पशुओं को होने वाले विभिन्न प्रकार के संक्रामक एवं असंक्रामक रोगों से बचाव
संजीव कुमार
पैथोलॉजी विभाग, बिहार पशुचिकित्सा महाविद्यालय, पटना– 14
पशुओं को होने वाले विभिन्न प्रकार के संक्रामक एवं असंक्रामक रोगों का पशुपालन में महत्वपूर्ण स्थान हैं। पशुओं के रोगों को मोटे तौर पर इन्ही दो श्रेणियों में रखा जाता हैं।
असंक्रामक रोगों की श्रेणी में वह रोग आते हैं जो शरीर क्रियाओं को प्रभावित करने वाले आवश्यक अवयवों जैसे लवण, विटामिन, हार्मोन, या एंजाइम की कमी या अधिकता, विशाक्तता, चयापचय असंतुलन, मौसम, आहार एवं पशुपालन व्यवस्था में आकस्मिक परिवर्तनों से उत्पन्न हो जाते हैं। अफरा, पेटदर्द, घोड़ों में होने वाली मूत्ररक्तता, दुग्ध ज्वर, शूकर नवजात रक्ताल्पता, ऊँट में तालू शोथ, पानी की कमी या निर्जलीकरण, नवजातों में ऊँर्जा की कमी से अधोताप आदि इसी श्रेणी की रूग्णता है। पशुओं के विभिन्न असंक्रामक रोगों में चयापचयी एवं अल्पताजन्य से पशु पालकों को हानि उठानी पड़ती हैं। विभिन्न क्षेत्रों की जलवायु प्रचलित पशुपालन व्यवस्था तथा पशुओं के पोशण स्तर के आधार पर यह रोग होते हैं। शरीर में विभिन्न खनिज लवणों यथा कोबाल्ट, ताम्र, आयोडीन, जिंक और मैंगनीज आदि की न्यूनता से अनेक प्रकार की बीमारियां होने लगती हैं। गर्भावस्था के अंतिम दिनों में उचित खुराक की कमी से गर्भ- आविशाक्तता हो जाती है। इसी प्रकार विटामिनों की कमी होने से भी पशुओं में एक न एक रोग उत्पन्न हो जाता हैं अतः क्षेत्र विशेष की भूमि में खनिज लवणों की कमी, पोशण स्तर तथा जलवायु के आधार पर इन रोगों के होने की संभावना का अंदाजा लगाया जा सकता है तथा इन्ही पूर्वानुमानों के अनुसार उचित व्यवस्था करके रोग के प्रकोप से या उत्पादन में गिरावट से बचा जा सकता है।
पशुओं के वह रोग जो किसी रोगाणु (यथा जीवाणु, विशाणु, कवक एवं परजीवी आदि) के संक्रमण से उत्पन्न होते हैं, उन्हें संक्रामक रोग कहा जाता हैं यथा एन्थ्रेक्स, खुरपका में हपका, दाद एवं अंतःजीवी आदि इसी श्रेणी की बीमारियां हैं। कुछ संक्रामक रोग आपसी संपर्क परदूषित सामग्री के छूने पर फैलते हैं, ऐसे रोगो को संदूशणजन्य संक्रामक रोग या छुआछूत से फैलने वाले रोग कहते हैं। पशु रोगों में रिंडरपेस्ट खुरपका-मेंहपका व चेपक जैसे रोग इसके उदाहरण हैं।
जब ऐसे रोग स्वस्थ पशु को रोगी पशु के सीधे सम्पर्क में आने से लगते हैं, तो इन्हें छूत के रोग कहते है। मनुष्य में कोलरा तथा चेचक और पशुओं में एंथ्रेक्स, गलाघेट, लंगड़िया, पशु प्लेक, इत्यादि । संक्रमण एवं छूत के रोग बहुत भयानक होते हैं, जिनमें भारी संख्या में पशुओं की प्रतिवर्ष मृत्यु हो जाती है। पशुओं के संक्रामक रोग केवल राष्ट्र की आर्थिक क्षति के लिए उत्तरदायी नहीं है वरन इनके द्वारा पशु- धन का जो विनाश होता है, उससे कृषि कार्य को भी भारी धक्का पहुँचता है। इन रोगों के कारण देश में पशुधन उद्योग का आधुनिक वैज्ञानिक विकास भी समुचित रूप से नहीं हो सका है
संक्रामक रोगाणु ( दूध, मांस, अंडा, मल, मूत्र, वास, स्त्राव / निःस्त्राव) आदि के साथ रोगी के शरीर से से निकलकर स्वस्थ पशुओं को रोगग्रस्त कर देते हैं। इस क्रिया को रोगाणुओं का संचारणकहा जाता है। रोगाणुओं का संचारण सीधे संपर्क, संदूशित आहार, पानी, हवा, बाड़ा या बाडे की अन्य सामग्रियों एवं सेवकों के माध्यम से होता हैं। इसके अलावा अनेक रोगाणुओं का फैलाव या संचारण रोगवाहक कीटों द्वारा भी होता हैं। संक्रामक रोगों से आज भी सबसे अधिक हानि होती है । रिण्डरपेस्ट रोग इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। एक रोगाणु से होने वाले रोगों के साथ-साथ रोग उत्पन्न करने वाले अन्य कारकों की ओर आजकल विशेष ध्यान दिया जा रहा है। अनेक संक्रामक रोगों के प्रकट होने में असंक्रामक तथा पूर्वानुकूल परिस्थितियों का भी योगदान होता है। आहार में पोशक तत्वों की कमी होने से पशु संक्रामक रोगाणुओं के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं और रोगाणु संचारण होने पर रोगग्रस्त हो सकते हैं।
संक्रामक एवं छुत रोगों से बचाने के लिए पहले हम जानवर को संतुलित आहार, शुद्ध वातावरण, साफ सफाई एवं टिकाकरण पर विशेष ध्यान देना चाहिए, क्योंकि बचाव, उपचार की अपेक्षा अच्छा है। संक्रामक एवं छूत रोगों से ग्रसित पशुओं को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए।
(1) पृथक्करण
संक्रामक एवं छूत के रोग का सन्देह होते ही बीमार पशु स्वस्थ पशुओं से पृथक कर देना चाहिए। और उसकी अलग ही देखभाल करनी चाहिए। स्वस्थ पशुओं को साफ-सुथरे, हवादार एवं रोशनी युक्त स्थानों में रखा जाय और उनका खाना पीना एवं परिचारक भी रोगी पशु से बिल्कुल ही अलग रहे। रोगी को अच्छा हो जाने पर स्वस्थ पशुओं को लागातार नित्य जाच करनी चाहिए और यदि उनमें लेशमात्र भी बीमारी का सन्देह हो, तो तुरन्त अलग कर देना चाहिए।
(2) रोग की सूचना
रोग की आशंका होने पर तुरन्त ही समीप के पशु चिकित्सक को सूचना देकर बुलावा भेजना चाहिए, जिससे कि उसकी सहायता से रोग आगे न बढ़ने पावे।
(3) रोग से मरे शव और बिछावन आदि का उचित प्रबन्ध
संक्रामक रोग से मरे हुए पशु का शव खुले मैदान, नदी या तालाब में नहीं फेंकना चाहिए और न उसकी खाल ही उतार देना चाहिए। मरे हुए पशु उससे सम्बन्धित पदार्थ जैसे मल-बिछावन आदि को या तो आग में जला देना चाहिए अथवा 1.5-2 मीटर गहरा गड्ढा खोदकर उसके उपर व नीचे चूने की 20-30 सेमी की सतह बिछाकर पशु के शव को मिट्टी से ढक देना चाहिए।
(4) रोगी पशु के सम्पर्क में आए हुए बर्तनों एवं स्थानों की सफाई
पशु गृह के सतह तथा दीवारें खूब अच्छी तरह पानी से साफ करके 3 प्रतिशत कास्टिक सोडा या 5 प्रतिशत कार्बोलिक अम्ल घोल से धो डालनी चाहिए, तत्पश्चात् दीवारों को कार्बोलिक अम्ल युक्त चूने के घोल से पुतवा देना चाहिए। रोगी के सम्पर्क में आये हुए बर्तन तथा जंजीरें आदि गर्म भाप से अथवा उबलते हुए पानी में खौलाकर जीवाणु रहित करना चाहिए।
(5) चारागाहों का बदलना
बीमार पशुओं द्वारा चरे हुए चारागाह रोग फैलाने में बहुत सहायक होते है। अतः ऐसे चारागाहों पर जहाँ बीमार पशु चर चुके हों, स्वस्थ पशु नहीं चराना चाहिए और उनकों अच्छे, साफ एवं शुद्ध चारागाहों पर चराना चाहिए। दूषित चारागाह पर चुना छिडकवा कर अथवा हल चलवा कर उसे 5-6 माह की अवधि के लिए खाली छोड़ देना चाहिए, ऐसा करने से रोग के कीटाणु नष्ट हो जाते है।
(6) पशुओं के एकत्रित होने पर रोक
जादातर ऐसा देखा गया है कि बाजारों, मेलों तथा पशु प्रदर्शनियों आदि में इकट्ठा होने से पशुओं को छूतदार रोग शीघ्र फैलते है। अतः यदि किसी स्थान में रोग फैलने की आसंका हो, तो वहाँ आने वाले सभी पशुओं को या तो मार्ग में ही बचाब के टीके लगवाए जायें अथवा कुछ समय के लिए इन मेलों को स्थगित कर दिया जाए।
(7) पशुओं का खान–पान
बीमारी फैलने की ऋतु में स्वस्थ पशुओं के चारे एवं पानी पर विशेष ध्यान देना चाहिए। पशुओं को कोई भी ऐसा आहार न दिया जाय जो उनके पेट में कब्ज करे, क्योंकि ऐसा होने से पशु में रोग ग्रहण करने की सम्भावना अधिक बढ़ जाती है। नदियों, नहरों तथा तालाबों का पानी, ताकि रोग के कीटाणुओं अथवा विभिन्न प्रकार के परजीवी कीटों से संदूषित हो सकता है, पशुओं को नहीं पिलाना चाहिए ।
(8) पशुओं को टीका लगवाना
आजकल महामारी से बचाव के टीके बिहार सरकार के पशु-पालन विभाग द्वारा निःशुल्क लगाए जाते है । जैसे- गलघोटू के प्रति मई या जून में, लंगड़िया एवं विषहरी के प्रति अगस्त सितम्बर में और पशु प्लेग के प्रति अक्टूबर नवम्बर में ये टीके लगवा लेने से पशुओं में इन रोगों का प्रकोप नही हो पाता है।
(9) संगरोध
इस विधि के अन्तर्गत सभी नए खरीदे गए पशुओं को निजी यूथ में मिलाने के पुर्व ( 15 से 21 दिन ) तक अलग रखकर इस तथ्य की परीक्षा की जाती है कि वे किसी संक्रामक रोग से पीडित तो नहीं है। यदि इस अवधि में उनमें कोई भी बीमारी के लक्षण नहीं मिलते तो उन्हें स्वस्थ पशुओं के यूथ में मिला लिया जाता है। यह विधि विदेशों से आयातित पशुओं पर लागू की जाती है। नोट रोगों के सम्पर्क में आए हुए स्वस्थ पशुओं को कभी भुलकर भी वक्सीन का टीका नही देना चाहिए, अन्यथा बीमारी और जोर पकड़ लेगी।
टीकाकरण कैसे क्या और कब:
टीकाकरण के सफलता हेतु सही प्रकार के टीकें, उचित मार्ग, उचित मात्रा तथा उचित समय पर करना चाहिए। टीकें को प्रभावशाली तथा इसका संरक्षण उचित तापमान पर कारखानों के निर्देशानुसार होना चाहिए। टीका की मात्रा तथा टीका के प्रकार पशुओं की जाति और उनके भारीर के भार के अनुसार बदलती है। कौन सा टीके का प्रयोग हो यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस जगह विश पर कौन सा रोग बहुतायता तथा बारम्बार फैलता है एंव पशुचिकित्सक क्या सलाह देते है। टीकाकरण करने का समय रोगों के आगमन, इनकी बारम्बारता तथा पशुओं में उपलब्ध प्रतिरोधी क्षमता या प्रतिपिण्ड (एन्टीबॉड) पर निर्भर करता है।
टीकाकरण कार्यक्रम को सफल बनाने के लिय पशुपालकों को अपने नजदीकी पशुचिकिसकों से सलाह लेनी चाहिए जिससे कि उनके पशु रोग विहीन जिन्दगी जीते हुए अत्यधिक उत्पादन दे सकता है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण है कि पशुचिकित्सकों के द्वारा दिया गया टीकाकरण का समय सारणी का अनुसरण किया जाए।
टीका अधिकत्तर उपयोग में आने वाले जैविक पदार्थ निम्नलिखित हैं
- मरा हुआ अथवा जीवित, तुरन्त रोग उत्पन्न करने में सर्वथा असमर्थ बैक्टीरियल या बाइरल वैक्सीन |
- बीजाणु द्वारा उत्पादित बैक्टीरिया रिक्त पदार्थ, जैसे- टॉक्सिन (जीव विष) तथा ऑक्साइड (जीव विषाभ). जो बहुत ही थेड़ी मात्रा में दिए जाने पर शरीर के अन्दर काफी मात्रा में विशेष प्रकार की प्रतिपिण्ड उत्पन्न कर देते हैं, इन्हें जीव-विषहर कहते है।
3- बैक्टीरियल अथवा वाइरल एन्टीसीरम
- रोग के निदान के लिए प्रयोग होने वाले कुछ एलर्जिक पदार्थ जैसे जोलिन, मैलीन, ट्यूबर्क्युलिन आदि
संक्रामक रोगों से टीकाकरण द्वारा पशुओं का बचाव
रोग का नाम
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प्रभावित पशु | वैक्सीन | वैक्सीन का आयु | डोज | बुस्टर
डोज |
अन्तराल
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सीजन
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1- खुरपका और मुंहपका , एफथस ज्वर
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रोमान्थी पशु सूकर | खुरपका और मुंहपका टीका पोलीवैलेंट अक्रिय सेल कच्चर टिका | 6&8 सप्ताह | 10 मिलीलिटर
त्वचा के नीचे
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12 माह | सलाना
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नवम्बर एवं दिसम्बर
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2- पेंका, शीतलामाता कैटल प्लेग | रोमान्थी पशु सूकर | गोट टिशू वैक्सीन टिशू कल्चर रिण्डरपेस्ट वैक्सीन | सभी उम्र | 1 मिलीलिटर
त्वचा के नीचे
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& | प्रतिवर्ष | वीन्टर माह |
3- चेचक | गौपशु, भैंस, भेड, बकरी, घोडा सूकर उँट एवं मुर्गी | फार्मेलीन युक्त भेंड चेचक जैल टिका, जीवित जैल ववशोसि टीका जीवित तनुकृत टिका | सभी उम्र | 3 मिलीलिटर त्वचा के नीचे
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रिपीट 6 माह में रिपीट सलाना | दिसम्बर/मार्च | |
4- ब्लू टंग, नीली जिहवा | भेड कभी कभार गो एवं बकरी | पोलीवैलेंट एबीनाइज्ड ब्लू टंग वैक्सीन | 6 माह | 1 मिलीलिटर
त्वचा के नीचे
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दो साल पर | इनडैमीक जगल में | |
5- तिल्ली ज्वर गिल्टी रोग | गोपशु, भेड बकरी, घोडा खच्चर, सूकर एवं कुत्ता | एन्थ्रैक्स स्ओट वैक्सीन | सभी उम्र | 1 मिलीलिटर
त्वचा के नीचे
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6 माह | सलाना
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फरवरी, मार्च एवं मई |
6- लंगडी (ब्लैक लैग) | कम उम्र के गैपशु, भैंस भेंड और बकरी | पॉली वैलेन्ट वैक्सीन | सभी उम्र | 5 मिलीलिटर
त्वचा के नीचे
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6 माह | सलाना
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सभी समय इनडेमीक स्थान पर |
7- गलघटू, शिपिंग ज्वर एच० एस० | गैपशु, भैंस वन्य रोमान्थी, भेउ बकरियॉं, सूकर | एच० एस० एडजुबैन्ट वैक्सीन | सभी उम्र | 3 मिलीलिटर
त्वचा के नीचे
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6 माह | सलाना
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मई एवं जून |
8- छय रोग, टी०बी० राज रोग | स्तनधारी | बी०सी०जी० | सभी उम्र | 1 मिलीलिटर
त्वचा के नीचे
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6 माह | जीवन भर के लिए | सभी समय |
टीकाकरण कार्यक्रम हमारे पशुओं को विभिन्न रोगों से बचाव को सुनिश्चित करता है। अधिकतर मामलों में पशुओं में टीकाकरण बहुत ही असरदार साबित होती है तथा भविश्य में होने वाली रोगों से बचाव करती हैं। यदपि कुछ अवसरों पर यह देखा गया कि टीकाकरण किये गये पशु उपयुक्त मात्रा में प्रतिरोधक क्षमता विकसित नहीं कर पाते है लेकिन बहुत ही कम मामले में उनकी विचार रहने की संभावना होती है। अतः यह बहुत ही महत्वपूर्ण है कि सुरक्षा में रूकावट आने पर भी सफलतापूर्वक टीकाकरण किये गये पशुओं में बीमारी के लक्षण नही दिखते है। और इस तरह टीकाकरण पशुओं में स्वास्थ्य सुरक्षा का महत्वपूर्ण अवयव है। यदपि यह जोर दिया जाता है कि टीकाकरण किये गये पशुओं को बिना टीका दिये गये पशुओं को स्वतंत्र रूप से नहीं मिलने देना चाहिए।