पशुओं में मुँह व खुर रोग: लक्षण एवं उपचार

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पशुओं में मुँह व खुर रोग
पशुओं में मुँह व खुर रोग

पशुओं में मुँह व खुर रोग: लक्षण एवं उपचार

डॉ प्रिया सिंह, डॉ धर्मेंद्र कुमार, डॉ नीलम टांडिया ,डॉ शैलेश पटेल, डॉ सृति पांडे, डॉ भावना अहरवाल, डॉ शिल्पा गजभिये ,डॉ आदित्य अग्रवाल, डॉ अंकुश किरन निरंजन  

मुँह व खुर रोग खुरों वाले पशुओं यनि गाए, भैस, बकरी, भेड़, सूयरों में होने वाला अत्यधिक संक्रामक रोग है।  यह रोग एक अत्यंत सुशम्य विषाणु से होता है। इस विषाणु के सात मुख्य प्रकार व कई उप-प्रकार होते है: 0 भारत में इस रोग के केवल तीन प्रकार के विषाणु पाए जाते है ।

रोग से नुकसान-

इस बीमारी से अपने देश में प्रतिवर्ष लगभग 20  से 30 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है। दुधारों पशुओं में दूध का उत्पादन कम हो जाता है। बैलों में काम करने की ताकत भी कम हो जाती है। प्रजनन ताकत भी काम हो जाती है। पशु धन व्यापार में भी इसका बहुत अंतर पड़ता है। छोटे पशुओं में मृत्यु भी कभी कभी हो जाती है। इस बीमारी से ग्रसित भेड़, बकरी, सूअर में दुर्बलता, उन एवं मीट के  उत्पादन में भी कमी हो जाती है।

बीमारी के लक्षण –

इस बीमारी में रोगी बुखार एवं सुस्त पड़ जाता है। मुँह से झाग और अत्यधिक मात्रा में लार टपकती है। ओठ, मसूड़े एवं जीभ पर छाले पड़ जाते है जो के बाद में फट कर घाव बना लेते है। मुँह खोलते एवं बंद करते समय चप-चप आवाज आती रहती है। पशुओं में खुरो के बीच घाव हो जाता है जिससे पैरों में लगड़ापन आता है। मुँह में घाव होने की वजह से भोजन लेने में दिक्कत और जुगाली भी बंद कर देते है। कभी कभी थानों में भी छाले आ जाते है। छोटे पशुओं में बुखार आने  के बाद बिना किसी लक्षण के मृत्यु हो जाती है। परंतु बड़े पशुओं में मृत्यु दर बहुत काम है।

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रोग का निदान-

  1. रोगी पशुओं के लक्षण के द्वारा
  2. ELISA
  3. टीकाकरण पक्षयात पशुओं में इस विषाणु के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का प्रयोगशाला में संवेदनशील तकनीक द्वारा पता लगाया जाता है।

रोग का उपचार-

बुखार की अवस्था में उपचार के लिए पशु चिकित्सक से परामर्श लेना चाहिए –

  1. मुँह में घाव को धोने के लिए-

बोरिक पाउडर ( 15 से 20 ग्राम प्रति लीटर पानी में) , पटैसीअम पेरमेंगनत (1 ग्राम प्रति लीटर पानी में) एवं फिटकरी (5 ग्राम प्रति लीटर) से सबसे पहले मुँह में हो जाने वाले घाव को धोना चाहिए।

  1. पैरों के घावों को फेनायल-

40 ml प्रति लीटर पानी में घोलकर पैरों को अच्छी तरह से साफ करना चाहिए। ऐन्टिसेप्टिक क्रीम

लगानी चाहिए। पशुचिकित्सक के परामर्श पर दर्द निवारण दवाई लेने चाहिए।

बचाव एवं रोकथाम-

  1. पशुपालकों को अपने सभी पशुओ (चार महीने से ऊपर) को टीका लगवाना चाइए। प्राथमिक टीकाकरण के चार सप्ताह के बाद पशु को बूस्टर खुराक देना चाइए और हर 6 महीने में नियमित टीकाकरण करवाना चाइए। टीकाकरण के दौरान हर जानवर को नई सुई का इस्तेमाल करना चाइए।
  2. नए पशओ को 14 दिन तक अलग अलग रखना चाइएं एवं अलग से भोजन पानी की व्यवस्था करना चाइए।
  3. नए पशुओ को झुंड में लाने से पहले उसके खून की जांच जरूर करवाना चाइए।
  4. संक्रमित पशुओ को झुंड से अलग रखना चाइएन।
  5. रोगी पशु के पेसाब, बचे हुए चारे, पानी व रहने के स्थान को असंक्रमित करे।
  6. आवारा पशुओ को घरेलू पशुओ व गाव से दूर रखे।
  7. पशुओ को पूर्ण आहार देना चाइए जिससे खनिज एवं विटामिन की मात्रा पूर्ण रूप से मिलनी चाइए।
  8. अगर कोई गाँव में पशु इस बीमारी से ग्रसित हो तो पशुयों को सामूहिक चराई से बचाना चाइए।

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