पशुओं में थेलेरियोसिस रोग

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THEILERIOSIS IN CATTLE
THEILERIOSIS IN CATTLE

पशुओं में थेलेरियोसिस रोग

परिचय:

यह गंभीर बीमारी परजीवी जनित रोग है जिसमें तेज बुखार एवं लसिका गन्थि में सुजन प्रमुख होते हैं। कम उम्र के बछड़ें इस रोग के प्रति अत्याधिक संवेदनषील होते है साथ ही साथ यह रोग संकर नस्ल के पशु में ज्यादा प्रभावकारी है। इस रोग का प्रकोप वर्षा एवं ग्रीष्म ऋतुओं में अधिक होता है, क्योंकि इस मौसम में रोग संचरण करने वाली किलनियों (चमोकन) की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है।

रोग का कारण:

यह रोग गाय-भैंस में ’’थेलेरिया एनूलाटा’’ नामक रक्त परजीवीयों के कारण होता है और बकरी, घोड़ा इत्यादि में भी थेलेरिया के अन्य प्रजाति से संक्रमण होता है। संक्रमित पशु के लाल रक्त कोशिकाओं में पाये जाते हैं। यह मुख्यतः गोल व अॅंडाकार (अॅंगूठी) के आकार का होता है।

रोग का प्रासर –

  1. इस रोग का फैलाव गाय, भैंस, बकरी, घोड़ा इत्यादि में खून चूसने वाले किलनी (चमोकन या अढैल) के द्वारा होता है।
  2. जब यह किलनी थेलेरिया परजीवी से ग्रसित पशु से खून चूसती है, तब इस रोग का परजीवी किलनी मे पहूँच जाता है और फिर इस संक्रमित किलनी की अवस्थाओं (लार्वा, निम्फ आदि) द्वारा स्वस्थ पशु के खून चूसने के समय यह थेलेरिया परजीवी उस पशु के खून में पहूँच जाता है जो पशुओं में थेलेरियोसिस रोग का कारण बनता है।

 रोग का लक्षण –

  1. इस रोग से प्रभावित पशु में लगातार बहुत ज्यादा बुखार रहता है तथा कंधा के बगल वाले लसिका ग्रंथि (लिम्फ नोड) में सुजन हो जाता है जो स्पष्ट रूप से बढ़े हुए आकार में नजर आता है।
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  1. इसके अलावे रोगग्रस्त पशु के शरीर में खून में कमी हो जाना, अत्याधिक कमजोर हो जाना, पशु इच्छा के साथ आहार नहीं खाना, दुधारू पशु के दुध उत्पादन में बेहद कमी हो जाना तथा कभी-कभी संक्रमित पशु को खूनी दस्त होना इत्यादि लक्षण थेलेरियोसिस रोग में दिखाई पड़ते है।
  2. यदि इलाज में देर की गई तो बीमार पशु की मृत्यु हो जाती है।
  3. विदेषी नस्ल के पशुओं में इस रोग की तीव्रता देषी नस्ल के पशुओं की तुलना में ज्यादा होती है।

रोग का पहचान –

  1. इस रोग का पहचान इसके प्रमुख लक्षणों (कॅंधा के बगल वाले लसिका ग्रंथि में सुजन) के आधार पर किया जा सकता है।
  2. रोग-ग्रस्त पशु के रक्त एवं प्रभावित लसिका ग्रंथि का आलेप बनाकर जिम्सा या लीषमैन से रंगकर सूक्ष्मदर्षी की सहायता से देखने पर क्रमश: लाल रक्त कोशिकाओं मे मुख्यतः गोल व अॅंडाकार (अॅंगूठी) के आकार की पाइरोप्लाज्म अवस्था तथा लिमफोसाइट में कोज्स ब्लू बॉडीज की उपस्थिति से रोग की पुष्टि की जाती है।
  3. इसके अलावे इनडाइरेक्ट फ्लोरोसेंट एंटिबॉडीज परीक्षण, इलिसा, पी.सी. आर. आदि परीक्षणों के द्वारा भी इस रोग की पुष्टि की जाती है।

रोग का उपचार –

  1. थेलेरियोसिस रोग के इलाज हेतु बुपारवाकियोन (बुटालेक्स) औषधि 1 मी.ली./20 के.जी. शरीर भार के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिए।
  2. बुपारवाकियोन औषधि उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में आक्सीटेट्रासाइक्लिीन एवं डाइमीनाजीन एसीचुरेट औषधियों का मिश्रित प्रयोग 2-3 दिनों तक उपयोग करना चाहिए।
  3. कभी-कभी इस रोग से ग्रसित पशु के खून में हीमोग्लोबिन की मात्रा बहुत कम हो जाती है ऐसी परिस्थिती में मुख्य औषधि के साथ-साथ किसी स्वस्थ पशु का खून चढ़ाना, रोगग्रसित पशु के लिए जीवन रक्षक का कार्य करता है।
  4. खून बढ़ाने के लिए हिमेटिनिक औषधि का प्रयोग करना चाहिए।
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रोग से बचाव –

  1. चमोकन या किलनी से पशुओं को बचाकर इस रोग के प्रसार पर नियंत्रण किया जा सकता है।

2. वैक्सीन (रक्षा-T वैक्सीन) का उपयोग करना चाहिए।

Dr. Pankaj Kumar
Associate Professor cum Senior Scientist,
Department of Veterinary Parasitology, BVC, BASU, Patna-800014

पशुओं में थिलेरिया (Theileria) रोग

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