दुधारु पशुओ में संक्रामक रोगों के लिए मौसमी और पर्यावरण प्रबंधन
डॉ. अंकुश किरण निरंजन एवं डॉ. शिव वरन सिंह
परिचय
दुधारु पशु प्रबंधन में पर्यावरण का महत्व, दोनों सूक्ष्म और स्थूल स्तर पर विशाल है । भा रत में विभिन्न मौसमो का कारण विविध स्थलाकृति और एक विशाल भौगोलिक पैमाने पर मौसम की स्थिति की विस्तृत श्रृंखला का होना है । इन मौसमी बदलावो के कारण तेजी से बदलते हुए जलवायु और ग्रीन हाउस प्रभाव के मद्देनजर सूक्ष्म पर्यावरण में हुए संशोधन दुधारु पशु प्रबंधन में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर रहे हैं । पर्यावरण में हुए परिवर्तन, संक्रामक रोगों का प्रसार और वितरण करने वाले रोगजनकों एवम् उनके वाहको के अस्तित्व के लिए और अधिक (या कम) अनुकूल हो जाते हैं जो कि मानव और जानवरो की आबादी के बड़े पैमाने पर इधर उधर स्थानांतरण से प्रोत्साहित होते हैं । इन परिवर्तनों से जैव विविधता और निवास स्थान का नुकसान, तापमान में वृद्धि, समुद्र के स्तर में बढ़ोत्तरी, और जलवायु परिवर्तन में अस्थिरता अधिक अवधि के लिए सूखे या वर्षा की गंभीर समस्या बन कर उभर सकते हैं । दुनिया में सबसे बड़ा पशुधन आबादी वाला देश होने के बावजूद, भारत को बेकार प्रबंधन के चलते आर्थिक रूप से अधिक नुकसान उठाना पडता है, जिसका महत्वपूर्ण कारण दुधारु पशुओं के मौसमी और पर्यावरण प्रबंधन के क्षेत्र में ज्ञान की कमी है ।
संक्रामक बीमारियों से होने वाले आर्थिक नुकसान से आम जनता को अवगत कराना आवश्यक है ताकि उत्पादन में आई कमी और पशुओ मे हुई म्रत्यु या इलाज मे आई लागत को आर्थिक रुप से कम किया जा सके । कुछ आम बीमारिय़ॉ विशेष सत्र में या पर्यावरण प्रभाव के कारण होती है जो कि इस प्रकार है, जैसे- सर्दियों में एफएमडी,बी क्यू और मानसून के मौसम में गलाघोंटू और गर्मियों में रोग प्रतिरोधक शक्ति मे आई कमी से होने वाले रोग । कुछ महत्वपूर्ण ऋतु-संबंधी प्रभाव जैसे-हवा, तापमान, आर्द्रता, वर्षा और मौसमी संबंधी कारक विशेष संक्रामक रोगो को आमंत्रित करने में सक्षम है, जो कि दुधारु पशुओ के उत्पादन और प्रजनन के प्रदर्शन को प्रभावित कर सकते हैं । चरम हानिकारक प्रभावो का सामना और ग्रामीण स्तर पर दुधारु पशुओ के व्यवसाय को सफल बनानेके लिए मौसमी और पर्यावरण प्रबंधन के शैक्षिक पहलुओं के प्रति जागरूकता आवश्यक हैं ।
- मौसम और पर्यावरण
भारत मे मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने भारत में मौसम को आधिकारिक तौर पर चार प्रकार से परिभाषित किया है:
- सर्दी
दिसंबर से मार्च तक – वर्ष के सबसे ठंडे महीने, दिसंबर और जनवरी, जब तापमान उत्तर पश्चिम में (50-59 °F)लगभग औसत 10-15 डिग्री सेल्सियस होता हैं ; भारत के दक्षिण पूर्व में भूमध्य रेखा की ओर जैसे-जैसे बढते हैं तापमान बढकर, 20-25 डिग्री सेल्सियस (68-77 °F) हो जाता हैं ।
- ग्रीष्मकालीन या पूर्व मानसून
अप्रैल से जून (उत्तर-पश्चिमी भारत में अप्रैल से जुलाई) – पश्चिमी और दक्षिणी क्षेत्रों में, सबसे गर्म महीने अप्रैल है; उत्तरी क्षेत्रों के लिए सबसे गर्म महीना मई है । सभी अनदूरूनी इलाको में तापमान औसतन लगभग 32-40 डिग्री सेल्सियस (90-104 °F) रहता हैं ।
- मानसून और बरसात
जुलाई से सितंबर – नम दक्षिण-पश्चिम मानसून गर्मियों के मौसम में प्रभावी होता है, जो धीरे-धीरे मई के अंत या जून के शुरुआत में देश भर में प्रभुत्व बनाता है । अक्टूबर की शुरुआत में मानसून की बारिश उत्तर भारत से दूर जाना शुरू हो जाती हैं । आम तौर पर दक्षिण भारत में अधिक वर्षा होती है ।
- शरद ऋतु
अक्टूबर से नवंबर – आम तौर पर भारत के उत्तर-पश्चिम में, अक्टूबर और नवंबर में बादल नही होते हैं । तमिलनाडु अपने वार्षिक वर्षा का सबसे ज्यादा पूर्वोत्तर मानसून के मौसम में प्राप्त करता है ।
- दुधारु पशुओ के जानने योग्य संक्रामक रोग
2.1) जीवाणू जनित रोग:
तालिका:1
क्र. | रोग | आम / स्थानीय नाम |
1. | एंथ्रेक्स | फँशी, कल्पुली, प्लीहा बुखार |
2. | ब्रूसिलोसिस | संक्रामक गर्भपात |
3. | ब्लैकक्वार्टर (बी क्यू) | फर्रया, ब्लैक-लेग |
4. | गलाघोंटू | घटसूर्प, शिपिंग बुखार |
5. | जॉन रोग | पैराटुबर्कुलोसिस |
6. | यक्ष्मा | पर्ल की बीमारी |
7. | लिस्टिरिओसिस | चक्कर रोग |
8. | लेप्टोस्पाइरोसिस | वेल रोग |
9. | बोटुलिज़्म | – |
10. | बैसीलरी हीमोग्लोबिन्यूरिया | – |
11. | फुटरॉट | – |
12. | कंटेजियस बोवान प्लुरो-नूमोनिया (सीबीपीपी) | फेफड़ो का प्लेग |
13. | विब्रियोसिस | – |
14. | एक्टीनोबैसिल्लोसिस | वुडन टंग |
15. | एक्टीनोमाइकोसिस | ढेलेदार जबड़े |
2.2) विषाणू जनित रोग
तालिका:2
रोग | आम / स्थानीय नाम | |
1. | खुरपका और मुहपका रोग | खुरकुट, एफथस बुखार |
2. | अल्पकालिक बुखार | तीन दिन की बीमारी |
3. | इन्फेकसियस बोवाइन रहीनोटरेकाईटिस (आईबीआर) | – |
4. | गोजातीय घातक जुकाम (बीएमसी) | – |
5. | श्लैष्मिक रोग/ गोजातीय वायरल डायरिया | – |
6. | बोवाइन स्पॉन्जिफ़ॉर्म एनसिफ़लॉपैथी (बीएसई) | पागल गाय की बीमारी |
7. | रिंडरपेस्ट | मवेशी प्लेग, गोजातीय सन्निपात,बलक्नडी |
8. | रेबीज | पागलपन, जलांतक |
2.3) मौसमी और पर्यावरण परिवर्तन के कारण दुधारुपशुओ के आम संक्रामक रोग
तालिका:3
ऋतु | सर्दी | मानसून | गर्मी |
खुरपका और मुहपका रोग | गलाघोंटू | तनाव | |
ब्लैकक्वार्टर (बी क्यू) | ब्लैकक्वार्टर | ||
साल्मोनेलोसिस | |||
कोलीबैसीलोसीस |
- मौसमी बदलाव के कारण संक्रामक रोगों को प्रोत्साहित करने वाले कारक:
पर्यावरण के कारको में एवं मौसमी बदलाव के कारणो का प्रभाव, सीधे दुधारु पशुओं और परोक्ष रूप से खाने और चारे की गुणवत्ता और मात्रा के साथ-साथ, उनके चारो ओर की जलवायु को भी प्रभावित करता है ।
3.1) खाने की मात्रा
3.1.1) गर्मी मे
तापमान बढने के कारण दुधारु पशु “गर्मियों में मंदी” का अनुभव करते है । जब सामान्य तापमान शरीर के तापमान की तुलना में अधिक होता है, तो पशु तनावग्रस्त हो जाते और कम खाना शूरु कर देते है, जिसके कारण प्रतिरक्षा को कमजोर करने वाले रोगों को बढ़ावा मिलता है ।
3.1.2) मानसून में
शुरूवाती मानसून में विशेष रूप से बरसात के मौसम में आर्द्रता (85%) होती है, जिसके कारण पसीने का वाष्पीकरण और मुश्किल हो जाता है, जिसकी वजह से गर्मी का तनाव एव मानसून रोगों का नियंत्रण मुश्किल हो जाता है ।
3.1.3) सर्दियों में
उत्पादन और प्रजनन में निरंतर प्रदर्शन के लिए ठंड के मौसम में पशु की आहार मात्रा में वृद्धि,शरीर के वजन को बनाए रखने के लिए जरूरी है । सभी किसानको इस तरह की स्थिति के तहत,पौष्टिक आहार मात्रा में वृद्धि कर देनी चाहिए ।
3.1.4) खाने की दक्षता
रोगग्रस्त तनाव के तहत शारीरिक और शारीरिक गतिविधियों के बढने की वजह से खाने की मात्रा में कमी आ जाती है जिसके परिणाम स्वरुप पशु की चारा खाने में कमी आ जाती है और पशु कमजोर हो जाता है ।
3.1.5) दूध उपज
गर्म और उमस भरे हालत में पोषक तत्वों में कमी आ जाती जिसके कारण पशु शरीर के वजनको बनाए रखने के काबिल नही होता और कमजोरी के साथ रोग हो जाते है । इन तनावग्रस्त हालात से दूध देने वाले पशु ज्यादा प्रभावित होते है और दूध उत्पादन घट जाता है ।
सर्दियों में पोषक तत्वों की अधिक आवश्यकता होती है इसलिए पोषक तत्वों के अभाव में, पशु की प्रतिरक्षा शक्ति कम हो जाती है और पशु के कमजोर हो जाने से सर्दियो मे होने वाली बीमारियो की सम्भावना बढ़ जाती है । गर्मी के नुकसान के कारण वायुमंडलीय तापमान के साथ शरीर के तापमान के संयोजन को बनाए रखना बहुत मुश्किल हो जाता है इसलिए दूध उत्पादन घट जाता है ।
3.1.6) विकास
वे जलवायु परिस्थितिया जिनकी वजह से मौसम संबंधित तनाव उत्पन्न होते है जो कि न केवल बीमारियो को बुलावा देते है बल्कि विकास को भी प्रभावित करते है । मुख्य रूप से पशुओं की विकास दर गर्मियों के महीनों के दौरान काफी हद तक कम हो जाती है।
3.1.7) प्रजनन दक्षता
बीमारी की वजह से जैसे-जैसे तनाव बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे जानवर के शरीर का संतुलन बिगडता जाता है और प्रजनन चक्र में अनियमितता आने लगती है । प्रजनन चक्र में अनियमितता आने के परिणामस्वरूप भ्रूण के विकास, निषेचन की विफलता, भ्रूण की जल्दी मौत और अपरा का विकास वयस्क में प्रभावित होता है जो कि प्रजनन चक्र मे जारी रहता है ।
- पर्यावरण परिवर्तन के कारण संक्रामक रोगों को बढ़ाने वाले कारक
वे संक्रामक रोग जो वाहक जनित और वातावरण पर निर्भ रहते हैं, जलवायु परिवर्तन से अन्य रोगो की तुलना मे ज्यादा प्रभावित होते हैं और इसके अलावा अन्य कारको पर भी निर्भर करते हैं:
4.1) उष्मागत तनाव
गर्मी में तनावकी स्थिति तब पैदा होती है जब पर्यावरण का प्रभावी तापमान जानवर के आराम क्षेत्र की तुलना में अधिक हो जाता हैं, मुख्य रूप से चार पर्यावरणीय कारक प्रभावी तापमान को प्रभावित करते हैं:
- वायुमंडलीय तापमान
- सापेक्षिक आर्द्रता
- हवा प्रवाह
- सौर विकिरण
कम नमी सूचकांक के साथ, जब भी तापमान 27°C से अधिक होता है तोप्रभावी तापमान दुधारु पशुओं के आराम क्षेत्र से ज्यादा हो जाता है । आमतौर पर तापमान नमी सूचकांक का प्रयोग तनाव की मात्रा बताने के लिए होता है । जब तापमान नमी सूचकांक 72 से अधिक हो जाता है तो यह उच्च उत्पादन वाले दुधारु पशुओं को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है । भारत में उष्मागत तनाव से सबसे ज्यादा भैंसे प्रभावित होती हैं इस लिए विशेष रूप से भैंसों के लिए विशेष गर्मियों में प्रबंधन रणनीति लागू की जानी चाहिए ।