ जैसे कि एंटामिबा हिस्टोलिटिका और जियार्डिया लैम्ब्लिया भी शामिल हैं, के विरूध भी कार्य करता है। एलिसिन में विषाणुरोधी गुण भी होते हैं। एलिसिन का मुख्य रोगाणुरोधी प्रभाव विभिन्न प्रकार के एंजाइमों के थियोल ग्रुप के साथ इसकी रासायनिक प्रतिक्रिया के कारण होता है, जो रोगाणुओं में सिस्टीन प्रोटीनेज गतिविधि के आवश्यक चपापचय को प्रभावित करते हैं (Ankri & Mirelman 1999)।

सारांश

जैसे-जैसे पशुओं के दुग्धोत्पादन में वृद्धि हुई है तो वैसे-वैसे उनमें थनैला रोग की संभावना भी बढ़ी है। यह सत्य है कि थनैला रोग से अप्रत्याशित एवं अत्यधिक आर्थिक हानि होती है लेकिन इसका प्रभाव केवल दुग्ध ग्रंथि तक ही सीमित नहीं होता है बल्कि यह प्रभावित पशुओं की प्रजनन क्षमता को भी प्रभावित करता है। अतः थनैला रोग की रोकथाम के लिए प्रसवकालिन मादाओं का उचित प्रबंधन, पौष्टिक आहार और स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना चाहिए। थनैला रोग होने की स्थिति में पशुपालक देरी न करें और उन्हें स्वयं उपचार करने से बचना चाहिए। बढ़ते प्रतिजैविक प्रतिरोध के जोखिम को कम करने के लिए परंपरागत औषधी के रूप में घृतकुमारी, हल्दी, चूना, हाड़जोड़, नींबू, कढ़ीपत्ता और लहसुन का उपयोग मितव्ययी अर्थात कम खर्चीला और प्रभावी है लेकिन इसका उपयोग भी पशु चिकित्सक की देखरेख में किया जाता है तो यह अत्यधिक प्रभावी सिद्ध होता है।

संदर्भ

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