डेयरी पषुओं के दूध उत्पादन पर परजीवियों का दुष्प्रभाव: एक समीक्षा

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ADVERSE EFFECT OF PARASITES ON THE MILK PRODUCTION OF DAIRY CATTLE
ADVERSE EFFECT OF PARASITES ON THE MILK PRODUCTION OF DAIRY CATTLE

डेयरी पषुओं के दूध उत्पादन पर परजीवियों का दुष्प्रभाव: एक समीक्षा

भारत की 70 प्रतिषत जनसंख्या कृषि एवं पषुपालन पर निर्भर है । लगभग 20 मिलियन लोग अपने आजीविका के लिए पषुपालन पर आश्रित है । भारत के सकल घरेलू उत्पादों में पषुपालन का योगदान 2017-18 में 04.11 प्रतिषत था । पषुधन सेक्टर लगभग 8.8 प्रतिषत रोजगार दे रहा है । रोजगाार के अलावे पषुपालन सेक्टर पौष्टिक आहार एवं खादय उत्पादों जैसें- दूध, मांस, अंडा, पनीर, चीज, स्किम्ड मिल्क पाउडर आदि भी उपलब्ध कराता है ।19वीं पषुधन गणना के अनुसार भारत में लगभग 190 मिलियन पषु है जो पूरे विष्व की पषु का लगभग 14.5 प्रतिषत है । भारत कई वर्षो से दूध उत्पादन में विष्व में प्रथम स्थान पर है । पूरे विष्व में भारत में सबसे ज्यादा दुधारू पषु है, जिसके द्वारा बर्ष 2019 -20 में 194.4 मिलियन टन दूध का उत्पादन हुआ था, जबकि प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता 407 ग्राम प्रति दिन था। दूध के उत्पादन एवं उपभोग दोनों में भारत विष्व में प्रथम स्थान पर हैं । भारत के दूध उत्पादन में भैंस, गाय एवं बकरी को योगदान क्रमषः 49, 48 एवं 03 प्रतिषत हैं। दुधारू पषुओं के दूध उत्पादन क्षमता को बनाए रखने के लिए पषुओं के आहार, आवास एवं स्वास्थ्य प्रबंधन पर विषेष ध्यान देने की जरूरत पड़ती है । पषुओं के दूध उत्पादन क्षमता पर परजीवी जनित रोगों का अत्याधिक दुष्प्रभाव पड़ता है । परजीवी रोग, भारत सहित विष्वव्याापी समस्याएं हैं और इन्हें पशुओं के स्वास्थ्य और उत्पादकता में बड़ी बाधा माना जाता है। प्षुओं के ष्षरीर में पाए जाने वाले परतीवियों को दाम समुहों में रखा गया है- 1. अंतः परजीवीए जो शरीर के अंदर रहते हैं जैसे- कृमि, प्रोओजोआ आदि 2. बाह्यपरजीवी जैसे कि किलनी (टिक), माइटस, जूँ, मक्खियाँ, पिस्सू, खटमल आदि जो जानवरों और मनुष्यों के शरीर के त्वचा पर रहतेे हंै।
आमतौर पर पषुओं के आँत मे पाए जाने वाले परजीेवियों के संक्रमण होने पर कोई स्पष्ट लक्षण नही दिखाई पड़ता है जिसके कारण पषुपालक इसके उपचार समयानुसार नही करवा पाते हंै, पर ये परजीवी संक्रमित पषु के षरीर से पोषण लगातार ग्रहण करने के साथ-साथ पषु में अपच की समस्या भी उत्पन्न करते हैं जिसके कारण संक्रमित पषु धीरे-धीरे कमजोर हो जाता है और फलस्वरूप संक्रमित दुधारू पषुओं को दूध उत्पादन में अत्याधिक कमी हो जाती है । अंतःपरजीवियों में पषुओं के पेट में पाए जाने वाले प्रमुख कृमियों जैसे- फेसियोला, एम्फिस्टोम, हुक वर्म , हिमोंकंस आदि है जिसके संक्रमण के पष्चात संक्रमित दुधारू पषुओं के दूध उत्पादन में कमी हो जाती है ।

अंतःपरजीवियों के संक्रमण का दुष्प्रभाव एवं रोकथाम:-

* फेसियोला एवं एम्फीस्टोम कृमियों के अलावे पषुओं के षरीर में बहुत प्रकार एवं प्रजाति के कृमि पाए जाते हंै जिसके फलस्वरूप संक्रमित पषु में अपच, दस्त, भूख में कमी एवं पशु धीरे – धीरे कमजोर हो जाता है । परजीवी भेाजन के रूप में पशु के शरीर से पोषक तत्व एवं रक्त चूसते है। एक लीवरफ्लूक कृमि 0.5 मी0 ली0, हुकवर्म (एनकाइलेास्टोमा केनाइनम) 0.1 मि0 ली0 एवं हिमोकान्स कृमि द्वारा 0.05 मि0 ली0 खून प्रतिदिन पशु के शरीर से चूसता है । इसके कारण पशु के शरीर मे खून की कमी या रक्त अल्पता हो जाती है । परजीवी संक्रमित पषु के षरीर में पोषक तत्वों, जल, खून की कमी (एनीमिया) आदि के कारण दुधारू प्ंाशुओं के दूध उत्पादन में कमी एवं कार्य करनेवाले पशुओ में हल जोतने एवं बोझ ढोने की क्षमता पर स्पष्ट दुष्प्रभाव पड़ता है । मादा पशु पेट मे कीड़ो के कारण देर से गर्म होती है या गर्म होती ही नही है, जिसके कारण गर्भाधान में विलम्ब या गर्माधान नही कर पाती है, जिसके चलते पशुपालकों को बछड़ें एवं दूध विलम्ब से प्राप्त होता है और पशुपालकों केा आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ता हैं ।
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एम्फीस्टोम कृमि का अंडें

दुधारू पषुओं में अंतःपरजीवीयों (कृमियों) के संक्रमण के कारण दूध उत्पादन में होने वाले कमी से बचाने हेतु समयानुसार कृमियों के रोकथाम के निम्नलिखित उपायों केा अपनाकर कृमियों के संक्रमण से दुधारू पषुओं को बचाया जा सकता है:-

* पशुशाला के फर्श एवं पशुओं केा साफµसुथरा एवं सुखा रखना चाहिए, जिससे कृमियों के संक्रामक अवस्थाएं पनप नहीं पाएं।
* पशुपालको को अपने पशुओं की गोबर की जाँच तीन -तीन महीने के अन्तराल पर निकटतम पशुचिकित्सालय मे जरूर करानी चाहिए ताकि कृमि के संक्रमण का पता सही समय पर चल जाए ।
* एस्केरिस से प्रतिवर्ष बहुत सारे बछड़ों की मृत्यु हो जाती है । इससे बचाव के लिए बछड़ें को 21 दिनों की उम्र से ही कृमिनाशक देना शुरू कर दंे एवं छः माह तक प्रत्येक महीनें देते रहंे ।
* लीवरफ्लूक एवं एम्फीस्टोम कृमियों से बचाव के लिए कृमिनाशक औषधि (आॅक्सीक्लोजानाइड या ट्रिक्लावेनडाजोल) वर्षा शुरू होने से पहले ( मई -जून महीने में ) एवं दिसम्बर के महीनें में जरूर पिलावें।
* गाय एंव भैंस मंे कृमिनाशक दवा 1 वर्ष की उम्र तक प्रतिमाह, 1 वर्ष से 2 वर्ष तक प्रत्येक 2 महीने पर और फिर उसके बाद प्रत्येक तीन महीने के अंतराल पर देते रहना चाहिए ।
* भेड़ एवं बकरियों में प्रथम कृमिनाशक दवा 4 सप्ताह की उम्र पर, फिर 8 तथा 12 सप्ताह पर दंे और वयस्क बकरी मे प्रत्येक 2 महीने पर कृमिनाशक दवा देते रहें ।
*गर्भाधारण कराने के पहले मादा पशु को कृमिनाशक औषधि खिला देना चाहिए तथा गर्भावस्था के समय कृमि का संक्रमण होने पर फेनवेनडाजोल, क्लोजेनटल आदि कृमिनाशक औषधि का उपयोग पशुचिकित्सक के परामर्श पर करना चाहिए।
*कृमिनाशक औषधियों की उचित मात्रा एवं बदलाव पशुचिकित्सक के सलाह पर समयानुसार करें।
* इसके अलावे, कृमिनाशक औषधि के साथ-ही-साथ पाचन क्रिया एवं रक्त की कमी को जल्द से जल्द सुधारने हेतु लीवर टाॅनिक एवं रक्तवर्द्धक औषधियों का उपयोग जरूर करना चाहिए ।
* बकरी मे कृमिनाशक औषधि के अत्याधिक प्रयोग से कृमियों में कृमिनाशक औषधि के प्रति प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो जाती हैं जिसके फलस्वरुप वह कृमिनाशक औषधि बकरी के शरीर से दूबारा कृमि हटाने के काम मे नही आता है। कृमिनाशक औषधि के विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने से बचाने के लिए भेड़ एवं बकरी को हिमोंकस कृमि से बचाव हेतु कृमिनाशक औषधि का प्रयोग फामाचा विधि के अनुसार करें। जिसके अनुसार कृमिनाशक औषधि का प्रयोग बकरी या भेड़ मे हिमोंकस कृमि से बचाव हेतु तभी करनी चाहिए, जब प्रभावित बकरी या भेड़ की आँख की भीतरी भाग की झिल्ली फीका हो जाय या रक्त का पैकट सेल वालूम ( पी. सी. भी.) 15 प्रतिशत से कम हो जाए ।
* जलीय घोंघो से संक्रमित स्थानों के आस-पास पशुओं केा नही चराना चाहिए तथा घोंघे से संक्रमित तलाबों मे पशुओं केा पानी पीने या स्नान के लिए नही जाने देना चाहिए। घोंघा संक्रमित जलीय स्थानों पर घोंघानाशक रसायन जैसे- काॅंपर सल्फेट 22.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करनी चाहिए ।
* बच्चों एवं वयस्क पशुओें को अलग-अलग रखें क्यांेकि वयस्क पषु बहुत सारे कृमियों के वाहक का कार्य करते है एवं कृमि का अण्डें पशु के गोबर से बाहर निकलते रहते हैं ।
*चारागाह मे पहले छोटे पशु (बछडं़े) को चरने के लिए भेजंे, फिर उसके बाद वयस्क पशु को भेजना चाहिए एवं लगातार कई महीनेां तक पशुआंे को एक ही चारागाह मे नही चरना चाहिए ।
* यदि एक ही चारागाह मे बकरी, भ्ेाड़ एवं गाय को चरना है तो पहले बकरी को, फिर भ्ेाड़ एवं अन्त मे गाय को चरने के लिए भेजना चाहिए । बकरी और भेड़ के शरीर मे पाये जानेवाले कृमियां उभयनिष्ठ हैं । एक साथ चराने से संक्रमित बकरी और भेड के शरीर से कृमियों की अवस्था निकलकर एक-दूसरे के शरीर मे प्रवेश करता रहेगा ।

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सिस्टोसोमा कृमि का अंडा

कृमिनाषक औषधि का कृमि संक्रमित दुधारू पषुओं के दूध उत्पादन पर प्रभाव:-

ष्षोध एवं प्रकाषित रिर्पोट के अनुसार देखा गया है कि दुधारू पषुओं में समयानुसार यदि कृमिनाषक दवा का उपयोग किया जाता है तो कृमियों के कारण पषुओं के दूध उत्पादन में होनेवाले कमी से बचा जा सकता है । इसी से संदर्भ में ैंदलंस मज ंस ;1992द्ध ने पाया कि कृमिनाषक दवा के द्वारा कुमियों को दुधारू गायों के षरीर से हटाने पर 100 दिनों में 12 लिटर अधिक दूध उत्पादन हुआ। व्तमससंदव मज ंस ;1990द्ध के अनुसार, फेसियोला कृमि के संक्रमण के कारण गायों के दूध उत्पादन में कमी हुआ जो कृमिनाषक दवा के उपचार के बाद दूध उत्पादन 17 प्रतिषत तक बढ़ गया जबकि ैचमदबम मज ंस ;1996द्ध ने पाया कि फेसियोला हेपेटिका एवं पाराएम्स्टिोम कृमियों का आॅैक्सीक्लोजानाइड एवं आॅैक्सफेनबेनडाजोल कृमिनाषक दवाओं के द्वारा उपचार करने पर दूध उत्पादन में 0.4 लीटर प्रति दिन वृिद्ध हुई । ळतवेे मज ंस ;1999द्ध के द्वारा प्रकाषित रिर्पोट में वर्णित है कि कृमिनाषक औषधि का पेट के परजीवियों के विरूद्ध उपयोग करने पर प्रतिदिन 0.63 किलोग्राम गाय के दूध उत्पादन में वृिद्ध हुई । ज्ञनउंत मज ंस ;2006द्ध ने षोध मे पाया कि कृमि संक्रमित बिना कृमिनाषक उपचारित हुए गायों की अपेक्षा कृमिनाषक दवा से उपचारित गायों के दूध उत्पादन में 04 -18 प्रतिषत की वृद्धि हुई । एक अन्य षोध में देखा गया है कि पारएम्फिस्टोमोसिस रोग के विरूद्ध चिकित्सीय नियंत्रण पैकेज देने के उपरान्त गायों में औसत 1.60 लीटर प्रतिदिन एवं भ्ैंास में 1.31 लीटर प्रतिदिन दूध उत्पादन में वृद्वि हुई ;।रपज मज ंसण्ए2007द्ध। ठंदकवचंकीलं मज ंस ;2010द्ध ने अनुमान लगाया है कि यदि रणनीति के अनुसार कृमिनाषक दवा का प्रयोग पेट के परजीवियों के विरूद्ध किया जाए तो गाय के दूध उत्पादन में अत्याधिक बढ़ोतरी होगा । त्ंीउंद ंदक ैंउंक ;2010द्ध ने भी देखा कि कृमिनाषक औषधि से ईलाज के बाद आँत के कृमि से संकमित गायों में 0.32 लीटर प्रति पषु प्रति दिन दूध उत्पादन में बढ़ोतरी हुई । क्ंे मज ंस ;2017द्ध के द्वारा प्रकाषित षोध पत्र के अनुसार, कृमिनाषक औषधि से कृमि संक्रमित गायों का उपचार करने पर 04-18 प्रतिषत की दूध उत्पादन में वृिद्ध पायी गइ्र्र जिसके चलते कृमिनाषक दवा के उपयोग के बाद प्रति गाय 261.00 रू का षुद्ध लाभ देखा गया जबकि कृमि संक्रमित बिना कृमिनाषक उपचारित पषु में दूध उत्पादन में कमी के कारण 298.00 रू प्रति गाय नुकसान देखा गया ।
इस प्रकार साबित हो चुका है कि पषु के आँत में पाए जाने वाले परजीवियों का दूध उत्पादन पर सीधा प्रभाव पड़ता है और लाभकारी डेयरी फार्मिग के लिए दुधारू पषुओं को नियमित कृमिनाषक दवा की आवष्यकता होती है । लेकिन यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि बार-बार एक ही कुमिनाषक दवा का उपयोग करने पर कृमियों में कृमिनाषक दवा के प्रति प्रमिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है । इसलिए परजीवियों को प्रभावी रूप से नियंत्रित करने के लिए समयानुसार कृमिनाषक दवा का बदलाव एवं वैकल्पिक कृमिनाषक का पषुचिकित्सक के परामर्ष के अनूसार अपनाना अनिवार्य होता है ।
बाह्य परजीवियों के संक्रमण का दुधारू पषुओं पर दुष्प्रभाव एवं रोकथाम:-
दूसरी तरफ बाह्य परजीवियों ( मक्खी, पिस्सु, जूँ, किलनी एवं माइट्स) पषु के षरीर पर रहता है। बाह्य परजीवी पषुओं को दो तरह से हानी पहुँचाते हंै- पहला प्रत्यक्ष हानि जो बाह्यपरजीवियों के काटने एवं खून चूसने, खुजलाहट, चिंता आदि के फलस्वरूप संक्रमित पषु ठीक से आहार ग्रहण नही कर पाता है एवं षरीर में खून की कमी हो जाता है जिसका अन्तोगत्वा प्रतिकूल प्रभाव संक्रमित दुधारू पषुओं के दूध उत्पादन क्षमता आदि पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। दूसरा, बाहृपरजीवीयां बहुत सारे रोगों को पषुओं एवं मनुष्यों में फैलाने में वाहक का कार्य करते हैं ।
मक्खी (फ्लाई)
घरेलू मक्खी पषुओं केा काटता तो नही है लेकिन पषूओं को अषांत करने का कार्य करते हैं जिसके फलस्वरूप प्रभावित पषु आहार कम ले पाता है ओैर पषु की उत्पादन क्षमता घट जाती है । एक षोध मे पाया गया है कि घरेलू मक्खी के कारण दुधारू पषुओं के दूध उत्पादन में 03.30 प्रतिषत की कमी हो जाती है ;थ्तममइवतद मज ंसए 1925द्ध। इसके अलावे, घरेलू मक्खी सूक्ष्मजीवों जैसे-टायफायड, पाराटायफायड, कोलेरा, टीबी, लेपरोसी, एंथेक्स, अमीबिक डीसेन्टरी आदि को वाहक रूप मंे फैलाने का काम करता है । इसके अतिरिक्त, घरेलू मक्खी, कृमियों जैसे-हेब्रोनीमा मस्की एवं हेब्रोनीमा मेंगास्टोमा (घोंड़ा का अमाषय कृमि), मुर्गियों के फीता कृमियों, आँख के कृमि ( थेलेजिया) के प्रसार में मध्यस्थ पोषक का कार्य करते हंै ।

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स्टोमोक्सीस (स्टेबल मक्खी ) मक्खी, जिसे काटने वाले घरेलू मक्खी कहा जाता है। नर एवं मादा घरेलू मक्खी घोड़ा, गाय आदि से खून चूसने एवं पषु को अषांत करने का कार्य करते हंै जिसके चलते पषु की दूध उत्पादन क्षमता एवं षरीर भार में कमी हो जाती है । षोध मे देखा गया है कि दूधारू पषुओं के दूध उत्पादन में 05 प्रतिषत की कमी स्टेबल मक्खी के कारण हो जाता है ;क्तनउउवदक मज ंसए 1981द्ध ।
क्यूलिकोयडीस, एक काटने एवं खून चूसने वाला मक्खी है जो पषुओं में इफेमरल फीवर, ब्लू टंग आदि रोगाणुओं केा फैलाने में मदद करता है । इफेमरल फीवर, एक बिषाणु के द्वारा होनेवाला रोग है जिसके कारण रोगग्रस्त पषु में तीव्र बुखार, खाना-पीना छोड़ देना, पषु द्वारा लंगड़ा कर चलना, संक्रमित पषु के दूध उत्पादन एवं कार्य करने की क्षमता में कमी हो जाना इत्यादि लक्षण दिखाई पड़ता हैं । ब्लू टंग के प्रकोप के कारण 06 मिलियन अमेरिकी डाॅलर का हानि एक षोध में उल्लेखित है और क्यूलिकोयडीस मक्खी के कारण 18.97 प्रतिषत दूध उत्पादन में कमी देखा गया है ;छंतसंकांत ंदक ैीपअचनरमए 2012द्ध।
टेबेनस मक्खी (घोड़ा मक्खी ) एक काटने वाला मक्खी हेै जिसके काटने से पषु को अत्याधिक दर्द होता है। जिसके फलस्वरूप प्रभावित पषु अषंात हो जाता है और अन्तोगत्वा इसका प्रभाव पषु के उत्पादन पर पड़ता है । एक षोध के द्वारा गणना किया गया है कि 24 टेबेनस मक्खीयों के झुंड के आक्रमण से संक्रमित पषु के षरीर भार में 0.08-0.10 किलोग्राम हानि प्रतिदिन होता है तथा आहार क्षमता में 16.9 प्रतिषत का कमी पाया गया है। टेबेनस मक्खी पषुओं में होनेवाले सर्रा रोग (ट्रिपेनोसोमियोसिस) के प्रसार में मदद करता हैं । भारत में इस रोग का प्रकोप सभी राज्यों में है, जिसके कारण पषुओं की उत्पादक क्षमता मंे प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से अत्याधिक कमी हो जाती है जिसके फलस्वरूप हमारे देष की पषुधन अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है । 2017 में प्रकाषित एक रिर्पोट के अनुसार सर्रा रोग के कारण अनुमानित वार्षिक नुकसान रू. 44740 मिलियन होता है।

ट्रिपेनोसोमा रक्त परजीवी

टेबेनस मक्खी
सिमुलियम (काला मक्खी ) के झुंड के हमले से पषु में गंभीर रूग्णता एवं मृत्युदर ;डपससंतए ंदक त्मउचमसए 1944द्ध एवं इस मक्खी के संक्रमण से संक्रमित पषु के दूध उत्पादन एवं ष्षारीहरक वृद्धि में 50 प्रतिषत की कमी देखी गई है ;थ्तमकममदए1956द्ध।
किलनी (टिक)

किलनी
किलनी एक वाह्यपरजीवी हैं, जो विष्व स्तर पर संक्रामक रोगजनकों के वाहक (वेक्टर) के रूप में मच्छरों के बाद दूसरा स्थान रखता है। किलनियों द्वारा बहुत सारे जीवाणु, विषाणु, रिकेटसिया तथा प्रोटोजोआ जनित रोगों का फैलाव होता है क्योंकि किलनियों इन सूक्ष्मजीवों के वाहक का कार्य करते हंै। पशुधन में किलनी एवं किलनी जनित बीमारियों से होने वाले आर्थिक नुकसान बहुत अधिक है । यह न केवल बीमारियों को संचारित करते हैं बल्कि पोषक को सीधे तौर पर नुकसान ( संक्रमित पषु में खून की कमी, टिक पैरालिसिस, टिक विषाक्तता, टिक चिंता आदि) भी पहुँचाते हैं जो पषुधन के उत्पादन में बाधा उत्पन्न करते हैं। किलनी और किलनी जनित रोग दुनिया के 80 प्रतिषत गायों की आबादी पर बहुत अधिक आर्थिक प्रभाव डालता है और इससे पशुधन के स्वास्थ्य और उत्पादन को व्यापक नुकसान होता है। किलनी और किलनी जनित बीमारियों के कारण पूरे विष्व में नुकसान का अनुमान 13.9 बिलियन अमेरिकी डाॅलर और सालाना 18.7 बिलियन अमेरिकी डाॅलर के बीच पाया गया हैं। भारत में 498.7 मिलियन अमेरिकी डाॅलर प्रतिवर्ष किलनी और किलनी जनित रोगों को नियंत्रित करने के लिए खर्च किया जाता है ;ळीवेी मज ंसए2007द्ध। भारत में किलनी जनित ट्राॅपिकल थलेरियोसिस रोग के कारण होने वाले नुकसान में अकेले लगभग 800 अमेरिकी डाॅलर मिलियन ;क्मअमदकतंए 1995द्ध, बेबेसियोसिस के कारण 57.2 मिलियन अमेरिकी डाॅलर ; डबस्मवक ंदक ज्ञतपेजरंदेवदए 1999द्ध और टिक चिंता के चलते 57 मिलियन अमेरिकी डाॅलर का दावा किया गया है। किलनी के संक्रमण के कारण 8.9 मिलिलिटर दूध एवं 01 ग्राम षरीर के वजन में कमी प्रति मादा किलनी के खून चूसने से प्रतिदिन होता है ;श्रवदेेवद मज ंस ए 1998द्ध।

इसलिए किलनी को नियंत्रित करने और उन्मूलन पर अधिक ध्यान देना चाहिए। इसके लिए किलनी विरोधी टिकें और दवाओं का उचित उपयोग किया जाना चाहिए ताकि पषु में किलनी जनित बीमारियों के वाहक अवस्था को पनपने न दिया जाए, जो किलनी जनित बीमारियों के फैलाने में काफी मददगार साबित होते हंै।

जूँ (लाउस)
जूँ एक अस्थायी बाह्यपरजीवी हंै जिसका संक्रमण प्रायः जाड़ें के मौसम में अधिक होता है । इसके संक्रमण के कारण संक्रमित पषु में खून की कमी, पषु का अषांत रहना, आहार ठीक से न ले पाना आदि के फलस्वरूप दुधारू पषुओं के दूध उत्पादन में कमी हो जाती है । वर्ष 1991 में प्रकाषित एक रिर्पोट के अनुसार, अमेरिकन गायों में जूँ के संक्रमण के कारण कुल वार्षिक नुकसान 126.3 मिलियन अमेरिकन डाॅलर पाया गया है।
माइट्स
माइटस एक स्थायी बाह्यपरजीवी है जो संक्रमित पषु के त्वचा के नीचे रहता है। माइटस के संक्रमण के कारण जो रोग होता है उसे मेंज कहते है । मेंज के कारण संक्रमित पषु में प्रायः खूजली एवं त्वचा झुरीदार हो जाता है। प्रायः खूजली के कारण संक्रमित डेयरी पषु ठीक से आहार ग्रहण नही कर पाता है जिससे पषु के षरीर में खून की कमी एवं कमजोर हो जाता है जिसके फलस्वरूप संक्रमित दुधारू पषु के दूध उत्पादन में कमी हो जाता है । एक प्रकाषित रिर्पोंट के अनुसार माइट्स के संक्रमण के पष्चात पषु के आहार रूपातंरण क्षमता में कमी एवं दुधारू पषु के दूध उत्पादन में 10-15 प्रतिषत की कमी देखा गया है ।
इस प्रकार प्रकाषित षोध पत्रों एवं रिर्पोटों से स्पष्ट प्रमाणित हेाता है कि बाह्य परजीवियों का डेयरी पषुओं के दूध उत्पादन पर अत्याधिक दुष्प्रभाव पड़ता है जिसके फलस्वरूप डेयरी व्यवसाय से जुड़े लोगों को आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ता है । अतः डेयरी फार्मिग केा लाभकारी एवं सफल बनाने हुेतु दुधारू पषुओं को बाह्य परजीवियों के संक्रमण से बचाने पर जोर देना चाहिए। बाह्य परजीवियों के संक्रमण के रोकथाम में रसायनिक कीटनाषक या एकेरिसाइड का प्रयोग घड़ल्ले से किया जा रहा है । लेकिन कीटनाषक दवाओं (साइपरमेथिन, डेल्टामेथ्रिन, मालाथीयोन, अमितराज, आइवरमेक्टिन आदि) का उपयोग हमेषा पषुचिकित्सक से सलाह लेकर करना चाहिए क्योंकि कीटनाषक दवा प्रायः जहरीला तथा बार-बार एक ही कीटनाषक दवा प्रयोग करने पर में बाहृ परजीवीयों में कीटनाषक या एकेरिसाइड दवा के विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है। इसलिए, बाहृ परजीवियों को प्रभावी रूप से नियंत्रित करने के लिए समयानुसार कीटनाषक या एकेरिसाइड दवा का बदलाव पषुचिकित्सक के परामर्ष के अनुसार एवं एकीकृत कीट प्रबंधन (आइ. पी. एम.) पद्धतियों, जो स्थानीय वातावरण के अनुकूल हो उसे अपनाना फायदेमंद साबित होता है। एकीकृत कीट प्रबंधन (आइ. पी एम.) एक पर्यावरण अनुकूल कीट नियंत्रण पद्धति हैं, जिसमें किफायती तरीके से पर्यायवरण एवं लोगों को कम से कम हानि पहुचाएं कीट का नियंत्रण किया जाता है । एकीकृत कीट प्रबंधन (आइ.पी एम.) में रसायनिक कीटनाषक, हर्बल कीटनाषक (नीम, तंबाकू का पौधा, करंज आदि), कीट विकास नियामक (जुवेनाइल हार्मोन, डायफ्लूबेनजूरोन आदि), कीट विकर्षक (डी.ई.ई.टी., डी.ई.पी.ए. आदि), जैविक नियंत्रण, इम्यूनोलोजिकल नियंत्रण (टीका का प्रयोग करके), आनुवंषिक नियंत्रण आदि विधि के द्वारा कीट का नियंत्रण किया जाता हैं । एकीकृत कीट प्रबंधन (आइ.पी एम.) का मुख्य उद्देषय यह है कि कीटों एवं पर्यावरण का प्रबंधन इस तरह से करें कि लागत, लाभ, सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण संतुलन में रहें ।
प्रकाषित षोध पत्रों एवं रिर्पोटों से यह निष्कर्ष निकलता है कि डेयरी पषुओं के दूध उत्पादन क्षमता पर परजीवियों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । अतः डेयरी व्यवसाय से जुड़े लोगों को सलाह हैं कि पषुओं को परजीवीयों के संक्रमण से बचाने हेतु किफायती एवं पर्यायवरण अनुकल परजीवी नियंत्रण पद्धति जैसे-हर्बल कुमिनाषक (नीम, लहसुन, तुलसी, पलास आदि) एवं कृमिनाषक दवा का रणनीति के अनुसार उपयोग तथा बाह्यपरजीवियो के नियंत्रण में एकीकृत कीट प्रबंधन (आइ.पी एम.) पर जोर देकर डेयरी व्यवसाय को अधिक लाभकारी एवं सफल बना सकते हैं ।

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डा. अजीत कुमार
ं विभागाध्यक्ष, परजीवी विज्ञान विभाग
बिहार पषुचिकित्सा महाविद्यालय, पटना
बिहार पषुविज्ञान विष्वविद्यालय, पटना-800014 (बिहार)

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