पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान की संपूर्ण जानकारी

0
9995

पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान की संपूर्ण जानकारी

पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान

पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान एक ऐसी कला है, जिसमें सांड से वीर्य लेकर उसको विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से संचित किया जाता है। यह संचित किया हुआ वीर्य तरल नाइट्रोजन में कई वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इस संचित किए हुए वीर्य को मद मंे आई मादा के गर्भाशय में रखने से मादा पशु का गर्भाधान किया जाता है। गर्भाधान की इस क्रिया को कृत्रिम गर्भाधान कहा जाता है।

कृत्रिम गर्भाधान के लाभ :

प्राकृतिक गर्भाधान की तुलना में कृत्रिम गर्भाधान के अनेक लाभ है जिनमें मुख्य लाभ इस प्रकार है:-

  1. कृत्रिम गर्भाधान बहुत दूर यहाँ तक कि दूसरे देशों में रखे श्रेष्ठ नस्ल व गुणों वाले सांड के वीर्य को भी गाय व भैंसों में प्रयोग करके लाभ उठाया जा सकता है।
  2. इस विधि में उत्तम गुणों वाले बूढ़े या असहाय सांड का प्रयोग भी प्रजनन के लिए किया जा सकता है। 3. कृत्रिम गर्भाधान द्वारा श्रेष्ठ व अच्छे गुणों वाले सांड को अधिक से अधिक उपयोग किया जा सकता है। 4. प्राकृतिक विधि में एक सांड द्वारा एक वर्ष में 60–70 गाय या भैंस को गर्भित किया जा सकता है, जबकि कृत्रिम गर्भाधान विधि द्वारा एक सांड के वीर्य से एक वर्ष में हजारों गायों या भैंसों को गर्भित किया जा सकता है।
  3. अच्छे सांड के वीर्य को उसकी मृत्यु के बाद भी प्रयोग किया जा सकता है।
  4. इस विधि में धन एवं श्रम की बचत होती है क्योंकि पशु पालकों को सांड पालने की आवश्यकता नहीं होती।
  5. इस विधि में पशुओं के प्रजनन सम्बंधित रिकार्ड रखने में आसानी होती है।
  6. इस विधि में विकलांग या असहाय गायों/भैंसों का प्रयोग भी प्रजनन के लिए किया जा सकता है।
  7. कृत्रिम गर्भाधान में सांड के आकार या भार का मादा के गर्भाधान के समय कोई फर्क नहीं पड़ता।
  8. कृत्रिम गर्भाधान विधि में नर से मादा तथा मादा से नर में फैलने वाले संक्रामक रोगों से बचा जा सकता है।

कृत्रिम गर्भाधान की विधि की सीमायें :

कृत्रिम गर्भाधान के अनेक लाभ होने के बावजूद इस विधि की कुछ सीमाएँ हैं जो मुख्यतः निम्न प्रकार हैः-

कृत्रिम गर्भाधान के लिए प्रशिक्षित अथवा पशु चिकित्सक की आवश्यकता होती है तथा तक्नीशियन को मादा पशु प्रजनन अंगों की जानकारी होना आवश्यक है।

इस विधि में विशेष उपकरणों की आवश्यकता होती है।

इस विधि में असावधानी बरतने तथा सफाई का विशेष ध्यान ना रखने पर गर्भधारण देर में कमी आ जाती है।

इस विधि में यदि पूर्ण सावधानी न बरती जाए तो दूर क्षेत्रों अथवा विदेशों से वीर्य के साथ कई संक्रामक बीमारियों के आने की भी संभावना होती है।

कृत्रिम गर्भाधान के दौरान कुछ जरूरी सावधानियांः-

  1. मादा ऋतु चक्र में हो।
  2. कृत्रिम गर्भाधान करने से पहले गन को अच्छी तरह से लाल दवाई से धोये एवं साफ करें।
  3. वीर्य को गर्भाशय द्वार के अंदर छोडे़। कृत्रिम गर्भाधान गन प्रवेश करते समय ध्यान रखें, कि यह गर्भाशय हाॅर्न तक ना पहुँचे।
  4. गर्भाधान के लिए कम से कम 10–12 मिलियन सक्रिय शुक्राणु जरूरी होते है।
  5. सभी पशु पालक कृत्रिम गर्भाधान संबंधित रिकार्ड रखें।

बेहतर गर्भधान दर के लिए निम्न बातें ध्यान रखेः-

  1. वीर्य उच्च श्रेणी का हो।
  2. कृत्रिम गर्भाधान की विधि का सही से अमल हो।
  3. मादा ऋतु चक्र में हो, उसकी पहचान हो।
  4. गर्भाधान के स्थान पर साफ-सफाई रखें।

कृत्रिम विधि से नर पशु से वीर्य एकत्रित करके मादा पशु की प्रजनन नली में रखने की प्रक्रिया को कृत्रिम गर्भाधान कहते हैं| भारत वर्ष में सन् 1937 में पैलेस डेयरी फार्म मैसूर में कृत्रिम गर्भाधान का प्रथम प्रयोग किया गया था| आज सम्पूर्ण भारत वर्ष तथा विश्व में पालतू पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान की विधि अपनायी जा रही है|

वीर्य का एकत्रीकरण व उसका संरक्षण:

चूने हुए अच्छे नस्ल के सांड में से सांड से कृत्रिम विधि द्वारा वीर्य एकत्रित किया जाता है| सांडों को इस कार्य के लिये प्रशिक्षित किया जाता है जिससे कि वह दूसरे अन्य नर पशु अथवा डमी (कृत्रिम पशु) पर चढ़ कर कृत्रिम योनि में वीर्य छोड़ देता है| इस एकत्रित किये वीर्य का स्थूल व सूक्ष्म परीक्षण किया जाता है|स्थूल परीक्षण में वीर्य के रंग, आयतन तथा गाढापन(सघनता) का बारीकी के साथ परीक्षण किया जाता है| सूक्ष्म परीक्षण में वीर्य को सूक्ष्मदर्शी के नीचे रख कर देखा जाता है| इसमें हम वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या, उनकी गति,उनमें जीवित व मृतकों का अनुपात तथा उनमें किसी भी प्रकार की विकृति का पता लगता हैं| आज कल कई केन्द्रों पर वीर्य के कुछ विशेष परीक्षणों की भी व्यवस्था है जिससे शुक्राणुओं के अंडाणु को निषेचित करने की क्षमता का पता चल जाता है| वीर्य के उपरोक्त परीक्षणों के बाद कुछ विशेष माध्यमों के द्वारा उसके आयतन में वृद्धि की जाती है और फिर इस वीर्य को भविष्य में किसी भी स्थान एवं समय पर प्रयोग करने के लिये संरक्षित कर लिया जाता है|

पहले वीर्य द्रव अवस्था में ही संक्षित किया जाता था तथा इसका प्रयोग 3-4 दिन के अंदर करना पड़ता था क्योंकि उसके बाद उसकी गुणवत्ता में काफी कमी आ जाती थी| लेकिन आजकल वीर्य को तरल नत्रजन के अंदर जमी हुई अवस्था में रखा जाता है| घन हिमीकृत वीरव वर्षों तक तरल नत्रजन में गुणवत्ता में बिना किसी कमी के बना रहता है| हिमीकृत वीर्य को एक स्थान से दूसरे सतह तक तरल नत्रजन के अंदर आसानी से ले जाया जा सकता है| इस प्रकार एक देश से दूसरे देश को भी उन्नत श्रेणी के सांड का वीर्य सुविधा पूर्वक भेजा जा सकता है|

गहन हिम्कृत वीर्य द्वारा पशुओं में गर्भाधान की विधि:

अधिक होने के कारण आजकल सम्पूर्ण विश्व में ज्यादातर गहन हिम्कृत वीर्य का ही प्रयोग होने लगा है| इसमें एक प्रशिक्षित व्यक्ति हिम्कृत वीर्य को पुन: द्रव अवथा में लाकर कृत्रिम गर्भाधान गन की सहायता से रेक्टोविजायनल विधि द्वारा गर्मायी हुई मादा की प्रजनन नली में डालता है|

वीर्य का द्रवीकरण (थाइंग करना):

हिम्कृत वीर्य को प्रयोग करने से पहले इसे सामान्य तापमान पर तरल अवस्था में लाया जाता है| इस क्रिया को थाइंग कहते हैं| इसमें एक बीकर में 37 डि०से० तापमान पर पानी लिया जाता है| हिम्कृत वीर्य के तृण को तरल नत्रजन कन्टेनर से निकल कर बीकर में रखे पानी में 15 से 30 सेकिंड के लिये रखते हैं| इसके बाद तृण को पानी से निकाल कर उसे सुखा लिया जाता है|

वीर्य तृण को कृ०ग० गन में भरना:

कृ०ग० गन एक 18-19 इंच लम्बी धातु की नली होती है जिसके अंदर एक पिस्टन लगा होता है| इसके एक सिरे पर प्लास्टिक का एक छल्ला होता है| थाइंग के पश्चात वीर्य तृण का फैक्टरी प्लग वाला सिरा गन के अंदर रखा जाता है तथा पोलिविनायल से सिल किये सिरे को गन से बाहर रखते हैं| इसके पश्चात गन से बाहर वाले सिरे को एक साफ कैँची अथवा स्ट्रा कटर की सहायता से समकोण पर काट देते हैं और एक प्लास्टिक की शीथ को कृ०ग० गन के ऊपर चढ़ाते हैं जिसे छल्ले के द्वारा अपने स्थान पर ठीक से क्स दिया जाता है| अब पिस्टन को थोड़ा सा ऊपर की ओर दबा कर वीर्य तृण से वीर्य के बचाव को चैक किया जाता है|

कृत्रिम गर्भाधान की विधि:

आरंभ में कृ०ग० विजाइनल विधि द्वारा किया जाता था जिसमें वीर्य को विजाइनल स्पैकुलम की सहायता से कृ०ग० केथेटर द्वारा पशु की गर्भाशय ग्रीवा में रखा जाता था| लेकिन अब पूरे विश्व में रेकटो विजाइनल विधि द्वारा कृ०ग० किया जाता है| इस विधि में कृ०ग० तक्नीशियन अपने बायें हाथ को साबुन-पायी या तेल आदि से चिकना करके उसे कृ०ग० के लिये आए पशु की गुदा में डालता है और गर्भाशय ग्रीवा को हाथ में पकड़ लेता है| तत्पश्चात वह दूसरे हाथ में कृ०ग० गन को योनि में प्रविष्ट करते हुए उसे ग्रीवा तक पहुंचता है तथा गुदा में स्थित हाथ के अंगूठे की सहायता से गन को ग्रीवा के बाहरी द्वार में प्रविष्ट करा देता है| इसके पश्चात ग्रीवा की सम्पूर्ण लम्बाई को पार करते हुए गन के सिरे को गर्भाशय बाडी में पहुंचाया जाता है| फिर दाहिने हाथ से पिस्टल दबाकर गन में भरे वीर्य को वहां छोड़ दिया जाता है|

विजाइनल स्पैकुलम विधि की तुलना में रेक्टोविजाइनल विधि के निम्न लिखित प्रमुख लाभ हैं:-
(1) गुदा में हाथ डाल कर पशु के प्रजनन अंगों का भली प्रकार परीक्षण किया जा सकता है तथा उसकी गर्मी का सही पता लग जाता है|
(2) अनेक बार गर्भ धारण किए पशु भी गर्मीं में आ जाते हैं और उन्हें अज्ञानता में गर्भाधान के लिए ले जाया जाता है| ऐसे पशु का इस विधि द्वरा गर्भ परीक्षण भी हो जाता है और वह व्यर्थ में दोबारा गर्भाधान करके गर्भपात के खतरे से बच जाता है|
(3) इस विधि में वीर्य को उचित स्थान पर छोड़ा जाता है जिससे वीर्य व्यर्थ में बर्बाद नहीं होता तथा इसमें ग्र्भ्धार्ण की संभावना अधिक होती है|

READ MORE :  Heat Detection In Cattle And Buffalo: An Overview

गर्भाधान का उचित समय व सावधानियाँ

पशु के मद काल का द्वितीय अर्ध भाग कृ०ग० के लिए उपयुक्त होता है| गर्भाधान के लिए उपयुक्त होता है| गर्भाधान के लिए दूर से लाए लाभ प्रद होता है| पशु पालक को पशु को गर्भाधान के लिए लाते व लेजाते समय उसे डरना या मारना नहीं चाहिए क्योंकि इसे गर्भ धारण की अधिकांश पशुओं में मद च्रक शुरू हो जाता है, लेकिन ब्याने के 50-60 दिनों के बाद ही पशु में गर्भाधान करना उचित रहता है क्योंकि उस समय तक ही पशु का गर्भाशय पूर्णत: सामान्य अवस्था में आ पाता है| प्रसव के 2-3 माह के अंदर पशु को गर्भ धारण कर लेना चाहिए ताकि 12 महीनों के बाद गाय तथा 14 महीनों के बाद भैंस दोबारा बच्चा देने में सक्षम हो सके क्योंकि यही सिद्धांत दुधारू पशु पालन में सफलता की कुंजी है|

किसानों द्वारा अक्सर पूछे जाने वाले सवाल

प्र0    भैंस खुलकर गर्मी में नहीं आती। गाभिन करायें या नहीं?

 

उ0    भैंस में गर्मी के लक्षण बहुत हल्के होते हैं। उनकी तुलना गाय से नहीं करनी चाहिए। लक्षण यदि ठीक प्रकार से पहचान में नहीं आ रहे हैं तो डाक्टर से जांच करा लें। इसके अलावा यदि डाक्टर उपलब्ध नहीं है तो आप इस गर्मी को छोड़ भी सकते हैं। लेकिन इस गर्मी की तारीख कहीं पर लिख कर रख लें । 20-22 दिन बाद यदि ये लक्षण फिर आते हैं तो यह समझें कि भैंस निश्चित रूप से गर्मी में है। भैंस को अवश्य गाभिन करायें।

प्र0    भैंस डोका करती है, पर बोलती नहीं। क्या करें?

उ0    कुछ भैंसों में शांत मद के कारण गर्मी के लक्षण स्पष्ट रूप से दिखार्इ नहीं देते हैं। परन्तु गर्मी में आने से 3-4 दिन पहले तक उसके थन दूध से भरे दिखार्इ देते हैं। इसे डोका कहते हैं। आमतौर पर डोका इस बात का सूचक माना जाता है कि भैंस गर्मी में आने वाली है। अत: डोका करने के 3-4 दिन बाद यदि भैंस तार देती है तो समझें कि भैंस गर्मी में है और गाभिन करायें। यदि डोका लम्बे समय तक बना रहता है तो डाक्टर द्वारा जांच करा लें कि कहीं डिंबग्रंथि में कोर्इ सिस्ट तो नहीं बना है और इलाज करायें।

प्र0    भैंस गर्मी के लक्षण दिखाती है, परन्तु जब उसे झोटे के पास ले जाते हैं तो झोटा सूंघ कर चला जाता है तथा ऊपर नहीं चढ़ता है, क्या भैंस गर्मी में नहीं होती?

उ0    नर भैंसा स्वभाव से सुस्त होता है तथा उसमें मैथुन की इच्छा कम होती है। उस दिन झोटे ने पहले किसी और भैंस को गाभिन कर दिया है तो यह इच्छा और कम हो जाती है। उम्र बढ़ने के साथ कुछ झोटे तो भैंस में बिल्कुल भी रूचि नहीं दिखाते। सबसे अच्छा है कि आप भैंस को कृत्रिम गर्भाधान केंद्र पर ले जाकर डाक्टर द्वारा जांच करवा कर भैंस को उच्च गुणवता वाले वीर्य से गाभिन करायें।

प्र0    गर्मी में आने पर भैंस को कब गाभिन करायें?

उ0    भैंस आमतौर पर 24 घंटे गर्मी में रहती है। इस दौरान उसे कभी भी गाभिन कराया जा सकता है। लेकिन वैज्ञानिक सलाह यह दी जाती है कि उसे गर्मी के अंतिम 12 घंटो में कभी भी गाभिन करा लें, अर्थात गर्मी में आने के 10-12 घंटे बाद। कुछ किसान भार्इयों की यह सोच है कि भैंस को तब गाभिन करायेंगे जब वह ठंडी हो जायेगी । गर्मी समाप्त होने पर भैंस को वह अगले दिन लाते हैं। यह सोच बिल्कुल गलत है। इस स्थिति में भैंस के गाभिन होने की संभावना बहुत कम रह जाती है। अत: भैंस को समय पर गाभिन करायें। आमतौर पर 12 घंटे के अंतराल पर दो बार गाभिन करवाना लाभप्रद रहता है।

प्र0    भैंस को गाभिन कराने के बाद क्या सावधानी रखें कि भैंस रूक जाये?

उ0    भैंस को गाभिन कराने के बाद अधिक दूर तक पैदल न चलायें। उसे मारें-पीटें और भगायें नहीं। गाभिन कराने के बाद उसे ठंडा पानी पिलायें, खूब नहलायें और कम से कम दो हफ्ते तक ठंडी जगह बांधे । भैंस को हरा चारा खिलायें तथा दाने में 40-50 ग्राम खनिज लवण जरूर मिलायें। गर्भाधान के 20-22वें दिन भैंस पर कड़ी नजर रखें कि दोबारा गर्मी में तो नहीं है। गर्भाधान के 2 महीने बाद गाभिन होने की जांच जरूर करायें।

प्र0    भैंस को तीन-चार बार झोटे से मिलवाया है परन्तु हर 20-22 दिन बाद फिर गर्मी के लक्षण दिखाती है। कोर्इ उपाय बताएं?

उ0    कर्इ बार झोटे से मिलन के बावजूद भी यदि भैंस नहीं ठहरती है तो इसके कर्इ कारण हो सकते हैं, इसका इलाज भी कारण का पता चलने पर ही सम्भव है।

Ø  संभव है कि झोटा ही नपुंसक अथवा कम जनन क्षमता वाला हो। इसका पता इस बात से चल सकता है कि उस झोटे से गर्भित होने वाली बाकी भैंसे गाभिन ठहरती हैं या नहीं। इसकी जाँच कर लें। अधिकतर भैसें सर्दियों के मौसम में गर्मी में आती है,  इससे झोटों पर अधिक दबाव रहता है। यदि झोटे में खोट है तो झोटा बदल कर देख लें अथवा कृत्रिम गर्भाधान ही कराऐं।

Ø  यदि कृत्रिम गर्भाधान कराने पर भैंस फिरती है तो हो सकता है कि गर्भाधान सही समय पर नहीं किया गया है, गर्भाधान विधि उचित नहीं  है या फिर हिमीकृत वीर्य की गुणवत्ता ठीक नहीं है। उसकी जांच करवाएं।

Ø  कुछ भैंसों में हारमोनों के असंतुलन से अण्डा सही समय पर नहीं छुटता है। इससे निषेचन पश्चात यदि भ्रूण बनता भी है तो उसके जिंदा रहने की संभावना बहुत कम रहती है। गर्भाधान के बाद यदि भ्रूण 15 दिन के अंदर ही मर जाता है तो भैंस 20-22 दिन बाद ठीक समय पर गर्मी में आती है। परन्तु यदि भ्रूण की मृत्यु गर्भधारण के 16 दिन पश्चात् होती है तो भैंस पूरे चक्र(20-22दिन) से अधिक समय बाद गर्मी के लक्षण दिखाती है।

Ø  बच्चेदानी में संक्रमण होने से भी भैंस नहीं ठहरती है। इसका पता गर्मी के समय दिखार्इ देने वाले तार से चल सकता है। आमतौर पर यह तार शीशे/पानी की तरह साफ होना चाहिए। यदि इसमें सफेदी या कोर्इ छिछड़े हैं तो इसका तात्पर्य है कि बच्चेदानी में संक्रमण है। इस अवस्था में पहले र्इलाज करा कर ही भैंस को गाभिन कराने का प्रयास सफल रह सकता है।

Ø  कुछ भैंसो में डिंबग्रंथि पर बनने वाला पीतपिंड पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाता। जिससे वह पर्याप्त मात्राा में प्रोजेस्ट्रोन हारमोन पैदा नहीं कर पाता है । विकासशील भू्रण को उपयुक्त वातावरण नहीं मिलने से उसकी मृत्यु हो जाती है। रोग निदान करने के बाद पशु चिकित्सक भैंस को गाभिन करवाने के 3-4 या 10-12 दिन बाद उपयुक्त हारमोन के टीके लगाते हैं। इससे पीतपिंड द्वारा प्रोजेस्ट्रोन उत्पादन बढ़ जाता है।

प्र0    किस नस्ल की भैंस सबसे अच्छी है तथा हमें किस नस्ल के झोटे / वीर्य से भैंस को गाभिन कराना चाहिए?

उ0    संसार में सबसे अच्छी नस्लें मुख्य रूप से केवल भारत और पाकिस्तान में ही पायी जाती हैं। भारतीय नस्लों में मुर्रा, नीली-रावी, मेहसाना, सूरती, जाफराबादी, नागपुरी, पंढारपुरी तथा भदावरी प्रमुख हैं। हरियाणा राज्य की मुर्रा भैंस को दूध और सुंदरता के आधार पर सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। भैंस को गाभिन कराने के लिए क्रमानुसार निम्न बातों को प्राथमिकता देनी चाहिए-

पहली : यदि आपकी भैंस किसी भी शुद्ध नस्ल की है तो सबसे अच्छा होगा कि आप उसी नस्ल के झोटे से भैंस को गाभिन करायें।

दूसरी : यदि आपकी भैंस देशी या मिश्रित नस्ल की है तो उस क्षेत्रा में पायी जाने वाली नस्ल के झोटे से भैंस को गाभिन करायें।

तीसरी : यदि उस क्षेत्रा की कोर्इ विशेष दुधारू नस्ल नहीं है और आप दुधारू नस्ल  पैदा करना चाहते हैं तो उस भैंस को मुर्रा नस्ल के झोटे / वीर्य से गाभिन करायें।

प्र0    असली मुर्रा नस्ल की पहचान क्या है?

उ0    मुर्रा नस्ल की भैंस के सींग छोटे परन्तु गोलार्इ में अन्दर की ओर कसकर मुड़े होते हैं। भैंस की त्वचा पतली व पूरा शरीर एकदम काला और पूंछ भी काले रंग की होती है। भैंस का सिर हल्का तथा गरदन पतली होती है। इनका पिछला हिस्सा चौड़ा तथा अगला हिस्सा संकरा होता है। इनका अयन काफी विकसित होता है तथा दूध उत्पादन क्षमता 2000-3500 कि0ग्रा0 प्रति ब्यांत होती है। सींगों का खुला होना, शरीर के बालों पर तांबे जैसी झलक दिखार्इ देना या सफेद बाल होना तथा पूंछ सफेद होने को नस्ल के मुख्य लक्षणों से विचलन मानते हैं। वैसे इस प्रकार की भैंसे भी मुर्रा ही हैं, परन्तु प्रदर्शनी/प्रतियोगिता/प्रजनन के लिए चयन आदि में नस्ल के मुख्य शारीरिक लक्षणों को प्राथमिकता दी जाती है। आमतौर पर दूध की प्रतियोगिताओं में नस्ल विशेष के शारीरिक लक्षणों में कुछ विचलन होने पर समझौता करना पड़ता है। परन्तु इस बात का अवश्य ध्यान रखा जाता है कि वह लक्षण किसी अन्य नस्ल का मुख्य लक्षण तो नहीं है तथा उस लक्षण की प्रतिशतता अधिक नहीं है। शारीरिक लक्षणों में मान्य विचलन के लिए अभी तक निश्चित मानदंड तय नहीं है। यह सब प्रतियोगिता/चयन के उद्देश्य तथा जज/चयनकर्ता के विवेक पर निर्भर करता है।

प्र0    हमारे पास 10-12 भैंसें हैं। हम यह चाहते हैं कि सभी भैंसे एक ही दिन गर्मी में आकर गाभिन हो जायें। क्या कोर्इ उपाय है?

उ0    हाँ, बिल्कुल है। आप पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें। पशु चिकित्सक भैंस की जांच करके प्रोस्टाग्लैंडिन या उपयुक्त हारमोन के इंजेक्शन लगा देते हैं, जिसके बाद सभी भैंसे एक ही दिन गर्मी में आ जाती हैं। इसका एक लाभ यह भी है कि भैंस में गर्मी के लक्षण देखने की आवश्यकता नहीं रहती व टीके के निर्धारित समय पश्चात गर्भाधान किया जा सकता है। यह भी ध्यान रखें कि हारमोन का टीका हर पशु में हर समय काम नहीं करता। साथ ही गाभिन पशु में अत्यन्त सावधानी रखें क्योंकि कुछ टीके गर्भपात भी करवा सकते हैं।

प्र0    भैंस को कर्इ बार गाभिन कराया है, परन्तु अभी तक रूकी नहीं है। क्या भ्रूण प्रत्यारोपण द्वारा उसके अंदर भ्रुण रखकर गाभिन किया जा सकता है?

उ0    इसका उत्तर मोटे तौर पर नहीं है। इसका कारण यह है कि भ्रूण प्रत्यारोपण तकनीक बहुत ही मंहगी है। अत: भ्रूण केवल उन्हीं मादा भैंसों में डालते है जो जनन की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ हैं तथा केवल एक बार वीर्य डलवाने पर गाभिन हो जाती हैं। गर्मी में न आने वाली, बार-बार फिरने वाली, जनन समस्याओं से ग्रसित भैंसें, भ्रूण प्रत्यारोपण के लिए उचित नहीं होती। हाँ ऐसे पशु में कृत्रिम विधि से हारमोन के टीके लगवाकर दूध उत्पादन शुरू करवाया जा सकता है।

प्र0    भैंस के गर्मी में आने पर उसे वीर्य का टीका लगवा लिया। फिर डा0 साहब ने कहा कि इसे झोटे से भी करा लेना, अच्छी गर्मी में है। उसे हमने झोटे से भी करा लिया। अब होने वाला बच्चा किसका होगा?

उ0    वीर्य का टीका लगवाने के बाद यदि किसी डाक्टर ने ऐसा कहा है कि इसे झोटे से भी करा लेना तो यह बहुत ही अवैज्ञानिक तरीका है। इसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है। किसान अपनी भैंस का कृत्रिम गर्भाधान इसलिए कराता है ताकि उसकी होने वाली नस्ल सुधार सके। यदि उसे झोटे से ही कराना होता तो वह गर्भाधान केन्द्र पर क्यों आता। ऐसी स्थिति में यह बताना तो निश्चित रूप से कठिन है कि बच्चा कृत्रिम गर्भाधान वाला होगा या प्राकृतिक गर्भाधान वाला। परन्तु यहां उन परिस्थितियों का जिक्र करना उचित होगा जब कृत्रिम गर्भाधानकर्ता ऐसी सलाह देता है –

Ø  खराब गुणवत्ता वाला वीर्य – ऐसी स्थिति में कृत्रिम गर्भाधानकर्त्ता को ऐसे वीर्य से गर्भाधान करने की अपेक्षा साफ मना कर देना चाहिये कि वीर्य की गुणवत्ता सही नहीं है और आप कहीं दूसरी जगह गर्भाधान करा लें।

Ø  नौसिखिया कृत्रिम गर्भाधानकर्त्ता : यदि गर्भाधानकर्त्ता नौसिखिया है तो अक्सर ऐसा कह देता है ताकि उसके द्वारा गर्भाधान दर अधिक हो जाये।

Ø  गर्भाशय ग्रीवा की विकृति : कभी-कभी ऐसा भी होता है कि भैंस तो पूरी तरह गर्मी में होती है, परन्तु गर्भाशय ग्रीवा की  विकृति के कारण कृत्रिम गर्भाधान नलिका गर्भाशय ग्रीवा में नहीं जा पाती। इस स्थिति में गर्भाधानकर्त्ता के पास कोर्इ विकल्प नहीं बचता और वीर्य को योनि में ही छोड़ना पड़ता है। जहां गाभिन रहने की संभावना बहुत ही कम होती है। भैंस इसी चक्र में गाभिन हो जाये और किसान को फिर से अगले मद चक्र का इंतजार न करना पड़े तो कृत्रिम गर्भाधानकर्त्ता उसे झोटे से गाभिन कराने की सलाह दे देता है।

कृत्रिम गर्भाधान कर्त्ता का कार्य संतोषजनक होने की संभावना यदि कम है तो बेहतर होगा कि आप अपनी भैंस को केवल झोटे से ही मिलवाएं। अन्यथा पशु से बेकार छेड़छाड़ की जाएगी और अनुचित विधि द्वारा बच्चेदानी में व्यर्थ ही गर्भाधान नलिका डालने से संक्रमण की भी संभावना हो सकती है।

प्र0    बच्चा कटड़ा होगा या कटड़ी – क्या यह पूर्व नियोजित किया जा सकता है?

उ0    यह पूरी तरह से नर झोटे के ऊपर निर्भर करता है। झोटे के वीर्य में दो प्रकार के शुक्राणु होते हैं, इन्हें X – मादा तथा Y- नर शुक्राणु कहते हैं। ये दोनों शुक्राणु लगभग बराबर संख्या में होते हैं। मादा से निकलने वाला अण्डा केवल Y -प्रकार का होता है। निषेचन के समय यदि X -शुक्राणु मादा के X -अण्डे से मिलता है तो मादा भ्रूण बनता है, जबकि Y -शुक्राणु के मादा X -अण्डा से मिलने पर नर भ्रूण बनता है। X तथा Y शुक्राणु दोनों के पास मादा के X -अण्डा से मिलन के समान अवसर होते हैं। अत: प्रकृति में नर तथा मादा का अनुपात लगभग बराबर रहता है। अभी तक वैज्ञानिक इसके पूर्व नियोजन का उपाय नहीं ढूढ़ पाये हैं जो कि हमेशा सफल रहे। हालाँकि इस दिशा में सभी प्रयासरत हैं।

प्र0    क्या भैंसों में गर्भस्थ बच्चे का लिंग पता लगा सकते हैं?

उ0    हाँ, बिल्कुल। भैंसों में गर्भस्थ बच्चे का लिंग, अल्ट्रासांउड विधि द्वारा जान सकते हैं। गाभिन कराने के 55 दिन बाद यह तकनीक प्रयोग में लार्इ जा सकती है तथा लगभग तीन महीने तक के भ्रूण का लिंग आसानी से पता कर सकते हैं।

प्र0    भैंस ने जुडँवा बच्चे दिये है – एक कटड़ा और एक कटड़ी । इनका जनन कैसा रहेगा?

उ0    आमतौर पर भैंस में जुड़वाँ बच्चे बहुत कम होते हैं। लेकिन जुड़वाँ में यदि एक कटड़ा और दूसरी कटड़ी है तो यह मानकर चलें कि कटड़ी बांझ रहेगी। आगे चलकर उसे निकाल दें। यदि जुडवां में दोनों कटड़े हैं अथवा कटड़ी है, तो चिंता करने की कोर्इ बात नहीं । इन दोनों स्थितियों में बच्चों का प्रजनन सामान्य रहेगा।

प्र0    भैंस के ब्यांत के पूरे दिन हो गये हैं, परन्तु अभी तक बच्चा नहीं दिया है। कब तक इंतजार करें?

उ0    यह प्रश्न आमतौर पर काफी सुनने को मिलता है। परन्तु अधिकतर दशा में ऐसा देखा गया है कि किसान भार्इ भैंस के गाभिन कराने की तारीख कहीं भी नहीं लिखते और अक्सर भूल जाते हैं। भैंस लगभग 310-315 दिन बाद बच्चा देती है, तथा इसमें 5-7 दिन उपर-नीचे हो सकते हैं। इसके बाद भी भैंस बच्चा नहीं देती है और गर्भाधान तिथि आपको निश्चित याद है तो पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें। इस स्थिति से निबटने के लिए दवार्इयां उपलब्ध हैं।

कभी – कभी ऐसा भी होता है कि भैंस को हल्के दर्द आते हैं परन्तु ब्याने के अन्य लक्षण जैसे थनों में दूध उतरना व पुठ्ठों का नीचे बैठना स्पष्ट होते हैं। किसान भ्रम की स्थिति में रहता है कि भैंस एक-दो दिन में बच्चा दे देगी। एक-दो दिन बाद भैंस में ये लक्षण समाप्त हो जाते हैं। ल्योटी सूख जाती है, पुठठे सामान्य हो जाते हैं तथा भैंस सामान्य या बेचैन हो सकती है। इस स्थिति में तुरंत पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें। क्योंकि हो सकता है कि बच्चा मर गया हो, बच्चा विकृत हो या बच्चेदानी में बल पड़ गया हो।

भैंस में यदि दर्द शुरू हो गये हैं तथा लगभग 4-6 घंटे की कोशिश के बाद भी बच्चा बाहर नहीं आ रहा है तो पशु चिकित्सक को तुरंत बुला लेना चाहिए।

प्र0    भैंस के ब्याने में अभी 10-15 दिन हैं। परन्तु उसके एक थन में सूजन आ रही है। क्या करें?

उ0    भैंस का पहले ब्यांत में दूध सुखाते वक्त यदि सही सावधानियां नहीं बरती गर्इ हैं तो अक्सर ऐसा हो जाता है। दूध, जीवाणु की वृद्धि के लिए बहुत अच्छा माध्यम है। अत: यदि ल्योटी में कुछ दूध रह गया है तो उसमें जीवाणु वृद्धि करने लगते हैं और थनैला रोग हो जाता है। इस स्थिति में जिस थन में भी सूजन है उसका पूरा दूध तुरंत खाली कर दें और पशु चिकित्सक से मिलकर उस थन में दवार्इ चढ़़वा लें। यह क्रिया/इलाज 3-5 दिन तक जारी रखें।

प्र0    भैंस ब्याने में 4-5 दिन हैं। उसकी नाभि के पास पानी उतरा हुआ है क्या करें?

उ0    आमतौर पर ब्याने से पहले कुछ पशुओं में नाभि के आस-पास पानी उतर आता है। यदि यह ज्यादा नहीं है तथा भैंस को उठने बैठने में तकलीफ नहीं है तो ऐसे ही रहने दें। ब्याने के बाद यह स्थिति अपने आप ठीक हो जाती है। यदि यह बहुत ज्यादा है तो पशु चिकित्सक की सलाह लें।

प्र0    भैंस ने जेर नहीं गिरार्इ है। क्या बच्चे को दूध पिला सकते हैं?

उ0    बच्चे को दूध पिलाने के लिए जेर गिरने का इंतजार नहीं करना चाहिए। भैंस के अयन और पिछले हिस्से की सफार्इ करके, ब्याने के 1-2 घंटे के अंदर ही बच्चे को दूध पिला देना चाहिए। खीस में ऐसे तत्व होते हैं जो बच्चे को बीमारियों से लड़ने की शक्ति प्रदान करते हैं तथा उनका असर 1-2 घंटे के अंदर ही सबसे अधिक होता है। बच्चे को दूध पिलाने से भैंस में भी ऐसे हारमोन निकलते हैं जिससे जेर जल्दी बाहर आ जाती है।

प्र0    भैंस की जेर, ब्याने के कितनी देर बाद बाहर निकलवानी चाहिए?

उ0    आमतौर पर ब्याने के 2-6 घंटे के अंदर जेर बाहर आ जाती है। परन्तु यदि यह जेर 12 घंटे तक भी पूरी तरह बाहर नहीं आती तो है इसे जेर रूकना कहते हैं। जेर रूकने पर, ब्याने के 24 घंटे बाद ही जेर निकलवानी चाहिए। इससे जेर की बच्चेदानी से चिपकन कम हो जाती है तथा जेर आसानी से निकल आती है। यदि कुछ जेर अंदर भी रह जाती है, तो चिंता की बात नहीं है। बेहतर हो कि जेर को बच्चेदानी के अंदर हाथ डालकर न निकाला जाए। जेर को योनि के बाहर से पकड़ कर धीरे -धीरे खींचना चाहिए। यदि यह टूट जाए तो योनि के अन्दर कुछ दूरी तक हाथ  डाल सकते हैं। परन्तु इस बात का ध्यान रहे कि हाथों में साफ दस्ताने पहने हों। अन्यथा टीके द्वारा भी शेष भाग निकाला जा सकता है। भैंस का इलाज 3-5 दिन अवश्य करायें। जेर अपने आप टूट -टूट कर बाहर निकल जायेगी।

प्र0    भैंस ने समय से पहले बच्चा फैंक दिया है। उसकी जेर बाहर नहीं निकली है। क्या करें?

उ0    आमतौर पर भैंस समय से पहले बच्चा दो कारणों से फैंकती है –

Ø  प्रोजेस्ट्रोन हारमोन का पर्याप्त मात्रा में होना व

Ø  जनन सम्बन्धी संक्रामक बीमारियां होना ।

पहली अवस्था में भैंस, बार-बार बच्चा फैंकती है तथा उसमें संक्रमण  का कोर्इ लक्षण नहीं होता है। इस स्थिति में रोग निदान के बाद डाक्टर द्वारा अगले ब्यांत में प्रोजेस्ट्रोन हारमोन के नियमित तौर से टीके लगवाऐ जाते हैं। दूसरी अवस्था में गर्भपात के बाद, बच्चे व जेर का अथवा मवाद का परीक्षण करके चिकित्सक इसके कारण का पता लगाते हैं, व उपयुक्त उपचार करते हैं। दोनों ही अवस्था में जेर नहीं गिरती क्योंकि इसका बच्चेदानी के साथ मजबूत बंधन बना रहता है। इसे खींच कर निकालने की कोशिश नहीं करें। आमतौर पर बच्चेदानी में 5-6 दिन तक जीवाणुनाशक दवा रखने से जेर अपने आप टूट -टूट कर बाहर आ जाती है। टूटी जेर निकालने के लिए टीके भी लगाए जा सकते है, जो बच्चेदानी का संकुचन कर जेर को बाहर फेंकने में सहायता करते हैं।

प्र0    ब्याने के बाद भैंस ने जेर खा ली है। क्या करें?

उ0    जेर एक तरह से माँस है, लेकिन भैंस एक शाकाहारी पशु है। इसलिए अगर भैंस जेर खा लेती है तो उसके पाचन तंत्रा में गडबड़ होना स्वाभाविक है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि भैंस ने जेर का कितना बड़ा हिस्सा खाया है। यदि छोटा टुकड़ा खाया है तो कोर्इ तकलीफ नहीं। यदि वह  ज्यादा या पूरा जेर खा गर्इ है तो अपचन, दस्त या कब्ज व भूख कम लगना और साथ-साथ दूध उत्पादन कम होना देखा गया है। भैंस सुस्त रहती है, बच्चे में भी कम ध्यान लगाती है। ऐसे में तुरन्त पशु चिकित्सक से इलाज करवायें। भैंस की पाचन क्रिया को सामान्य करने के लिये हिमालयन बत्तीसा आयुर्वेदिक पाऊडर, खाने का सोडा व पाचन में सहायक जीवाणुओं की संख्या बढ़ाने के लिए बाजार में उपलब्ध दवाएं दें। यदि जरूरत पड़े तो डाक्टरी सलाह से कब्ज निवारण की दवा दें। वैसे भैंस आमतौर पर 2-3 दिन में ठीक हो जाती है। कुछ भैंसो में यह जेर का टुकड़ा पेट के एक हिस्से में अटक जाता है। जिससे उसमें अफारा हो जाता है। ऐसी स्थिति में शल्य चिकित्सा द्वारा पेट से जेर का अटका हुआ हिस्सा निकालने की नौबत भी आ सकती है।

प्र0    भैंस ने मैला नहीं गिराया है। क्या करें?

उ0    भैंस ने यदि मैला नहीं गिराया है तो आमतौर पर बच्चेदानी में मवाद पड़ सकती है। उसकी पूँछ और योनि पर लाल या सफेद रंग का मवाद चिपका रहता है तथा मक्खियां भिनकती रहती हैं। इसका डाक्टर से इलाज करायें। यदि पूँछ और योनि पर मवाद नहीं चिपका है तथा मक्खियाँ नहीं भिनक रही तो समझें की भैंस बिल्कुल ठीक है। कोर्इ इलाज की जरूरत नहीं है। कुछ भैंसो में मैला शरीर द्वारा सोख लिया जाता है जो हानिकर नहीं होता है। इलाज तभी करायें जब मवाद दिखार्इ दे।

प्र0    क्या भैंस में दूध निकालने के टीके लगाने का जनन पर कोर्इ कुप्रभाव है? क्या इस प्रकार निकाला गया दूध मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है?

उ0    सामान्य तौर पर जब कटड़ा/कटड़ी भैंस के थनों को चूसती है या दूध निकालने के लिए थन साफ करके मसले जाते है तो दिमाग के निचले हिस्से में स्थित पिट्यूटरी ग्रंथि में से आक्सीटोसिन हारमोन निकलकर खून में घुल जाता है । यहां से यह हारमोन ल्योटी में पंहुच कर दूध की नलकियों का संकुचन करता है जिससे भैंस पावस जाती है। इस दौरान दूध को शीघ्रता से निकालते हैं, क्योंकि यह पावसन कुछ ही मिनटों को होता है। आक्सीटोसिन हारमोन शरीर में केवल कुछ मिनट तक ही टिक पाता है  खून में इसका विघटन बहुत जल्दी होने से यह निष्क्रिय हो जाता है। ऐसी भैंस जिस का बच्चा मर जाता है, किसान भार्इ आक्सीटोसिन का टीका लगा कर भैंस का दूध निकाल लेते हैं। अब यह टीका बाजार में इस उपयोग के लिए उपलब्ध नहीं है।

जहाँ तक इसके जनन पर प्रभाव का सवाल है, यदि भैंस गर्मी में है, उसे गाभिन करवाया गया है, वह कुछ दिन/महीनों की गाभिन है, इस टीके का भैंस जनन पर कोर्इ अहम प्रभाव नहीं है क्योंकि, दूध निकालने के लिए हारमोन की जो मात्रा प्रयुक्त की जाती है वह बहुत कम होती है। यदि यह हारमोन अधिक मात्रा में एक साथ लगाया जाए तो उसका कुप्रभाव जैसे भैंस का गाभिन न ठहरना व गर्भपात की आशंका होना आदि हो सकते हैं।

क्योंकि आक्सीटोसिन हारमोन की मात्रा बहुत कम होती है तो यह दूध में भी मिश्रित नहीं होता है। यदि इसकी कोर्इ लघु मात्रा दूध में हो तो वह मानव की पाचन नली में पचने के कारण, संभवत: शरीर में कोर्इ नुकसान नहीं पहुँचाती। लेकिन भैंस को बार-बार टीका लगाना एक  क्रूर प्रक्रिया है। अत: भैंस में दूध लेने के लिए टीका लगाने की प्रवृत्ति को रोकना चाहिए।

प्र0    कुछ दिन पहले हमने एक भैंस खरीदी थी। उसकी त्वचा का रंग बिल्कुल काला था। लेकिन उसका रंग अब तांबे की तरह लाल सा हो गया है। कुछ उपाय बताऐं।

उ0    कुछ व्यापारी/भैंस पालक पशु मेलों में भैंस के उपर कालिख पोत कर ले आते हैं। इसका पता लगाने के लिए भैंस के किसी हिस्से को अच्छी तरह धो लें अथवा गीले कपड़े से पोंछ लें। यदि कालिख की गर्इ है तो पता लग जायेगा।

दूसरे, भैंस को खरीद कर लाने के बाद उसे लगातार बंद कमरे के अंदर रख रहे हैं तो सूर्य के प्रकाश के अभाव में त्वचा का रंग लाल पड़ जाता है। सूर्य की किरणों में त्वचा के रंग का कालापन बनाऐ रखने की क्षमता होती है। अत: भैंस को सूर्य के प्रकाश में खुली छायादार जगह पर बांधे। कुछ ही दिनों में त्वचा का रंग काला हो जायेगा।

शीघ्र इलाज के लिए पशु चिकित्सक से सम्पर्क करें। पशु चिकित्सक इस स्थिति में भैंस को त्वचा के टोनिक जैसे ऐसीटीलारसन व विटामिन ए, डी तथा र्इ के इंजेक्शन का टीका लगा देते हैं। टीका लगने से त्वचा में चमक आ जाती है तथा रंग भी काला हो जाता है।

 

पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान से संबंधित विशेष जानकारी के लिए आप निम्नलिखित पुस्तकों को पीडीएफ में डाउनलोड कर सकते हैं:

Kritrim Garbhadhan Jankari

पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान

Information-of-conception-in-animals

पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान

 

डॉ जितेंद्र सिंह
पशुचिकित्सा अधिकारी
कानपुर देहात, उत्तर प्रदेश

 

Please follow and like us:
Follow by Email
Twitter

Visit Us
Follow Me
YOUTUBE

YOUTUBE
PINTEREST
LINKEDIN

Share
INSTAGRAM
SOCIALICON