पशु रोगों में होम्योपैथी- एक वैकल्पिक चिकित्सा

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पशु रोगों में होम्योपैथी- एक वैकल्पिक चिकित्सा
पशु रोगों में होम्योपैथी- एक वैकल्पिक चिकित्सा

पशु रोगों में होम्योपैथी- एक वैकल्पिक चिकित्सा

होम्योपैथी लंबे समय तक चलने वाला इलाज है लेकिन इससे पशुओं में बीमारी जड़ से खत्म हो जाती है। होम्योपैथी पशुओं पर भी उतना ही कारगर है जितना इंसानों पर.

आज के समय में भी कई लोग एलोपैथिक दवाओं को छोड़कर कई असाध्य बीमारियों के लिए होम्योपैथिक दवाओं का इस्तेमाल करते हैं। दुनियाभर में बीमारियों को ठीक करने के लिए लोगों की दूसरी च्वाइस होम्योपैथी होती है। इसमें कई तरीके से मरीज को ठीक करने की कोशिश की जाती है। होम्योपैथई दवा को आप खा सकते हैं, सूंघ सकते हैं और शरीर पर लगा भी सकते हैं। ऐसे में समय पर समय पर होम्योपैथी ट्रीटमेंट और उसकी दवाओं के असर को लेकर कई सवाल उठते आए है। होम्योपैथी की दवा बेहद कारगर है और इससे शरीर को कोई नुकसान नहीं होता है। हालांकि किसी गंभीर बीमारी के इलाज के लिए रोगी को केवल होम्योपैथ पर निर्भर नहीं रहना चाहिए वरना इसके नुकसान भी हो सकते हैं।

होम्योपैथी की खोज एक जर्मन चिकित्सक, डॉ. क्रिश्चन फ्रेडरिक सैमुएल हैनिमैन (1755-1843), द्वारा अठारहवीं सदी के अंत के दशकों में की गयी थी। यह “सम: समम् शमयति” या “समरूपता” दवा सिद्धांत पर आधारित एक चिकित्सीय प्रणाली है। यह दवाओं द्वारा रोगी का उपचार करने की एक ऐसी विधि है, जिसमें किसी स्वस्थ व्यक्ति में प्राकृतिक रोग का अनुरूपण करके समान लक्षण उत्पन्न किया जाता है, जिससे रोगग्रस्त व्यक्ति का उपचार किया जा सकता है। इस पद्धति में रोगियों का उपचार न केवल होलिस्टिक दृष्टिकोण के माध्यम से, बल्कि रोगी की व्यक्तिवादी विशेषताओं को समझ कर उपचार किया जाता है। “समरूपता” के सिद्धांत की इस अवधारणा को हिप्पोक्रेट्स और पेरासेलसस द्वारा भी प्रतिपादित किया गया था, लेकिन डॉ. हनिमैन ने इस तथ्य के बावजूद कि वह एक ऐसे युग में रहते थे, जहाँ आधुनिक प्रयोगशाला के तरीके लगभग अज्ञात थे, इसे वैज्ञानिक स्तर पर सिद्ध किया।

होम्योपैथिक दवाओं को पशुओं, पौधों, खनिज के अवशेष और अन्य प्राकृतिक पदार्थों से उर्जाकरण या अंत: शक्तिकरण नामक एक मानक विधि के माध्यम से तैयार किया जाता है, जिसमें दवाओं के अंत: नीर्हित उपचारात्मक शक्ति को अधिकतम बढ़ाने के लिए लगातार तनुकरण और ह्ल्लन शामिल किया जाता है। इस प्रकार “शक्तिकरण” के माध्यम से तैयार की गयी दवाईयां बीमारियों का मुकाबला करने के लिए पर्याप्त रूप में अपनी अंत: शक्ति क्षमता प्राप्त करती है, जबकि साथ ही साथ विषाक्तता के अभाव को भी सुनिश्चित किया जाता है। आमतौर पर दवाओं के रोगनाशक गुणों का पता लगाने के लिए औषधियों को किसी स्वस्थ मनुष्य में प्रमाणित किया जाता है। यह प्रणाली जीव में एक स्व-विनियमन शक्ति की मौजूदगी में विश्वास रखती है, जो किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य, रोग और इलाज के दौरान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। किसी भी बीमारी से उत्पन्न लक्षणों को शरीर की स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में माना जाता है और ये प्रति उपचार खोजने में सहायता करते हैं।   इसमें शरीर के प्रतिरक्षा-तंत्र को प्राकृतिक रूप से ठीक करने के लिए उत्तेजक करके उपचार किया जाता है। एक बीमार व्यक्ति के प्रति इस चिकित्सा में व्यक्तिपरक और होलिस्टिक दृष्टिकोण अपनाया जाता है। चिकित्सक, रोगी की शारीरिक और मानसिक स्तर पर सभी अपविन्यास को समझते हुए और लक्षणों के माध्यम से रोगी की वैचारिक छवि बना कर एक प्रतीक समग्रता लाता है और रोगी के लिए सबसे उचित दवा का चयन करता है।

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होम्योपैथिक दवाएं लागत प्रभावी, रुचिकर हैं, इनका कोई प्रतिकूल पार्श्व प्रभाव नहीं है और इनका आसानी से सेवन किया जा सकता है। कुछ मामलों में, बोझिल और महंगे नैदानिक ​​उपचार विधियों पर निर्भर रहे बिना रोगियों के लक्षणों के आधार पर दवाओं को निर्धारित किया जाता है। होम्योपैथी, मनोदैहिक विकारों, स्व-प्रतिरक्षित बीमारियों, बुढ़ापे और बाल चिकित्सा विकारों, गर्भावस्था के दौरान होने वाली बीमारियों, दुःसाध्य त्वचा रोगों, जीवन शैली से सम्बंधित विकारों और एलर्जी, आदि के उपचार में उपयोगी रही है। होम्योपैथी की, कैंसर, एचआईवी/ एड्स जैसे लाइलाज पुराने मिआदी रोग वाले मरीजों और रुमेटी गठिया आदि जैसी विकलांग बनाने वाली बिमारियों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने में एक सकारात्मक भूमिका भी है। इसकी लोकप्रियता दुनिया भर में तेजी से बढ़ रही है।

भारत में होम्योपैथी

होम्योपैथी, जो भारत में लगभग दो सौ साल पहले आरंभ की गयी थी, आज यह भारत की बहुलवादी स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारत सरकार ने होम्योपैथी और आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्धा और सोवा रिग्पा, जिसे सामूहिक रूप से ‘आयुष’ के नाम से जाना जाता है, जैसे अन्य पारंपरिक प्रणालियों के विकास एवं प्रगति के लिए निरंतर प्रयास किए हैं। सरकार के निरंतर प्रयासों के कारण, केन्द्र और सभी राज्यों में होम्योपैथी का एक संस्थागत ढांचा स्थापित हुआ है। गुणवत्ता वाले विश्वविद्यालय शिक्षा के लिए विनियामक तंत्र वाले 195 स्नातक-पूर्व और 43 स्नातकोत्तर होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेजों, 22 संस्थानों और इकाइयों वाली स्वायत्त अनुसंधान परिषद, 2,83,840 पंजीकृत होम्योपैथिक प्रैक्टीशनरों, 403 औषध विनिर्माण इकाईयों वाले औषध सुरक्षा विनियमों के रूप में एक अत्यधिक प्रशंसनीय अवसंरचना मौजूद है।

आयुष सेवाओं को, देश की स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदायगी प्रणाली में प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीयक स्वास्थ्य सुरक्षा के सभी स्तरों पर शामिल किया गया है। भारत सरकार के पास आयुष प्रणालियों को बढ़ावा देने और देश में स्वास्थ्य सुरक्षा के कार्यक्षेत्र वृद्धि के लिए अनेक कार्यक्रम और प्रस्ताव हैं। विनियम, यह सुनिश्चित करते हैं कि चिकित्सा सुरक्षा की गुणवत्ता बनाई जाये और चिकित्सा बहुलवाद रोगियों को अपनी पसंद का उपचार चुनने की अनुमति दें।

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पिछले दो दशकों से, शिक्षा, अनुसंधान और औषध विकास को उन्नत करने और स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदायगी में तीव्रता लाने के लिए की गयी पहलों के साथ सेवाओं की गुणवत्ता में वृद्धि करने पर निरंतर ध्यानकेंद्रित किया गया है, जिसके लिए केन्द्र सरकार द्वारा अनेक पहलें की गयी हैं, इन्हें http://ayush.gov.in/ पर देखा जा सकता है।

भारत में होम्योपैथी का इतिहास

भारत में होम्योपैथी उस समय आरम्भ की गयी थी, जब कुछ जर्मन मिशनरियों और चिकित्सकों ने स्थानीय निवासियों के बीच होम्योपैथिक दवाओं का वितरण करना आरम्भ किया था। तथापि, होम्योपैथी ने भारत में 1839 में उस समय अपनी जड़ पकड़ी, जब डॉ. जॉन मार्टिन होनिगबर्गर ने स्वर-तंत्रों के पक्षाघात के लिए महाराजा रणजीत सिंह का सफलतापूर्वक इलाज किया। डॉ. होनिगबर्गर कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) में बस गये और हैजा-चिकित्सक के रूप में लोकप्रिय हो गये। बाद में, डॉ. एम.एल. सिरकार, जो अपने समय के एक ख्यातिप्राप्त चिकित्सक थे, ने भी होम्योपैथी में प्रैक्टिस करना आरम्भ कर दिया। उन्होंने वर्ष 1868 में प्रथम होम्योपैथिक पत्रिका “कलकत्ता जर्नल ऑफ़ मेडिसिन” का संपादन किया। वर्ष 1881 में, डॉ. पी.सी मजूमदार और डॉ. डी.एन रॉय सहित अनेक प्रसिद्ध चिकित्सकों ने प्रथम होम्योपैथिक कॉलेज – ‘कलकत्ता होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज’ को स्थापित किया। डॉ. लाहिड़ी, डॉ. बी.के सरकार और अनेक अन्य चिकित्सकों ने एक व्यवसाय के रूप में होम्योपैथी स्थापित करने में व्यक्तिगत प्रयास किए। वे, केवल पश्चिम बंगाल में ही नहीं बल्कि पूरे देश में, होम्योपैथी की प्रगति के लिए अपने योगदान के लिए प्रसिद्द हैं।

पिछले कुछ वर्षों में, शौक़ीन होम्योपैथिक प्रैक्टीशनरों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है और उनमें से अधिकाँश ने होम्योपैथी को मान्यता प्रदान करने के लिए सरकार से अनुरोध किया है। वर्ष 1937 में निर्णायक मोड़ उस समय आया, जब केन्द्रीय विधान सभा ने यह संकल्प पारित किया कि “यह विधानसभा, परिषद में गवर्नर जनरल को यह सिफारिश करती है कि वह कृपया भारत के सरकारी अस्पतालों में होम्योपैथिक उपचार आरम्भ करें और भारत में होम्योपैथिक कॉलेजों को वही दर्जा और मान्यता दें, जो एलोपैथिक कॉलेजों के मामले में दी जाती है”। बाद में, वर्ष 1948 में, उसी विधानसभा ने होम्योपैथी के बारे में एक और संकल्प अंगीकार किया, जिसके पश्चात, होम्योपैथिक जांच समिति गठित की गयी। वर्ष 1949 में, इस जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें यह सिफारिश की गयी कि केन्द्रीय होम्योपैथिक परिषद गठित की जाये। वर्ष 1952 में एक होम्योपैथिक तदर्थ समिति (जिसे 1954 में ‘होम्योपैथिक सलाहकार समिति’ का नाम दिया गया) गठित की गयी, जिसके द्वारा सरकार को होम्योपैथी से सम्बंधित सभी मामलों अर्थात् होम्योपैथिक शिक्षा, होम्योपैथिक अनुसंधान, प्रैक्टिस के विनियमन, औषध-कोष, ग्रामीण चिकित्सा सहायता, औषधि-विनिर्माण, परिवार नियोजन, होम्योपैथिक कॉलेजों, औषधालयों, अस्पतालों को वित्तीय सहायता और अंतर्राष्ट्रीय होम्योपैथिक चिकित्सा संघ के साथ सहयोग पर सरकार को सलाह देनी थी। वर्ष 1973 में, संसद ने देश में होम्योपैथिक शिक्षा और प्रैक्टिस को विनियमित करने के लिए होम्योपैथी केन्द्रीय परिषद अधिनियम पारित किया।

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मौजूदा वैश्विक परिदृश्य

वर्तमान में होम्योपैथी को 80 से अधिक देशों में प्रयोग किया जाता है। इसे 42 देशों में अलग औषध-प्रणाली के रूप में कानूनी मान्यता प्राप्त है और 28 देशों में पूरक और वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में मान्यता दी गयी1। विश्व स्वास्थ संगठन (डब्ल्यूएचओ) होम्योपैथी को, पारंपरिक और पूरक औषधि के सबसे अधिक इस्तेमाल किये जाने वाली पद्धतियों में से एक पद्धति के रूप में मानता है2

चार में से तीन यूरोपीय होम्योपैथी के बारे में जानते हैं और इनमें से 29 प्रतिशत अपने स्वयं की स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए होम्योपैथी का इस्तेमाल करते हैं3 । अध्ययनों से यह पता लगा है कि यूरोपीय देशों में बच्चों के लिए होम्योपैथी को पारंपरिक और पूरक चिकित्सा के रूप में सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य साक्षात्कार सर्वेक्षण 2007 (पिछले 12 महीनों का), जिसमें उत्तरी अमेरिका के अनुमानित 3.9 मिलियन वयस्कों  और 9,10,000 बच्चों ने होम्योपैथी का इस्तेमाल किया।

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