भारतीय डेयरी पशुओं की कम उत्पादकता : चुनौतियाँ और शमन रणनीतियाँ

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भारतीय डेयरी पशुओं की कम उत्पादकता : चुनौतियाँ और शमन रणनीतियाँ
रश्मि, पुष्पा गौतम एवं अमित सिंह

उत्तर प्रदेश प. दीन दयाल उपाध्याय पशु चिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय एवं गो-अनुसंधान संस्थान (डुवासु), मथुरा

भारत दुनिया का सबसे बड़ा कच्चा दूध उत्पादक हो सकता है, लेकिन डेयरी क्षेत्र में पूअर ऑनफार्म एफिशिएंसी (च्ववत वद.ंितउ मििपबपमदबलद्ध और कम उत्पादकता है। भारत में कुल गायों और भैंसों की जनसंख्या 2019 के दौरान 192 मिलियन और 109.85 मिलियन क्रमानुसार हैं। जो की पूरे विश्व की 15 प्रतिशत और 57 प्रतिशत हैं। मवेशियों और भैंसों की आबादी में भारत पहले स्थान पर हैं। देश में विदेशी नस्ल और स्वदेशी मवेशियों की आबादी क्रमशः 50.42 मिलियन और 142.11 मिलियन है। लेकिन हम उत्पादन के हिसाब से दुनिया से काफी पीछे है। इसका मुख्य कारण है कि देश की लगभग 80 प्रतिशत गाय गैर नस्लीय या देशी है जिसको किसी विशेष नस्ल की श्रेणी में नहीं रखा गया है ऐसे पशुओ से काफी कम दूध प्राप्त होता है। इसके बावजूद हमारे देश के अच्छे डेयरी फार्मो पर भी एक गाय से 1500 ली0/प्रति ब्याॅत दूध प्राप्त हो पाता है जबकि अमेरिका या डेनमार्क जैसे देशो में गायों का औसत 5000 से 6000 ली0 दूध प्रति ब्याॅत का है। अच्छे से अच्छा प्रबंध एवं पोषण देकर भी हम प्रत्येक पशु का दूध उत्पादन एक सीमा तक ही बढ़ा सकते हैं। शरीर में प्रत्येक गुण को प्रदर्शित करने तथा उनके प्रदर्शन के निर्देशन के लिए कुछ मौलिक रासायनिक ईकाइयाँ होती है जिनको जीन कहते है जो कि गुणसूत्र में पाये जाते है। ये जीन कई भाँति अपने प्रभाव प्रकट करते है यह प्रमाण कम अंश में भी हो सकता है और अधिक अंश में भी दूध का उत्पादन कई जीन के एक साथ संयोग से होता है। यदि कम अंश में दूध पैदा करने वाली जीन किसी गाय अथवा भैंस में अधिक हो तो वह गाय कम दूध देने वाली होगी। इस प्रकार कम और अधिक अंश में दूध देने वाली जीनो के अनुपात के ऊपर ही दूध उत्पादन क्षमता निर्भर करती है। कम उत्पादन का दूसरा कारण यह भी हैं की भारत का डेयरी उद्योग काफी हद तक पारंपरिक, स्थानीय और अनौपचारिक है। दूध उत्पादन में छोटे किसानों का दबदबा है। लगभग 80 प्रतिशत कच्चा दूध केवल दो से पांच गाय और भैंस वाले खेतों से आता है। लगभग 78 प्रतिशत दूध उत्पादक सीमांत और छोटे किसान हैं और वे कुल दूध उत्पादन में लगभग 68 प्रतिशत का योगदान करते हैं।

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इन कारणों के अलावा, भारत में डेयरी पशु के कम उत्पादन के कई अन्य कारण भी हैं
प्रजनन प्रथाएँ
पोषण
स्वास्थ्य देखभाल
प्रबंधन के तरीके
पानी की कमी
बुनियादी ढांचा और प्रौद्योगिकी
आर्थिक कारक
डेयरी पशुओं का कम उत्पादन डेयरी किसानों के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियाँ पैदा कर करता है, जिससे उनकी लाभप्रदता और स्थिरता प्रभावित होती है। प्रजनन प्रथाओं से संबंधित कई कारक डेयरी पशुओं में कम उत्पादन में योगदान कर सकते हैं, और उत्पादकता में सुधार के लिए इन चुनौतियों का समाधान करना महत्वपूर्ण है। यहाँ प्रजनन प्रथाओं से संबंधित कुछ सामान्य चुनौतियाँ हैं।
आनुवंशिक क्षमता-कुछ नस्लों में स्वाभाविक रूप से दूसरों की तुलना में कम दूध उत्पादन क्षमता होती है। जर्सी और ग्वेर्नसे जैसी नस्लें आमतौर पर होलस्टीन की तुलना में कम दूध का उत्पादन करती हैं, जो अपनी उच्च दूध उपज के लिए जानी जाती हैं।

दक्षता- कुछ नस्लें अन्य नस्लों की तरह चारे को दूध में उतनी कुशलता से परिवर्तित नहीं कर पाती हैं। यह चयापचय दक्षता या पाचन तंत्र में अंतर के कारण हो सकता है।

अनुकूलनशीलता- विशिष्ट जलवायु या वातावरण के लिए अनुकूलित नस्लें विभिन्न परिस्थितियों में सर्वोत्तम प्रदर्शन करने के लिए संघर्ष कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, ठंडी जलवायु की नस्लों की गर्म क्षेत्रों में उत्पादकता कम हो सकती है।

स्वास्थ्य मुद्दे- कुछ नस्लें स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त हो सकती हैं जो उत्पादकता को प्रभावित करती हैं, जैसे थनैला या चयापचय संबंधी विकार। ये स्वास्थ्य समस्याएं दूध उत्पादन और गुणवत्ता को कम कर सकती हैं।

प्रजनन प्रथाएँ -अनुचित प्रजनन पद्धतियाँ या किसी नस्ल के भीतर उत्पादकता गुणों के चयन की कमी के कारण पीढ़ी दर पीढ़ी उत्पादकता में स्थिरता या गिरावट आ सकती है।

पोषण संबंधी आवश्यकताएँ – इष्टतम दूध उत्पादन के लिए विभिन्न नस्लों की पोषण संबंधी आवश्यकताएँ अलग-अलग हो सकती हैं। आनुवंशिक क्षमता की परवाह किए बिना अपर्याप्त पोषण दूध उत्पादन को सीमित कर सकता है।

प्रबंधन के तरीके -नस्लों को पनपने के लिए अलग-अलग प्रबंधन प्रथाओं की आवश्यकता हो सकती है उचित प्रबंधन प्रथाओं को लागू करने में विफलता, जैसे आवास, दूध देने की दिनचर्या, और स्वास्थ्य देखभाल, उत्पादकता में बाधा डाल सकती है।
अधिक दुग्ध उत्पादन के लिए निम्न लिखित गुणों को ध्यान में रखना आवश्यक है।
1. एक ब्यांॅत का दुग्ध उत्पादन एवं दुग्ध काल – ब्याॅत के बाद पशु जितने समय तक दूध देता है वह उसका दुग्ध काल होता है। मोटे तौर पर एक ब्याॅत में 300 दिन दूध उत्पादन होता है। खराब नस्ल के पशु जल्दी दुग्ध उत्पादन समाप्त कर देते है ं अथवा इसको कम कर देते है।
2. शुष्क काल- एक ब्याॅत से दूसरे ब्याॅत के मध्य जिस अवधि में पशु दुग्ध उत्पादन नहीं करता है उसे शुष्क काल कहते है। शुष्क काल जितना कम होगा पशु अपने जीवन काल में उतने ही अधिक बछड़े या बछिया उत्पन्न करेगा और उससे अधिक दूध भी प्राप्त होगा। इसके लिए जरूरी है कि पशु के ब्याॅत के 60-90 दिन बाद उसे पुनः गर्भित करा दंे क्योकि पशु शुष्क काल में आहार तो लेता है लेकिन उससे हमें उत्पादन नहीं प्राप्त होता है और आर्थिक रूप से हमारा नुकसान होता है।
3. प्रथम ब्याॅत पर आयु कम होने से हमें कम चारा दाना खिलाकर शीघ्र दूध मिलना शुरू हो जाता है और अपने जीवन काल में ऐसे मादा पशु से अधिक दूध प्राप्त होता है। देशी जानवरों में यह 4-5 वर्ष होता है। जबकि संकर बछिया में यह अवधि 3-3.5 वर्ष की होती है।
4. ब्याॅत अतंराल- दो ब्यातों के बीच का समय अन्तराल का कम होना लाभप्रभ है उसके लिए हमें शुष्क काल को कम करना होता है। पशुपालन में प्रत्येक 12-14 माह से अन्तराल पर यदि एक बछड़ा या बछिया प्राप्त हो तो वह सर्वोत्तम है।
5. सम्बर्धन क्षमता- अच्छी सम्बर्धन क्षमता वाले पशु में निम्नलिखित बातें होना जरूरी है- समयनुसार गर्मी में आना, एक और दो बार में गर्भाधान से ही गर्भ ठहरना, गर्भ काल पूर्णकर समय से स्वस्थ सन्तान का जन्म देना, व्याने के बाद जेरी समय से गिराना, गर्भाशय एवं थन मे किसी बीमारी का न होना, कम से कम 300 दिन तक दूध देना।
अब प्रश्न यह है कि प्रजनन की कौन सी विधियाँ अपनाई जाय कि, हम उक्त गुणों में आशातीत एवं स्थायी सुधार कर सके। दुधारू पशुओ में हम प्रजनन की मुख्य तीन विधियाँ अपनाते है
1. चयनधर्मी प्रजनन
2. क्रमोन्नति प्रजनन
3. संकर प्रजनन
1. चयनधर्मी प्रजनन: इसमें शुद्व नस्लीय उत्तम साॅड़ का प्रयोग उसी नस्ल की ऐसे गायों/भैसों पर किया जाता है जो किसी प्रकार साॅड़ के परिवार से सम्बन्धित न हो इस विधि में एक नस्ल के शुद्व पशुआंे में उत्तम नर एवं मादा का चयन कर प्रजनन कराया जाता है। साॅड़ का चयन अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि एक साॅड़ अपने जीवनकाल में अनेकानेक संतान उत्पन्न करने की क्षमता रखता है जबकि गाय या भैस अपने जीवनकाल में काफी कम सन्तान पैदा कर सकती हंै । इस विधि से दूध उत्पादन धीरे-धीरे बढ़ता है इससे उत्पन्न सन्तानें हमारे भौगोलिक वातावरण में अधिक आराम से रह सकती हें
2. क्रमोन्नति विधि: जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि हमारे देश में लगभग 80 प्रतिशत गायें किसी विशेष नस्ल की न होकर गैर नस्लीय या देशी नाम से जानी जाती हें इसके लिए आवश्यक है कि इन्हे किसी विशेष नस्ल का रूप दिया जाय। क्रमोन्नति प्रजनन में हम किसी विशेष शुद्ध नस्ल के साॅड़ से गैर नस्लीय/देशी गाय को गर्भित कराते है। इस गर्भाधान से उत्पन्न बछिया को पुनः उसी नस्ल के साॅड़ से गर्भित कराते है। ऐसा पीढ़ी दर पीढ़ी करने से पाॅच से सात पीढ़ी में देशी गाय एक विशेष नस्ल कर रूप ले लेती है। इस विधि से धीरे-धीरे देशी गाय/भैस का दुग्ध उत्पादन बढ़ता जाता है और विशेष नस्ल के गुण भी बढ़ते जाते है। इस प्रजनन से देश की देशी गाय व भैसों की संख्या मे कमी आती जायगी। यह विधि देश में मौजूद देशी गाय और भैसों के लिए काफी उपयुक्त है।
3. संकर प्रजनन: किन्ही दो विशेष नस्लों के नर व मादा के प्रजनन को संकर प्रजनन कहते है। इस विधि से उत्पन्न संतति में दो या दो से अधिक नस्लों का समिश्रण होता है। विशेष रूप से जब गायों को विदेशी नस्ल जैसे जर्सी, फ्रीजियन, ब्राउन स्वीस साॅड़ो के वीर्य से गर्भित कराते है, तब तेजी से दुध देने की क्षमता हमारी अपनी नस्लों के मुकाबले कई गुना होती है। उदाहरण के रूप में यदि एक हरियाणा गाय अपने एक ब्यात में 1000 ली0 दूध दे रही और उसे फ्रीजियन या जर्सी के ऐसे साॅड़ से गर्भित कराए जिसकी क्षमता औसतन 4000 ली0 दूध पैदा करने वाली गाय उत्पन्न करने की हो, तब उसे उत्पन्न मादा सन्तान लगभग 1000- 4000 ली0 अर्थात 2500 ली0 दूध देने की क्षमता होगी क्योंकि सन्तान में नर एवं मादा पशु दोनों के बराबर गुण होते है। इस विधि से दूध उत्पादन तेजी से बढ़ाया जा सकता है।

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