धन्वन्तरी जयंती एवं राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस( National Ayurveda Day)

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धन्वन्तरी जयंती एवं राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस( National Ayurveda Day)
धन्वन्तरी जयंती एवं राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के अवसरपर सभी मान्यवर वैद्यवरों को हार्दिक शुभकामनाएँ।
आज धनतेरस का पवित्र महापर्व है | जिसे ब्रह्माण्ड के पहले चिकित्सक “धन्वन्तरी” की याद में मनाया जाता है क्योंकि, वस्तुतः स्वास्थ्य ही सबसे अमूल्य धन है | मेरे सभी मित्रो एवं उनके सम्पूर्ण परिवारजनों को अच्छे स्वास्थ्य एवं ढेर सारे धन प्राप्ति की कामना के साथ आज धनतेरस एवं आगामी दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ |
दीवाली से पहले धनतेरस पर पूजा का विशेष महत्व होता है। इस दिन लक्ष्मी-गणेश और कुबेर की पूजा की जाती है। धनतेरस यानी अपने धन को तेरह गुणा बनाने और उसमें वृद्धि करने का दिंन। इसी दिन भगवान धनवन्तैरी का जन्मन हुआ था जो कि समुन्द्रं मंथन के दौरान अपने साथ अमृत का कलश व आयुर्वेद लेकर प्रकट हुए थे और इसी कारण से भगवान धनवन्त री को औषधी का जनक भी कहा जाता है। धनतेरस के दिन सोने-चांदी के बर्तन खरीदना भी शुभ माना जाता है। इस दिन धातु खरीदना भी बेहद शुभ माना जाता है।
: दीवाली से पहले धनतेरस पर पूजा का विशेष महत्व होता है। इस दिन लक्ष्मी-गणेश और कुबेर की पूजा की जाती है। धनतेरस यानी अपने धन को तेरह गुणा बनाने और उसमें वृद्धि करने का दि न। इसी दिन भगवान धनवन्तैरी का जन्मन हुआ था जो कि समुन्द्रं मंथन के दौरान अपने साथ अमृत का कलश व आयुर्वेद लेकर प्रकट हुए थे और इसी कारण से भगवान धनवन्तमरी को औषधी का जनक भी कहा जाता है। धनतेरस के दिन सोने-चांदी के बर्तन खरीदना भी शुभ माना जाता है। इस दिन धातु खरीदना भी बेहद शुभ माना जाता है।
‘हिंदू कैलेंडर के मुताबिक धनतेरस कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है। इसके ठीक दो दिन बाद दीपावली मनाई जाती है। ‘धन’ का मतलब समृद्धि और ‘तेरस’ का मतलब तेरहवां दिन होता है।’कारोबारियों के लिए धनतेरस का खास महत्व होता है क्योंकि धारणा है कि इस दिन लक्ष्मी पूजा से समृद्धि, खुशियां और सफलता मिलती है। साथ ही सभी के लिए इस पूजा का खास महत्व होता है।
धनतेरस के दिन से दीपावली मनाई जाती है और मां लक्ष्मी के स्वागत की तैयारियां की जाती हैं। लक्ष्मी के पैरों के संकेत के तौर पर रंगोली से घर के अंदर तक छोटे छोटे पैरों के चिह्न बनाए जाते हैं। शाम को 13 दिए जला कर लक्ष्मी की पूजा की जाती है। माना जाता है कि इस दिन लक्ष्मी पूजा से समृद्धि, खुशियां और सफलता मिलती है।
सौभाग्य सूचक के तौर पर धनतेरस के दिन दिन लोग सोना या चांदी या बर्तन खरीदते हैं। जमीन, कार खरीदने, निवेश करने और नए उद्योग की शुरूआत के लिए भी यह दिन शुभ माना जाता है। गांवों में इस दिन लोग पशुओं की पूजा करते हैं। वह मानते हैं कि उनकी आजीविका पशुओं से चलती है इसलिए आय के स्रोत के तौर पर उनकी पूजा करना चाहिए। दक्षिण भारत में इस दिन गायों को खूब सजाया जाता है और फिर उनकी पूजा की जाती है। गायों को लक्ष्मी का अवतार माना जाता है।
कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन
भगवान धनवन्तरि अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए इस तिथि को धनतेरस के नाम से जाना जाता है। धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था।
रामायण मे एक प्रसंग है कि जब लक्ष्मणजी मेघनाथ के शक्तिवाण से मूर्छित हो जीवन –मरण से जूझ कर रहे थे तब सुषेन बैद ने हनुमानजी को जड़ी बूटी लाने के लिए कहा था । संत तुलसी दास ने रामायण मे लिखा है – ‘ राम पदारबिन्द सिर नायउ आइ सुषेन ,कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसूत लेन’। हमारे देश मे अत्यंत प्राचीन काल से देशी चिकित्सा यानी जड़ी बूटी से इलाज़ होता रहा है । इस चिकित्सा का इतिहास 9 हज़ार वर्ष से भी पुराना है । धन्वन्तरी द्वारा देवताओ और दानवो के बीच हुये समुद्र मंथन मे हाथ मे औषध कलश लेकर निकालने का हमारे धर्म ग्रंथो मे जिक्र है । ईसा पूर्व 12 सौ मे चरक से लेकर कुसुमांजली तक कई ऐसे देशी चिकित्सा विज्ञानी हुये जिनहे हम इस चिकित्सा प्रणाली के पुरौधा कह सकते हैं । अपने देश मे मेहरगढ़ मे हुई खुदाई मे मिले प्रमाणो के आधार पर यह प्रमाणित हो गया है कि इस देश मे शल्य चिकित्सा का इतिहास भी कम से कम 9 हज़ार वर्ष पुराना है ।शल्य चिकित्सा पद्धति के पिता कहे जानेवाले सुश्रुत तो ईसा के एक हज़ार वर्ष पहले हुये थे जिनहोने ‘सुश्रुत संहिता ‘मे शल्य चिकित्सा का विस्तार से वर्णन किया है । दंत चिकित्सा के भी कई रोचक विवरण उसमे हैं । ईसा पूर्व 9 हज़ार से लेकर छठी शताब्दी तक देशी शल्य चिकित्सा की पद्धति हमारे देश मे रही । यह भी प्रमाण मिले है कि जब देशी पद्धति से कोई चिकित्सक शल्य चिकित्सा के निमित्त शरीर के कोई हिस्से को चीरता था तब उसे सिलने के लिए घाव पर जहरीली चिटियाँ छोड़ दी जाती थी । इन्ही जहरीली चिटियो द्वारा घाव साफ होने साथ –साथ उसके सिलने की प्रक्रिया भी हो जाती थी ,इस तरह के कई रोचक प्रसंग ‘सुश्रुत संहिता ‘मे मिलते है । लेकिन महावीर और बुद्ध के समय शल्य चिकित्सा पर रोक लगा दी गई थी क्योंकि उस क्रिया को हिंसक माना गया था ।धर्मगत कारणो से चिकित्सा की इस विज्ञान पद्धति को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया गया । लेकिन इसके बाबजूद कुछ क्षेत्र मे चिकित्सा की यह परंपरागत पद्धति जारी रही । कई जनजातियो ने जड़ी बूटी से इलाज करने की परंपरा को विकसित किया । हमारे यहाँ मसालो के द्वारा कई रोगो की चिकित्सा होती रही है ।पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान का इतिहास केवल 6-7 सौ वर्ष पुराना है। अपने देश मे उसका आगमन मुगल शासन काल मे होने के प्रमाण मिलते हैं । होमिओपथिक चिकित्सा प्रणाली का इतिहास भी बहुत पुराना नहीं है ।आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति अंग्रेज़ो से शासन काल मे हतोत्साहित होती रही । आज़ादी मिलने के बाद भी ,पिछले 70 वर्षो मे इस चिकित्सा प्रणाली को पुनर्जीवित करने के कोई भी गंभीर प्रयास सरकारी स्तर पर नहीं किए गए। लेकिन इसके बाबजूद अपने देश मे देशी चिकित्सा पर विश्वास करनेवालों की कमी नहीं है और आज एलोपथी चिकित्सा की जगह जड़ी बूटी आधारित देशी चिकित्सा की ओर भी लोगो का रुझान बढ़ा है
आज धनवन्तरी जयन्ती है. श्री धनवन्तरी, भगवान विष्णु के 17वें अवतार, देवों के वैध व प्राचीन उपचार पद्दति आयुर्वेद के जनक हैं.लौकिक में आज के दिन को धनतेरस भी कहा जाता है
अठाहरवीं शताब्दी से पहले ना तो विश्व में ऐलोपैथी नाम की कोई चिकत्सा पद्धति थी और ना ही होमोपैथी थी। योरूप में चिकित्सा विज्ञान नहीं के बराबर था जब कि चिकित्सा क्षेत्र में भारत के प्राचीन ग्रंथ सक्षम, विस्तरित तथा उच्च कोटि के थे। पौराणिक वैद्य धन्वन्तरी के अतिरिक्त ईसा से पाँच शताब्दी पूर्व सुश्रुत और ईसा के दो सौ वर्ष पश्चात शल्य चिकित्सक चरक और अत्रेय के नाम मानवी चिकित्सा के क्षेत्र में मुख्य हैं। चरक और सुश्रुत विश्व के प्रथम फिज़ीशियन और सर्जन थे जिन्हों ने आधुनिक चिकित्सा पद्धति की नींव रखी।
सुश्रुत——
सुश्रुत को प्रेरणाधन्वन्तरी से प्राप्त हुई थी। सुश्रुत ने संस्कृत में रोगों की जाँच के बारे में ग्रंथ लिखा तथा उन के उपचार भी बताये। उन की कृति में शल्य चिकित्सा, हड्डियों की चिकित्सा, औषधियाँ, आहार, शिशु आहार तथा स्वच्छता और चिकित्सा के बारे में उल्लेख किया गया हैं। इस कृति के पाँच भाग हैं। सुश्रुत दूारा करी गयी कई शल्य चिकित्सायें आधुनिक काल में भी कठिन मानी जाती हैं। सुश्रुत ने 1120 रोगों का वर्णन किया है तथा उन के उपचार निरीक्षण दूारा बताये हैं।
सुश्रुत ने कई शल्य उपचारों के बारे में लिखा है जैसे कि मोतिया-बिन्द, हरनियाँ, और शल्य क्रिया (सीजेरियन) दूारा जन्म-क्रिया। जाबामुखी शल्का यंत्र मोतिया-बिन्द के आप्रेशन में इस्तेमाल किया जाता था। सुश्रुत 121 प्रकार के शल्य यन्त्रों का प्रयोग करते थे जिन में लेनसेट्स, चिमटियाँ (फोरसेप्स), नलियाँ (कैथिटर्स), तथा गुप्तांगो के स्त्राव की निरीक्षण (रेक्टल एण्ड वैजाईनल स्पेकुलम्स) मुख्य हैं। शल्यक्रिया यन्त्र इतने तेज़ और सक्षम थे कि ऐक बाल को भी लम्बाई की दिशा में विभाजित कर सकते थे। ब्राह्मणों के विरोध के बावजूद भी सुश्रुत ने मृत शरीरों को शल्य प्रशिक्षशण देने हेतु प्रयोग किया तथा इसे आवशयक बताया था। उन्हों ने पाचन प्रणाली तथा शरीरिक विकास के बारे में लिखा हैः-
रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते।
मदेसोSस्थि ततो मज्जा मज्जायाः शुक्रसम्भ्वः।। (सुश्रुत)
अर्थात – मनुष्य जो कुछ भोजन करता है वह पहले पेट में जा कर पचने लगता है, फिर उस का रस बनता है, उस रस का पाँच दिन तक पाचन हो कर उस से रक्त पैदा होता है। रक्त का भी पाँच दिन पाचन हो कर उस से माँस बनता है……और इसी प्रकार पाँच पाँच दिन पश्चात माँस से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा, तथा अंत में मज्जा से सप्तम सार वीर्य बनता है। यही वीर्य फिर ओजस् रूप में सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो कर चमकता रहता है। स्त्री के इसी सप्तम सार पदार्थ को रज कहते हैं। वीर्य काँच की तरह चिकना और सफेद होता है और रज लाख की तरह लाल होता है। इस प्रकार रस से ले कर वीर्य और रज तक छः धातुओं के पाचन करने में पाँच दिन के हिसाब से पूरे तीस दिन तथा लग भग चार घंटे लगते हैं। वैज्ञानिकों के मतानुसार चालीस सेर भोजन में से एक सेर रक्त बनता है और एक सेर रक्त से दो तोला वीर्य बनता है। इसी कारण से स्वास्थ रक्षा हेतु भारतीय विचारों में ब्रह्मचर्य पालन पर सर्वाधिक अधिक महत्व दिया जाता है।
सुश्रत प्रथम चिकित्सक थे जिन्हों ने ऐक कटे फटे कान के रोगी को उसी के शरीर के अन्य भाग से चमडी ले कर उपचार दूारा ठीक किया था। सुश्रुत को आधुनिक रिह्नोप्लास्टरी तथा नासिका के पुनर्निर्माण क्रिया का जन्मदाता कहना उचित होगा।
सुश्रुत ने शल्य क्रिया से पूर्व तैय्यारी के लिये नियमावली भी निर्धारित करी थी। उन का निर्देश था कि शल्य क्रिया से पूर्व घाव को स्टैरलाईज़ किया जाना अनिवार्य है जो कि आधुनिक एन्टीसेप्टिक सर्जरी की ओर पहला कदम माना जाता है।
चरक————–
चरक ने चरक-संहिता की रचना की है जो चिकित्सा शास्त्र का वृहद ग्रँथ (एनसाईक्लोपीडिया) है तथा भारत में आज भी प्रयोग किया जाता है। इस ग्रँथ के आठ खण्ड हैं जिन में रोगों की व्याख्या के साथ उपचार भी दिये गये हैं। ऐलोपैथिक चिकत्सकों के लिये जिस प्रकार यूनानी हिप्पोक्रेटिक्स की दीक्षा का महत्व है उसी प्रकार चरक ने भारत के चिकित्सकों के लिये नियमावली निर्धारित की थी। चरक ने अपने शिष्यों को दीक्षा दी थी किः
“यदि तुम चिकित्सा क्षेत्र में अपने लिये यश, सम्पदा और सफलता की अपेक्षा करते हो तो तुम्हें प्रति दिन जागने के पश्चात और सोने से पूर्व समस्त प्राणियों के भले के लिये ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये तथा तुन्हें अपने तन, मन और आत्मा से रोगी की देख-भाल करनी चाहिये। तुम्हें अपने रोगियों की उपेक्षा कदापि नहीं करनी चाहिये चाहे उन की देख भाल में अपनी जान भी गँवानी पडे। तुम्हे नशीले पदार्थों का सेवन, दुष्ट संगति तथा दुष्ट कर्मों से स्दैव बचना चाहिये। तुम्हें स्दैव प्रिय भाषी, सहनशील और अपनी ज्ञान तथा कार्य कुशलता जागृत करते रहने के प्रति उद्यत रहना चाहिये ”।
अत्रेय – अत्रेय ईसा से पाँच सौ वर्ष पूर्व हुये थे। उन्हों ने शल्य चिकित्सा के बारे में ग्रंथ लिखा है। उन के अनुसार माता पिता का बीज माता पिता की के निजि शरीर से स्वतन्त्र होता है किन्तु उस में माता पिता के समस्त गुण दोष सुक्षम रूप में समेटे होते हैं।
माता पिता दूारा संतान पर पडने वाले प्रभाव को मनु-समृति में भी विस्तार से उल्लेखित किया गया हैः-
क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान्।
क्षेत्रबीजसमायोगात्संभवः सर्वदेहिनाम्।।
विशिष्टं कुत्रचिद्बीजं स्त्रयोनिस्त्वेव कुत्रचित्।
उभयं तु सनं यत्र सा प्रसूति प्रशस्.ते।। (मनु स्मृति 9- 33-34)
स्त्री क्षेत्र रूप और पुरुष बीज रूप होता है। क्षेत्र और बीज के संयोग से सभी प्राणियों की उत्पति होती है। कहीं बीज प्रधान और कहीं क्षेत्र प्रधान होता है। जहाँ दोनो समान होते हैं वहाँ सन्तान भी श्रेष्ठ होती है।
बीजस्य चैव योन्याश्च बीजमुत्कृष्ट मुच्यते।
स्रवभूप्रसूतिर्हि बीजलक्षणलक्षिता।
यादृशं तृप्यते बीजं क्षेत्रे कालोपपादिते।
तादृग्रोहति तत्तस्मिन्बीजं स्वैर्व्याञ्जतं गुणैः ।। (मनु स्मृति 9- 35-36)
बीज और क्षेत्र में बीज को ही श्रेष्ठ कहते हैं क्यों कि सभी प्राणियों की उत्पति बीज के ही लक्ष्णानुसार ही होती है। समय पर जैसा ही बीज क्षेत्र में बोया जाये गा वैसे ही बीज के गुणों से युक्त क्षेत्र में पौधा निकलता है।
इयं भूमिर्हि भूतानां शाशवती योनिरुच्यते।
न च योनिगणान्कांशि्चद्बीजं पुष्यति पुष्टिषु।।
भूमावप्येककेदारे कालोप्तानि कृषीवलैः।
नानारुपाणि जायन्ते बीजानीह स्वभावतः।। (मनु स्मृति 9- 37-38)
यह भूमि सभी प्राणियों का निरन्तर उत्पति स्थान है, किन्तु कभी भी भूमि के गुण से बीज पुष्ट नहीं होता है। एक ही समय में एक खेत में कृषकों दूारा बोये हुए अनेक प्रकार के बीज अपने स्वभाव के अनुसार अनेक प्रकार से उत्पन्न होते हैँ।
उपरोक्त तथ्यों की वैज्ञानिक प्रमाणिक्ता को पाश्चात्य चिकित्सक भी आसानी से नकार नहीं सकते और ना ही यह अन्ध विशवास के क्षेत्र में कहे जा सकते हैं।
चिकित्सा सम्बन्धी ग्रन्थ———–
पाणनि कृत अष्टाध्याय़ी में कई रोगों के नाम उल्लेख हैं जिस से प्रमाणित होता है कि ईसा से 350 वर्ष पूर्व रोग जाँच प्रणाली विकसित थी। संस्कृत भाषा के शब्द-कोष ‘अमरकोश’ में शरीर के अंगों के नाम दिये गये हैं जो चिकित्सा पद्धति के विकास का प्रमाण हैं।
वाघतः ने625 ईसवी में छन्द तथा पद्य में ऐक चिकित्सा ग्रंथ की रचना की।
भाव मिश्र ने 1550 ईसवी में शरीर विज्ञान पर ऐक विस्तरित ग्रन्थ लिखा जिस में रक्त संचार प्रणाली का पूर्ण विवरण दिया है। यह उल्लेख पाश्चात्य विशेषज्ञ हार्वे से लगभग ऐक सौ वर्ष पूर्व लिखे गये थे। भाव मिश्रने सिफिल्स रोग में पारे दूारा उपचार की परिक्रया लिखी है। यह रोग पूर्तगालियों के माध्यम से भारत में अभिशाप बन कर आया था।
इन के अतिरिक्त निम्नलिखित प्राचीन ग्रंथों में भी चिकित्सा सम्बन्धी जानकारी दी गयी हैः-
नारायण सूक्त – मानव शरीर विशेषत्यः हृदय के बारे में लिखा है।
मालिनि शास्त्र ऋषि श्रगिं जड और चेतन शरीरों के बारे में लिखा है।
गरुड़ः विषनाशक औषिधयों के बारे में विस्तरित जानकारी दी है।
उपचार पद्धति—————
सुश्रुत तथा चरक दोनो ने ही रोगी की शल्य परिक्रिया के समय औषधि स्वरूप मादक द्रव्यों के प्रयोग का वर्णन किया है। उल्लेख मिलता है कि भारत में 927 ईसवी में दो शल्य चिकित्सकों ने ऐक राजा को सम्मोहिनी नाम की मादक औषधि से बेहोश कर के उस के मस्तिष्क का शल्य क्रिया से उपचार किया था।
नाडी गति निरीक्षण से रोग पहचान तथा उपचार का उल्लेख 1300 ईसवी तक मिलता है।
मूत्र-विशलेषण भी रोग पहचान का विशवस्नीय विकलप था।
चीन के इतिहासकार युवाँग चवँग के अनुसार भारतीय उपचार पद्धति सात दिन के उपवास के पश्चात आरम्भ होती थी। कई बार तो केवल पेट की सफाई की इसी परिक्रिया के दौरान ही रोगी स्वस्थ हो जाते थे। यदि रोगी की अवस्था में सुधार नहीं होता था तो अल्प मात्रा में औषधि का प्रयोग अन्तिम विकलप के तौर पर किया जाता था। आहार, विशेष स्नान, औषधीय द्रव्यों को सूंघना, इनहेलेशन, यूरिथ्रेल एण्ड वैजाइनल इनजेक्शन्स को ही विशेष महत्व दिया जाता था। भारतीय चिकित्सक विष के तोड की औषधि के भी विशेषज्ञ माने जाते थे।
अठाहरवीं शताब्दी तक योरुप वासियों को चेचक वेक्सीनेशन का प्रयोग नहीं आता था। किन्तु भारत में 550 ईस्वी में ही इस क्रिया का प्रयोग धन्वन्तरी के उल्लेख में मिलता है।
चेचक का टीका उपचार प्राचीन भारत में परम्परागत तरीके से होता था। उस विधि को ‘टिक्का’ की संज्ञा दी गयी थी। चीन में भी यह प्रथा 11वीं शताब्दी में गयी। यह उपचार ब्राह्मण ऐक तेज तथा नोकीली सूई के दूारा देते थे। इस का प्रयोग उत्तर तथा दक्षिण भारत में प्रचिल्लत था । पश्चात अँग्रेज़ों मे 1804-1805 इस्वी में इसे निषेध कर दिया था। निषेध करने का मुख्य कारण योरूप वासियों के विचार में शरीर में सूई से चुभन करना ईसाई परम्पराओं के विरुध था।
आचार के नियम———–
अन्य विद्याओं की भान्ति चिकित्सा विज्ञान भी सामाजिक नियमों तथा परमपराओं के सूत्र में बन्धा हुआ था। ऐक चिकित्सक के लिये रोगी का उपचार करना ही सर्व श्रेष्ठ सेवा थी।
चरक से भी बहुत समय पूर्व रामायण युग में भी रावण के निजि वैद्य सुषेण ने युद्ध भूमि में मूर्छित लक्ष्मण का उपचार किया था। यह वर्तान्त आधुनिक रेडक्रास धारी स्वयं सेविकी संस्थानो के लिये ऐक प्राचीन कीर्तिमान स्वरूप है तथा चिकित्सा क्षेत्र के व्यवसायिक सेवा सम्बन्धी परम्पराओं की भारतीय प्रकाष्ठा को दर्शाता है। उल्लेखनीय है शत्रु के दल में जा कर शत्रु का उपचार करने के बावजूद भी वैद्य सुषैण के विरुद्ध रावण ने कोई दण्ड नहीं दिया था।
मोदी सरकार की पहल ———–
भारत के यसस्वी प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी का सराहनिए पहल के चलते आज भारत की खोई हुई आयुरवेदा की पहचान पूरे विस्व मे मिली है ।
• 28 अक्टूबर, 2016 को देश भर में प्रथम राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस (National Ayurveda Day) मनाया गया।
• वर्ष 2016 में इस दिवस का मुख्य विषय (Theme) ‘‘आयुर्वेद के माध्यम से मधुमेह का नियंत्रण एवं रोकथाम’’ (Prevention and Control of Diabetes Throgh Ayurveda) था ।
• इस अवसर पर आयुष मंत्रालय ने ‘आयुर्वेद के माध्यम से मिशन मधुमेह’ की शुरूआत की।
• पूरे देश में मिशन मधुमेह एक विशेष रूप से परिकल्पित राष्ट्रीय उपचार प्रोटोकॉल के रूप में लागू किया गया ।
• इस अवसर पर आयुष मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) श्रीपद यशो नाइक की अध्यक्षता में नई दिल्ली में ‘आयुर्वेद के माध्यम से मधुमेह के रोकथाम और नियंत्रण’ पर एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया।
• इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के अवसर पर राष्ट्रीय उपचार प्रोटोकाल जारी किया गया।
• उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार ने धनवंतरि जयंती के दिन प्रति वर्ष ‘राष्ट्रीय आयुर्वेदिक दिवस’ मनाने का निर्णय लिया है।
भारत सरकार का आयुष मंत्रालय हर वर्ष धन्वंतरि जयंती (धनतेरस) के शुभ अवसर पर आयुर्वेद दिवस मनाता है। वर्ष 2018 का आयुर्वेद दिवस 5 नवंबर को मनाया जा रहा है ।
आयुष मंत्रालय ने इस आयुर्वेद दिवस के उपलक्ष्यर में देश के थिंक टैंक नीति आयोग के साथ मिलकर 4-5 नवंबर, 2018 को नई दिल्ली में आयुर्वेद में उद्यमिता और व्यागपार विकास पर एक सम्मेलन का आयोजन किया है। इस सम्मेलन का उद्देश्यि आयुर्वेद क्षेत्र से जुड़े हितधारकों और उद्यमियों को व्यापार के नए अवसरों के प्रति जागरूक करना है।
यह सम्मेलन आयुर्वेद से जुड़े उत्पा्दों की बाजार हिस्से दारी को वर्ष 2022 तक तीन गुना करने के आयुष मंत्रालय द्वारा तय किए गए लक्ष्या की दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है। इस सम्मेलन के माध्याम से व्या पार के अवसरों के बारे में हितधारकों के बीच जागरूकता पैदा की जा सकेगी, युवा उद्यमियों को नई प्रौद्योगिकी और नवाचारों का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहहित किया जा सकेगा तथा वैश्विक स्तगर पर आयुर्वेद उत्पाीदों के लिए अवसरों के बारे में जानकारी उपलब्धक कराई जा सकेगी।
सम्मेलन में विपणन, वित्तीिय प्रबंधन, नवाचार, टेली मेडिसिन और स्टासर्टअप के विशेषज्ञ तथा नीति निर्माता और आयुर्वेद फार्मा और चिकित्सा उद्योग क्षेत्र के अनुभवी लोग प्रतिभागियों के साथ अपने अनुभव साझा करेंगे और उनका मार्ग दर्शन करेंगे। तीसरे आयुर्वेद दिवस के अवसर पर आयोजित मुख्यर कार्यक्रम में देशभर से करीब 800 प्रतिभागियों के शामिल होने की संभावना है।
तीसरे आयुर्वेद दिवस के अवसर पर 5 नवंबर को आयुष स्वाहस्य्ुख प्रणाली का इलेक्ट्रोरनिक माध्यथम से रिकॉर्ड रखने के लिए आयुष-स्वापस्य्मि प्रबंधन सूचना प्रणाली (ए-एचएमआईएस) के नाम से एक समर्पित सॉफ्टवेयर एप्लिकेशन लांच किया जाएगा।
इसे शुरूआती चरण में देश के विभिन्नो हिस्सों् में 15 आयुष इकाइयों में शुरू किया जाएगा। इससे आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्ध और होम्योोपैथी चिकित्साू के तरीकों में आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेेमाल कर और प्रभावी बनाया जा सकेगा। आयुष मंत्रालय आयुर्वेद दिवस के उपलक्ष्यच में देश के विभिन्न हिस्सोंि में कई कार्यक्रम आयोजित करेगा।
राष्ट्री य धन्वंतरि आयुर्वेद पुरस्कावर:
• आयुर्वेद क्षेत्र के जानेमाने वैद्यों को इस दिन ‘राष्ट्री य धन्वंतरि आयुर्वेद पुरस्कािर’ से सम्माकनित किया जाएगा। पुरस्का्र में एक प्रशस्ति पत्र, धनवंतरी की प्रतिमा वाली ट्राफी और पांच लाख रूपये नकद दिए जाएंगे।
• इस बार यह पुरस्काार आयुर्वेद के जानेमाने विशेषज्ञ वैद्य शिव कुमार मिश्रा, वैद्य माधव सिंह भघेल और इतूजी भवदासन नंबूदरी को दिया जाएगा।
• इनका चयन आयुष मंत्रालय ने किया है। नई दिल्लीम के अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्था न द्वारा राष्ट्रीलय स्तजर पर आयोजित की गई आयुर्वेद प्रश्नोीत्तीरी प्रतियोगिता के विजेताओं को भी समारोह में सम्माीनित किया जाएगा।
धनवन्तरी हो गए अवतरित
हाथ सजाए घट- पीयूस !
देव – दैत्य ने जश्न मनाया
मन में सबके छा गई हूस !!1!!
रोग सभी मिट जाएं जिससे
ऐसी औशध रही न दूर !
सागर मन्थन हुआ पूर्ण अब
दे कर सब चेहरों को नूर !!2!!
धन-तेरस ‘युक्त’ कवच सभी का
रक्शक बन कर डटे हजूर !
रखे निरन्तर सभी जनों को
दुःख-व्याधि से कोसों दूर !!3!!
Compiled & shared by-DR RAJESH KUMAR SINGH ,JAMSHEDPUR,JHARKHAND, INDIA, 9431309542,rajeshsinghvet@gmail.com
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