बकरी पालन – कोरोना काल खंड में भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने तथा बेरोजगारी को दूर करने का सबसे सशक्त माध्यम
बकरी पालन – कोरोना कालखंड के दौरान आय का उतम स्रोत
श्रीनिवास सिंह, सचिव पशुपालक संघ ,झारखंड
कोरोना वैश्विक महामारी के चलते पूरा विश्व त्रस्त है ,अपना देश भारत भी इससे अछूता नहीं है। विगत 6 महीने में कोरोना के चपेट में लाखों लोग बेरोजगार हो गए। लाखों लोगों की नौकरियां चली गई तथा कई लाख लोगों का बेरोजगार बंद हो गया। भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में यह सबसे बुरा दौर है जहां एक तरफ बेरोजगारी बढ़ रही है तो दूसरी तरफ महंगाई बढ़ रही है। कल कारखाने जो रोजगार सृजन करते थे सभी बंद पड़े हैं। हमने देखा है लाखों लोग जो हमारे प्रवासी मजदूर हैं अपने घरों को छोड़कर दूसरे राज्यों में मजदूरी करके अपना भरण-पोषण करते थे अब वे अपने घरों को रिटर्न हो गए हैं तथा उनकी नौकरियां भी चली गई है। सरकार को यह सबसे बड़ी चुनौती है इन सभी प्रवासी मजदूरों को उनके घर पर हैं रोजगार मुहैया कराया जाए। विभिन्न अध्ययनों एवं सर्वे रिपोर्ट से यह पता चला है कि बकरी पालन एक ऐसा व्यवसाय है जिसको अपना कर अपने देश के बेरोजगार युवा रोजगार सृजन कर सकते हैं तथा अपना जोक उपार्जन का साधन बना सकते हैं। यह एक ऐसा व्यवसाय है जो कि बहुत ही कम जगह में कम पूंजी लगाकर कम समय में शत प्रतिशत लाभ कमाया जा सकता है। बकरी के मीट की खासियत है कि इसकी मांग दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है वही इसका उत्पादन दिन-प्रतिदिन कम होते जा रहा है। यदि हमारे किसान भाई बकरी पालन में वैज्ञानिक पद्धति को अपनाते हुए सही तरीके से प्रबंधन करते हैं क्यों बे ज्यादा से ज्यादा लाभ कमा सकते हैं।
कम लागत और सामान्य रख-रखाव में बकरी पालन व्यवसाय गरीब किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए आय का एक अच्छा साधन बनता जा रहा है। झारखंड, उड़ीसा ,छत्तीसगढ़ बंगाल, राजस्थान समेत कई राज्यों में यह बकरियां बतौर एटीएम के रूप में उनकी मदद करती है, लेकिन अभी भी जानकारी के अभाव में किसान उससे ज्यादा लाभ नहीं कमा पा रहे हैं।
बकरी पालन व्यवसाय से किसानों की आय दोगुनी से तिगुनी की जा सकती है अगर किसान बकरी पालन को वैज्ञानिक तरीके से करें। बकरी पालन शुरू कर रहे तो उच्च नस्ल की बकरियों का चयन करें। स्टॉल फीडिंग के लिए बरबरी बकरी पालें और अगर चराई के लिए रखना है तो सिरोही बकरी का चयन करें।
ज्यादातर किसान बकरियों के आहार प्रंबधन पर ध्यान नहीं देते हैं। वह उन्हें चरा कर बांध देते हैं, लेकिन ऐसा नहीं करना चाहिए। बकरियों को चराने के बाद उन्हें उचित चारा देना चाहिए, जिससे उनके मांस और दूध में वृद्धि हो सके।
बकरी का दूध:
मानव पोषण में इसका योगदान अद्वितीय है। बकरी का दूध फेफड़े के घावों व गले का पीड़ा को दूर करता है। यह पेट के शीतलता प्रदान करता है। यह दूध एक सम्पूर्ण आहार है तथा मानव में ऐसी बीमारियाँ, जिनमें खून में प्लेटलेट्स की संख्या घट जाती है, के उपचार के लिए रामबाण होता है। बकरी का दूध डेंगू के मरीजों के लिए प्राकृतिक उपचार है। इसमें खनिज पदार्थ जैसे आयरन, कैल्शियम, फॉस्फोरस और मैग्नीशियम भी पाए जाते हैं एवं प्लाज्मा कोलेस्ट्रोल का संतुलन बनाये रखता है। बकरियां के दूध में सिलिनियम अधिक मात्रा में पाया जाता है। यह खून का थक्का बनने की क्रियाओं को भी नियंत्रित करता है। यह एंटीऑक्सीडेंट की तरह भी कार्य करता है व टी – कोशिका व इंटरलूकिन की वृद्धि भी प्रभावित करता है।
दूध की रासायनिक संरचना:
बकरी के दूध में मुख्यतः वसा, प्रोटीन, लेक्टोज तथा खनिज लवण का अनुपात विभिन्न प्रजातियों में अलग – अलग होता है –
• वसा : बकरी के दूध में वसा की मात्रा सामान्यत: भैंस व भेड़ से कम पायी जाती है। वसा की मात्रा लगभग 3.5 – 4.4 प्रतिशत पाई जाती है। इसमें मध्यम चेन वाली फैटी ऐसिड अधिक पाए जाते हैं। वसा की मात्रा अनुवांशिकता, पर्यावरण व चारे पर निर्भर करती है। कपास की खली – खिलाने से वसा की मात्रा बढ़ाई जा सकती है। मध्य चेन फैटी एसीड वसा अवशोषण सिंड्रोम से पीड़ित लोगों के लिए यह ऊर्जा का स्रोत है। बकरी के दूध के वसा के आकार गाय व भैंस के दूध से कम होता है। विभिन्न प्रजातियों में बकरी के दूध में छोटे वसा कणों की मात्रा गाय व भैंस के दूध से अधिक होती है, अत: यह जल्दी पच जाता है।
• प्रोटीन : इस दूध में प्रोटीन की मात्रा 2 से 6 प्रतिशत तक पायी जाती है। केसीन बकरी के दूध में पाया जाने वाला मुख्य प्रोटीन है। हाइपो एलर्जिक होने के कारण बकरी दूध, मानव दूध का विकल्प माना जा सकता है। वीटा – केसिन बकरी के दूध के केसिन का मुख्य घटक है, जिसके कारण ही बकरी के दूध से एलर्जी कम होता है तथा शारीरिक विकास में अधिक मदद मिलत है। लैक्टोफरिन, यह गाय के दूध के समान व ओराटिक अम्ल बकरी के दूध में कम पाया जाता है तथा यह राइबोन्यूक्लियोटाइड से भरपूर होता है। यह कोशिका के नवीनीकरण व रोग के खिलाफ लड़ने में मदद करता है।
• विटामिन : बकरी के दूध में मुख्यतः विटामिन – बी कॉम्प्लेक्स, जो कि पानी में घुलनशील होता है, पाया जाता है। इसमें थियामिन, राइबोफ्लेविन, नियासिन, पैंटोथिनिक व बायोटिन क्रमश: 0.05, 0.14, 0.20, 0.31 व 2.06 मि. ग्रा./ लीटर होता है और उच्च रक्त चाप और ऑस्टियोपोरोसिस में राहत प्रदान करता है। बकरी के दूध में कैल्शियम व आयरन (550 मिग्रा./ किग्रा.) की उपलब्धता गाय के दूध से अधिक होती है। इन खनिज लवणों का कार्य हमारे शरीर की हड्डियों का निर्माण एवं उनको मजबूती प्रदान करना होता है।
• लैक्टोज : बकरी के दूध में लैक्टोज की मात्रा गाय या भैंस की दूध से अधिक होती है। गाय के दूध से एलर्जी वाले रोगों के लिए बकरी का दूध लाभदायक होता है, क्योंकि यह आसानी से पच जाता है। यह दिल व कैंसर के रोगियों के लिए लाभदायक होता है।
बकरी का दूध का पाचन मनुष्य में अधिक आसानी से होता है। बकरी के दूध में केसीन प्रोटीन के कारण दही नरम बनता है। वसा के ग्लोब्यूल का आकार छोटा तथा एग्लूटिनीन नहीं पाया जाता है तथा माध्यम व छोटे चेन के फैटी ऐसिड पाए जाते हैं। इसके कारण बकरी का दूध गाय व भैंस के दूध से अधिक सुपाच्य होता है। साथ ही बकरी के दूध में औषधीय गुण अत्यधिक पाए जाते हैं, क्योंकि बकरी जगंल में चरने के दौरान विभिन्न प्रकार के पेड़ – पौधों की पत्तियों का भी सेवन करती है। इस वजह से अधिक औषधीय गुण आ जाते हैं।
बकरी के मांस का बढ़ता उपयोग
भारत में इस समय 17 करोड़ से अधिक बकरियां है। यह संख्या किसी भी अन्य देश की तुलना में सर्वाधिक है। इनसे हमें मांस, दूध, चमड़ा, खाद इत्यादि प्राप्त होता है। बकरी का मांस उपभोक्ताओं के बीच काफी लोकप्रिय है, क्योंकि अन्य पशुओं की तरह बकरियों के मांस के साथ कोई धार्मिक मान्यता नहीं जुड़ी है। अधिक मांग तथा कम उत्पादन का कारण बकरी का मांस मंहगा मिलता है। इसके मांस को चिवान कहते हैं और यह बहुत ही पुष्टिकर होता है। इसमें 19 – 21 प्रतिशत,वसा 3 – 6.5 प्रतिशत तथा रख एक प्रतिशत होती है। प्रोटीन की मात्रा भैंस, भेड़ व सुअर के मांस से अधिक होती है।
बकरी के दूध से बनाये जाने वाले व्यंजन
पनीर, चीज, योगहार्ट, घी, खोआ, श्रीखंड, छेना, संदेश, रसगुल्ला, दही, पनीर, आइसक्रीम व दूध पाउडर इत्यादि व्यंजन दूध से बनाये जा सकते हैं। बकरी का दूध बच्चों को पिलाने के लिहाज से बहुत उपयोगी होता है।
ऊन की प्राप्ति:
बकरियों की विभिन्न प्रजातियों, जैसे पश्मीना, चुगू, चंगथानी आदि जोकि पवर्तीय क्षेत्रों में पायी जाती हैं, से श्रेष्ठ गुणवत्ता वाली ऊन प्राप्त की जा सकती हैं। पश्मीना बकरी से सर्वोत्तम प्रकार की ऊन प्राप्त किया जाता है और यह बहुत ही गर्म व बहुमूल्य होता है कई बकरियों की प्रजातियों में बड़े – बड़े बाल पाए जाते हैं, उनके बालों का उपयोग कालीन, चटाई व दरी बनाने में किया जाता है।
बकरियों की खाल से चमड़ा उत्पादन एवं अन्य शरीर अंगों का उपयोग
बकरियों से चमड़ा, हड्डियाँ, सींग तथा अन्य उपयोगी उत्पादों की प्राप्ति होती है। इससे सिद्ध होता है कि बकरी पालन न केवल जीते जी बल्कि मरने के बाद भी मनूश्याओं के लिए उपयोगी सिद्ध हो रहा है।
• हड्डियों का चूरा बनाकर पशु दाने में डालने से पशुआहार संतुलित होता है और कैल्शियम एवं फॉस्फोरस की कमी नहीं हो पाती।
• सींगों से बटन, कंघी, वाद्य यंत्रों के मूढ़ इत्यादि बनाये जा सकते हैं।
• बकरी के चमड़े का उपयोग ढोलक, तबला, ढपली, पर्स, जैकेट बेल्ट बनाने इत्यादि में होता है।
खाद की प्राप्ति:
बकरी के गोबर की लेड़ी कहते हैं, जो की खाद के रूप में अधिक उपयोगी होती है। बकरियां चरते समय बंजर भूमि को भी वहां पर लेड़ी करके उपजाऊ बना सकती है।
बकरी उत्पादन की संभावनाएं:
बकरी को भविष्य का पशु कहते हैं। इसका दूध अत्यधिक फायदेमंद होता है तो मांस उत्पादन में कोई धार्मिक समस्या सामने नहीं आती है। कम लागत से अधिक उत्पादन को संभावना बनी रहती है।
एशिया में मांस के उत्पादन के क्षेत्र में 6 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है, जबकि भारत में यह वृद्धि 3 – 4 प्रतिशत तक है। मांस उत्पादन में वृद्धि के लिए बकरियां काफी उपयोगी में वृद्धि के लिए बकरियां काफी उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं।
बकरी के बारे में यह कहा जा सकता है कि भविष्य में न केवल भारत में बल्कि विश्व में पशुपालन उद्योग की एक महत्वपूर्ण कड़ी बन जाएगी। इसके लिए बकरी के अनुसंधान कार्यों में तेजी लेन की आवश्यकता है। मथुरा स्थित भाकृअनुप – केंद्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान, फरह मथूरा इस दिशा में सराहनीय कार्य कर रहा है। बकरी पालन से विश्व के प्रत्येक व्यक्ति तक कम लागत में न केवल दूध, मांस एवं इनके उत्पादों को पहुँचाया जा सकता है। बल्कि बकरी पालन से विदेशी मुद्रा भी अर्जित की जा सकती है।
बकरी से प्राप्त उत्पादों का प्रयोग
बकरी पालन से करोड़ों की आमदनी होती है। इसकी ग्रंथियों से प्राप्त जीवनदायी औषधियां बनाई जा रही हैं। हारमोंस को रासायनिक संश्लेषण से तैयार नहीं किया जा सकता है। अत: बकरियों से आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। बूचड़खानों से बकरियों के विभिन्न अंगों, उपोत्पादों को इकट्ठा करके निम्न औषधियां प्राप्त की जा सकती है।
बकरी के उपोत्पादों से प्राप्त औषधियां और जैव रसायन
• रक्त – प्लाज्मा, सीरम, एल्ब्यूमिन, रक्तचूर्ण, हीमेटोनिक
• फिव्रिन – पेंटीन , फिव्रीन्क्रोम, फिव्रीन चूर्ण
• अग्नाशय – इंसुलिन, ग्लूकेगोन, ट्रिपसिन, काईनोट्रिपसिन
• फेफड़ा और आंत – हिपेरिन
• यकृत – यकृत निष्कर्ष
• थायराइड – थाइरोक्सिन
• पिट्यूटरी – एफ. एस.एच., प्रोलैक्टिन, ऑक्सीटोसिन, वैसोप्रैसिन
• वृक्क – एड्रीनेलिन
• अंडकोष – हाइलूरोनिडेज
• पित्ताशय – पित्त व पित्त लवण
• रीड – रज्जू- कोलेस्ट्रोल, लेसिथिन
• हड्डियाँ – जिलेटीन, अस्थि संरचना, विकास प्रोटीन
बकरी से प्राप्त प्राप्त विभिन्न उत्पाद
देश में बकरियों को दूध, मांस एवं अन्य उत्पादों के लिए उपयोग में लाया जाता है। इनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होने के कारण भी इनकी अधिक उपयोगिता सिद्ध हो रही है।
बकरियां देश की अर्थव्यवस्था में निम्नलिखित तरीके से योगदान कर सकती हैं –
• दुग्ध उत्पादन एवं इसके द्वारा बनाए जाने वाले व्यंजन
• बकरे से मांस उत्पादन व इनके द्वारा तैयार व्यंजन
• बकरियों से ऊन
• चमड़ा उत्पादन व उनके शरीर के अन्य अंगों का उपयोग
• खाद व अन्य वस्तुयें प्राप्त होना
वैज्ञानिक तरीके अपनाकर बकरी पालन व्यवसाय से किसानों की आय दोगुनी से तिगुनी तक हो सकती है। बकरी पालन में उच्च नस्ल का चयन आवश्यक है। सही समय पर बकरियों को गर्भाधान कराने से नवजात मेमनों की मृत्युदर कम होती हैं।
इस व्यवसाय को सुचारू रूप से करने के लिए निम्न बातों को ध्यान रखना अनिवार्य है:
- अच्छी नस्ल का चयन
- आहार
- प्रजनन
- स्वास्थ प्रबन्धन
- रख रखाव व बकरी की बिक्री
अच्छी नस्ल का चयन
इसमें जलवायु तथा आकार के अनुरूप बकरा/बकरियों का चयन आवश्यक है।
बड़े आकार की नस्लें :-
जमुनापारी, बील, झकराना
मध्यम आकार की नस्लें :- सिरोही, मारवाडी, मैहसाना
छोटे आकार की नस्लें :- बरबरी, ब्लैक बंगाल
जमुनापारी, सिरोही तथा बरबरी नस्ल की बकरियॉ मैदानी क्षेत्रों के लिए अधिक उपयुक्त हैं। अतः पशुपालकों द्वारा इन नस्लों का संवर्धन, वृद्धि एवं व्यवसाय हेतु अधिकाधिक उपयोग किया जा सकता है। व्यवसाय को प्रारम्भ करते समय उच्च प्रजनन क्षमता युक्त वयस्क स्वस्थ्य बकरियों को ही कृय करना चाहिए।
आहार प्रबंधन:
बकरी चरने वाला पशु है। स्थानीय स्तर पर विकसित चारागाह/पेड पौधा/ कृषि फसलों की उपलब्धता अच्छे हरे चारे के रूप में आवश्यक हैं। बकरी को यदि 8 घण्टे चराने पर पाला जाता है तो उसके शारीरिक भार का 1 प्रतिशत पौष्टिक आहार के रूप में खाने हेतु दिया जाये। बकरी पालते समय यह ध्यान रखना चाहिए की बकरी का खान पान अच्छे से हो रहा है। उदाहरणार्थ 25 किग्रा. शारीरिक भार पर 250 ग्राम पौष्टिक आहार की आवश्यकता होती है।
बकरियों के आहार के मुख्य स्रोत निम्न हैं –
अनाज वाली फसलों से प्राप्त चारे।
दलहनी फसलों से प्राप्त चारे।
पेड पौधों की फलियॉ व पत्तियाँ।
विभिन्न प्रकार की घास व झाडियाँ।
दाने व पशु आहार।
संसाधनों की उपलब्धता के अनुसार आहार व चुगान बकरियों को बांध कर भी उपलब्ध कराया जा सकता है। चारागाह की कमी हो जाने की वजह से आवास में रखकर पालने वाली पद्धति अधिक लाभप्रद होती जा रही है। अच्छे आवास हेतु 12 से 15 वर्ग फीट स्थान प्रति पशु आवश्यक है।
आवास में हवा व प्रकाश की व्यवस्था होनी चाहिए। आवास स्थानीय उपलब्ध संसाधनों में सस्ता निर्मित होना चाहिए।
बांध कर पालने वाली पद्धति में प्रति पशु 1 – 2 किग्रा. भूसा या 2.5 किग्रा. हरा चारा/पत्तियाँ/हे/ साईलेज तथा 500 ग्राम से 1 किग्रा. संकेन्द्रित आहार शारीरिक आकार के अनुसार दिया जाना चाहिए।
बकरियों के पोषण के लिए प्रतिदिन दाने के साथ सूखा चारा होना चाहिए। दाने में 57 प्रतिशत मक्का, 20 प्रतिशत मूंगफली की खली, 20 प्रतिशत चोकर, 2 प्रतिशत मिनरल मिक्चर, 1 प्रतिशत नमक होना चाहिए। सूखे चारे में गेहूं का भूसा, सूखी पत्ती, धान का भूसा, उरद कर भूसा या अरहर का भूसा होना चाहिए। ठंड के मौसम में गन्ने का सीरा जरूर दें। इन सबको चारे में बकरियों को खिलाया जाएगा तो बकरी में मांस के साथ-साथ दूध में वृद्धि होगी और किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी। वज़न करके ही बेचें बकरियां तो होगा लाभ जानकारी के अभाव में ज्यादातर किसान बिना वजन किए बकरियों को बाजार में बेच देते है, जिससे किसानों को बकरे के उचित दाम नहीं मिल पाते हैं। इस तरह किसान को आर्थिक नुकसान भी होता है। इसलिए बकरी का वजन करके और नौ महीने के बाद ही बाजार में बकरी को बेचना चाहिए क्योंकि बकरी के दाम उसके वजन पर निर्भर करते हैं। किसान को बकरी पालन में तभी दोगुना लाभ होगा, जब किसान बकरियों को घूमंतू व्यापरी या फिर स्थानीय व्यापारी को बेचने की बजाय सीधे बाजार में या बूचड़खाने में बेचे। व्यापारी किसानों से कम दामों पर बकरी खरीद लेते हैं और दोगुने दामों में बाजारों में बेचते हैं, जिससे व्यापारियों को फायदा है। इसके लिए किसानों को जागरूक होना पड़ेगा।
प्रजनन:
मादा 10 – 15 माह की आयु में प्रजनन योग्य हो जाती है। गर्मी के लक्षण में बकरी पूँछ को बार – बार हिलाती है तथा योनि से सफेद स्राव आता है। उस समय इसे नर बकरा के सम्पर्क में लाकर संसर्ग कराना चाहिए। बकरी 150 – 155 दिन में बच्चा देती है तथा 60 – 90 दिन में गर्मी में आने पर पुनः गर्भित कराना उचित होता है। नव उत्पन्न शिशु की उचित देखभाल करनी चाहिए, जिससे कि वह स्वस्थ्य रहे। बच्चों को खीस (चीका) व दुग्ध पान दिन में चार बार कराना उचित होता है। दुग्ध का सेवन 6 – 8 सप्ताह तक कराना चाहिए। 3 – 9 माह की आयु तक वयस्कता प्राप्त करने हेतु अच्छी आहार व्यवस्था तथा रोग प्रबन्धन करना चाहिए।
स्वास्थ्य प्रबन्धन:
बकरी के बच्चों में डायरिया, न्यूमोनिया, इंटेराइटिस से बचाव हेतु उचित देखभाल करनी चाहिए। वयस्कों में परजीवी रोगों के विरुद्ध नियमित कृमिनाशक (पटार) की दवा पिलानी चाहिए। संक्रामक रोग गलघोटू, इंटरोटाक्सीमिया, मुंहपका खुरपका तथा पी. पी. आर. रोगों के विरुद्ध समय-समय पर टीकाकरण कराना आवश्यक होता है।
बकरी पालन व्यवसाय हेतु आय – व्यय का विश्लेषण:
बकरी पालन इकाई :- 02 नर तथा 20 मादा पशु
(अ) व्यय विवरण :
विवरण इकाई इकाई दर रू. कुल व्यय रू. रिमार्क
नर (बकरा) 02 5000 10000 –
मादा (बकरी) 20 3000 60000 –
आहार
500 ग्राम दाना प्रति व्यसक 100-300 ग्राम दाना प्रति बच्चा वार्षिक 20000 20000 शारीरिक भार के अनुसार 8 घंटे चराई के साथ
आवास वार्षिक 7500 7500 –
बीमा, परिवहन एवं आँय व्यय वार्षिक 7500 7500 –
योग – – 105000
(ब) आय विवरण :- बकरी दो वर्ष में तीन बार बच्चे देती है, तथा एक बार में औसतन दो बच्चे देती है, इसलिए एक वर्ष में औसत तीन बच्चे प्राप्त होते हैं।
आय विवरण संख्या इकाई दर रू. कुल आय रू.
बकरी विकृय 60 3000 180000
बकरी की खाद विक्रय – 20000 20000
योग – – 200000
शुद्ध लाभ : कुल आय–कुल व्यय = शुद्ध लाभ
200000-105000 = 95000.00
रूपये पन्चानवे हजार प्रति वर्ष शुद्ध लाभ प्राप्त होता है।
उपयोगी नस्लें:
ब्लैक बंगालः
इस जाति की बकरियाँ पश्चिम बंगाल, झारखंड, असोम, उत्तरी उड़ीसा एवं बंगाल में पायी जाती है। इसके शरीर पर काला, भूरा तथा सफेद रंग का छोटा रोंआ पाया जाता है। अधिकांश (करीब 80 प्रतिशत) बकरियों में काला रोंआ होता है। यह छोटे कद की होती है वयस्क नर का वजन करीब 18-20 किलो ग्राम होता है जबकि मादा का वजन 15-18 किलो ग्राम होता है। नर तथा मादा दोनों में 3-4 इंच का आगे की ओर सीधा निकला हुआ सींग पाया जाता है। इसका शरीर गठीला होने के साथ-साथ आगे से पीछे की ओर ज्यादा चौड़ा तथा बीच में अधिक मोटा होता है। इसका कान छोटा, खड़ा एवं आगे की ओर निकला रहता है।
इस नस्ल की प्रजनन क्षमता काफी अच्छी है। औसतन यह 2 वर्ष में 3 बार बच्चा देती है एवं एक वियान में 2-3 बच्चों को जन्म देती है। कुछ बकरियाँ एक वर्ष में दो बार बच्चे पैदा करती है तथा एक बार में 4-4 बच्चे देती है। इस नस्ल की मेमना 8-10 माह की उम्र में वयस्कता प्राप्त कर लेती है तथा औसतन 15-16 माह की उम्र में प्रथम बार बच्चे पैदा करती है। प्रजनन क्षमता काफी अच्छी होने के कारण इसकी आबादी में वृद्धि दर अन्य नस्लों की तुलना में अधिक है। इस जाति के नर बच्चा का मांस काफी स्वादिष्ट होता है तथा खाल भी उत्तम कोटि का होता है। इन्हीं कारणों से ब्लैक बंगाल नस्ल की बकरियाँ मांस उत्पादन हेतु बहुत उपयोगी है। परन्तु इस जाति की बकरियाँ अल्प मात्रा (15-20 किलो ग्राम/वियान) में दूध उत्पादित करती है जो इसके बच्चों के लिए अपर्याप्त है। इसके बच्चों का जन्म के समय औसत् वजन 1.0-1.2 किलो ग्राम ही होता है। शारीरिक वजन एवं दूध उत्पादन क्षमता कम होने के कारण इस नस्ल की बकरियों से बकरी पालकों को सीमित लाभ ही प्राप्त होता है।
यह गुजरात एवं राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी उपलब्ध है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध उत्पादन हेतु पाली जाती है लेकिन मांस उत्पादन के लिए भी यह उपयुक्त है। इसका शरीर गठीला एवं रंग सफेद, भूरा या सफेद एवं भूरा का मिश्रण लिये होता है। इसका नाक छोटा परन्तु उभरा रहता है। कान लम्बा होता है। पूंछ मुड़ा हुआ एवं पूंछ का बाल मोटा तथा खड़ा होता है। इसके शरीर का बाल मोटा एवं छोटा होता है। यह सलाना एक वियान में औसतन 1.5 बच्चे उत्पन्न करती है। इस नस्ल की बकरियों को बिना चराये भी पाला जा सकता है।
झारखंड प्रांत की जलवायु में उपरोक्त वर्णित नस्लों का पालन किया जा सकता है या यहाँ पायी जाने वाली बकरियों के नस्ल सुधार हेतु बीटल, बारबरी, सिरोही एवं जमनापारी के बकरे व्यवहार में लाये जा सकते हैं।
जमुनापारीः
जमुनापारी भारत में पायी जाने वाली अन्य नस्लों की तुलना में सबसे उँची तथा लम्बी होती है। यह उत्तर प्रदेश के इटावा जिला एवं गंगा, यमुना तथा चम्बल नदियों से घिरे क्षेत्र में पायी जाती है। एंग्लोनुवियन बकरियों के विकास में जमुनापारी नस्ल का विशेष योगदान रहा है।
इसके नाक काफी उभरे रहते हैं। जिसे ‘रोमन’ नाक कहते हैं। सींग छोटा एवं चौड़ा होता है। कान 10-12 इंच लम्बा चौड़ा मुड़ा हुआ तथा लटकता रहता है। इसके जाँघ में पीछे की ओर काफी लम्बे घने बाल रहते हैं। इसके शरीर पर सफेद एवं लाल रंग के लम्बे बाल पाये जाते हैं। इसका शरीर बेलनाकार होता है। वयस्क नर का औसत वजन 70-90 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 50-60 किलो ग्राम होता है।
इसके बच्चों का जन्म समय औसत वजन 2.5-3.0 किलो ग्राम होता है। इस नस्ल की बकरियाँ अपने गृह क्षेत्र में औसतन 1.5 से 2.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध तथा मांस उत्पादन हेतु उपयुक्त है। बकरियाँ सलाना बच्चों को जन्म देती है तथा एक बार में करीब 90 प्रतिशत एक ही बच्चा उत्पन्न करती है। इस जाति की बकरियाँ मुख्य रूप से झाड़ियाँ एवं वृक्ष के पत्तों पर निर्भर रहती है। जमुनापारी नस्ल के बकरों का प्रयोग अपने देश के विभिन्न जलवायु में पायी जाने वाली अन्य छोटे तथा मध्यम आकार की बकरियाँ के नस्ल सुधार हेतु किया गया। वैज्ञानिक अनुसंधान से यह पता चला कि जमनापारी सभी जलवायु के लिए उपयुक्त नही हैं।
बीटलः
बीटल नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से पंजाब प्रांत के गुरदासपुर जिला के बटाला अनुमंडल में पाया जाता है। पंजाब से लगे पाकिस्तान के क्षेत्रों में भी इस नस्ल की बकरियाँ उपलब्ध है। इसका शरीर भूरे रंग पर सफेद-सफेद धब्बा या काले रंग पर सफेद-सफेद धब्बा लिये होता है। यह देखने में जमनापारी बकरियाँ जैसी लगती है परन्तु ऊँचाई एवं वजन की तुलना में जमुनापारी से छोटी होती है। इसका कान लम्बा, चौड़ा तथा लटकता हुआ होता है। नाक उभरा रहता है। कान की लम्बाई एवं नाक का उभरापन जमुनापारी की तुलना में कम होता है। सींग बाहर एवं पीछे की ओर घुमा रहता है। वयस्क नर का वजन 55-65 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 45-55 किलो ग्राम होता है। इसके वच्चों का जन्म के समय वजन 2.5-3.0 किलो ग्राम होता है। इसका शरीर गठीला होता है। जाँघ के पिछले भाग में कम घना बाल रहता है। इस नस्ल की बकरियाँ औसतन 1.25-2.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है। इस नस्ल की बकरियाँ सलाना बच्चे पैदा करती है एवं एक बार में करीब 60% बकरियाँ एक ही बच्चा देती है।
बीटल नस्ल के बकरों का प्रयोग अन्य छोटे तथा मध्यम आकार के बकरियों के नस्ल सुधार हेतु किया जाता है। बीटल प्रायः सभी जलवायु हेतु उपयुक्त पाया गया है।
बारबरीः
बारबरी मुख्य रूप से मध्य एवं पश्चिमी अफ्रीका में पायी जाती है। इस नस्ल के नर तथा मादा को पादरियों के द्वारा भारत वर्ष में सर्वप्रथम लाया गया। अब यह उत्तर प्रदेश के आगरा, मथुरा एवं इससे लगे क्षेत्रों में काफी संख्या में उपलब्ध है।
यह छोटे कद की होती है परन्तु इसका शरीर काफी गठीला होता है। शरीर पर छोटे-छोटे बाल पाये जाते हैं। शरीर पर सफेद के साथ भूरा या काला धब्बा पाया जाता है। यह देखने में हिरण के जैसा लगती है। कान बहुत ही छोटा होता है। थन अच्छा विकसित होता है। वयस्क नर का औसत वजन 35-40 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 25-30 किलो ग्राम होता है। यह घर में बांध कर गाय की तरह रखी जा सकती है। इसकी प्रजनन क्षमता भी काफी विकसित है। 2 वर्ष में तीन बार बच्चों को जन्म देती है तथा एक वियान में औसतन 1.5 बच्चों को जन्म देती है। इसका बच्चा करीब 8-10 माह की उम्र में वयस्क होता है। इस नस्ल की बकरियाँ मांस तथा दूध उत्पादन हेतु उपयुक्त है। बकरियाँ औसतन 1.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।
सिरोहीः
सिरोही नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से राजस्थान के सिरोही जिला में पायी जाती है। यह गुजरात एवं राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी उपलब्ध है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध उत्पादन हेतु पाली जाती है लेकिन मांस उत्पादन के लिए भी यह उपयुक्त है। इसका शरीर गठीला एवं रंग सफेद, भूरा या सफेद एवं भूरा का मिश्रण लिये होता है। इसका नाक छोटा परन्तु उभरा रहता है। कान लम्बा होता है। पूंछ मुड़ा हुआ एवं पूंछ का बाल मोटा तथा खड़ा होता है। इसके शरीर का बाल मोटा एवं छोटा होता है। यह सलाना एक वियान में औसतन 1.5 बच्चे उत्पन्न करती है। इस नस्ल की बकरियों को बिना चराये भी पाला जा सकता है।
झारखंड प्रांत की जलवायु में उपरोक्त वर्णित नस्लों का पालन किया जा सकता है या यहाँ पायी जाने वाली बकरियों के नस्ल सुधार हेतु बीटल, बारबरी, सिरोही एवं जमनापारी के बकरे व्यवहार में लाये जा सकते हैं।
विदेशी बकरियों की प्रमुख नस्लें
अल्पाइन –
यह स्विटजरलैंड की है। यह मुख्य रूप से दूध उत्पादन के लिए उपयुक्त है। इस नस्ल की बकरियाँ अपने गृह क्षेत्रों में औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।
एंग्लोनुवियन –
यह प्रायः यूरोप के विभिन्न देशों में पायी जाती है। यह मांस तथा दूध दोनों के लिए उपयुक्त है। इसकी दूध उत्पादन क्षमता 2-3 किलो ग्राम प्रतिदिन है।
सानन –
यह स्विटजरलैंड की बकरी है। इसकी दूध उत्पादन क्षमता अन्य सभी नस्लों से अधिक है। यह औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन अपने गृह क्षेत्रों में देती है।
टोगेनवर्ग –
टोगेनवर्ग भी स्विटजरलैंड की बकरी है। इसके नर तथा मादा में सींग नहीं होता है। यह औसतन 3 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।
बकरी पालकों को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देनी चाहिए:
• ब्लैक बंगाल बकरी का प्रजनन बीटल या सिरोही नस्ल के बकरों से करावें।
• पाठी का प्रथम प्रजनन 8-10 माह की उम्र के बाद ही करावें।
• बीटल या सिरोही नस्ल से उत्पन्न संकर पाठी या बकरी का प्रजनन संकर बकरा से करावें।
• बकरा और बकरी के बीच नजदीकी संबंध नहीं होनी चाहिए।
• बकरा और बकरी को अलग-अलग रखना चाहिए।
• पाठी अथवा बकरियों को गर्म होने के 10-12 एवं 24-26 घंटों के बीच 2 बार पाल दिलावें।
• बच्चा देने के 30 दिनों के बाद ही गर्म होने पर पाल दिलावें।
• गाभीन बकरियों को गर्भावस्था के अन्तिम डेढ़ महीने में चराने के अतिरिक्त कम से कम 200 ग्राम दाना का मिश्रण अवश्य दें।
• बकरियों के आवास में प्रति बकरी 10-12 वर्गफीट का जगह दें तथा एक घर में एक साथ 20 बकरियों से ज्यादा नहीं रखें।
• बच्चा जन्म के समय बकरियों को साफ-सुथरा जगह पर पुआल आदि पर रखें।
• बच्चा जन्म के समय अगर मदद की आवश्यकता हो तो साबुन से हाथ धोकर मदद करना चाहिए।
• जन्म के उपरान्त नाभि को 3 इंच नीचे से नया ब्लेड से काट दें तथा डिटोल या टिन्चर आयोडिन या वोकांडिन लगा दें। यह दवा 2-3 दिनों तक लगावें।
• बकरी खास कर बच्चों को ठंढ से बचावें।
• बच्चों को माँ के साथ रखें तथा रात में माँ से अलग कर टोकरी से ढक कर रखें।
• नर बच्चों का बंध्याकरण 2 माह की उम्र में करावें।
• बकरी के आवास को साफ-सुथरा एवं हवादार रखें।
• अगर संभव हो तो घर के अन्दर मचान पर बकरी तथा बकरी के बच्चों को रखें।
• बकरी के बच्चों को समय-समय पर टेट्रासाइकलिन दवा पानी में मिलाकर पिलावें जिससे न्यूमोनिया का प्रकोप कम होगा।
• बकरी के बच्चों को कोकसोडिओसीस के प्रकोप से बचाने की दवा डॉक्टर की सलाह से करें।
• तीन माह से अधिक उम्र के प्रत्येक बच्चों एवं बकरियों को इन्टेरोटोक्सिमिया का टीका अवश्य लगवायें।
• बकरी तथा इनके बच्चों को नियमित रूप से कृमि नाशक दवा दें।
• बकरियों को नियमित रूप से खुजली से बचाव के लिए जहर स्नान करावे तथा आवास में छिड़काव करें।
• बीमार बकरी का उपचार डॉक्टर की सलाह पर करें।
• नर का वजन 15 किलो ग्राम होने पर मांस हेतु व्यवहार में लायें।
• खस्सी और पाठी की बिक्री 9-10 माह की उम्र में करना लाभप्रद है।
NB-इन बातों का रखें विशेष ध्यान-—
बकरियों का शेड इस तरह बनवाएं कि उनको शुद्व हवा मिल सके। शेड बनाते समय बकरियों के लिए साफ पानी की व्यवस्था करे। प्रतिदिन बाड़े की साफ-सफाई करें इससे बकरियों में बीमारियां नहीं होंगी। बाड़े को हमेशा ऊंचे स्थान पर बनवाएं ताकि बारिश का पानी अन्दर ना आ पाए। पानी निकलने के लिए उचित व्यवस्था रखें ताकि जब भी बकरी शेड की सफाई करें तो बकरियों का मल-मूत्र और पानी आराम से शेड से बाहर निकला जा सके। बकरी पालन में प्रयोग में लाये जाने वाले उपकरणों की सफाई किसी कीटाणुनाशक दवा का उपयोग करें। इस कीटाणुनाशक दवा की सलाह अपने पास के पशु चिकित्सक से जरूर लें। बकरियों को उनकी उम्र के हिसाब से अलग कर दें। बकरियों को पौष्टिक आहार दें उन्हें सड़ा गला और बासी खाना न दें। बकरियों को खरीदने से पहले किसी डॉक्टर से जरूर सलाह ले लें। कहीं वो किसी बीमारी से ग्रसित तो नहीं है क्योंकि बकरियों में कुछ ऐसी भी बीमारी होती है जिससे दूसरी बकरियां भी मर सकती हैं। बीमारियों से बचाने के लिए समय-समय पर अपने पास के पशु चिकित्सालय में टीकाकरण जरूर करा लें। यह टीके नि:शुल्क लगाए जाते हैं। अगर कोई बकरी किसी बीमारी से मर गई है तो उसको जला दें या फिर गहरा गड्ढा खोदकर से दबा दें।
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