बकरियों का प्लेग (पी.पी.आर.) : पशुओं की दस्त एवं निमोनिया की बीमारी

0
1443

बकरियों का प्लेग (पी.पी.आर.) : पशुओं की दस्त एवं निमोनिया की बीमारी

डॉ. पीयूष कुमार,        डॉ. डी.के. जोल्हे,        डॉ. आर.सी. घोष,        डॉ. पूर्णिमा गुमास्ता,

डॉ. रजनी फ्लोरा कुजुर, डॉ. रामचन्द्र रामटेके, डॉ. नेहा षाक्ला, डॉ. सविता साहू, डॉ. आलिषा

पषु चिकित्सा एवं पषुपालन महाविद्यालय, अंजोरा, दुर्ग (छ.ग.)

यह बकरियों और भेड़ों की एक तीव्र तथा अत्याधिक संक्रामक विषाणु जनित बिमारी है, जिसके विशेष लक्षण तेज बुखार (104-1050F), भूख की कमी, लिम्फोपेनिया, गलित मुखशोध, अश्रुस्त्राव, आँत्रशोध, निमोनिया तथा गंध के साथ दस्त होता है।

बकरी में रोग की गम्भीरता भेडों की अपेक्षा अधिक है और 4-12 माह की आयु के अल्प वयस्क मेमने रोग को प्रति सुग्राही है। रोगग्रस्त बकरियों का लगभग 90 प्रतिशत की मृत्यु होती है इसीलिये इसे बकरीयो का प्लेग कहा जाता है। भेड़ में रोग की पशु प्रभावन की दर 75-90ः तथा मृत्युदर 70-80ः तक उल्लेखित है।

बकरी की बिमारी में यह बीमारी सबसे खतरनाक एवं प्राणघातक बीमारी है। यह बिमारी सबसे पहलें 1942 में पश्चिमी अफ्रीका में देखने को मिली थी। लेकिन आज यह बिमारी पुरे विश्व में फैल चुकी है और इस बीमारी सें लगभग हर देश की बकरियाँ ग्रसित हो सकती है।

इस बीमारी के बारे में कहा जाता है कि जिन बकरियों को यह बिमारी हो जाती है उसका बच पाना बेहद मुश्किल होता है।

प्रत्येक वर्ष विश्व में इस बीमारी सें सैकड़ो हजारो बकरियों की मृत्यु हो जाती है। जिससें न सिर्फ बकरी पालन करने वाले व्यक्ति का नुकसान होता है बल्कि राष्ट्र की आर्थिक स्थिति पर भी इसका बेहद गहरा असर पड़ता है।

रोग का कारक :- यह बीमारी मोरबिली विषाणु के कारण होती है।

READ MORE :  FAQ ON MASTITIS IN DAIRY ANIMALS

संक्रमण के तरीके :- यह बीमारी मुख्य रूप से श्वास के द्वारा शरीर में प्रवेश करती है। यह बीमारी संक्रमित जानवर कें निकट संपर्क में आने सें, संक्रमणीय पदार्थो कें संपर्क में आने से, और दूषित पानी एवं भोजन से भी रोग फैल सकता है।

दस्त वाले मल तथा अन्य उत्सर्जी पदार्थो में यह विषाणु बड़ी संख्या में उपस्थित होता है जो कि रोग के फैलने का मुख्य कारण बनता है।

रोग जनन की क्रिया विधि :- श्वास, अंतर्ग्रहण या रोगी जानवर के निकट संपर्क सें यह विषाणु स्वस्थ जानवर के शरीर में प्रवेश करता है फिर यह विषाणु मुख में प्रवेश करता है और वहा अपनी संख्या को बढ़ाता है। फिर यह विषाणु आहार, श्वसन और लसिका तंत्र को क्षति पहुंचाता है तथा संक्रमित कोशिकाओं का अतिक्षय (नेक्रोसिस) हो जाता है जिस वजह सें श्वसन और फेफड़ों की कोशिकाओं में वृद्वि होती है। गंभीर संक्रमण में दस्त और निर्जलीकरण सें बकरियों की मौत होती है। अन्य विषाणु, जीवाणु और अतः परजीवी रोग को और बढ़ा देते है।

रोग के लक्षण :-

यह बीमारी उग्र रूप में प्रकट होती है तथा इसका उद्वभवन काल 4-7 दिन का होता है।

पीड़ित पशु में तेज ज्वर(104-1050F), मूख में कमी, अवसाद, आँख और नाक से पानी की तरह का स्त्राव जो बाद में गाढ़ा और चिपचिपा हो जाता है।

श्वसन तंत्र कें प्रभावित होने की स्थिति में श्वॉस की कठिनाई और श्वॉस नली का अवरोध पीड़ित पशु में परिलक्षित होता है।

होठों, मसूड़ों, गाल की भीतरी सतह और दोनों होठों कें मिलने कें स्थान, जीभ आदि पर स्खलन प्रकृति के घाव बन जाते है।

READ MORE :  Pneumonic Pasteurellosis in Goats: An Overview

जीभ मोटी हो जाती है और उस पर परिगलन के धब्बे दिखायी देते है।

आँख की श्लेष्मकला में रक्त रंजन और भारी क्रीम जैसा स्त्राव देखा जा सकता है।

रोग की शुरूआत के 3-4 दिन बाद पीड़ित पशु में ज्वर तथा तेज दस्त पाये जाते है।

तेज बुखार, मंदता, छींक आना भूख में कमी खाँसी, साँस लेने मे भारी तकलीफ, गर्भवती पशओं का गर्भपात, निमोनिया, दस्त, मुंह के अंदर छालें या जख्म होनें लगते है। बकरी के मुंह से बुरी तरह की बदबू आने लगती है और 1 हफते के अंदर बिमार बकरियों की मृत्यु हो जाती है।

रोग का निदान :- अनुमानित संकेतों, रोग के लक्षणों और पोस्टमॉर्टम निष्कर्षो सें अनुमानित निदान किया जा सकता है।

इस बीमारी में निमोनिया एक सामान्य लक्षण है जबकी रिंडरपेस्ट में निमोनिया नही देखा जाता है। विषाणु का अलगाव तथा पहचान के द्वारा इस बीमारी का पुष्टीकरण किया जा सकता है। लसीका ग्रन्थियों और अन्य ऊतकों में एटीजन के प्रदर्शन के लिये अगार जेल इम्यूनो डिफ्यूजन टेस्ट या कांउटर इम्यूनो इलेक्ट्रोफोरेसिस किया जाता है।

इस बिमारी के पहचान के लियें अन्य जाँच जैसे CFT, ELISA, cDNA  Probe, Real time- RT-PCR किये जाते है।

उपचार :-

इस रोग की कोई निषिचत उपचार उपलब्ध नही है। बहुप्रभावी ऐन्टिबायेटिक जैसे जेंटामाइसिन, इरीथ्रोमाइसिन, नियोमाइसिन या स्ट्रेप्टोमाइसिन आदि का प्रयोग सहायक चिकित्सा कें साथ मदद कर सकता है। ऐलर्जी रोधी, ज्वरनाशी एवं नासिका स्त्राव को कम करने वाली औषधियों का प्रयोग पीड़ित पशु को राहत प्रदान करता है। अधिक दस्तों से शरीर में पानी की पूर्ति के लिए नार्मल सलाइन का नसों से दिया जाना जीवन देने वाला है। निमोनिया होने पर गर्म पानी का भपारा, पानी में 20 मि.ली. यूकेलिप्टस का तेल, 20 मि.ली. मेन्था का तेल, 20 ग्राम कपूर, 20 ग्राम अमोनियम कार्बोनेट, 230 ग्राम सोंठ चूर्ण को 10 लीटर पानी में उबालकर भपारा दे। बकरी को 10 ग्राम खाने का सोडा, 5 ग्राम कपूर, 10 ग्राम सोंठ के चूर्ण को 100 ग्राम गुड़ के साथ मिलाकर खिलाये। इस बिमारी में हाईपर इम्यून सीरम मिलने पर पीड़ित बकरी के नस में 5 मि.ली. इक्जेक्शन देने पर वह स्वस्थ हो जाती है।

READ MORE :  अफारा पशुओं का एक जानलेवा रोग

बचाव और प्रतिरक्षा टीकाकरण :- ऊतक संवार्धित आर.पी. वैक्सीन, रिकाम्बीनेंट, आर.पी. वैक्सीन (3 से 4 महीने के मेमनों में प्रथम टीका, तत्पश्चात् हर साल)। स्वस्थ बकरी को पी.पी.आर. जैसे रोगों से बचाने के लिए समय-समय पर टीके लगवाते रहे। अपने बकरी फार्म को हमेशा साफ और कीटाणु से मुक्त रखे। इस रोग से पीड़ित बकरी को अन्य बकरीयों के साथ न रखें । अलग से रखकर ही उसका उपचार करें। नजदीकी पशुचिकित्सालय केंन्द्र या पशुचिकित्सक के हमेशा संपर्क में रहे। इस बिमारी से पीड़ित बकरी को चारा खिलाने या पानी पिलाने के लिए जिस बर्तन का इस्तेमाल किया जाता हो, यदि बकरी की मृत्यु हो जाती है तो बर्तनों को जमीन के अंदर गाड़ दे जिससे यह संक्रामक बिमारी अन्य किसी बकरी को न लगे। इस बिमारी से पीड़ित बकरी को किसी को बेचने या इधर-उधर भेजने की कोशिश न करें।

Please follow and like us:
Follow by Email
Twitter

Visit Us
Follow Me
YOUTUBE

YOUTUBE
PINTEREST
LINKEDIN

Share
INSTAGRAM
SOCIALICON