जलवायु परिवर्तन में पशुपालन : प्रभाव तथा चुनौतियां एवं समाधान

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जलवायु परिवर्तन में पशुपालन : प्रभाव तथा चुनौतियां एवं समाधान

मानवीय गतिविधियों और क्रिया-कलापों के कारण दुनिया का तापमान बढ़ रहा है और इससे जलवायु में होता जा रहा परिवर्तन अब मानव जीवन के हर पहलू के लिए ख़तरा बन चुका है.

अगर इस पर ग़ौर नहीं किया गया और इसे यूं ही छोड़ दिया गया तो आने वाले समय में तापमान इस क़दर बढ़ जाएगा कि मानव जीवन पर संकट आ सकता है, भयावह सूखा पड़ सकता है, समुद्री जल स्तर बढ़ सकता है और इन सब प्राकृतिक आपदाओं के फ़लस्वरूप कई प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं. आज पूरी दुनिया पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है। जलवायु में होने वाला यह परिवर्तन ग्लेशियर व आर्कटिक क्षेत्रों से लेकर उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों तक को प्रभावित कर रहा हैं। यह प्रभाव अलग-अलग रूप में कहीं ज्यादा तो कहीं कम पड़ रहा है। भारत का सम्पूर्ण क्षेत्रफल करीब 32.44 करोड़ हेक्टेयर है। इसमें से 14.26 करोड़ हेक्टेयर में खेती की जाती है। अर्थात देश के सम्पूर्ण क्षेत्र का 47 प्रतिशत हिस्से में खेती होती है। मौसम परिवर्तन देश की 80 प्रतिशत जनसंख्या को प्रभावित कर सकता है।

भारत की बढ़ती हुई जनसंख्या का पोषण करने में कृषि के साथ-साथ हमारे पशुधन का बहुत बड़ा योगदान रहा है, परन्तु निरंतर हो रहे जलवायु परिवर्तन से तापमान में काफी तबदीली हुई है जिससे भारत ही नहीं, दुनिया भर के पशुधन गंभीर रूप से प्रभावित हो रहे हैं। वातावरणीय तापमान में तीव्र परिवर्तन से जानवरों का स्वास्थ्य, प्रजनन, पोषण इत्यादि प्रभावित होता है, जिससे पशु उत्पाद तथा इनकी गुणवत्ता में भी गिरावट होती है। अन्य जानवरों की तुलना में संकर डेयरी मवेशी जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हंै जिनकी संख्या भारत में अधिक है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ते हुए तापमान, अनियमित मानसून, भयंकर ठंड, ओले, तेज हवा आदि जानवरों के स्वास्थ्य, शारीरिक वृद्धि और उत्पादकता को प्रभावित करते हैं। मौसम में तनाव के कारण डेयरी पशुओं की प्रजनन क्षमता कम हो रही है। परिणामस्वरूप गर्भधारण दर में भी काफी गिरावट हो रही है। जलवायु परिवर्तन प्रतिरक्षा प्रणाली कार्यक्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। इससे थनैला रोग, गर्भाशय की सूजन तथा अन्य बीमारियों के जोखिम में वृद्धि हो रही है। भारत में उष्मीय तनाव पशु उत्पादकता को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख कारक है।

डेयरी गायों से पूर्ण उत्पादकता प्राप्त करने हेतु यह आवश्यक है कि ये स्वस्थ एवं आरामदायक परिस्थितियों में निवास करें। प्रतिकूल पर्यावरणीय परिस्थितियाँ जैसे भयंकर ठंड, ओले, तेज हवा, सर्दी में भीगना आदि पशुओं में तनाव की स्थिति उत्पन्न करता है। कम वातावरणीय तापमान में तेजी से चलने वाली हवा पशुओं के लिए अत्यंत कष्टदायी होती है जो स्वास्थ्य, शारीरिक वृद्धि और उत्पादकता को प्रभावित करता है। जब सर्दियों में तापमान में गिरावट शुरू होती है या जब हमारे पशु 5 डिग्री सेल्सियस के नीचे के तापमान पर पहुँचते हैं, तो गाय की उत्पादकता और दक्षता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ”थर्मोन्यूट्रल जोन” के निम्न सिरे पर, शरीर के मुख्य तापमान को बनाए रखना दुधारू पशुओं के लिए एक बड़ी चुनौती हो सकती है, इसके लिए सामान्य उपचय प्रक्रिया के दौरान शरीर की गर्मी की आपूर्ति हेतु पशु को अपनी उपचय दर बढ़ानी पड़ती है। यह अधिक ऊर्जा के लिए पशु की आहार आवश्यकताओं को बढ़ाता है। शरीर के वजन को स्थिर रखने और उत्पादन की मांग के लिए अधिक ऊर्जा की जरुरत होती है (अत्यधिक ठंड के दौरान 40 प्रतिशत तक) जो अतिरिक्त अनाज सेवन के लिए एक आवश्यकता पैदा करती हैं। अत: फीड सेवन में कोई भी रुकावट शरीर की स्थिति के साथ पशु उत्पादन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकती है। यह सुनिश्चित करें कि गायों के पास पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध हो। पानी सीमित करने से आहार ग्राह्यता सीमित हो जाएगी और गायों को अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करना मुश्किल हो जाएगा।

जलवायु परिवर्तन का कृषि पर संभावित प्रभाव निम्न है-

1. सन् 2100 तक फसलों की उत्पादकता में 10-40 प्रतिशत की गिरावट/कमी आएगी।
2. रबी की फसलों को ज्यादा नुकसान होगा। प्रत्येक 1 सेंटीग्रेड तापमान बढ़ने पर 4-5 करोड़ टन अनाज उत्पादन में कमी आएगी।
3. सूखा और बाढ़ में बढ़ोतरी होने की वजह से फसलों के उत्पादन में अनिश्चितता की स्थिति होगी।
4. खाद्य व्यापार में पूरे विश्व में असंतुलन बना रहेगा।
5. पशुओं के लिए पानी, पशुशाला और ऊर्जा सम्बन्धी जरूरतें बढ़ेंगी विशेषकर दुग्ध उत्पादन हेतु।
6. समुद्र व नदियों के पानी का तापमान बढ़ने के कारण मछलियों व जलीय जन्तुओं की प्रजनन क्षमता व उपलब्धता में कमी आएगी।
7. सूक्ष्म जीवाणुओं और कीटों पर प्रभाव पड़ेगा। कीटों की संख्या में वृद्धि होगी तो सूक्ष्म जीवाणु नष्ट होंगे।
8. वर्षा आधारित क्षेत्रों की फसलों में अधिक नुकसान होगा क्योंकि सिंचाई हेतु पानी की उपलब्धता भी कम होती जाएगी।

 

जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु निम्न दो मुख्य बातों को ध्यान में रखने की जरूरत है-

1. फसलों के अवशेष जलाने, जैव ईंधन का प्रयोग कम करने, गैर-रासायनिक खेती आदि जैसी गतिविधियों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक होगा जिससे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम हों
2. ऐसे उपाय ढूंढने होंगे जिससे इस क्षेत्र की जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन क्षमता बढ़े। इन गतिविधियों को निम्नवत रखा जा सकता है-
(i) क्षेत्र का पारंपरिक व वैज्ञानिक शोध का सामंजस्य।
(ii) ऐसे वैज्ञानिक शोध जिससे बाढ़ निरोधन प्रजातियों का विकास हो और बाढ़ को झेलने की क्षमता वाली खेती का विकास हो।
(iii) शहरी क्षेत्रों में जल निकासी, ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन, सीवर व्यवस्थाएं, पेयजल जैसे विषयों में व्यापक सुधार।
(iv) ग्रामीण क्षेत्रों में आवास, आजीविका व ऐसी पद्धतियों का विकास जिससे बाढ़ से लोग निपट सकें।
(v) संगठित चेतावनी तंत्र का विकास जिससे बाढ़, सूखा, बीमारियों आदि की पूर्व सूचना मिल सके।

 

पशु उत्पादन पर ऊष्मीय तनाव का प्रभाव

 

सभी जानवरों की एक निश्चित दैहिक तापमान सीमा होती है जिसे बरकरार रखना उनकी प्राथमिकता होती है। डेयरी गायों में यह वांछित तापमान तभी तक बरकरार रहता है जब तक वातावरण का तापमान 28-30 डिग्री सेल्सियस तक रहता है। इससे अधिक तापमान इनके लिए तनावपूर्ण स्थिति उत्पन्न कर सकता है। अत्यधिक तापमान पशुओं की रूमेन कार्य-क्षमता को कम करता है जो कई स्वास्थ्य संबंधित बीमारियों का कारण बनता है। बाहरी गर्मी के साथ-साथ उपचय ऊष्मा से भी शारीरिक ताप उत्पन्न होता है। जैसे-जैसे दुग्ध उत्पादन और पशु की खुराक में वृद्धि होती है, वैसे ही उपचय उष्मा की मात्रा बढ़ती जाती है। उष्मीय तनाव के चलते पशुओं की श्वसन दर 10-30 से बढ़कर 30-60 बार प्रति मिनट तक पहुँच जाती है। पशु हाँफने लगते हैं और उनके मुँह से लार गिरती दिखाई देती है। पशुओं के शरीर में बाइकार्बोनेट तथा आयनों की कमी से रक्त की पीएच कम हो जाती है। उष्मीय तनाव के दौरान पशुओं के शरीर का तापमान 102.5 डिग्री से 103 डिग्री फाहरेनहाइट तक बढ़ जाता है। इन परिस्थितियों में गाय अपने शरीर के तापमान को सामान्य अवस्था में बनाए रखने हेतु खानपान में कमी लाती है जिसके फलस्वरूप दूध उत्पादन, दुग्ध-वसा, प्रजनन क्षमता एवं प्रतिरक्षा प्रणाली में कमी आती है।

उष्मीय तनाव स्तन ग्रंथियों के विकास को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। इसका प्रभाव आगामी दुग्धावस्था में दिखाई देता है। उष्मीय तनाव से प्रभावित गायों को मदकाल प्रदर्शन करने में भी कठिनाई होती है। उष्मीय तनाव के दौरान मदकाल की अवधि छोटी हो जाती है तथा प्रजनन हॉर्मोन के स्राव में असंतुलन, मुख्यत: इस्ट्रोजन हॉर्मोन (जो मद के व्यवहार को प्रभावित करता है) की मात्रा कम हो जाती है। उच्च तापमान वाले वातावरण में गायों के मदकाल अकसर मूक ही रहते हैं और अमदकाल की घटनाएं बढ़ जाती हैं। यदि मद का पता लग भी जाए तो शरीर का तापमान अधिक होने के कारण कई बार पशु गर्भधारण नहीं कर पाता। उष्मीय तनाव बढऩे से निषेचन क्रिया पर विपरीत प्रभाव पड़ता है जो भ्रूण को क्षति भी पहुँचा सकता है तथा पैदा हुए बछड़े का दैहिक भार सामान्य ताप पर जन्म लेने वाले बछड़ों से कम पाया गया है।

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उष्मीय तनाव से बचाव

गर्मियों के मौसम में गायों के बेहतर स्वास्थ्य एवं उत्पादन स्तर को स्थिर रखने के लिए उनकी विशेष देखभाल की आवश्यकता पड़ती है। पशु के परिवेश के तापमान को कम करके उष्मागत तनाव को कम किया जा सकता है। पशुओं हेतु प्राकृतिक व कृत्रिम छाया का प्रावधान सबसे किफायती तरीकों में से एक है। अच्छी तरह डिजाइन किए गए पशु शेड द्वारा गर्मी के प्रभाव को 30-50 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। शेड को पराली से अच्छी तरह ढक दें ताकि वातावरण की उष्णता नीचे खड़े पशुओं तक कम से कम ही पहुँचे। हमें अपने पशुओं के लिए छायादार शेड का निर्माण करें जिसकी छत की ऊंचाई 12 से 14 फीट तक हो। शेड की बनावट पूर्व पश्चिम वाली स्थिति में हो ताकि मई जून के महीने में कम से कम धूप ही अन्दर आए तथा दिसंबर के महीने में पशु को कुछ अधिक धूप मिल पाए।

इसके अतिरिक्त पशु को आराम देने हेतु अन्य तरीकों का इस्तेमाल भी आवश्यक है जैसे फव्वारे, कूलर, मिस्ट पंखे, पानी के टैंक तथा नहलाने आदि की व्यवस्था। पशुशाला में गर्म हवाओं से बचाव के लिए उपलब्ध सामान जैसे जूट या बोरी के पर्दों का उपयोग किया जा सकता है। पशु के आंतरिक वातावरण को संतुलित बनाए रखना भी एक महत्वपूर्ण चुनौती है। लिहाजा हमें पशु के शरीर में आयन तथा अम्ल व क्षार का संतुलन बनाए रखें। यह संतुलन बनाए रखने के लिए हमें नियमित रूप से पशु को यथासंभव रेशायुक्त आहार दें ताकि अधिक मात्रा में लार स्रावित हो सके। इसके अतिरिक्त प्रतिरोधक घोल या बफर का इस्तेमाल करें। पशुओं को खनिज तत्व जैसे सोडियम 5 प्रतिशत तथा पोटेशियम 1.25 से 1.5 प्रतिशत भी आहार के साथ खिला सकते हैं। गर्मियों में हरे चारे की पैदावार कम हो जाती है, जिसकी कमी पूरा करने के लिए सूखा भूसा भिगोकर तथा उसमें दाना व मिनरल मिश्रण मिलाकर दें। दाने की मात्रा सकल शुष्क पदार्थ ग्राह्यता के 55-60 प्रतिशत से अधिक नहीं हो। गर्मियों में पशुओं की ऊर्जा आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए अधिक ऊर्जायुक्त आहार खिलायें जो आतंरिक उपचय ऊष्मा को नहीं बढ़ाते हैं। इसके लिए अधिक वसा-युक्त आहार (6 प्रतिशत तक ही) दें। ऐसे आहार खिलाने से शारीरिक तापमान में कोई वृद्धि नहीं होती और श्वसन दर भी सामान्य बना रहता है। गर्मियों में पशुओं के लिए हर समय ताजा व स्वच्छ पानी उपलब्ध हो। प्राय: ऐसा देखा गया है कि यदि तापमान 30-35 सेल्सियस तक बढ़ता है तो दुधारू पशुओं में पानी की आवश्यकता 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ जाती है।

जलवायु परिवर्तन के दौर में पशुचारण और पशुचारकों की स्थिति

संयुक्त राष्ट्र के कृषि एवं खाद्य संगठन (एफएओ) ने पशुचारकों की स्थिति में सुधार के लिए एक अपील जारी की है

चरवाहों की जिन्दगी गतिशील होती है। प्राचीन काल से वे विभिन्न जलवायु स्थिति में अपनी आजीविका की तलाश में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में घूमते रहे हैं। उनकी इस गतिशीलता की रक्षा को राष्ट्रीय समर्थन मिले, इसके लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक अपील जारी की है। इस अपील के जारी होने के बाद, दुनिया का ध्यान इस प्राचीन व्यवस्था की तरफ गया है।

प्लेइस्टोसिन युग के अंत तक (जो लगभग 26 लाख साल पहले शुरू हुआ और 11,700 साल पहले तक चला), पशुपालन या पशुधन के लिए एक व्यापक चराई प्रणाली विकसित हो चुकी थी। यानी, व्यवस्थित तरीके से खेतीबाड़ी शुरू होने से पहले ही पशुचारण (पशु चराने का काम) व्यवस्था बन चुकी थी। इस प्रकार यह प्रणाली एक नई जलवायु स्थिति में और होमोसेपियन्स के लिए जीविका स्रोत के रूप में विकसित हुई।

इस प्राचीन तरीके को अभी तक बहुत कम समझा गया है या इस पर कम लिखा गया है, लेकिन यह तरीका अब भी जारी है। दुनिया भर में, 10 से 20 करोड़ लोग (भारत में 1.3 करोड़) अभी भी इसे एक आर्थिक गतिविधि के रूप में अपनाए हुए हैं।

धरती के क्षेत्रीय सतह का एक चौथाई अभी भी इसी तरह के उत्पादन प्रणाली के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। जब यह प्रणाली शुरू हुई, तो पृथ्वी हिमयुग से धीरे-धीरे गर्म (मानव-प्रेरित नहीं, जो औद्योगिक क्रांति के साथ शुरू हुआ था) होती जा रही थी।

इसी वक्त आज के मानव पूरी धरती पर पाए जाने लगे थे। चारागाह और चराई से जुड़ी प्रणाली आमतौर पर कठोर जलवायु क्षेत्रों में पाई जाती हैं और निर्विवाद रूप से ये सबसे अधिक संसाधन-दुर्लभ भौगोलिक क्षेत्र में पाए जाते हैं। यानी, यह प्रणाली जलवायु-लचीला और किसी भी जलवायु परिस्थिति के अनुकूल है।

यह प्रणाली चरागाहों तक समय-समय पर पहुंचने वाले लोगों और पशुओं की अप्रतिबंधित गतिशीलता के इर्द-गिर्द घूमती है। इस प्रणाली में पशुपालक राष्ट्रीय सीमाओं, अंतर्देशीय सीमाओं को पार करते हैं और निजी और सार्वजनिक जमीन का इस्तेमाल करते हैं।

पशुपालन भी फसल प्रणाली के साथ ही पनपता है, क्योंकि वे एक दूसरे को लाभान्वित करते हैं। खेतों से मिलने वाले फसल अवशेष पशुओं के लिए चारा बन जाते हैं और पशु से किसानों को खाद मिल जाता है।

लेकिन, इस प्रणाली के साथ भी चुनौती आ खड़ी हुई है। आधुनिक प्रणालियों ने इस प्रणाली को अनावश्यक रूप से खारिज कर दिया है। दुनिया भर के पर्यावरण विभागों ने चराई को पर्यावरण के लिए खतरा करार दिया है।

समय के साथ कृषि नीतियों ने उत्पादकता बढ़ाने के तरीके के रूप में स्थायी कृषि और पशुधन खेती को प्राथमिकता दी है। नतीजतन, पशुचारण को गुमनामी में धकेल दिया गया।

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) ने “मेकिंग वे: डेवलपिंग नेशनल लीगल एंड पॉलिसी फ्रेमवर्क फॉर पैस्टोरल मोबिलिटी” जारी की है।

इस अपील में चराई प्रणाली और इससे संबंधित लोगों और उनकी गतिशीलता की रक्षा करने के तरीके को ले कर कुछ सुझाव और सिफारिशें दी गयी है। यह अपील इस प्रणाली के समर्थन के तौर पर सामने आई है।

एफएओ का नवीनतम दस्तावेज कहता है, “पशुपालकों को पिछड़ा और अनुत्पादक माना जाता है और ऐतिहासिक रूप से प्रतिकूल कानूनों की वजह से उन्हें कम कर के आंका गया है। पशुचारक संसाधन की कमी और गतिशीलता पर प्रतिबंधों के प्रति संवेदनशील होते हैं। चूंकि उन्हें उत्पादक क्षेत्रों से बाहर कर दिया जाता है, इसलिए उन्हें सीमित उपलब्ध चराई संसाधनों पर निर्भर होना पड़ता है। गतिशीलता की रक्षा और विनियमन करने वाले कानून के अभाव में, पशुचारक अन्य संसाधन उपयोगकर्ताओं और राज्य के साथ संघर्ष में फंस जाते हैं।”

पशुचारण को हमेशा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाला मान कर इसे ख़त्म किए जाने की बात कही जाती है। यानी, पशुचारण को आर्थिक गतिविधि के रूप में प्रोत्साहित करने के लिए पर्याप्त उत्पादक नहीं माना जाता है। लेकिन, यूरोप, अफ्रीका और एशिया सहित कई देशों में इसके पुनरुद्धार के लिए आवाजें उठी हैं।

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यह कहा जा रहा है कि इस प्रणाली के कई पर्यावरणीय और आर्थिक लाभ हैं। पशुचारक प्राकृतिक खाद के उत्पादक और वितरक होते हैं। ऐसी खाद की कीमत सालाना 45 अरब डॉलर होने का अनुमान है।

विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि आधुनिक प्रणालियों की तुलना में पशुचारण प्रणाली में प्रति यूनिट फ़ीड में अधिक प्रोटीन उत्पादन होता है। भारत में, पशुचारण का कुल मांस उत्पादन में 70 प्रतिशत से अधिक और कुल दूध उत्पादन में 50 प्रतिशत हिस्सा है।

मीट एटलस 2021 का अनुमान है, “पशुधन क्षेत्र का हिस्सा भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 4.5 प्रतिशत है, जिसमें दो-तिहाई हिस्सा पशुचारण उत्पादन से आते हैं।”

इसके अलावा, यह सबसे कठिन भौगोलिक क्षेत्रों में सबसे गरीब समुदायों की अर्थव्यवस्था है। यह प्रणाली बदलती जलवायु परिस्थितियों से अधिक प्रभावी ढंग से लड़ने के लिए विकसित हुई है। इसलिए, यह सबसे गरीब लोगों के लिए जीविका के एक व्यवहार्य स्रोत के रूप में अब भी बना हुआ है।

इस प्रणाली को मिलने वाला नीतिगत समर्थन असल में सबसे कठिन जलवायु स्थिति में रहने वाले सबसे गरीब लोगों की अर्थव्यवस्था को लचीला बनाने की दिशा में एक प्रभावी कदम होगा।

 

विश्व भर में जलवायु परिवर्तन का विषय सर्वविदित है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में जलवायु परिवर्तन वैश्विक समाज के समक्ष मौजूद सबसे बड़ी चुनौती है एवं इससे निपटना वर्तमान समय की बड़ी आवश्यकता बन गई है। आँकड़े दर्शाते हैं कि 19वीं सदी के अंत से अब तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान लगभग 1.62 डिग्री फॉरनहाइट (अर्थात् लगभग 0.9 डिग्री सेल्सियस) बढ़ गया है। इसके अतिरिक्त पिछली सदी से अब तक समुद्र के जल स्तर में भी लगभग 8 इंच की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। आँकड़े स्पष्ट करते हैं कि यह समय जलवायु परिवर्तन की दिशा में गंभीरता से विचार करने का है।

क्या है जलवायु परिवर्तन?

  • जलवायु परिवर्तन को समझने से पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है कि जलवायु क्या होता है? सामान्यतः जलवायु का आशय किसी दिये गए क्षेत्र में लंबे समय तक औसत मौसम से होता है।
  • अतः जब किसी क्षेत्र विशेष के औसत मौसम में परिवर्तन आता है तो उसे जलवायु परिवर्तन (Climate Change) कहते हैं।
  • जलवायु परिवर्तन को किसी एक स्थान विशेष में भी महसूस किया जा सकता है एवं संपूर्ण विश्व में भी। यदि वर्तमान संदर्भ में बात करें तो यह इसका प्रभाव लगभग संपूर्ण विश्व में देखने को मिल रहा है।
  • पृथ्वी के समग्र इतिहास में यहाँ की जलवायु कई बार परिवर्तित हुई है एवं जलवायु परिवर्तन की अनेक घटनाएँ सामने आई हैं।
  • पृथ्वी का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक बताते हैं कि पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है। पृथ्वी का तापमान बीते 100 वर्षों में 1 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ गया है। पृथ्वी के तापमान में यह परिवर्तन संख्या की दृष्टि से काफी कम हो सकता है, परंतु इस प्रकार के किसी भी परिवर्तन का मानव जाति पर बड़ा असर हो सकता है।
  • जलवायु परिवर्तन के कुछ प्रभावों को वर्तमान में भी महसूस किया जा सकता है। पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होने से हिमनद पिघल रहे हैं और महासागरों का जल स्तर बढ़ता जा रहा, परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं और कुछ द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ गया है।

जलवायु परिवर्तन के कारण

ग्रीनहाउस गैसें:

  • पृथ्वी के चारों ओर ग्रीनहाउस गैस की एक परत बनी हुई है, इस परत में मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसें शामिल हैं।
  • ग्रीनहाउस गैसों की यह परत पृथ्वी की सतह पर तापमान संतुलन को बनाए रखने में आवश्यक है और विश्लेषकों के अनुसार, यदि यह परत नहीं होगी तो पृथ्वी का तापमान काफी कम हो जाएगा।
  • आधुनिक युग में जैसे-जैसे मानवीय गतिविधियाँ बढ़ रही हैं, वैसे-वैसे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भी वृद्धि हो रही है और जिसके कारण वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है।
  • मुख्य ग्रीनहाउस गैसें
    • कार्बन डाइऑक्साइड– इसे सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रीनहाउस गैस माना जाता है और यह प्राकृतिक व मानवीय दोनों ही कारणों से उत्सर्जित होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार, कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे अधिक उत्सर्जन ऊर्जा हेतु जीवाश्म ईंधन को जलाने से होता है। आँकड़े बताते हैं कि औद्योगिक क्रांति के पश्चात् वैश्विक स्तर पर कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिली है।
    • मीथेन –जैव पदार्थों का अपघटन मीथेन का एक बड़ा स्रोत है। उल्लेखनीय है कि मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड से अधिक प्रभावी ग्रीनहाउस गैस है, परंतु वातावरण में इसकी मात्रा कार्बन डाइऑक्साइड की अपेक्षा कम है।
    • क्लोरोफ्लोरोकार्बन –इसका प्रयोग मुख्यतः रेफ्रिजरेंट और एयर कंडीशनर आदि में किया जाता है एवं ओज़ोन परत पर इसका काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

भूमि के उपयोग में परिवर्तन

  • वाणिज्यिक या निजी प्रयोग हेतु वनों की कटाई भी जलवायु परिवर्तन का बड़ा कारक है। पेड़ न सिर्फ हमें फल और छाया देते हैं, बल्कि ये वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड जैसी महत्त्वपूर्ण ग्रीनहाउस गैस को अवशोषित भी करते हैं। वर्तमान समय में जिस तरह से वृक्षों की कटाई की जा रही हैं वह काफी चिंतनीय है, क्योंकि पेड़ वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने वाले प्राकृतिक यंत्र के रूप में कार्य करते हैं और उनकी समाप्ति के साथ हम वह प्राकृतिक यंत्र भी खो देंगे।
  • कुछ देशों जैसे- ब्राज़ील और इंडोनेशिया में निर्वनीकरण ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का सबसे प्रमुख कारण है।

शहरीकरण

  • शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण लोगों के जीवन जीने के तौर-तरीकों में काफी परिवर्तन आया है। विश्व भर की सड़कों पर वाहनों की संख्या काफी अधिक हो गई है। जीवन शैली में परिवर्तन ने खतरनाक गैसों के उत्सर्जन में काफी अधिक योगदान दिया है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव

उच्च तापमान

पावर प्लांट, ऑटोमोबाइल, वनों की कटाई और अन्य स्रोतों से होने वाला ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पृथ्वी को अपेक्षाकृत काफी तेज़ी से गर्म कर रहा है। पिछले 150 वर्षों में वैश्विक औसत तापमान लगातार बढ़ रहा है और वर्ष 2016 को सबसे गर्म वर्ष के रूप में रिकॉर्ड किया गया है। गर्मी से संबंधित मौतों और बीमारियों, बढ़ते समुद्र स्तर, तूफान की तीव्रता में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कई अन्य खतरनाक परिणामों में वृद्धि के लिये बढ़े हुए तापमान को भी एक कारण माना जा सकता है। एक शोध में पाया गया है कि यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के विषय को गंभीरता से नहीं लिया गया और इसे कम करने के प्रयास नहीं किये गए तो सदी के अंत तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान 3 से 10 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ सकता है।

वर्षा के पैटर्न में बदलाव

पिछले कुछ दशकों में बाढ़, सूखा और बारिश आदि की अनियमितता काफी बढ़ गई है। यह सभी जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप ही हो रहा है। कुछ स्थानों पर बहुत अधिक वर्षा हो रही है, जबकि कुछ स्थानों पर पानी की कमी से सूखे की संभावना बन गई है।

समुद्र जल के स्तर में वृद्धि

वैश्विक स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के दौरान ग्लेशियर पिघल जाते हैं और समुद्र का जल स्तर ऊपर उठता है जिसके प्रभाव से समुद्र के आस-पास के द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ जाता है। मालदीव जैसे छोटे द्वीपीय देशों में रहने वाले लोग पहले से ही वैकल्पिक स्थलों की तलाश में हैं।

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वन्यजीव प्रजाति का नुकसान

तापमान में वृद्धि और वनस्पति पैटर्न में बदलाव ने कुछ पक्षी प्रजातियों को विलुप्त होने के लिये मजबूर कर दिया है। विशेषज्ञों के अनुसार, पृथ्वी की एक-चौथाई प्रजातियाँ वर्ष 2050 तक विलुप्त हो सकती हैं। वर्ष 2008 में ध्रुवीय भालू को उन जानवरों की सूची में जोड़ा गया था जो समुद्र के स्तर में वृद्धि के कारण विलुप्त हो सकते थे।

रोगों का प्रसार और आर्थिक नुकसान

जानकारों ने अनुमान लगाया है कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियाँ और अधिक बढ़ेंगी तथा इन्हें नियंत्रित करना मुश्किल होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के आँकड़ों के अनुसार, पिछले दशक से अब तक हीट वेव्स (Heat waves) के कारण लगभग 150,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है।

जंगलों में आग

जलवायु परिवर्तन के कारण लंबे समय तक चलने वाली हीट वेव्स ने जंगलों में लगने वाली आग के लिये उपयुक्त गर्म और शुष्क परिस्थितियाँ पैदा की हैं। ब्राज़ील स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस रिसर्च (National Institute for Space Research-INPE) के आँकड़ों के मुताबिक, जनवरी 2019 से अब तक ब्राज़ील के अमेज़न वन (Amazon Forests) कुल 74,155 बार वनाग्नि का सामना कर चुके हैं। साथ ही यह भी सामने आया है कि अमेज़न वन में आग लगने की घटना बीते वर्ष (2018) से 85 प्रतिशत तक बढ़ गई हैं।

जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा:

  • जलवायु परिवर्तन के कारण फसल की पैदावार कम होने से खाद्यान्न समस्या उत्पन्न हो सकती है, साथ ही भूमि निम्नीकरण जैसी समस्याएँ भी सामने आ सकती हैं।
  • एशिया और अफ्रीका पहले से ही आयातित खाद्य पदार्थों पर निर्भर हैं। ये क्षेत्र तेज़ी से बढ़ते तापमान के कारण सूखे की चपेट में आ सकते हैं।
  • IPCC की रिपोर्ट के अनुसार, कम ऊँचाई वाले क्षेत्रों में गेहूँ और मकई जैसी फसलों की पैदावार में पहले से ही गिरावट देखी जा रही है।
  • वातावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ने से फसलों की पोषण गुणवत्ता में कमी आ रही है। उदाहरण के लिये उच्च कार्बन वातावरण के कारण गेहूँ की पौष्टिकता में प्रोटीन का 6% से 13%, जस्ते का 4% से 7% और लोहे का 5% से 8% तक की कमी आ रही है।
  • यूरोप में गर्मी की लहर की वजह से फसल की पैदावार गिर रही है।
  • ब्लूमबर्ग एग्रीकल्चर स्पॉट इंडेक्स (Bloomberg Agriculture Spot Index) 9 फसलों का एक मूल्य मापक है जो मई में एक दशक के सबसे निचले स्तर पर आ गया था। इस सूचकांक की अस्थिरता खाद्यान सुरक्षा की अस्थिरता को प्रदर्शित करती है।

जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु वैश्विक प्रयास

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC)

  • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) जलवायु परिवर्तन से संबंधित वैज्ञानिक आकलन करने हेतु संयुक्त राष्ट्र का एक निकाय है। जिसमें 195 सदस्य देश हैं।
  • इसे संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) और विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) द्वारा 1988 में स्थापित किया गया था।
  • इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन, इसके प्रभाव और भविष्य के संभावित जोखिमों के साथ-साथ अनुकूलन तथा जलवायु परिवर्तन को कम करने हेतु नीति निर्माताओं को रणनीति बनाने के लिये नियमित वैज्ञानिक आकलन प्रदान करना है।
  • IPCC आकलन सभी स्तरों पर सरकारों को वैज्ञानिक सूचनाएँ प्रदान करता है जिसका इस्तेमाल जलवायु के प्रति उदार नीति विकसित करने के लिये किया जा सकता है।
  • IPCC आकलन जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (UNFCCC)

  • यह एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जिसका उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है।
  • यह समझौता जून, 1992 के पृथ्वी सम्मेलन के दौरान किया गया था। विभिन्न देशों द्वारा इस समझौते पर हस्ताक्षर के बाद 21 मार्च, 1994 को इसे लागू किया गया।
  • वर्ष 1995 से लगातार UNFCCC की वार्षिक बैठकों का आयोजन किया जाता है। इसके तहत ही वर्ष 1997 में बहुचर्चित क्योटो समझौता (Kyoto Protocol) हुआ और विकसित देशों(एनेक्स-1 में शामिल देश) द्वारा ग्रीनहाउस गैसों को नियंत्रित करने के लिये लक्ष्य तय किया गया। क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 40 औद्योगिक देशों को अलग सूची एनेक्स-1 में रखा गया है।
  • UNFCCC की वार्षिक बैठक को कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज़ (COP) के नाम से जाना जाता है।

पेरिस समझौता

  • यदि कम शब्दों में कहा जाए तो पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है।
  • वर्ष 2015 में 30 नवंबर से लेकर 11 दिसंबर तक 195 देशों की सरकारों के प्रतिनिधियों ने पेरिस में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये संभावित नए वैश्विक समझौते पर चर्चा की।
  • ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य के साथ संपन्न 32 पृष्ठों एवं 29 लेखों वाले पेरिस समझौते को ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिये एक ऐतिहासिक समझौते के रूप में मान्यता प्राप्त है।

जलवायु परिवर्तन और भारत के प्रयास

जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (NAPCC)

  • जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना का शुभारंभ वर्ष 2008 में किया गया था।
  • इसका उद्देश्य जनता के प्रतिनिधियों, सरकार की विभिन्न एजेंसियों, वैज्ञानिकों, उद्योग और समुदायों को जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरे और इससे मुकाबला करने के उपायों के बारे में जागरूक करना है।
  • इस कार्ययोजना में मुख्यतः 8 मिशन शामिल हैं:
    • राष्ट्रीय सौर मिशन
    • विकसित ऊर्जा दक्षता के लिये राष्ट्रीय मिशन
    • सुस्थिर निवास पर राष्ट्रीय मिशन
    • राष्ट्रीय जल मिशन
    • सुस्थिर हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र हेतु राष्ट्रीय मिशन
    • हरित भारत हेतु राष्ट्रीय मिशन
    • सुस्थिर कृषि हेतु राष्ट्रीय मिशन
    • जलवायु परिवर्तन हेतु रणनीतिक ज्ञान पर राष्ट्रीय मिशन

इसके अलावा भारत के राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा एसएपीसीसी (State Action Plans on Climate Change-SAPCC) पर राज्य कार्ययोजना तैयार की गई है जो NAPCC के उद्देश्यों के ही अनुरूप है।

अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (International Solar Alliance-ISA)

  • अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन सौर ऊर्जा से संपन्न देशों का एक संधि आधारित अंतर-सरकारी संगठन (Treaty-Based International Intergovernmental Organization) है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन की शुरुआत भारत और फ्राँस ने 30 नवंबर, 2015 को पेरिस जलवायु सम्‍मेलन के दौरान की थी।
  • इसका मुख्यालय गुरुग्राम (हरियाणा) में है।
  • ISA के प्रमुख उद्देश्यों में वैश्विक स्तर पर 1000 गीगावाट से अधिक सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता प्राप्त करना और 2030 तक सौर ऊर्जा में निवेश के लिये लगभग $1000 बिलियन की राशि को जुटाना शामिल है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन की पहली बैठक का आयोजन नई दिल्ली में किया गया था।

निष्कर्ष

भविष्य में जलवायु परिवर्तन तेजी से होने की संभावना है, जो हमारी खाद्य सुरक्षा की समस्या तथा पशुधन आधारित उत्पादों की मांग में वृद्धि कर सकता है। इस मांग को पूरा करने हेतु, हमें अपने जानवरों को उष्मीय तनाव के प्रतिकूल प्रभाव से बचाना होगा और अपनी स्थानीय नस्लों को भी संरक्षित करना होगा। कम उत्पादन क्षमता वाली गायों की तुलना में अधिक दूध उत्पादन करने वाली गायों पर उष्मीय तनाव का प्रभाव अधिक पड़ता है अत: उनके खान-पान और रखरखाव पर अधिक ध्यान दें। हम मौसम को तो नियंत्रित नहीं कर सकते लेकिन गायों पर मौसम के प्रभाव को कम करने हेतु हर संभव प्रयास किए जा सकते हैं।

 

संकलन: टीम लाइवस्टोक इंस्टिट्यूट ट्रेनिंग एंड डेवलपमेंट( एल आई टी डी)

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