पशुओं में नवजात म्रत्युदर : समस्या एवं बचाव

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अवनीश कुमार सिंह, जीतेन्द्र अग्रवाल, विकास सचान

मादा पशु प्रजनन रोग विभाग दुवासू, पशु चिकित्सा विश्वविद्यालय, मथुरा

कृषि को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ एवं पशुपालन को कृषि का पूरक माना जाता हैं। सम्पूर्ण विश्व में गाय तथा भैस की संख्या में भारत प्रथम स्थान पर हैं, परन्तु इससे अधिक लाभार्जन के लिए प्रति पशु प्रति वर्ष अच्छी नस्ल के एक बच्चे की प्राप्ति अत्यंत आवश्यक हैं। इस उद्देश्य मे नवजात बच्चे की मृत्यु की समस्या सबसे बड़ी बाधक है, जो कि गर्भवस्था से ही आरम्भ हो सकती है। नवजात बच्चे की मृत्यु के प्रमुख कारण गर्भावस्था के अंतिम दिनों मे मादा पशु का समुचित प्रबंधन न होना, कठिन प्रसव तथा प्रसवोपरांत नवजात बच्चे का उचित देखभाल न होना आदि हैं।

इस समस्या से निजात पाने में निम्नलिखित जानकारिया लाभकारी सिद्ध हो सकती है।
गर्भावस्था के अंतिम दिनों मे मादा पशु का प्रबंधन-

• एक गर्भित पशु को प्रतिदिन उचित मात्रा मे पेयजल, सूखे व हरे चारे के साथ लगभग 1.5-2 किग्रा. दाना, 50 ग्राम नमक तथा 50 ग्राम खनिज मिश्रण भी देना चाहिए।
• प्रसव से 2-3 सप्ताह पूर्व ही गर्भित पशु को अन्य पशुओं से अलग किसी साफ सुथरी, छायादार, फिसलनरहित, हवादार एवं समतल सतह वाले स्थान पर रखना शुरू कर दे, जिससे पशु प्रसव होने तक उस वातावरण मे रहने के लिए अनुकूलित हो जाए।
• प्रसव के नजदीक आने पर पशु को ज्यादा दूर तक व ऊँची नीची जगह पर चराने न ले जाये तथा यातायात से भी बचें।
• पशुसेवक के द्वारा पशु की अच्छी तरह से दिन व रात्रि के समय भी निगरानी रखी जाये।

कठिन प्रसव की समस्या एवं बचाव-

यदि मादा पशु अपना सामान्य गर्भकाल (गायों में 9 माह 9 दिन एवं भेंसों में 10 माह 10 दिन) पूर्ण होने के बाद सामान्य तरीके से बच्चा तथा जेर देने में अक्षम हो तो इसे कठिन प्रसव कहते हैं। यह नवजात बच्चे की मृत्यु का एक सबसे मुख्य कारण है। इसके बहुत सारे कारण हो सकते हैं, जैसे कि मादा पशु में प्रसव के लिए जिम्मेदार संकुचन बलों की कमी एवं जनन मार्ग का सकरा होना, प्रसव के दौरान बच्चेदानी के मुख का आंशिक व पूर्ण रुप से बंद रहना, बच्चे का बड़ा आकार, बच्चे की बनावट में विकृति या जन्म के समय बच्चे का सामान्य आसन में ना होना आदि प्रमुख हैं। सामान्यतः कठिन प्रसव की सम्भावना प्रथम बार बच्चा देने वाले पशुओं व नर बच्चे के जन्म में अधिक होती है। इस समस्या के निजात हेतु निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए, जैसे कि-

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• मादा पशु जब पूर्णतया व्यस्क हो जाये तब उसका गर्भाधान उसके शारीर के भार व नस्ल के अनुसार ही किसी उपयुक्त सांड से करवायें।
• खाने पीने के साथ अच्छे रहन सहन की व्यवस्था भी समय के अनुकूल करे।
• योनि द्वार से बच्चे को निकलते वक्त अनायाश बच्चे को ना खीचें अन्यथा कठिन प्रसव की सम्भावना और बढ़ जाती है।
• यह एक आपातकालीन स्थिति है इसीलिए किसी प्रकार की समस्या होने पर अथवा पहले से ही पशुचिकित्सक को बुला ले या उनसे सम्पर्क करते रहें।

प्रसव के समय प्रबंधन-

• पशु को ऐसी जगह पर रखे जहाँ पशु पहले से रहने के लिए अनुकूलित हो तथा आसपास ज्यादा चहल पहल न करें तथा अजनबी लोगो को पशु के पास न जाने दें।
• यदि प्रसव के समय पशु खड़ा हो तो बच्चे को सहारा दे जिससे वह सीधा जमीन पर ना गिरे साथ ही इस बात का ध्यान रखे कि बच्चा मादा पशु के पैरो आदि से भी चोटिल न हो।
प्रसवोपरांत नवजात बच्चे का प्रबंधन-
गर्भावस्था में भ्रूण प्लेसेंटा के द्वारा मादा पशु से आवश्यक चीजें जैसे कि भोजन व वायु (आक्सीजन) आदि लेता रहता है, परन्तु प्रसव के समय गर्भनाल के टूटते ही सारी चीजे मिलना बंद हो जाती हैं। इस दशा में यदि सही देखभाल न की जाये तो बच्चे की मृत्यु हो जाती हैं।

निम्नलिखित प्रबंधन इस मृत्यु दर को काफी हद तक रोकने में सहायक होगें –

• प्रसव क्रिया पूर्ण होते ही सबसे पहले बच्चे की “श्वसन क्रिया” का ध्यान रखना चाहिए, इसके लिए सर्वप्रथम साफ कपड़े व हाथ की उंगली की मदद से बच्चे की नाक व मुह को अन्दर तक साफ करें जिससे भरा हुआ तरल पदार्थ बाहर आ जाये । बच्चे की छाती को कसके रगड़े, परन्तु इस बात का ध्यान रखें कि उसकी पशालियाँ न टूट जाये। इसके बाद भी श्वसन क्रिया आरम्भ ना हो तो बच्चे के दोनों पिछले पैरों को पकड़ कर उल्टा लटकाकर हिलाए।
• प्रसव के बाद बच्चें के शरीर को किसी साफ कपड़े या बोरे से पोछ दें और मादा पशु को अपने बच्चें को चाटने दें। प्रसव के बाद बच्चे को “गर्म वातावरण” मे रखें जिससे उसके शरीर का तापमान सामान्य बना रहे। सर्दी व तेज हवा के समय बच्चे को किसी साफ बोरे या कम्बल से ढक दें परन्तु उसके नाक ओर मुह को पूर्णता खुला रखें जिससे श्वसन क्रिया मे कोई अवरोध न हो।
• प्रसव के बाद गर्भनाल को बच्चें के शरीर से 2 इंज दूरी से मजबूत साफ धागे से बांधकर नये रेजर या कैची से काट दें और स्प्रिट से साफ़ करके आयोडीन टिन्चर लगा दें।
• पशु के पिछले हिस्से व थनों को गुनगुने पानी से अच्छी तरह साफ करके किसी साफ कपड़े से पोछंे। प्रसव के 1-2 घंटे के अन्दर “खीस” (माँ का पहला गाढ़ा दूध) बच्चें के भार के 10 वें हिस्से के बराबर जरुर पिलायें और इसे अगले 3 दिनों तक पिलाते रहें क्योंकि खीस प्रोटीन, विटामिन व खनिज तत्वों आदि से भरपूर होता है। खीस पिलाने से बच्चे मे रोगप्रतिरोधक क्षमता अच्छी हो जाती है ओर बच्चे का विकास भी अच्छा होता है इसके अतिरिक्त यह “मिकोनियम” (बच्चे का प्रथम मल) को निकलने मे भी काफी मदद करता है। यदि बच्चा मिकोनियम निकालने मे सक्षम ना हो तो ग्लिसरीन को पानी मे घोल कर बच्चे कि गुदा मे डाले। कई बार बच्चे की गुदा या गुदा के भीतरी भाग बंद रह जाते हैं, जिससे मेकोनियम बाहर नहीं आता इस दशा में तुरन्त ही पशुचिकित्सक को दिखाए। इस समस्या का समाधान शल्य क्रिया के द्वारा सम्भव है।
• प्रसव के 4-15 दिनों तक बच्चे को केवल माँ का दूध दिन मे 3 बार जरुर पिलाये साथ ही इस बात का भी ध्यान रखें कि दूध कि मात्रा बच्चें के भार के 10 वें हिस्से (अधिकतम) से अधिक न हो।
• प्रसव के 15 दिन से बच्चे को माँ के दूध के साथ गुणवत्तापरक चारा देना शुरू कर दें, ऐसा कम से कम 3 माह तक करें साथ ही दूध की मात्रा को धीरे – धीरे कम करते रहें और चारे की मात्रा बढ़ाते रहें।
• बच्चे को प्रथम सप्ताह मे “कृमिनाशक दवा” की पहली खुराक को पशुचिकित्सक से सलाह लेकर पिलाये उसके बाद 6 माह तक 1 माह के अन्तराल पर कृमिनाशक दवा दवा पिलाते रहें।
• बच्चे का समय पर टीकाकरण करवाते रहें तथा अन्य किसी बीमारी या समस्या के होने पर तत्काल ही पशुचिकित्सक की सलाह लेकर इलाज करवाये।
उपरोक्त बताये गए समाधानों एवं पंजीकृत पशुचिकित्सक की मदद से पशुपालक कठिन प्रसव व नवजात (बछड़ा बछिया) की मृत्यु दर की समस्या से काफी हद तक निजात पाकर अधिक से अधिक लाभ पाया जा सकता है।

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