डेयरी व्यवसाय की राह पर चल पड़ा है अब पोल्ट्री उद्योग…
मित्रों,यह सर्वविदित सत्य है कि अनेक शासकीय सहायताओं तथा सामाजिक स्वीकारोक्तियों के बाद भी भारतीय डेयरी व्यवसाय एक संगठित उद्योग का स्वरूप नहीं ले पाया, जबकि इसके विपरीत भारतीय पोल्ट्री व्यवसाय नें बहुत ही कम शासकीय सहायताओं तथा सामाजिक स्वीकारोक्तियों के बाद भी एक वृहद संगठित उद्योग का स्वरूप ले लिया है।
मैनें जब इस तथ्य की विवेचना की,कि ऐसा क्यों हुआ तो उसका जो सबसे बड़ा कारण मुझे समझ में आया वह यह था कि,डेयरी व्यवसाय प्रारंभ से ही बड़े बड़े “सहकारी समूहों” के तथा “कॉर्पोरेट समूहों” के हाँथों में चला गया।इन बड़े समूहों नें छोटे-छोटे डेयरी फार्मरों को पनपने ही नहीं दिया और यह व्यवसाय कभी भी भारत के सुदूर किसी गाँव के अंतिम पंक्ति के अंतिम किसान के जीविकोपार्जन का साधन नहीं बन सका।कम पशु रखकर दूध उत्पादन करने वाला छोटा किसान या छोटा डेयरी फार्मर कभी भी इस व्यवसाय से ज्यादा लाभ नहीं कमा सका और वो हमेशा इन बड़े समूहों का शिकार हुआ और आज भी हो रहा है।बाहर से देखने में यह बड़ा अच्छा लगता है कि दूध,घी,मक्खन इत्यादि में बड़े बड़े समूह हैं जो कि ब्रांड बन चुके हैं और इनके उत्पाद ग्राहक ज्यादा कीमत देकर खरीदते हैं,जबकि किसी छोटे डेयरी वाले से नहीं खरीदते हैं।इन समूहों ने अपने नामों और ब्रांडों की ऐसी मार्केटिंग कर दी है कि एक छोटा डेयरी वाला इनके आगे टिक ही नहीं पाता है।कुछ जगहों पर तो स्थितियाँ ये हैं कि छोटे डेयरी वालों को अपनी उत्पादन लागत निकालना मुश्किल हो जाता है।इन परिस्थितियों में कम पशु रखकर दूध का व्यवसाय करने वाले किसानों के पास सिवाय इसके कोई विकल्प ही नहीं बचता है,
कि वे अपनी डेयरी का दूध इन बड़े समूहों को बेच दें।ये बड़े समूह कम कीमत में इन छोटे किसानों से दूध खरीदते हैं और फिर अपने ब्रांड के नाम से ज्यादा कीमतों में बेचते हैं।इन समूहों ने कई जगहों पर अपनी “दूध संग्रहण इकाइयाँ (milk collection units) खोल ली हैं जहाँ कम पशु रखने वाले ग्रामीण किसान तथा छोटे डेयरी वाले किसान अपनी डेयरी का दूध यहाँ लाकर इन बड़े समूहों को बेचते हैं।यहाँ इन किसानों को जो दूध का मूल्य मिलता है वो लगभग बाजार में बिकने वाले दूध के मूल्य का आधा होता है।धीरे धीरे ये बड़े समूह अपनी डेयरियों में पशुओं की संख्या कम करते जा रहे हैं और ज्यादा दूध बाहर से खरीद रहे हैं, जिसे वो अपने डेयरी प्लांट में “प्रोसेसिंग” करके अपना ब्रांड बनाकर बेच देते हैं… सीधी सी बात है कि “वही महंगे दामों वाली सफेदी कम दामों में मिले तो कोई कम दामों में क्यूँ ना ले”(एक उत्पाद का विज्ञापन याद आ गया जो कि यहाँ चरितार्थ होता है)।कहने का तात्पर्य यह है कि छोटा डेयरी वाला छोटा ही रह गया और बड़ा डेयरी वाला बड़ा होता चला गया जो कि “समग्र विकास” की परिभाषा ही नहीं है और मेरी नजरों में एक यही सबसे बड़ा कारण रहा है कि भारतीय डेयरी आज भी एक व्यवसाय है ना कि एक उद्योग।
अब यदि हम भारतीय पोल्ट्री विशेषकर “ब्रॉयलर उद्योग” की बात करें तो पाएंगे कि यह व्यवसाय अपने व्यवसायिक स्वरूप में भारत के किसी सुदूर गाँव के अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचने में सफल रहा और इससे जुड़े हुए व्यवसायिक लोगों नें समय समय पर इस व्यवसाय में हो रहे आमूलचूल वैज्ञानिक अनुसंधानों को पोल्ट्री फार्मिंग करने वाले जन-जन तक पहुँचाया।ताकि वे इन नए अनुसंधानों को अपनाकर सफल एवं लाभदायक पोल्ट्री फार्मिंग कर सकें,और पोल्ट्री फार्मरों नें भी इन बातों को समझा और इन बातों पर अमल किया जिसके कारण हर छोटा ब्रॉयलर फार्मर समय के साथ साथ अपनी क्षमताओं को बढ़ाता चला गया।
सौभग्य से इस व्यवसाय में “बड़े उद्योग घरानों का अथवा बड़े समूहों” का वर्चस्व ब्रीडर तथा हैचरियों में तो था किंतु व्यवसायिक ब्रॉयलर फार्मिंग में नहीं था,और यह एक बहुत बड़ा कारण रहा कि भारतीय व्यवसायिक ब्रॉयलर फार्मिंग तेजी से बढ़ती चली गई।यह एक अच्छी व्यवस्था थी जिसमें एक ब्रॉयलर फार्मर किसी हैचरी वाले से चूजा खरीदता था,दाने वाले से दाना, दवाई वाले से दवाई और अपना मुर्गा खुद तैयार करके बाजार में बेचता था।वास्तव में यही था सभी का “समग्र विकास” जिसने भारतीय पोल्ट्री व्यवसाय को एक संगठित पोल्ट्री उद्योग के स्वरूप में स्थापित कर दिया….किंतु इस उद्योग में यह व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई जब इसमें “इन्टीग्रेशन” का पदार्पण हुआ…अर्थात बड़े बड़े पोल्ट्री घरानों और समूहों का व्यवसायिक ब्रॉयलर फार्मिंग में पदार्पण हुआ…और यह व्यवस्था पूरी तरह उसी व्यवस्था की छायाप्रति है जो कि डेयरी व्यवसाय में शुरुआत से ही रही है।इन्टीग्रेशन एक केन्द्रीकरण तथा विस्तारवादी नीति का अनुसरण करते हुए आज समूचे भारतवर्ष में फैल चुका है,इसने स्वतंत्र ब्रॉयलर फार्मिंग को लगभग समाप्त सा कर दिया है।यदि हम वर्तमान परिस्थितियों का आंकलन करें तो पाएंगें की आज समूचे भारतवर्ष में लगभग 75 से 80 प्रतिशत इन्टीग्रेशन है और मात्र 20 से 25 प्रतिशत स्वतंत्र ब्रॉयलर फार्मिंग बची है और यह बची हुई स्वतंत्र फार्मिंग भी धीरे धीरे समाप्त होती जा रही है।आज ब्रॉयलर फार्मिंग तो बढ़ रही है लेकिन ब्रॉयलर फार्मर खत्म हो रहे हैं,बड़ा और बड़ा होता जा रहा है तथा छोटा और भी छोटा।
मित्रों यह सार्वभौमिक सत्य है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है किंतु जब परिवर्तन सकारात्मक होते हैं तो वो सृजन को जन्म देते हैं किंतु जब परिवर्तन नकारात्मक हों तो वो विध्वंस को जन्म देते हैं…..
अपनी लेखनी को इसी प्रश्न के साथ विराम देता हूँ कि वर्तमान भारतीय ब्रॉयलर उद्योग में क्या यह परिवर्तन सकारात्मक है अथवा नकारात्मक…???
यह लेख पूर्णतः मेरे प्रायोगिक तथा सैद्धांतिक विचारों पर आधारित है,यह आवश्यक नहीं है कि आप भी इससे सहमत हों,और ना ही मेरा उद्देश्य किसी व्यक्ति, व्यवसायी अथवा संस्था को आहत करना है, अपितु समसामयिक व्यवस्था और उसके अपेक्षित परिणामों को उद्धृत करना है।
“इस बस्ती में कभी मेरा भी मकां होता था
आँधियों नें छीन लिया वो आसरा,
जो कभी मेरा आशियाँ होता था”
डॉ. मनोज शुक्ला
पोल्ट्री विशेषज्ञ एवं विचारक…