पशुओं में पीपीआर रोग: लक्षण, निदान एवं उपचार

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**पशुओं में पीपीआर रोग: लक्षण, निदान एवं उपचार**

पीपीआर जुगाली करने वाले पशुओं में पाए जाने वाला रोग है। इसे गोट प्लेग, जुगाली करने वाले छोटे पशुओं का प्लेग इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। यह एक विषाणुजनित रोग है जो की पी पी आर वायरस द्वारा होता है। संक्रमण होने के दो से सात दिन में इसके लक्षण दिखाई देने लगते हैं। ‘मोरबिल्ली’ नामक विषाणु का संबंध पैरामिक्सोविरिडी परिवार से है। इसी परिवार में मानव जाती में खसरा रोग पैदा करने वाला विषाणु भी पाया जाता है। पीपीआर विषाणु 60 डिग्री सेल्सियस पर एक घंटे रखने पर भी जीवित रहता है परंतु अल्कोहॉल, ईथर एवं साधारण डिटर्जेंट्स के प्रयोग से इस विषाणु को आसानी से नष्ट किया जा सकता है।
पीपीआर को निम्न परिस्थितियों के होने से जोड़कर भी देखा जाता है-
(1) हाल में विभिन्न आयु की बकरियों और भेड़ों का स्थानांतरण अथवा जमाव
(2) बकरियों के बाड़े अथवा चारे में अकस्मात बदलाव
(3) समूह में नए खरीदे गए पशुओं को सम्मिलित करना
(4) मौसम में बदलाव
(5) पशुपालन एवं आयात-निर्यात की नीतियों में बदलाव

लक्षण:
रोग के घातक रूप में प्रारम्भ में उच्च ज्वर (40 से 42 डिग्री सेल्सियस) बहुत ही आम है।
दो से तीन दिन के पश्चात मुख और मुखीय श्लेष्मा झिल्ली में छाले और प्लाक उत्पन्न होने लगते हैं।
इसमें आँख एवं नाक से पानी आना, दस्त, श्वेत कोशिकाओं की अल्पता, श्वास लेने में कष्ट इत्यादि लक्षण दिखाई देते हैं।
नाक व मुख से आने वाले लसलसे से पदार्थ में पस आने लगती है जिससे बदबूदार दुर्गन्ध आती है।
तत्पश्चात आँखों का चिपचिपा या पीपदार स्राव सूखने पर आँखों और नाक को एक परत से ढक लेता है जिससे बकरियों को आँख खोलने और साँस लेने में तकलीफ होती है।
मुँह में सूजन और अल्सर बन सकता हैं और चारा ग्रहण करना मुस्किल हो जाता हैं।
प्रेग्नेंट पशुओं का गर्भापात हो जाता है।
ज्वर आने के तीन से चार दिन के पश्चात बकरियों में अतितीव्र श्लेष्मा युक्त अथवा खूनी दस्त होने लगते हैं।
द्वितीयक जीवाणुयीय निमोनिया के कारण बकरियों में साँस फूलना व खाँसना आम बात है।
संक्रमण के एक सप्ताह के भीतर ही बीमार बकरी की मृत्यु हो जाती है।

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रोग फैलने के कारण:
पशुओं के अत्यधिक निकट संपर्क से ये रोग फैलता है। बकरियों में भेड़ों की अपेक्षा ये रोग जल्दी फैलता है। गौवंश में भी इस रोग का संक्रमण हो सकता है परन्तु ये गायों से अन्य पशुओं में संचारित नहीं हो पाता है।
इस रोग का विषाणु बहुत अधिक समय तक बाहरी वातावरण में जीवित नहीं रह पाता व अत्यधिक धूप एवं तापमान होने के कारण नष्ट हो जाता है।
तनाव, जैसे ढुलाई, गर्भावस्था, परजीविता, पूर्ववर्ती रोग (चेचक) इत्यादि, के कारण बकरियाँ पीपीआर रोग के लिए संवेदनशील हो जाती हैं।
बीमार बकरी की आँख, नाक, व मुँह के स्राव तथा मल में पीपीआर विषाणु पाया जाता है।
बीमार बकरी के खाँसने और छींकने से भी तेजी से रोग प्रसार संभव है।
मेमने, जिनकी आयु 4 महीनों से अधिक और 1 वर्ष से काम हो, पीपीआर रोग के लिये अतिसंवेदनशील होते हैं।

निदान एवं रोकथाम:
पीपीआर के लक्षण विभिन्न अन्य बिमारियों जैसे केप्रीपाॅक्स, ब्लू टंग, खुरपका मुहपका रोग, इत्यादि जैसे ही होते हैं। अतः उचित प्रयोगशाला जांच द्वारा इसकी पुष्टि की जाती है।
पी पी आर वायरस लिम्फोइड अंगों को क्षति पहुंचाता है, जिसकी वजह से रक्त में श्वेत रक्त कणिकाओं की कमी हो जाती हें
पी पी आर वायरस का मुख और नाक के स्त्रावों में उचित प्रयोगशाला की जांच से, बिमारी के लक्षण आने के पहले ही पता लगाया जा सकता है। अतः पी पी आर के लक्षण दिखने पर लार व नाक से निकलने वाले स्त्रावों को प्रयोगशाला में जांच के लिए भिजवाना चाहिए।
फेफड़ों के द्वितीयक जीवाणुयीय संक्रमण को रोकने के लिए ऑक्सिटेट्रासायक्लीन और क्लोरटेट्रासायक्लीन औषधियां विशिष्ट रूप से अनुशंसित है।
बीमार बकरियों को पोषक, स्वच्छ, मुलायम, नम और स्वादिष्ट चारा खिलाना चाहिए। पीपीआर से महामारी फैलने पर तुरंत ही नजदीकी सरकारी पशु-चिकित्सालय में सूचना देनी चाहिए।
मृत बकरियों को सम्पूर्ण रूप से जला कर नष्ट करना चाहिए। साथ ही साथ बाड़े और बर्तनों का शुद्धीकरण भी जरुरी हैI
पी.पी.आर टीके का उपयोग मुख्यतया उपोष्ण कटिबंधिीय जलवायु में होता हैं। अतः टीके को ठन्डे तापमान पर रखना चाहिए। यद्यपि ऐसा करना महंगा और असुविधाजनक होता हैं।
पी पी आर के विषाणु विरोधी दवा अभी तक उपलब्ध नहीं है। एंटीसेप्टिक मलहम और एंटीबायोटिक दवा से पशुओं में अतिरिक्त बैक्टीरियल संक्रमण को रोकने का प्रयास किया जाता है।
पीपीआर से बचाव का एकमात्र कारगर उपाय:

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बकरियों का टीकाकरण ही पीपीआर से बचाव का एकमात्र कारगर उपाय है।
पीपीआर का टीका चार महीने की उम्र में एक मि.ली. मात्रा में त्वचा के नीचे दिया जाता है। इससे बकरियों में तीन साल के लिए प्रतिरक्षा आ जाती है।
सभी नरों और तीन साल तक पाली हुयी बकरियों का दोबारा से टीकाकरण करना चाहिए।
पशुपालक को टीकाकरण के तीन हफ्तों तक बकरियों को तनाव मुक्त रखना जरुरी है।
वर्तमान में Homologous पीपीआर टिका का उपयोग किया जा रहा हैं।
टीकाकरण करने से पूर्व भेड़ बकरियों को कृमिनाशक दवा देना चाहिए।
यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण हैं की टीकाकरण की अवधि के काम से कम सप्ताह बाद भेड़ बकरी को परिवहन, ख़राब मौसम आदि जैसे तनाव प्रदान करने वाली परिस्थितियों से मुक्त रखा जाना चाहिए ।

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