पशुओुं मे खुरपका-मुंहपका रोग की पहचान एवं उपचार
जयश्री जाखड़1*, नीरज कुमार2*, सचिन पाटीदार3, एवं मनीष कुमार वर्मा4
1,2पशु विकृत्ति विज्ञान विभाग, 3पशु परजीवी विज्ञान विभाग, 4पशु भेषज एवं विष विज्ञान विभागगोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पंतनगर, उधम सिंह नगर, उत्तराखंड
अनुरूपी लेखक*– neerajvet41@gmail.com
परिचय:–
मुंहपका–खुरपका रोग (FMD) विभक्त खुर/दो खुरों वाले पशुओुं जैसे गाय, भैंस, भेंड, बकरी, हिरन, भेड़, सूअर तथा अन्य जंगली पशुओ में होने वाला एक अत्यंत संक्रामक एवं घातक विषाणु जनित वायुकोशीय रोग है। गायों और भैंसों को खुरपका रोग काफ़ी प्रभावित करता है। यह काफी तेज़ी से फैलने वाली एक संक्रामक बीमारी है। इसे प्रभावित होने वाले जानवर मे अत्याधिक तेज बुखार (104-106०F), के साथ मुँह और खुरों पर छाले और घाव बन जाते हैं। रोग के असर के कारण कुछ जानवर स्थायी रूप से लंगड़े भी हो सकते हैं, जिस कारण वे खेती में इस्तेमाल के लायक नहीं रह जाते। इसका संक्रमण होने के कारण गायों का गर्भपात हो सकता है और समय पर इलाज नहीं होने के कारण युवा बछड़े मर भी सकते हैं। इस रोग से संक्रमित मवेशियों के दूध उत्पादन मे अचानक से गिरावट आ जाती हैं। हालांकि ऐसे मवेशियों का दूध अनुपयोगी हो जाता है। अतः इस रोग के कारण कृषक को बहुत घन की हानि होती है और कार्य भी बाधित हो जाते हैं। ऐसे में इस बीमारी के रोकथाम के लिए गायों और भैंसों का टीकाकरण बहुत महत्वपूर्ण है।
रोग के कारण:-
यह रोग पशुओं को एक बहुत ही छोटे आँख से न दिख पाने वाले विषाणु या वाइरस द्वारा होता है। जिसे मुहपका खुरपका विषाणु एवं Aphtho virus कहते हैं। इस विषाणु के अनेक प्रकार तथा उप–प्रकार है, इनकी प्रमुख किस्मों में ओ.ए.सी. एशिया 1, एशिया-2, एशिया 3, सैट 1, सैट 2, सैट 3 तथा इनकी 14 उप किस्में शामिल है। हमारे देश में यह रोग मुख्यतः ओ.ए.सी. तथा एशिया-1 प्रकार के विषाणुओं द्वारा होता है।
रोग के फैलने के कारण:-
ये रोग मुख्यतः संक्रमित जानवर के विभिन्न स्त्राव और उत्सर्जित द्रव जैसे लार, गोबर, दूध के साथ सीधे संपर्क मे आने, दाना, पानी, घास, बर्तन, दूध निकालने वाले व्यक्ति के हाथो से और हवा से फैलता है। इस स्त्राव मे विषाणु बहुत अधिक संख्या मे होते हैं और स्वस्थ जानवर के शरीर मे मुँह और नाक के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं। ये रोग संक्रमित जानवरो को स्वस्थ जानवरो के एक साथ बाड़े मे रखने से, एक ही बर्तन से खाना खाने और पानी पीने से, एक दूसरे का झूठा चारा खाने से फैलता हैं। ये विषाणु खुले में घास, चारा, तथा फर्श पर कई महीनों तक जीवित रह सकते हैं लेकिन गर्मी के मौसम में यह बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। विषाणु जीम, मुंह, आंत, खुरों के बीच की जगह, थनों तथा घाव आदि के द्वारा स्वस्थ पशु के रक्त में पहुंचते हैं तथा लगभग 4-5 दिनों के अंदर उसमें बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं। नम–वातावरण, पशु की आन्तरिक कमजोरी, पशुओं तथा लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आवागमन तथा नजदीकी क्षेत्र में रोग का प्रकोप इस बीमारी को फैलाने में सहायक कारक है। यह रोग रोग किसी भी उम्र की गायें एवं उनके बच्चों में हो सकता है। इसके लिए कोई भी मौसम निश्चित नहीं है अर्थात यह रोग किसी भी समय हो सकता है।
रोग के लक्षण:-
इस रोग में होने पर पशु को तेज बुखार (104-106०F) होता है। बीमार पशु के मुँह मे मुख्यत जीभ के उपर, होठो के अंदर, मसूडो पर साथ ही खुरो के बीच की जगह पर छोटे छोटे छाले बन जाते है। फिर धीरे–धीरे ये छाले आपस में मिलकर बड़ा छाला बनाते हैं। समय पाकर यह छाले फूट जाते हैं और उनमें जख्म हो जाते हैं। मुँह मे छाले हो जाने की वजह से पशु जुगाली बन्द कर देता हैं और खाना पीना छोर देता है, मुँह से निरंतर लार गिरती रहती हैं साथ ही मुँह चलाने पर चाप चाप की आवाज़ भी सुनाई देती हैं। पशु सुस्त पड़ जाते और कुछ खाते–पीते नहीं है। खुर में जख्म होने की वजह से पशु लंगड़ाकर चलता है। दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन 80% तक कम हो जाता है। पशु कमजोर होने लगते हैं। प्रभावित पशु स्वस्थ्य होने के उपरान्त भी महीनों तक और कई बार जीवनपर्यन्त हांफते रहता है, शरीर के रोयें (बाल) तथा खुर बहुत बढ़ जाते हैं, गर्भवती पशुओं में गर्भपात की संभावना बनी रहती है ।
रोग का उपचार
इस रोग का कोई निश्चित उपचार नहीं है अतः रोगी पशु में सेकेन्डरी संक्रमण को रोकने के लिए उसे पशु चिकित्सक की सलाह पर एंटीबायोटिक के टीके लगाए जाते हैं अथवा रोगग्रस्त पशु के पैर को नीम एवं पीपल के छाल का काढ़ा बना कर दिन में दो से तीन बार धोना चाहिए। प्रभावित पैरों को फिनाइल-युक्त पानी से दिन में दो-तीन बार घोकर मक्खी को दूर रखने वाली मलहम का प्रयोग करना चाहिए। मुँह के छाले को 1 प्रतिशत फिटकरी के पानी में घोलकर दिन में तीन बार धोना चाहिए। मुंह में बोरो-गिलिसरीन तथा खुरों में किसी एंटीसेप्टिक लोशन का प्रयोग किया जा सकता है। इस दौरान पशुओं को मुलायम एवं सुपाच्य भोजन दिया जाना चाहिए। पशु चिकित्सक के परामर्श पर दवा देनी चाहिए।
रोग का बचाव
टीकाकरण ही इस बीमारी से बचाव के लिए सर्वोत्तम है इसलिए पशुओं को पोलीवेलेंट वेक्सीन के वर्ष में दो बार टीके अवश्य लगवाने चाहिए। बच्छे/बच्छियां में पहला टीका 1 माह की आयु में, दूसरा तीसरे माह की आयु तथा तीसरा 6 माह की उम्र में और उसके बाद नियमित छः माह के अन्तराल पर लगवाते रहना चाहिए। बीमारी हो जाने पर रोग ग्रस्त पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए। बीमार पशुओं की देखभाल करने वाले व्यक्ति को भी स्वस्थ पशुओं के बाड़े से दूर रहना चाहिए। बीमार पशुओं के आवागमन पर रोक लगा देना चाहिए। रोग से प्रभावित क्षेत्र से पशु नहीं खरीदना चाहिए। पशुशाला को साफ-सुथरा रखना चाहिए। संक्रमित पशुओं को पूर्ण आहार देना चाहिए। जिससे खनिज एवं विटामीन की मात्रा पूर्ण रूप से मिलती रहे। इस बीमारी से मरे पशु के शव को खुला न छोड़कर जमीन में गहरे गड्डे मे गाढ़ना चाहिए। समय-समय पर पशु चिकित्सक का परामर्श लेते रहना चाहिए।
हालांकि गाय में इस रोग से मान्यता नहीं होती फिर मी दुधारू पशु सूख जाते कोई नहीं है इसलिए रोग जुलाई 2010 F7 होने से पहले ही उसके टीके लगवा लेना फायदेमन्द है ।
https://www.pashudhanpraharee.com/treatment-prevention-of-fmd-in-livestock/