पठोरियों (ग्रोवर)का पालन एवं प्रवन्ध व्यबस्था
आठ से बीस सप्ताह वाली मुर्गियों को पठोरी माना जाता है। ध्यान रहे आज की पठोरियाँ आने वाले कल की लेयर होती हैं। प्रायः देखा जाता है कि मुर्गीपालक पठोरियों के पालन-पोेषण के प्रति थोड़ा लापरवाह रहता है जिसकी कीमत उसे निम्नलिखित प्रकार से चुकानी पड़ती है:-
1. सभी पठोरियों की बढ़वार एक समान नहीं हो पाती।
2. अंडा उत्पादन देर या समय से पहले शुरू हो जाता है या कम होता है।
3. आहार की ऊर्जा में परिवर्तन की क्षमता कम होती है।
4. दवाइयों या अतिरिक्त विटामिनों का खर्च बढ़ जाता है।
5. पठोरियों एवं मुर्गियों में छँटनी की मात्रा बढ़ जाती है।
उपरोक्त कारणों से मुर्गीपालक का उत्पादन व्यय काफी बढ़ जाता है और उसे मुर्गियों से पूरा-पूरा लाभ नहीं मिल पाता। अतः पठोरियों के सर्बोत्तम पालन-पोेषण एवं वृद्धि के लिए निम्नलिखित प्रबंध व्यवस्था सम्बन्धी दिशा निर्देश अवश्य अपनायें:-
1. आवश्यकतानुसार संतुलित आहार खिलाएँ। हैचरी तथा आहार बनाने वाली कम्पनी के दिशा निर्देशों के अनुसार उनकी खाने की मात्रा एवं वृद्धि दर अवश्य नापते रहें। किसी भी हालत में पठोरियों का कमज़ोर या अधिक मोटा होना हमेशा हानिप्रद होगा।
2. यदि कोई नर बच्चा दिखाई देता है तो उसे तुरन्त छाँट कर बाज़ार में माँस हेतु बेच देना चाहिए।
3. कम बढ़ती हुई अस्वस्थ तथा अनचाही पठोरियों को शीघ्र अति शीघ्र अन्य मुर्गियों से अलग कर दें। उन्हें अलग से अतिरिक्त आहार देकर पालें ताकि वे भी अन्य पठोरियों के समान ही बढ़वार ले सकें।
4. पठोरियों को निर्धारित मात्रा में रहने का स्थान देना अत्यन्त आवश्यक है। कम जगह में अधिक पक्षी कभी न रखें।
5. चार से छः सप्ताह की उम्र में उनकी चोंच अवश्य काटें जिससे उनमें एक दूसरे को नोचने की आदत न हो सके।
6. यदि प्रतिबन्धित पोषण कार्यक्रम अपनाया हो तो किसी विशेषज्ञ कि सलाह लेकर निम्नलिखित ढंग से चला सकते हैं।
क) छः सप्ताह की आयु में उन्हें एक दिन छोड़ कर एक दिन आहार दें।
ख) दाना खाने का स्थान पूर्ण रूप से दें, जिससे सभी पक्षी एक साथ दाना खा सकें।
ग) प्रतिबन्धित पोषण कार्यक्रम पर पाली जा रही पठोरियों को दाना निश्चित किये गए समयानुसार देना अत्यन्त आवश्यक है।
घ) पक्षियों में बीमारी की अवस्था में प्रतिबन्धित पोषण कार्यक्रम नहीं चलाना चाहिए। 7. 100 पक्षियों को लगभग आधा किलोग्राम पत्थर प्रति सप्ताह खिलाना चाहिए।
8. दाने की बचत करने एवं उसे खराब होने से बचाने के लिए दाने के बर्तन आधे से अधिक न भरें। दाने एवं पानी के बर्तनों की ऊँचाई पक्षी की सुविधानुसार करते रहना चाहिए अन्यथा पठोरियों की आहार परिवर्तन क्षमता पर विपरीत असर पड़ेगा।
9. इस आयु में कृत्रिम रोशनी नहीं देनी चाहिए। केवल सूर्य का प्रकाश ही काफी रहता है, लेकिन सप्ताह उपरान्त उन्हें आधा घंटा प्रति सप्ताह के हिसाब से रोशनी देनी शुरू कर दें। 10. पठोरियों के आवास को टपकने से अवश्य बचायें।
11. बिछावन कहीं से गीला न होने दें अन्यथा उन्हें खूनी दस्तों की तथा अन्य बीमारियाँ लग सकती हैं जिससे अत्याधिक मृत्यु दर हो सकती है। नमी वाला बिछावन तुरंत निकाल दें एवं उसके स्थान पर नया बिछावन दें।
12. बिछावन को सूखा रखने के लिए सप्ताह में कम-से-कम दो तीन बार उसकी खुदाई एवं मिलाई अवश्य करें। धीरे-धीरे गर्मी-सर्दी की आवश्यकता अनुसार बिछावन की ऊँचाई दो इंच से बढ़ा कर 5-6 इंच तक की जा सकती है।
13. पठोरियों को कृमि रहित रखने के लिए उन्हें कृमिनाशक दवाई देना अच्छा होता है। यदि कुक्कुट पालक अपनी मुर्गियों की बींट की जाँच किसी कुक्कुट रोग शोध प्रयोगशाला में कराने के उपरान्त उन्हें कृमिनाशक, विशेषज्ञ की सलाहनुसार पिलाएँ।
14. पठोरियों की चोंच काटने का कार्य 16 से 20 सप्ताह तक की आयु में अवश्य कर दें। जिससे उनमें आपस में चोंच मारने एवं अंडे तोड़ने की आदत न पड़ने पाए।
15. पठोरियों की सर्बोत्तम बढ़वार एवं आहार परिवर्तन क्षमता अधिक से अधिक प्राप्त करने के लिए उन्हें उचित तापमान दें। इसके लिए उन्हें अधिक गर्मी व सर्दी से अवश्य बचायें। प्रयत्न करें कि उनके आवास स्थान का तापमान 500 से 70 डिग्री सेंटीग्रेड रहे।
16. पठोरियों की आहार खपत और वृद्धि, मृत्यु दर तथा उन्हें दी गई दवाइयों व वैक्सीन का लेखा-जोखा अवश्य बनायें एवं समय-समय पर सावधानीपूर्वक उसका अवलोकन अवश्य करते रहें।
17. किसी भी पठोरी की मृत्यु होने पर उसकी अपनी नजदीकी एवं विश्वसनीय कुक्कुट रोगशोध प्रयोगशाला में पोस्टमार्टम द्वारा शीघ्र जाँच करायें एवं उसकी मृत्यु का कारण जानकर विशेषज्ञ के निर्देशानुसार उपचार अवश्य करें। कभी कभार हुई एक या दो पठोरियों की मृत्यु को सहज ही न ले