पशुओं का गांठदार चर्मरोग (लम्पी स्किन डिजीज); इतिहास, ल़क्षण एव रोकथाम

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पशुओं का गांठदार चर्मरोग (लम्पी स्किन डिजीज); इतिहास, ल़क्षण एव रोकथाम
डा.सचिन उत्तमराव राऊत
पशु शल्यचिकित्सक,
पशुव़़ैद्यक एवं पशुविज्ञान महाविद्यालय, परभणी
इमेल. drsuraut@gmail.com
दुरभाष. 7588571511

इतिहास-
गांठदार चर्मरोग या लम्पी स्किन डिजीज मवेशियोंमे होने वाला एक घातक, संक्रामक रोग है। इस रोग का कारण है एक वाईरस है जो पॉक्सवायरिडी परिवार से हैं। इस वाईरस का दुसरा नाम नीथलिंग वाईरस भी है। पॉक्सवायरिडी परिवार के अन्य सदस्य भेड का पॉक्स वाईरस और बकरी का पॉक्सवाईरस है। ग्लोबल अलायंस फोर वैक्सिन अॅन्ड इम्युनायजेशन (गावी) के अनुसार पुरे विश्व के मवेशियों को लम्पी स्किन डिजीज के कारण बहोत बडा खतरा है। यह रोग मवेशियों को और भैंसों को मुख्यरूप् से रक्त-शोषक कीटों जैसे रोगवाहकों के माध्यम से संक्रमित करता है। लम्पी स्किन डिजीज वाईरस मुख्यरूप से मवेशि तथा जेबु इनको संक्रमित करता है इसके साथ ही एलएसडी जिराफ, इम्पाला जैसे जानवरों को भी संक्रमित करता है। जर्सी और होलस्टीन-फ्रीजियन (एचएफ) जैसी मवेशियों की नस्लें इस बीमारी के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। दुध देने वाली गायें जो अपनी दुध देने की चरम पर है एैसा गाय और युवा बछडे इनमे अधिक गंभीर स्वरूप के लक्षण दिखाई देंते है, हालांकि सभी आयु वर्ग के जानवर इस बीमारी के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं।
गांठदार चर्मरोग या लम्पी स्किन डिजीज पहली बार वर्ष १९२९ में उत्तरी राडेशिया, जाम्बिया मे एक महामारी रोग के रूप मे देखा गया था। शुरू मे लोगों को ऐसा लग रहा था कि रोग के लक्षण किसी कीडे के काटने से हुए एलर्जी की वजह से या फिर या तो किसी जहर के परिणामस्वरूपमे दिखाई दे रहे है, लेकिन जब इस बिमारी ने महामारी का स्वरूप ले लिया तो यह गांठदार चर्मरोग है यह समझ मे आया। वर्ष १९४३ और १९४५ के बीच जिम्बाब्बे, दक्षिण अफ्रीकन गणराज्य और बोत्सवाना मे इसी तरह के लक्षणवाली बीमारी दिखाई दी। वर्ष १९४९ मे दक्षिण अफ्रीका मे लगभग ८० लाख मवेशी बाधित हुए थे। आगे चलके १९५० और १९८० के दशक मे एलएसडी पुरे अफ्रीकी महाव्दीप मे फैल गयी जिससे कैमरून, तंजानिया, सोमालिया, केन्या, और सुडान मे मवेशियों की आबादी प्रभावित हुई। वर्ष १९७४ मे एलएसडी पश्चिम दिशामें नाइजीरिया मे फैला। इसके अलावा एलएसडी घाना, माले, मॉरिटानिया और लायबेरिया मे इसका ज्यादा पैमाने पर फैलाव हो गया। वर्ष १९८६ तक गांठदार चर्मरोग सिर्फ अफ्रिकी महाव्दिप तक ही सिमित था। वर्ष १९८९ में इजराइल में लम्पी स्किन डिजीज का प्रकोप हुआ था। इस बीमारी का यह प्रकोप सहारा रेगिस्तान के उत्तर में दिखाई पडा जो की एलएसडी का अफ्रिकी महाव्दिप के बाहर का पहला उदाहरण था। यह प्रकोप संक्रमित स्टोमोक्सिस कैल्सीटृंस को इस्माइलिया से मिस्र मे ले जाने के कारण हुवा था। वर्ष १९८९ में अगस्त और सितंबर माह मे पेडुयिम क्षे़त्र मे सत्रह डेयरी फार्म मे से चौदह डेयरी फार्म पर गांठदार चर्म रोग का संक्रमण दिखाइ्र्र पडा। इससे इजात पानेके लिए सभी मवेशियो के साथ-साथ बकरियों और भेडों को कल किया गया था।
मध्यपुर्व, पश्चिम एशिया और युरोपीय क्षेत्रों में पिछले दशक में लम्पी स्किन डिजीज बिमारी को देखा गया इन देशोंमे इजराइल, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात (युएई), बहारीन आदि देश शामिल हैं। वर्ष २०१२ मे, यह मध्यपुर्व से दक्षिण तक फैल गया जिस वजह से पुर्वी योरोप, युरोपीय संघ के सदस्य देश (ग्रीस और बुल्गारिया) तथा बाल्कन मे कई अन्य देश प्रभावित हुए थे। वर्ष २०१५ में पहली बार रूसी संघ के क्षेत्र मे गांठदार चर्मरोग का हुआ। यह बीमारी रूस के दक्षिणी क्षेत्र मे व्यापक रूप से फैल गया इनमें अर्मेनिया और अजरबैजान शामिल थे।
वर्ष २०१९ मे जुलाई के महिने में, बांगलादेश में पहली बार गांठदार चर्मरोग की सूचना मिली थी। इस प्रकोप के कारण लगभग ५००००० जानवर संक्रमित हुए थे। खा़़़़दय और कृषि संगठन (एफएओ) ने इससे बचाव के लिए सामुहिक टीकाकरण की सिफारिश की थी। बंगलादेश में एलएसडी वाईरसने काहॉंसे प्रवेश किया इस राज का पता अभीतक नही चला।
भारत में अगस्त २०१९ में ओडिशा राज्य के भद्रक और मयुरभंज जिले में गांठदार चर्म रोग दिखाई दिया। वर्ष २०२२ में लम्पीस्किन डिजीज के प्रकोप के कारण पाकिस्तान ७००० में से अधिक मवेशियों की मौत हो गई। भारत में जुलाई से सितंबर २०२२ के दौरान गांठदार चर्मरोग के प्रकोप के कारण ८०००० से अधिक मवेशियों की मौत हो गई। इसमे राजस्थान राज्य मे सबसे ज्यादा मौत दर्ज की गई। कई राज्यों मे मवेशियों की अंतर-जिला और अंतर-राज्यीय आवाजाही प्रतिबंधित कर दी है। महाराष्रट राज्य में गांठदार चर्म रोग का पहला मामला जलगांव जिले में सामने आया। सितंबर २०२० में, महाराष्ट् में एलएसडी वायरस का नया स्ट्रेन पाया गया। महाराष्ट् में गांठदार चर्म रोग जिलों ३६ में से ३२ जिलों मे फैला हुआ है और कुल मिलाकर ३६२२ मौतें हुई हैं।ं महाराष्ट् में तेजी से बडे पैमाने पर टीकाकरण अभियानस्वरूप गांठदार चर्म रोग के कारण होनेवाली मौतों पर नियंत्रण पाया गया है।
विश्व पशु स्वास्थ संगठन WOAH के अनुसार, जिसमें भारत भी एक सदस्य है, लम्पी स्किन डिजीज में मृत्यु दर एक से पॉंच प्रतिशत सामान्य मानी जाती है।

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रोग का संचरण-
लम्पी स्किन डिजीज के प्रकोप उच्च आर्द्रता और उच्च तापमान से जुडें होते हैं। आमतौर पर यह बीमारी भीषण गरमी और शरद ़ऋतु मे देखा जाता है। रक्त-शेषक किटं जैसे कुछ प्रजाती की मख्खींयॉं, मच्छर आदी यह रोग फैलाने में अहम भुमिका निभाते हैं। यह किट सिधे संपर्क अथवा दुंषित चारा और पानी के माघ्यम से भी रोग का संचरण करतें हैं।
वाईरस का संचरण रक्त, लार, नाक में से आनेवाला स्त्राव, विर्य और अश्रुस्त्राव के माध्यम से होता है। मल, मु़त्र में यह वाईरस नही पाया जाता हैं। इस रोग का वाईरस संक्रमित टिश्यु मे १२० दिनों से अधिक समय तक जीवित रह सकता है। इस रोग से बाधित गर्भवती गाय ऐसे बछडों को जन्म देती है जिसे जन्म से ही रोग के लक्षण हो। त्वचा के घाव, पपडी आदी में लम्पी स्किन डिजीज वाईरस की मात्रा अधिक होती है। एक मामलें मे वाईरस का नाल से संक्रमण दर्ज किया है।
रोग के लक्षण-
खा़़़़दय और कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार वाईरस का संक्रमण होने के बाद रोग के लक्षण दिखाई देणे के बीच का समय २८ िइन का है। लम्पी स्किन डिजीज से बाधित मवेशियों में बुखार, डिप्रेशन, त्वचापर गांठदार फोडे आना ऐसे लक्षण दिखाई देते हैं। एक बार अगर यह बीमारी डेरी फार्म पर फेल जाता है, तो उसे निकाल पाना मुश्किल है जिसका कारण है की रोग का संक्रमण की बडे पैमानेपर की क्षमता और वाईरस को फैलाने में सक्षम किटों की उपस्थिती। इसके लक्षणों में बहोत तेज बुखार ( १०४ -१०७ डिग्री फारेनहाइट), सिर, गर्दन, जननांग और पैरों पर पचास मिलीमिटर व्यास तक की त्वचा की गांठें विकसित होती हैं। ये गांठें शरीर की किसी भी हिस्सेपर विकसित हो सकती हैं। गांठ के केंद्रिय भाग मे स्कैब विकसित होकर बाद में बडे छेद हो जातें है जो संक्रमण फैलाते हैं। इसके साथ हि पैर और छाती पर सुजन आती है। मवेशियों को चलन में कठीनाई होती हैं साथ में उन्हें चरने मे मुश्किल होती है। बाधित मवेशियों के नॉंक से स्त्राव आता है साथ साथ मे ऑंख से भी पानी आने लगता है। उपरी सतह के लासिका ग्रंथीयों का आकार बढता है। दुध के उत्पाद मे धीरेधीरे गिरावट आती है। गर्भवती मादाओं मे गर्भपात होता है।
चिकित्सकीस रूप् से, रोग उपनैदानिक रोग से लेकर गंभीर बीमारी या मृत्यु तक हो सकता हे। रोग से बाधित बैल के शिश्नमुख पर की त्वचापर फोडे उभरते हे जो की दर्दभरे होते हैं उसके कारण बैल काम करने मे असमर्थ होते हैं। गाभिन गायों मे गर्भपात होता है और ऐसी गाये प्रजनन संबंधी समस्या दिखती है। रोग से बाधित गायों के नवजात शिशु भी रोगबाधित होते है और ये बछडे त्वचापर गांठें दर्शाते है। गंभीर रूप् से प्रभावित जानवरों में श्वसन और पाचन मार्ग में भी घाव विकसित हो सकते हैं। इनमें निमोनिया होना एक आम बात है और यह निमोनिया जानलेवा होता है।
रोग के उपचार-
चुंकि लम्पी स्किन डिजीज एक वाईरल रोग है, इसलिए इसके खिलाफ कोई विशिष्ट उपचार नहीं है। इसी कारण लम्पी स्किन डिजीज में रोग के अनुसार उपचार कराना चाहिए। वाईरस के कारण मवेशियों की रोग के खिलाफ लढणे की क्षमता कम हो जाती है जिसका लाभ उठाकर बहोत सारे हानिकारक जिवाणु शरीर के अंदर प्रवेश कर सकतें है इससे बचाव के लिए पांच से सात दिन तक एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग करें। अन्य दवाओं मे एंटीहिस्टामाइन, नान-स्टेरायडल एंटीइंफल्मेंटरी, ज्वरनाशक और भुख बढानेके लिए लीवर टानिक एवं मल्टीविटामिन के इंजेक्शन दिए जाने चाहिए।

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रोकथाम एवं नियंत्रण-
ऐसा कहा जाता है ही रोग का इलाज करने से बेहतर है की रोग हो ही ना इसलिये प्रयास करें। लम्पी स्किन डिजीज के प्रकोप के रोकथाम के लिए बाधित मवेशियों को अलग से रखें। अतिगंभिर रूप से बाधित जनवरों को कल करें, मृत जानवरों उचित तरीके से डिसपोज करें। डेयरी फार्म के आजुबाजु सफाई रखें, रक्त-शोषक किडोंपर नियंत्राण रखना चाहिए।
जिस क्षेत्र मे रोग मौजुद है ऐसे क्षेत्र से असंक्रमित क्षेत्र मे जानवरों के आवाजाही पर सख्त प्रतिबंध लगाने चाहिए। अपने डेयरी फार्मपर जो नया जानवर लाया है उसे पुराने जानवर के साथ मे रखने के पहले सात-आठ दिन तक अलग बॉंध कर रखें। स्थनिक क्षेत्रों मे जानवरों के खरीद पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
लम्पी स्किन डिजीज को नियंत्रण करने के लिए टीकाकरण सबसे प्रभवी तरीका है। एलएसडी वाईरस के खिलाफ बकरी पोक्स और भेड पोक्स के टीके प्रभावशाली हैं। स्थानिक क्षेत्रों में एलएसडी के खिलाफ टीकाकरण का उपयोग सफालतापुर्वक किया। इजरायल मे आये वाले प्रकोप के दौरान टीकाकरण का रोग निर्मुलन में बडा योगदान था।
लम्पी स्किन डिजीज ऐसा रोग नही है जो मवेशियों मे से मानवों को होता हो। इसलिए मवेशियों का दुध इस्तमाल करने मे कोई धोका नही, बशर्ते के यह दुध अच्छेसे उबाला गया हो।

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