पशुओं को उच्च उष्मीय तनाव (हीट स्ट्रोक ) से बचाने  के उपाय

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पशुओं को उच्च उष्मीय तनाव (हीट स्ट्रोक ) से बचाने  के उपाय

डॉ उदय कुमार,  पशुधन विशेषज्ञ , हाजीपुर , बिहार

गर्मी का असर दुधारू पशुओं पर भी पड़ने लगा है। पशु हीट स्ट्रोक के शिकार होने लगे हैं। इसके साथ-साथ दुधारू पशुओं के दूध देने की क्षमता में भी काफी कमी आ गई है।

तीखी धूप व गर्मी से इंसान तो परेशान होते ही है साथ में बेजुबान भी मुस्किल में आ जाते हैं। उन पर हीट स्ट्रोक का खतरा मंडराने लगता है। ऐसे में पशुपालक व किसानों ने पशुओं की देखभाल में जरा भी लापरवाही की तो पशुओं को नुकसान पहुंच सकता है। लापरवाही से मवेशी संकट में आए तो उनके इलाज को लेकर पशुपालकों की भी दिक्कत बढ़ेगी। यदि शीघ्र उपचार नहीं मिला तो पशुओं की मौत तक हो जाती है। इसके साथ ही दुग्ध उत्पादन प्रभावित होता है। जैसा की पशुपालक भाई जानते हैं, यदि तापमान में 1 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि होती है तो दुग्ध उत्पादन में 10-15 प्रतिशत की हानि होती है।

देश में एक बड़ा तबका पशुपालन से जुड़ा हुआ है, लेकिन कई गर्मी बढ़ने के साथ हम खुद का तो खयाल रखते हैं, लेकिन पशुओं का ध्यान नहीं रखते है। इसलिए कुछ बातों का ध्यान रखकर पशुओं को गर्मी से बचाया जा सकता है। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ने के साथ लू चलती है, इंसानों के साथ ही यह पशुओं के लिए नुकसानदायक होती है। गर्मियों के मौसम में हवा के गर्म थपेड़ों और बढ़ते हुए तापमान से पशुओं को बीमार होने का खतरा बढ़ जाता है। इसका सबसे ज्यादा असर दुधारू पशु और छोटे बच्चों पर पड़ता है। गर्मी के दिनों में हीट स्ट्रेस के कारण पशुओं के शरीर का तापमान सामान्य से 4-5 डिग्री फेरनेहाइट तक बढ़ जाता है जिससे पशुओं को अपने शरीर का तापमान सामान्य बनाएं रखने में काफी दिक्कतें आती हैं तथा पशुओं के शरीर में गर्मी के लक्षण दिखने लगते हैं जिससे पशु पसीने के रूप में गर्मी को बाहर निकालकर शरीर का तापमान सामान्य बनाए रखने की कोशिश करते हैं। शरीर का तापमान बदने से पशुओं के खनपान में कमी, दुग्ध उत्पादन में 10 से 25 फीसदी की गिरावट, दूध में वसा के प्रतिशत में कमी, प्रजनन क्षमता में कमी, प्रतिरक्षा प्रणाली में कमी आदि लक्षण दिखाई देते हैं। गर्मियों में पशुओं को स्वास्थ्य रखने एवं उनके उत्पादन के स्तर को सामान्य बनाए रखने के लिए पशुओं की विशेष देखभाल की आवश्यकता होती है।

बढ़ती गर्मी के साथ पशुपालकों को अपने पशुओं की सुरक्षा को लेकर सतर्क रहने की अति आवश्यकता है। बदलते मौसम में पशुओं के रहन-सहन के साथ-साथ चारे पानी पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए नहीं तो पशु की उत्पादन छमता बुरी तरह प्रभावित होती है। इन उपायों को अपनाकर घरेलु/दुधारू पशुओ की देखभाल एवं नवजात पशुओं की देखभाल उचित तरीके से की जा सकती है ।

गर्मी का मौसम आते ही अपने पशुओं को सुरक्षित रखने के उपाय शुरू कर देने चाहिए। गर्मियों के मौसम में चलने वाली गर्म हवाएं (लू) जिस तरह हमें नुकसान पहुंचती हैं ठीक उसी तरह ये हवाएं पशुओं को भी बीमार कर देती हैं। अगर पशुपालक उन लक्षणों को पहचान लें तो वह अपने पशुओं का सही समय पर उपचार कर उन्हें बचा सकते हैं। अगर पशु गंभीर अवस्था में है तो उसे जल्द से जल्द नजदीकी पशु चिकित्सालय में ले जाएं। क्योंकि लू से पीड़ित पशु में पानी की कमी हो जाती है। इससे बचाने के लिए पशुओं को भी ग्लूकोज की बोतल ड्रिप चढ़वानी चाहिए और बुखार को कम करने व नक्सीर के उपचार के लिए तुरन्त पशु चिकित्सक से सलाह लेनी चाहिए।

आमतौर पर गर्मी के मौसम में पशु चारा खाना कम कर देते हैं, क्योंकि भूख कम लगती है और प्यास ज्यादा। पशुपालक अपने पशु को दिन में कम से कम तीन बार पानी पिलाए। जिससे शरीर के तापमान को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा पशु को पानी में थोड़ी मात्रा में नमक और आटा मिलाकर पानी पिलाना चाहिए। तापमान के बढ़ने पर पशुओं की शारीरिक प्रतिक्रियाओं में वृद्धि होती है जिससे कार्डियोपल्मोनरी और उसकी तीव्रता की क्षमता प्रभावित होती है। थर्मल स्ट्रेस के कारण डेयरी पशुओं के दुग्ध उत्पादन में गिरावट, समय से गर्मी में न आने और गर्मी के लक्षण प्रकट नहीं करने व गर्भ धारण नहीं होना प्रमुखता से देखा जा रहा है

जलवायु परिवर्तन के चलते इसी प्रकार से आगे भी तापमान में वृद्धि जारी रही पशुओं में साइलेंट हीट, छोटा मदकाल और प्रजनन क्षमता में ओर अधिक गिरावट आएगी। जलवायु परिवर्तन के कारण पशु रोगों में भी ओर अधिक वृद्धि होगी। इन पर काबू पाने के लिये अभी से हर संभावित प्रयास करने की जरूरत है।

पशुओं के आवास में पर्यावरण के अनुकूल संशोधन करके सूर्य के सीधे आने प्रकाश को रोका जा सकता है।पानी का छिड़काव और पंखे आदि लगाकार तापमान और गर्मी को कम किया जा सकता है।पशुओं का आवास ऐसे स्थान पर बनाना चाहिए, जहां पेड़ों की घनी छांव हो अथवा पशुशाला के आसपास चारों और पेड़-पौधे लगाकर भी तापमान एवं सीधे आने वाली सूर्य किरणों और धूप को काफी हद तक रोखा जा सकता है।पशु आवास को उचित तरीके से डिजाइन करना चाहिए, जिससे हवा का आवागमन बढ़ने के साथ ही प्राकृतिक रूप से प्रकाश और हवा अंदर आती रहे।पशु आवास में पानी की बौछार का प्रयोग करके पशुओं को प्रभावित करने वाले थर्मल हीट स्ट्रेस को कम किया जा सकता है। पशुओं को पौषणयुक्त आहार खिलाने की रणनीति अपनानी चाहिये जिससे हीट स्ट्रेस के कारण पशुओं के उत्पादन पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को कम किया जा सके।

आहार प्रबंधन

पशुओं को हरा चारा देना चाहिए अगर हरा चारा उपलब्ध ना हो तो पेड़ की पत्ती जैसे आम की पत्ती, बबूल की पत्ती, जामुन के पत्ते इत्यादी देना चाहिए।चूंकि गर्मी में पशु आहार खाना कम कर देते है इसलिये संतुलित राशन देना चाहिए जिससे पशुओं की उत्पादन क्षमता बनी रहे।गर्मियों के मौसम में पैदा की की की गई जो ज्वार या चरी जहरीला हो सकता है जो पशुओं के लिए हानिकारक होता है।अत: इस मौसम में यदि बारिश नहीं हुई है तो ज्वार खिलाने के पहले खेत में 2-3 बार पानी लगाने के बाद ही खिलाना चाहिए।

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उष्मीय तनाव के लक्षण

  • बेचैनी
  • छाया के नीचे या पानी के स्रोत के पास इक्कट्ठा होना
  • हाँफना
  • लार का ज्यादा बहना
  • सांस की दर में वृद्धी
  • आमाश्य व अन्तडि़यों की गतिशीलता में कमी
  • सुस्ती का बढ़ना
  • पशु की गतिविधि में कमी
  • खाने में कमी
  • पसीने में वृद्धि
  • शारीरिक तापमान में बढ़ोत्तरी
  • दिल की धड़कन में कमी
  • पानी पीने में वृद्धि
  • दूग्ध उत्पादन

पशुओं पर गर्मी का प्रभाव

ज्यादा गर्मी बढ़ने पर पशुओं के शरीर में पानी के साथ साथ अन्य खनिज पदार्थों की कमी होने लगती है। दुधारू पशुओं पर गर्मी का सीधा प्रभाव पड़ने पर दूध का उत्पादन कम होने लगता है। गर्मी के कारण पशुओं में बीमारी से लड़ने की क्षमता भी कम हो जाती है जिससे पशु शारीरिक तौर से कमजोर हो जाता है। अपने शरीर के तापमान को गर्मी में भी सामान्य रखने के लिए पशुओं की शारीरिक क्रियाओं में कुछ बदलाव देखने को मिलते हैं।

  • गर्मी के मौसम में पशुओं की स्वशन गति बढ़ जाती है, पशु हांपने लगते हैं, उनके मुंह से लार गिरने लगती है। श्वसन क्रिया बढ़ने तथा पसीना अधिक आने से शरीर में पानी तथा आयन की कमी हो जाती है, जिससे पशुओं में पानी की आवश्यकता बढ़ जाती है।
  • पशुओं के रियुमन की फर्मेन्टेशन क्रिया में बदलाव आ जाता है जिससे की पाचन क्रिया प्रभावित होती है और खाने की खुराक लगभग 50 प्रतिशत तक कम हो जाती है जिसके कारण उत्पादन क्षमता तथा कार्य क्षमता में कमी आ जाती है।

जानिए पशुओं का रखरखाव कैसे करें 

पशुओं को छायादार स्थान पर बांधना चाहिए। पशुओ के नीचे रेत डालने के बाद उस पर अच्छी तरह पानी का छिड़काव करना चाहिए। यदि पशु को कमरे या टीन शेड में बांधकर रखा जाता है तो इस बात का विशेष ध्यान रखे की वह स्थान हवादार होना चाहिए। पक्की छत के मकान में वेंटीलेटर लगे होने चाहिए। ज्यादा गर्मी पड़ने पर पशुओ को 2 से 3 बार ठण्डे पानी से नहला देवें। पशु आवास गृह में आवश्यकता से अधिक पशुओ को नही बांघे तथा रात्रि में पशुओ को खुले स्थान पर बांधे। सीधे धूप और लू से पशुओं को बचाने के लिए पशु शाला के मुख्य द्वार पर खस या जुट के बोरे का पर्दा लगाना चाहिए.

संक्रमण से कैसे करें बचाव

पशुओ में गर्मी के दिनों में संक्रमण ज्यादा तेजी से फैलता है, जिसका बचाव करने के लिए पशुओ के चारा खाने वाले स्थान की नियमित रूप से साफ सफाई कर धुलाई करनी चाहिए। बासी चारा खाने से पशुओं के पेट में कई तरह की घातक बीमारिया हो सकती है। पश को बाधने वाले स्थान के चारों ओर चूने का छिड़काव कर संक्रमण से बचाया जा सकता है।

पशुओं को दे संतुलित आहार

गर्मी के मौसम में दुधारू पशुओं को दाने की उचित मात्रा देते रहे। दाने में गेहूँ, जई, चने का छिलका, गेहूँ का चोकर, पीसा नमक, गुड़ की शक्कर मिलाकर देने से पशुओं में दूध उत्पादन ठीक रहता है, तथा पशु स्वस्थ रहते हैं। कार्बोहाइड्रेट की अधिकता वाले खाघ `पदार्थ जैसे-आटा, रोटी, चावल आदि पशुओ को नहीं खिलाना चाहिए। पशुओं के संतुलित आहार में डेन एवं चारे का अनुपात 40 और 60 का रखना चाहिए। साथ ही वयस्क पशुओं को रोजाना 50-60 ग्राम एलेक्ट्रल एनर्जी तथा छोटे बच्चों को 10-15 ग्राम एलेक्ट्रल एनर्जी जरुर देना चाहिए।

गर्मी के मौसम में पशुओ को हरा चारा खिलाये 

गर्मी के मौसम में पशुओ को हरा चारा अधिक खिलाए, इसमें 70-90 प्रतिशत जल की मात्रा होती है। पशुओ को दिन में कम से कम तीन बार स्वच्छ पानी अवश्य पिलाएं। इसके अलावा पानी में नमक व आटा मिलाकर पिलाना भी अधिक उपयुक्त है। इससे अधिक समय तक पशु के शरीर में पानी की पूर्ति बनी रहती है। गर्मी के दिनों में पशु के चारे में एमिनो पावर और ग्रो बी-प्लेक्स मिलाकर देना लाभदायक रहता है। गर्मी के दबाव के कारण पशुओं के पाचन प्रणाली पर बुरा असर पड़ता है और भूख इस स्थिति से निपटने के लिए और पशुओ की खुराक बढ़ाने के लिए पशुओं को नियमित रूप से ग्रोलिव फोर्ट देना चाहिए।

खनिज लवण की पूर्ति कैसे करें 

पशुओ में नमक की पूर्ति करने के लिए पशु बांधने के स्थान पर साबुत सेंधा नमक का बड़ा टुकड़ा अवश्य रखें तथा समय समय पर पशुओ को कैल्शियम की उचित खुराक देते रहें। कैल्शियम की कमी से पशुओं में कई बीमारियां जन्म लेती हैं।

अतः पशु पालकों को अपने पशुओं को गर्मी की दुष्प्रभाव से बचने में इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए :

  • पशुओं को दिन के समय सीधी धूप से बचाएं, तथा उन्हें बाहर चराने के लिए सुबह-सुबह ही ले जाएं तथा दोपहर से पहले वापस शेड में ले आएं।
  • पशुओं को हमेशा छायादार और हवादार स्थान पर बांधें।
  • पशु शेड में ठंडी हवा की व्यवस्था करें जिसके लिए कूलर/पंखों का इस्तेमाल कर सकते हैं।
  • पशुओं को समय-समय पर पीने का पानी उपलब्ध कराएँ।
  • पशुओं को यादा से ज्यादा हरा चारा खिलाएं, एवं पशुओं को पौष्टिक एवं संतुलित आहार दें।

उष्मीय तनाव के शारीरिक प्रभाव

पाचन तन्त्र में एसिड-बेस, हॉर्मोन, खुराक में कमी व अन्य कई प्रकार के परिवर्तन आते हैं।तापमान संवेदनशील न्यूरॉन पशु के सारे में शरीर में फैले होते हैं जो हाईपोथैलामस ग्रन्थि को सन्देश भेजते हैं जो संतुलन बनाने के लिए शारीरिक, सरंचनात्मक व व्यवहारिक बदलाव पशु के शरीर में उत्पन्न करते हैं। उष्मीय तनाव के समय पशु का खाना कम हो जाता है। उसकी गतिविधि कम हो जाती है व वह छाया व ठण्डी हवा की ओर अग्रसर होता है। इस दौरान उसकी सांस की दर बढ़ जाती है व उसमें रक्त प्रवाह व पसीना बढ़ जाता है। इन सभी प्रतिक्रियाओं से पशु की उत्पादन व शारीरिक क्षमता कम हो जाती है।

गाभिन पशुओं में उष्मीय तनाव का प्रभाव

उच्च उष्मीय तनाव के समय गाभिन पशुओं में ‌‌‌गर्भाश्य के रक्त प्रवाह में कमी आ जाती है जिससे भ्रूण की विकास वृ​द्धि रूक जाती है। इस दौरान गर्भ में पल रहे कॉफ की विकास दर जन्मोप्रान्त भी कम होती है।

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औसर बछडि़यों में उष्मीय तनाव का प्रभाव

औसर बछडि़यों में चपापचय के दौरान कम उश्मा पैदा होती है। ऐसा पाया गया है कि उष्मीय तनाव के समय उनको भूख कम लगती है जिससे उनके खाने में कमी से विकास में भी कमी आ जाती है। इसलिए उच्च तापमान वाले स्थानों पर औसर बछडि़याँ का पालना महँगा पड़ता है। छोटे कॉफ में रोग अवरोधकता कम होती है। उच्च उष्मीय तनाव में ब्याने वाली मादाओं के खीस में रोगप्रतिरोधकता उत्पन्न करने वाले इम्यूनाग्लोब्यूनिल कम होते हैं जिस कारण कॉफ में भी रोगप्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। 

पशुओं में भिन्नता

देशी पशुओं की तुलना में विदेशी पशुओं में उच्च उष्मीय तनाव का प्रभाव ज्यादा देखने को मिलता है। इसी प्रकार अधिक दूध देने वाले दुधारू पशु भी इससे ज्यादा प्रभावित होते हैं। 

चपापचय प्रतिक्रिया (Metabolic responses)

उष्मीय तनाव के कारण लगभग 30 प्रतिशत आहार लेना कम हो जाता है। उष्मीय तनाव के तहत चपापचय क्रिया कम हो जाती है जो थायरायड हार्मोन स्राव व आंत गतिषिलता में कमी करती है परिणामस्वरूप अन्तडि़याँ भरने में वृ​द्धि हो जाती है। जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है (35 डिग्री सेन्टीग्रेड) बढ़ता, प्लाज्मा वृ हार्मोन की सान्ध्रता व स्राव दर में कमी हो जाती है। विशिष्टतौर पर उष्मीय तनाव से ग्रसित पशुओं में रूमेन अम्लता में कमी आ जाती है। उष्मीय तनाव के दौरान शरीर में इलैक्ट्रोलाइट (सोडियम, पोटाशियम व क्लोराइ) एवं बाइकार्बोनेट में मुख्य बदलाव आते हैं। 

प्रजनन पर प्रभाव

उच्च उष्मीय तनाव के दौरान डेयरी पशुओं की प्रजनन क्षमता में कमी आ जाती है। गर्मियों में डेयरी पशुओं के मद की अवधि व तीव्रता, गर्भधारण, गर्भाशय व अण्डाशय की क्रियाओं गर्भस्थ शिशु के विकास में कमी हो जाती है। उच्च उष्मीय के कारण भ्रूण मृत्यु दर में बढ़ोत्तरी होने से गर्भपात की प्रबल सम्भावना हो जाती है। इसी प्रकार नर पशुओं की भी प्रजनन क्षमता में कमी आ जाती है। 

बाधित ऊर्जा संतुलन (Disrupted Energy Balance)

गौजातीय पशुओं में शरीर के तापमान को बनाए रखने के दो तरीके 

  1. शारीरिक गर्मी को बचाना (Favouring Heat Dispersion)

शारीरिक गर्मी को वाष्पीकरण के माध्यम से बचाया जाता है जिसमें चमड़ी की ऊपरी भाग में रक्त प्रवाह का बढ़ना, हॉफना, लार का गिरना इत्यादि शामिल हैं। इन गतिविधियों में पशु के रखरखाव के लिए लगभग 20 प्रतिशत ऊर्जा की जरूरत बढ़ जाती है। दुधारू पशुओं में उत्पादित ऊर्जा (Production energy) शारीकरक गर्मी (Thermal Energy) को नियन्त्रित करने में इस्तेमाल की जाती है। 

  1. कम शारीरिक गर्मी उत्पन्न करना (Limiting Heat Production)

पशु की गतिविधियाँ कम हो जाती है व उसके खाने में परिवर्तन हो जाता है जिससे उसके शरीर में कम गर्मी पैदा होती है। वास्तव में दुधारू पशु के रूमेन में किण्वण होने से गर्मी बढ़ जाती है। पशु का 10 से 30 प्रतिशत तक सूखा पदार्थ कम हो जाता है। इसके अलावा रूमेन की गतिशीलता, जिससे गर्मी भी पैदा होती है, कम हो जाती है। पशु दिन के समय कम व रात को ठण्डे समय में ज्यादा, लेकिन ऐसा खाना जिससे कम गर्मी पैदा होती है जैसे कि अनाज व प्रोटीन के स्रोत, पसन्द करता है। 

अम्लता का खतरा

उष्मीय तनाव के समय अम्लता बढने का खतरा रहता है। निम्न कारकों से रूमेन की अम्लता बढ़ती है: 

  • सूखा पदार्थ ज्यादा व हरा चारा कम खाना
  • ज्यादा मात्रा में कार्बोहाईड्रेट जैसे कि अनाज खाने से।
  • कम जुगाली करने से।
  • रूमेून में लार (जो कि बाईकार्बोनेट का अच्छा स्रोत है) कम जाने से।
  • हॉफने से (जिससे कार्बन डाईऑक्साईड की शरीर से हानि होती है)
  • रूमेन की अम्लता (pH) कम हो जाने से रेशेदार चारे (fiberous) का पाचन कम हो जाता है।

पशु आहार के इलैक्ट्रोलाइट सन्तुलन पर उष्मीय तनाव का संक्षेप-

पशु की भूख कम हो जाती है। पशु को बदहज्मी हो जाती है व अन्तडि़यों में स्थिलता आ जाती है।

दूग्ध उत्पादन में कमी – 35 डिग्री सेल्सियस पर 33 प्रतिशत व 50 डिग्री सेल्सियस पर लगभग 50 प्रतिशत दूग्ध उत्पादन में कमी हो जाती है।

दूध की गुणवत्ता में कमी – वसा व प्रोटीन में गिरावट

शरीर के वजन में कमी

दूग्ध ज्वर बढ़ने की सम्भावना

गर्भाश्य-शोथ (Metritis), गर्भाशय भ्रंश (Prolapse) एवं ‌‌‌गर्भाश्य संक्रमण में बढ़ौतरी

दूग्ध ग्रन्थि शोफ (Udder oedema) व दूग्ध ग्रन्थि में संक्रमण का बढ़ना

सुम शोथ (Laminitis) का होना

किटोशिश – रक्त अम्लता का बार-बार होना

प्रजनन क्षमता का कम होना – गर्भाधान सफलता में कमी, भ्रूण मृत्युदर में बढ़ौतरी

असामयिक प्रसव (Premature birth)

विकासशील पशुओं की विकास दर में कमी

पीने के पानी के सेवन में वृ​द्धि

पशु आहार में ‌‌‌पोषक तत्वों की कमी

‌‌‌तरलीय चपापचय (Watery Metabolism)

दुधारू पशुओं के शरीर में 75 – 81 प्रतिशत पानी होता है। तापमान सबसे महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक है जो दुधारू पशुओं में पानी पीने की मात्रा को नियन्त्रित करता है। उष्मीय तनाव एक साथ दोनों ऊर्जा व जल चपापचय को प्रभावित करता है। उष्मीय तनाव के दौरान पशु ज्यादा पानी पीता है। शरीर से पानी का कम होना एक सत्त प्रक्रिया है जो लगातार शरीर में घटित होती रहती है व यह प्रक्रिया उष्मीय तनाव के समय अतिरिक्त वाष्पीकरण के कारण बढ़ जाती है।

उष्मीय तनाव को कम करने के उपाय

उष्मीय तनाव को दो प्रकार की प्रबन्धन पद्धतियों से सुधारा जा सकता है: शारीरिक सुरक्षा व पशु के आहार में बदलाव।

  1. पशु की शारीरिक सुरक्षा

प्राकृतिक छाया

वृक्षों की छाया एक उत्कृष्ट प्राकृतिक स्रोत है। वृक्ष सौर विकिरण के प्रभावी अवरोधक नही हैं लेकिन वृक्षों की पत्तियों की सतह से नमी के वाश्पीकरण से आसपास के वातावरण में ठण्डक रहती है।

कृत्रिम छाया

सौर विकिरण उष्मीय तनाव का एक प्रमुख कारक है। सौर विकिरण के बुरे प्रभावों से बचाने के लिए यदि उचित कृत्रिम छाया दुधारू पशुओं को मुहैया करायी जाए तो उनके दूग्ध उत्पादन में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी होती है। कृत्रिम छाया के लिए दो विकल्प हैं – स्थायी व सुवाह्य/अस्थायी (Portable) छाया सरंचनाएं।

स्थायी कृत्रिम सरंचना

स्थायी कृत्रिम सरंचना (जैसे कि दिशा-निर्धारण, फर्श का क्षेत्रफल, पशुशाला की ऊँचाई, पशुशाला का हवादार होना, छत की बनावट, पशु के खान-पान की सुविधा, अपषिष्ट प्रबन्धन आदि) वातावरणीय परिस्थितियों पर निर्भर करती है।

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गर्म-आर्द्र मौसम में पूर्व-पश्चिम अक्ष की सीध में बनी पशुशाला में पशु बांधने की दिशा में पशुओं को ज्यादा पसंदीदा परिस्थिति  है। इसमें भी उत्तर दिशा में पशुओं रखना ज्यादा ठीक है। गर्मी के वातावरण में पशुओं को ज्यादा (दोगुना) स्थान प्रदान करना चाहिए। स्थायी सरंचना के अन्‍​र्तगत प्राकृतिक हवा का आवा-गमन सरंचना की ऊँचाई व चौड़ाई, छत की ढलान, रिज (ridge) में खुला स्थान आदि प्रभावित करते हैं। धातु की छतों को बाहर से सफेद रंग से रंगना व उनके नीचे अवरोधक लगाकर सौर विकिरणों को कम किया जा सकता है।

सुवाह्य (अस्थायी) पशुशाला

सुवाह्य (अस्थायी) पशुशाला कुछ अतिरिक्त लाभ प्रदान करते हैं क्योंकि इनको एक स्थान से दूसरे पर आसानी से स्थानान्तरित किया जा सकता है। इसको तैयार करने के लिए कपड़े व हल्की छत का इस्तेमाल किया जाता है।

परिवेशीय वायु के तापमान को कम करने से ठण्डक प्रदान करना

सूक्ष्म वातावरण की हवा के तापमान को प्रशितक की सहायता से ठण्डा किया जा सकता है लेकिन इस तरह से ठण्डक खर्चीली व अव्यवहारिक होती है।

पशुगृह को वाष्पीकरणीय शीतलन प्रणाली की सहायता से ठण्डा किया जा सकता है जिसमें शीतलन पैड व पंखे का उपयोग किया जाता है। यह आर्थिकतौर से व्यवहारिक विधि है।

पानी की बारीक फुहार पैदा करने का उपकरण (Fine mist injection apparatus)

यह पशुगृह को ठण्डा करने की आधुनिक प्रणली है जिसमें उच्च दबाव से पानी को पशुगृह में उपकरण की सहायता से बारीक फुहार के रूप में पंखे की सहायता से छिड़का जाता है। यह विधि शुष्क मौसम में कारगर है। इस प्रणाली में पानी उच्च दबाव के कारण बहुत छोटी-छोटी बारीक बूंदों में पशुगुह में धुन्ध के रूप में बनकर ठण्डक पैदा करते हैं।

पानी की सहायता से पशुगृह में कोहरा बनाना (Misters)

इससे बनने वाली पानी की बूँदों का आकार धून्ध के कणों से थोड़ा बड़ा होता है।

यह प्रणाली नमी वाले वातावरण में ज्यादा कारगर नही होती। नमी के मौसम में हवा में नमी होने के कारण बूँदों का आकार बड़ा होने से पानी की बूँदें वातावरण में फैलने की बजाय पशुगृह के फर्श पर गिरती हैं व उस जगह व आहार को गीला करती हैं।

पशु के कुदरती तन्त्र द्वारा गर्मी कम करना

गर्म और उमस भरे मौसम में पशुओं को छाया प्रदान करना, त्वचा को गीला करना और पशुगृह में हवा के बहाव को तेज करना इत्यादि से पशु के शरीर से वाष्पीकरण की सहायता से गर्मी को कम किया जा सकता है।

पानी छिड़काव व पंखा प्रशितलन प्रणाली

इस विधि में पानी की बड़ी बूँदों की सहायता से पशु की त्वचा को गीला किया जाता है जिसमें त्वचा के ऊपर से वाष्पीकरण क्रिया के दौरान पशु को ठण्डक मिलती है। दुधारू पशुओं के ऊपर पानी का छिड़काव व हवा करने से पशु के शरीर का तापमान कम होता है जिससे उसकी खाने की प्रवृति बढ़ती है व दूग्ध उत्पादन भी ‌‌‌बढ़ता है।दूध निकालने के बाद पार्लर से बाहर निकलते समय पशुओं के ऊपर पानी का छिड़काव करने से भी गर्मी से बचाया जा सकता है।

  1. पशु के आहार में बदलाव

उच्च वातावरणीय तापमान के समय शरीर से वाष्पीकरणीय गर्मी को पसीने व तेज साँस के माध्यम से कम करने का मुख्य तन्त्र है।

उच्च तापमान पर शरीर में पसीने से पानी की कमी के परिणामस्वरूप प्यास व मूत्र उत्सर्जन से पानी की खपत बढ़ जाती है जिससे शरीर के इलेक्ट्रोलाइट्स की भी भारी हानि होती है। जो पशु छाया के नीचे नही होते हैं तो उनके शरीर से पोटाशियम की हानि 500 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। पोटाशियम के सरंक्षण के प्रयास में पशुओं में सोडियम की मूत्र उत्सर्जन दर में वृद्धि हो जाती है।

उच्च तापमान पर श्वसन दर (panting) बढ़ जाती है (वाष्पीकरण द्वारा शरीर को ठण्डा करने की महत्त्वपूर्ण विधि)। शरीर में से तेजी से कार्बन डाईआक्साइड निकलने से श्वसन क्षारमयता (Respiration alklosis) होती है। पशु शरीर में से मूत्र उत्सर्जन के द्वारा बाईकार्बोनेट निष्कासित कर इसकी क्षतिपूर्ति करता है। लगातार इनके प्रतिस्थापन के लिए पशु के रक्त रसायन शास्त्र का प्रबन्धन बहुत महत्त्वपूर्ण है। उष्मीय तनाव, पशु आहार में इन इलेक्ट्रोलाइट की आवश्यकता को बढ़ाता है।

आहार में इलेक्ट्रोलाइट सन्तुलन विशेष स्थानों जहाँ पर वातावरण का तापमान 24 डिग्री सेन्टीग्रेड से ज्यादा होता है एवं इसकी आवश्यकता तब और ज्यादा बढ़ जाती है जब वातावरण में सापेक्ष आद्‍​र्रता (Relative Humidity) 50 प्रतिशत से ज्यादा होती है।

आहार में इलेक्ट्रोलाइट संतुलन, पानी व चारे में शरीर के लिए आवश्यक इलेक्ट्रोलाइट मिलाने पर आधारित है। यह आहार इलेक्ट्रोलाइट संतुलन को स्थिर करता है, होमियोस्टेसिस को बढ़ाता है, शरीर के तरल अवयवों के प्रसारण नियन्त्रण (osmoregulation) में सहायता करता है, भूख को बढ़ाता है एवं सामान्य शारीरिक कंकाल के विकास को सुनिश्चित करता है।

पशु आहार विशेषज्ञ का सुझाव

उष्मीय तनाव के समय उत्पन्न होने वाली शारीरिक समस्याओं से निपटने के लिए पशु के आहार में उच्च ऊर्जावान व उच्च गुणवता वाला स्वादिष्ट आहार दिया जाना चाहिए।

आहार में खमीर (Yeast)

गौपशुओं के आहार में रूमेन से सम्बन्धित खमीर Sacchromyces cereviciae मिलाना चाहिए जिससे निम्नलिखित फायदे होंगें

रूमेन अम्लता ठीक होने से अम्लता सम्बन्धित समस्या में कमी होगी।

आहारीय रेशों का पाचन व रूमेन में नत्रजन उपयोग बढ़ने से आहार की उपयोगिता बढ़ेगी।

रूमेन में उपयोगी जीवाणुओं में वृद्धि होगी

आहार में एंटीऑक्सीडेन्ट (Antioxidants)

उष्मीय तनाव के समय शरीर में मुक्त कणों (Free radicals) की मात्रा बढ़ जाने से ऑक्सीडेटिव तनाव (Oxidative stress) बढ़ जाता है जिससे पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता व प्रजनन क्रिया प्रभावित होती है। इससे थनैला रोग, प्रजनन दर में कमी, भ्रूण मृत्युदर में बढ़ोत्तरी, समय से पहले बच्चे का पैदा होना, जेर न गिराना आदि समस्याएं बढ़ जाती हैं।

विटामिन ई, सी, कैराटीन (ए) के अलावा पशु के आहार में सेलेनियम भी मिलाना चाहिए। सेलेनियम ग्लूटाथियोन परऑक्सीडेज एन्जाईम के साथ मिलकर एंटीऑक्सीडेन्ट का कार्य करता है।

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