पशुओुं मे खुरपका – मुंहपका रोग से संबंधित जानकारी

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पशुओुं मे खुरपका मुंहपका रोग से संबंधित जानकारी

1*डॉ. सुदेश कुमार, 1डॉ. सुविधि

1सीनियर रिसर्च फेलो, राष्ट्रीय अश्व अनुसंधान केन्द्र, हिसार, हरियाणा-125001

 

खुरपका-मुंहपका रोग पशुओं में होने वाला एक संक्रामक विषाणु जनित रोग है। इस रोग को विभिन्न स्थानों पर कई अन्य नामों से भी जाना जाता है, जैसे की एफ.एम.डी, खरेडू, चपका, खुरपा आदि। यह पशुओं में अत्याधिक तेजी से फैलता है तथा कुछ समय में एक झुंड या पूरे गाँव के अधिकतर पशुओं को संक्रमित कर देता है। खुर व मुंह पका रोग एक बहुत संक्रामक रोग है, जो मुख्यतः फटे खुरों वाले पशुओं गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदि में होता है। यह रोग अति सूक्ष्म विषाणु अपैथोवायरस से होता है। यह विषाणु 7 प्रकार का O, A, C, SAT1, SAT2, SAT3, ASIA-1 है। भारत में इस रोग के O, A, ASIA-1 प्रकार के  विषाणु हैं।

यह विषाणु रोगी पशु के दूध, लार, मल, मूत्र, वीर्य आदि में पाया जाता है। रोगी पशुओं के सीधे संपर्क में आने से दूसरे पशुओं में होता है। यह रोग एक पशु से दूसरे पशु मैं श्वसन द्वारा तथा अंत ग्रहण से होता है। अधिक आद्रता वाली हवा में यह विषाणु 250 किलोमीटर तक जा सकता है

रोग के लक्षण :-

  • रोगी पशु में रोग के लक्षण आने में 3 से 7 दिन लगते हैं।
  • इस बीमारी में तेज बुखार 105 से 107 डिग्री फॉरेनहाइट आता है।
  • दूध उत्पादन कम हो जाता है।
  • पशु आहार कम कर देता है तथा बाद में धीरे-धीरे बंद कर देता है।
  • मुंह से अत्यधिक झाग बनी हुई लार टपकती है।
  • जीभ, होठ, मसूड़े आदि में छाले बन जाते हैं तथा जो बाद में फटकर घाव में बदल जाते हैं।
  • मुंह में घाव होने से पशु आहार लेना व जुगाली करना बंद कर देता है।
  • खूरो में घाव होने से पशु लंगड़ा कर चलता है।
  • कभी-कभी थनो पर भी छाले बन जाते हैं।
  • तेज बुखार आने पर पशु किसी लक्षण के बिना भी कभी-कभी मर सकता है।
  • कम उम्र के पशुओं में मृत्यु दर अधिक होती है।
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रोग का निदान :-

  • रोगी पशुओं के लक्षणों द्वारा रोग का पता लगाया जा सकता है।
  • प्रयोगशाला में पशु के फफोले का नमूना 50% बफर ग्लिसरीन में लेकर आधुनिक तकनीक एलाइजा (ELISA) तथा पीसीआर से पता लगाया जा सकता है।

उपचार :-

  • लक्षण तथा बुखार आने पर रोगी पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग करें तथा तुरंत नजदीकी पशु चिकित्सक से संपर्क करें।
  • मुंह के घावों को धोने के लिए बोरिक एसिड (15 ग्राम प्रति लीटर पानी में), पोटेशियम परमैग्नेट (लाल दवा 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में), फिटकरी (5 ग्राम प्रति लीटर पानी में) का उपयोग करें।
  • खुरो के घावों को फिनाइल (40 मिलीमीटर प्रति लीटर पानी में) के गोल से अच्छी तरह साफ करके एंटीसेप्टिक क्रीम लगानी चाहिए।
  • ज्वरनाशी एवं दर्दनाशक दवा का प्रयोग पशु चिकित्सक परामर्श से प्रयोग करें।

बचाव रोकथाम :-

  • पशुपालक को अपने सभी पशुओं को जो 4 महीने से बड़े हैं, उनको टीका लगवाना चाहिए।
  • प्राथमिक टीकाकरण के बाद बूस्टर खुराक अवश्य देनी चाहिए।
  • उसके बाद प्रत्येक 6 माह के नियमित अंतराल से टीका लगवाना चाहिए।
  • टीकाकरण के दौरान प्रत्येक पशु के लिए नई सुई का प्रयोग करना चाहिए।
  • नए पशुओं को झुंड या गांव में लाने से पहले उसके खून की जांच करानी चाहिए।
  • नए पशु को कम से कम 14 दिनों तक झुंड से अलग रखना चाहिए तथा उसके आहार व अन्य प्रबंधन भी अलग से करनी चाहिए।
  • रोगी पशु को अन्य पशुओं से अलग रखना चाहिए।
  • रोगी पशु को सामूहिक स्थान पर चराई तथा पानी पीने नहीं देना चाहिए।
  • रोगी पशु के पेशाब, लार व बचे हुए चारे-पानी रहने के स्थान को 4% सोडियम कार्बोनेट से असंक्रमित करें।
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